खाना
खाकर हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर
जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल
चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था ।
वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है
इसलिए ठंड ज्यादा लगती है ।
वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे
मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया
हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल
दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“
मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार
से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का
यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की
बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे
सो अलग ।“
“ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी
जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से
करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड
पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या
सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल
इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे
थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते
हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी
समझ में आ गया ।”
मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का
रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने
आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु
नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम
हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने
लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।
“चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक
मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं
नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो
असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह
सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म
के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता
है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“
मालवी भाषा पढ़कर रस ले रहे हैं जारी रखें रोचक है साथ में डॉ. वाकणकर को भी जानना अच्छा लग रहा है।
जवाब देंहटाएंpadh rahi hun niymit.
जवाब देंहटाएंमेरी समझ से हिन्दू और धर्म को यहाँ खींच कर लाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।
जवाब देंहटाएंआप का ब्लॉग लेखन वैसे भी बहुत अच्छा है और मुझे अति प्रिय है। इसको इस तरह के 'श्रृंगार' की आवश्यकता नहीं है।
शरद जी आप का तो पूरा आर्किव फुरसत में पढ़ना पड़ेगा। पुरातत्वशास्त्र में रुचि नहीं है पर प्राचीन भारत के इतिहास और संस्कृति में भारी रुचि है। और उस के लिए इसे जानना जरूरी है। कभी लगता है कहाँ वकालत में फँस गए।
जवाब देंहटाएंरक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!
Bahur sundar prastuti.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }