शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - नवां दिन -एक


 19 - गड़े खज़ाने पर कुण्डली मारे बैठा साँप  

            सुबह से ही हवाएँ कुछ तेज़ तेज़ बह रही थीं । चम्बल भी उनके ताल में ताल मिलाते हुए आज कुछ अधिक गति से गतिमान थीं और उसकी लहरें भी रोज़ की अपेक्षा आज कुछ अधिक ही हिलोरें ले रही थीं । घाट पर बैठकर मैं प्रशिक्षण शिविर में अद्यतन उपस्थिति का हिसाब करने लगा । मैंने रवींद्र से कहा " तुम्हें पता है शिविर में पहुँचने के दिन से अगर गिनती की शुरुआत करें तो उत्खनन शिविर में आज हमारा नौवाँ दिन है ?" " सही है.." रवींद्र ने कहा "इन नौ दिनों में जितने अनुभव हम लोगों ने प्राप्त कर लिए हैं  वे अद्भुत हैं । हर दिन हमारे जीवन में एक नया अनुभव लेकर आ रहा है  और हमें न केवल तकनीकी ज्ञान से बल्कि जीवन के विविध अनुभवों से भी समृद्ध कर रहा है ।" "यस बॉस, यू आर राईट " मैंने रवींद्र को अंगूठे से इशारा करते हुए कहा ।

            हम लोग नियत समय पर साईट पर पहुँच गए । राममिलन भैया हम लोगों से नाराज़ थे इसलिए वे हम लोगों से दूर दूर ही रह रहे थे  । नाश्ते के वक़्त भी उन्होंने हमारी सुप्रभात का उत्तर नहीं दिया । खैर ,ट्रेंच पर पहुँचकर हम लोगों ने खुदाई शुरु ही की थी कि जाने कहाँ से एक साँप घूमता हुआ आ गया और हमारी ट्रेंच में घुस गया । मजदूर लोग डर कर दूर खड़े हो गए । इन दिनों दक्षिण भारत की किसी युनिवर्सिटी से एक शोधकर्ता भी यहाँ  आया हुआ है, उसने आव देखा न ताव तुरंत वहाँ पड़ी हुई एक लाठी उठाई और साँप को मारने के लिए तत्पर हुआ ही था कि डॉ. वाकणकर ने उसे डाँट लगाई .. " ए मैन, क्या करते हो, यह साँप जहरीला थोड़े ही है .. और होता भी तो साँप को मारते हैं क्या ? ‘’ खैर हमने गढढे में फँसे उस बेचारे साँप को टहनियों की सहायता से किसी तरह टांग टूंग कर बाहर निकाला, बाहर निकालते ही वह झाड़ियों की ओर भागा और गुम हो गया  । अशोक ने कहा .. “ बेचारा .. सोच रहा होगा, कहाँ इन ज़हरीले आदमियों के बीच फंस गया ।"
  
            मैंने सर से पूछा .. ‘’ सर, आप कैसे पहचान जाते हैं साँप पायजनस है या नान पायजनस ? ‘’ सर ने कहा .. "भई, मुझे तो अब देख देख कर आदत हो गई है .. लेकिन यदि साँप काट भी ले और आप उसे काटते हुए न भी देख पायें तो उसके दंश से जाना जा सकता है कि वह पायजनस है या नान पायजनस । पायजनस साँप के दाँतों के निशान साफ दिखाई देते हैं यह दो गहरे बिन्दुओं की तरह होते हैं । नॉन पायजनस साँप के दांतों के निशान छोटे छोटे यू आकार के होते हैं । ‘’ लेकिन सर ये बैगा, ओझा, गुनिया लोग जो साँप का ज़हर उतारने का दावा करते है ....? ‘’ ‘’ अरे वो सब बेवकूफ बनाते हैं ।‘’ सर ने कहा .. "अव्वल तो वे दंश देखते है .. उन्हें ज्ञात होता है कि विषैले सांप के दांतों के निशान  कैसे होते हैं । यदि ज़हरीले साँप का दंश रहा तो मना कर देते है, तरह तरह के बहाने बनाते हैं, आज नहीं उतारुँगा, आज पूर्णिमा है, आज एकादशी है, गुरुवार है आदि कह कर .. और नानपायजनस रहा तो फिर बात ही क्या .. दो चार बार ज़हर उतारने का नाटक करते है और भोलेभाले ग्रामीणों से पैसा वसूलते हैं ।"
  
            ‘’ सर, ऐसा कहते हैं कि मंत्र से ज़हर उतर जाता है ? ‘’ अजय ने पूछा । सर हँसने लगे ” अरे पगले .. ज़हर होगा तभी ना उतरेगा .. नानपायजनस साँप में ज़हर होता ही नहीं है ।अब  ज़हर चढ़ेगा ही  नहीं तो उतरने का सवाल भी पैदा नहीं होता और साँप पायजनस रहा तो मंत्र पढो या सिनेमा का गीत गाओ एक ही बात है उनके बाप से भी नहीं उतरनेवाला .. उसके लिए तो विषरोधी इंजेक्शन ही लगाना ही पड़ेगा ।‘’ ‘’अच्छा ‘’ अजय ने कुछ इस तरह कहा जैसे उसे कोई गुरुमंत्र मिल गया हो ..‘’इसीलिए जब ये मान्त्रिक या बैगा लोग देख लेते हैं कि विषधारी साँप ने काटा  है तब ये बहाने बनाने लगते है .. या कहते हैं कि इसे अस्पताल ले जाओ ।" रवींद्र ने आगे कहा ‘’ या फिर कोई जिद्दी बैगा नाम कमाने में चक्कर में अपना जोर अजमाता है और तब तक देर हो जाती है और मरीज मर जाता है । ‘’

"सर लेकिन हमने तो अपनी आँखिन से देखा है .." राममिलन भैया भी सर्प सम्बन्धी सामान्य ज्ञान के मैदान में अपनी एक शंका लेकर उतर आये " कि कई बार जहरीले सांप के काटने के बाद भी ओझा लोग मरीज को बचा लेते हैं ?" सर मुस्कुराये .सवाल ज़रा टेढ़ा था ‘’बिलकुल हो सकता है .. अगर किसी मनुष्य को काटने के बस थोड़ी देर पहले ही ज़हरीले सांप ने किसी जानवर पर दंश किया हो अथवा किसी पत्थर या लकड़ी को काटा हो तो ऐसी स्थिति में उसकी ज़हर की थैली खाली हो जाती है अब इतनी जल्दी तो ज़हर बनने से रहा सो उस मनुष्य के प्राण बच  जाते हैं ।" "और पूरा क्रेडिट उस ओझा को मिल जाता है और अन्द्धविश्वास की जड़ें और मजबूत हो जाती हैं ।" अजय ने तपाक से कहा । सर ने प्रशंसा भाव से अजय की ओर देखा .."क्या करोगे भाई .. अपने देश से अंधविश्वास कब दूर होगा .. पता नहीं । जो भी हो, सांप को मारना नहीं चाहिए, सांप हमारे मित्र होते हैं, खेत में चूहों आदि को खाकर वे हमारी फसलों की रक्षा करते हैं ।"

            "हाँ सर, हमारे देश में तो नाग को देवता माना जाता है उसकी पूजा भी होती है ।" रवीन्द्र ने कहा .. "ख़ाक देवता माना जाता है, बस नागपंचमी के दिन पूजा होती है बाकी समय तो लठ्ठ लेकर उसके पीछे पड़े रहते  हैं । " अशोक  ने प्रतिवाद किया । अजय हमारी बैच का सबसे जिज्ञासु लड़का है । उसके मन में  एक सवाल गूँज रहा था । मौका देखकर उसने सर से पूछ लिया "सर यह नागों की पूजा कबसे हो रही है हमारे देश में ?" सर ने कहा भाई इसके पीछे बहुत सारी पौराणिक मान्यताएं हैं ।" हम समझ गए अब सर से कोई कहानी सुनने को मिलेगी सो हम लोग उनके करीब आ गए ।

            सर हम लोगों का इशारा समझ गए । उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा " विष्णु,शिव और ब्रह्मा इस त्रिमूर्ति में ब्रह्माजी को तो तुम लोग जानते ही होगे । उनकी मानस संतान थे दक्ष प्रजापति । दक्ष प्रजापति की दो कन्याएं थीं जिनका नाम था कद्रू और विनता । उसी तरह महर्षि कश्यप का नाम भी तुम लोगों ने सुना होगा । उनका विवाह दक्ष प्रजापति की इन्ही दो कन्याओं से हुआ  । विवाह के पश्चात प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप ने अपनी पत्नियों कद्रू और विनता से वर माँगने को कहा । विनता ने अपने लिए दो तेजस्वी पुत्रों की मांग की और कद्रू ने एक हज़ार नाग पुत्रों की ।"

            "सर मतलब यह उस ज़माने की बात है जब आशीर्वाद से बच्चे पैदा हो जाते थे ?" अजय ने बहुत भोलेपन से कहा । हम लोगों को उसकी बात पर जोर से हँसी आई । सर ने मुस्कुराते हुए कहा " भाई, यह कहानी है ,इसे कहानी की तरह ही सुनो, फालतू के तर्क मत करो ..हाँ तो इसके बाद कद्रू और विनता दोनों ने दो- दो अंडे दिए जिनमे कद्रू के अंडों से एक हज़ार नाग उत्पन्न हुए । विनता के अंडे काफी समय तक फूटे नहीं सो उसने अपने उतावलेपन में एक अंडा फोड़ डाला । उसमे से जो बच्चा पैदा हुआ उसके उपरी अंग तो विकसित थे किन्तु नीचे के अंग पूरी तरह विकसित नहीं हुए  थे । अतः उस बच्चे ने क्रोध में आकर अपनी माँ को शाप दे दिया कि तुमने मुझे विकसित होने का अवसर नहीं होने दिया सो तुम्हे पांच सौ वर्षों तक अपनी बहन की दासी बनकर रहना होगा । साथ ही उसने अपनी माँ को यह चेतावनी भी दी कि वह दूसरे अंडे को समय से पहले बिलकुल नहीं फोड़े इसलिए कि उससे जो बालक उत्पन्न होगा वह बहुत तेजस्वी होगा और वही अपनी माता को इस शाप से मुक्ति दिलाएगा । इतना कहकर वह बालक जिसका नाम अरुण था आकाश में उड़ गया और सूर्य का सारथी बन गया ।"

            आगे का कहानी पाठ हम लोगों की उत्सुकता पर अवलंबित था । सर ने एक नज़र हम लोगों के चेहरों पर डाली और वहाँ कौतुहल देखकर आगे कहा " अब  विनता जिसने समय से पूर्व अंडे फोड़ दिए थे अपनी बड़ी बहन कद्रू की  दासी कैसे बनी इसका भी एक किस्सा है । हुआ यह कि एक दिन विनता की नज़र उच्चै:श्रवा नामक घोड़े पर पड़ी । यह श्वेत अश्व समुद्र मंथन से निकला था । कद्रू और विनता में शर्त लगी कि घोड़े की पूँछ काली है अथवा सफ़ेद है । कद्रू ने विनता से कहा कि घोड़े की पूंछ काली है जबकि विनता ने कहा कि सफ़ेद है । विनता सही थी क्योंकि घोड़े की पूंछ का रंग सफ़ेद ही था लेकिन कद्रू ने छलपूर्वक शर्त जीतने के लिए अपने एक हज़ार नाग पुत्रों को आदेश दिया कि वे घोड़े की पूँछ से इस तरह लिपट जाए ताकि वह काली दिखने लगे । सो कुछ नागपुत्र पूँछ से लिपट गए । जो नहीं लिपटे उनके लिए उनकी माता कद्रू ने शाप दिया कि वे आगे जाकर जन्मेजय के यज्ञ में भस्म हो जायेंगे ।"

            "सर यह जन्मेजय वही है न अभिमन्यु का पोता और परीक्षित का पुत्र ?" अजय ने सवाल किया " हाँ" सर ने कहा " उसका किस्सा आगे है । इस तरह अनेक नागों के लिपट जाने की वज़ह से सफ़ेद घोड़े की पूँछ काली दिखाई देने लगी और छोटी बहन विनता को अपनी ही बड़ी बहन कद्रू से हार मानकर उसकी दासता स्वीकार करनी पड़ी । अब उस बात पर आते हैं कि विनता की शाप से मुक्ति कैसे हुई । विनता का वह पुत्र जो पूर्ण विकसित अंडे से निकला था उसका नाम गरुड़ था । एक दिन कद्रू ने गरुड़ से कहा कि तुम मेरी दासी विनता के पुत्र हो सो मेरे एक हज़ार पुत्रों को घुमाने ले जाओ । जब गरुड़ उन्हें घुमाने ले जा रहा था तब उसने अपने एक हज़ार भाइयों से कहा कि वे उसकी माता को अपनी माता के दासत्व से मुक्ति दिलाने में मदद करें । तब उन हज़ार सर्पों ने अपने भाई गरुड़ के सामने एक शर्त रखी और उस से कहा कि अगर वह उनके लिए अमृत ला देगा तो वे उसे दासता से मुक्त करवा देंगे ।

            "सर यह अमृत तो सागर मंथन से निकला था ना ?" रवींद्र ने कहा " हाँ उसी समुद्र मंथन के बाद की ही  यह कथा है, समुद्र से निकले घोड़े का भी उल्लेख आया है ना ।" सर ने कहा " अब अमृत तो इन्द्रादि देवताओं के पास था । गरुड़ बहुत शक्तिशाली था और उसने अमृत प्राप्त करने के लिए इंद्र से युद्ध किया और देवताओं को परास्त कर उनसे अमृत कलश ले लिया ।  लेकिन इंद्र ने कूटनीति पूर्वक गरुड़ से मित्रता कर ली  और उससे कहा कि वह  जिन नागों के लिए अमृत लेकर  जा रहा है वे बहुत ही दुष्ट हैं ।  गरुड़ ने कहा कि 'यह मुझे ज्ञात है लेकिन इसके बिना मेरी माँ को दासता से मुक्ति नहीं मिल पायेगी। ' यहाँ उनकी भेंट नारायण यानि विष्णु से होती है और विष्णु उन्हें अपने ध्वज में स्थापित कर लेते हैं । तत्पश्चात गरुड़ ने वह अमृत कलश सर्पों को सौंप दिया और उनकी माता विनता की दासता से मुक्ति हुई ।

            सर की इस कहानी में हमें मज़ा आ रहा था । वैसे भी पुराण कथाएँ चाहे किसी भी देश की हों रोचक तो होती ही हैं । सर ने आगे कहा "अब कद्रू के एक हज़ार सर्प पुत्रों में से शेषनाग अनंत, वासुकि और तक्षक बहुत प्रसिद्ध हुए । शेषनाग तो विष्णु के भक्त हैं और क्षीरसागर में उनके आसन को संभाले हुए हैं यही नहीं वे पृथ्वी को भी धारण किये हुए हैं । शेषनाग रामायण काल में राम के छोटे भाई लक्ष्मण बनते हैं और महाभारत काल में कृष्ण के बड़े भाई बलराम । उसी तरह वासुकि शिव के भक्त हैं सो शिव की गर्दन में लिपटे रहते हैं । अब बचे तक्षक जिन्हें सबसे ज़हरीला और खतरनाक माना जाता है । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तक्षक पाताल के आठ नागों में से एक था । उसने ही अभिमन्यु के पौत्र और जनमेजय के पिता परीक्षित को डसा था । जनमेजय  ने क्रुद्ध होकर सर्प यज्ञ किया जिसमें सर्पों की आहुति दी । तक्षक डरकर भागकर इंद्र की शरण में चला गया लेकिन जनमेजय  ने जब इंद्र को भी तक्षक के साथ भस्म करना चाहा तो उसने उसका साथ छोड़ दिया । परन्तु अंत में आस्तीक नाग की प्रार्थना पर उसे जीवनदान दे दिया । खैर यह एक अलग कथा है ।"

            "सर इस कहानी में कई गड़बडियां हैं ।" अशोक ने कहा " एक स्त्री बच्चे देती है वह अंडे कैसे दे सकती है?" इतना दिमाग़ क्यों लगा रहे हो भाई ? सर ने मुस्कुराते हुए कहा । " आख़िर यह भी और कहानियों जैसी काल्पनिक कहानी ही  है । और तुम बेहतर जानते हो कि यथार्थ और कल्पना में बहुत अंतर होता है  । लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि पौराणिक कहानियां भी उस समय के सामाजिक और राजनैतिक परिवेश को बताती हैं । विद्वानों के अनुसार प्राचीन भारत में असुर,गन्धर्व, राक्षस,यक्ष  की भांति तक्षक और नाग नाम की भी जातियाँ हुआ करती थीं । यह लोग अनार्य थे । कुछ लोगों ने इन्हें शक भी माना है । इन जातियों को पराजित करने और उन्हें अपना दास बनाने के बाद आर्यों ने यह कथाएँ गढ़ी थीं । ऐसा माना जाता है कि तक्षक जाति का महाभारत काल में बहुत प्रभुत्व था और सिकंदर के आगमन तक उनका राज्य काफी बढ़ चुका था । उनका टोटेम या गण चिन्ह भी सर्प ही था । परीक्षित की मृत्यु के बारे में यह कहा जाता है कि तक्षकों का परवर्ती पांडववंश के राजाओं या आर्यों के साथ युद्ध हुआ था । इस युद्ध में  परीक्षित मारे गए थे इसलिए उन्हें तक्षक द्वारा डसे जाने की कहानी गढ़ी गई । लेकिन बाद में फिर परीक्षित के पुत्र जनमेजय  ने तक्षक जाति पर आक्रमण कर उन्हें युद्ध में पराजित किया । सो इस बात को सर्प यज्ञ के रूप में वर्णित किया गया।"  

            "मतलब यह हुआ कि जब तक किसी बात को धर्म के आवरण में न प्रस्तुत किया जाए तब तक लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे ?" अशोक ने कहा।  "हाँ ऐसा तुम कह सकते हो ।" सर ने उसकी बात का जवाब देते हुए कहा  "इतिहास बोध तो अभी भी तमाम लोगों के भीतर नहीं है । अगर किसी घटना का प्रमाण भी उनके सामने रख दो तो वे विश्वास नहीं करेंगे बल्कि उसी बात को सत्य मानेंगे जो धर्मग्रंथ में लिखी है । अफ़सोस यह कि मात्र हमारे देश में ही ऐसा है जबकि  विश्व के अन्य कई विकसित देश अपनी पौराणिक कहानियों से मुक्त हो गए हैं और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं । हम अभी भी उन तमाम अविश्वसनीय बातों का कारण जाने बिना उन्हें सत्य घटना के रूप में निरुपित करते हुए  प्राचीन संस्कृति के नाम पर आपस में लड़ रहे हैं ।"

            ट्रेंच से साँप की विदाई के पश्चात काम फिर आगे बढ़ा । आज हमें रेत की लेयर के नीचे फ्लोर तक पहुँचना ही था । लेकिन मज़दूरों में काम के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाई दे रहा था । शायद वे साँप देखकर डर गए  थे । “ कईं व्ही गयो ? “ डॉ. वाकणकर ने उनकी असमंजसता देख कर उनसे पूछा । एक मज़दूर ने धीरे से कहा “ बासाब, यहाँ गड़ा हुआ खजाना तो नहीं है ? “ सर ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा ..” अरे तुम लोग कहीं यह तो नहीं समझ रहे हो कि यह खजाने वाला साँप था और अपने खजाने की रक्षा के लिए  यहाँ बैठा था ? “ मज़दूर बेचारे क्या कहते, वे तो सदियों से चली आ रही इस मान्यता के निरक्षर संवाहक थे । सर ने कहा “भई ज़मीन में गड़े खज़ाने की  रक्षा करने वाला साँप  होता है, यह सब मनगढ़ंत बातें हैं । उस ज़माने में बैंक तो होते नहीं थे सो लोग देशाटन पर जाते हुए कई बार अपना खजाना ज़मीन में गाड़  देते थे और चोरों से बचाने के लिए यह अफ़वाह फैला देते थे । या जो चोर लोग होते थे वे भी जनता में भय व्याप्त करने के लिए ऐसी अफवाहें फैलाया करते थे ।“

            फिर सर हम लोगों की ओर मुखातिब होकर बोले “ यही कारण है कि अपने देश में अभी भी ऐसी मान्यतायें व्याप्त हैं । एक बार की बात है, हम लोग एक साइट पर उत्खनन कर रहे थे, वहाँ गाँव वाले रोज़ आते थे और पूछते थे “ कईं बा साब सोणा खोदण वास्ते आया हो कईं ? “ एक गड़रिया बालक तो रोज़ आता था और घंटों खड़ा रहता था । रोज़ सुबह आते ही सबसे पहले वह पूछता “ कईं, सोणा मिल्यों कईं ? “ मैं ना में सर हिला देता तो वो फिर पूछता “फेर कईं मिल्यो ? “ तो मैं ये टूटी - फूटी पॉटरीज़ की ओर इशारा कर देता और कहता “ई मिल्यो है ” । तो वह बड़े लोगों की तरह सिर हिलाता और कहता .…” हूँ.. ठीकरो मिल्यो है । “ और फिर वह हँसता हुआ चला जाता । तो बेचारे इन गाँव वालों को क्या पता हम जिस दबे हुए इतिहास को खोदकर निकाल रहे हैं वह सोने से भी ज़्यादा कीमती है ।“

             “ सही है ।“ रवीन्द्र ने कहा “हम लोग जब शाम को दंगवाड़ा जाते हैं तो गाँव के लोग यही सवाल करते हैं कि गड़ा हुआ खजाना खोदने आये हो क्या । "रवींद्र ने दंगवाड़ा का नाम क्या लिया सर का ध्यान हम लोगों की शरारत की ओर चला गया । उन्हें शायद भाटी जी ने या आर्य साहब ने या ख़ुद राममिलन ने बता दिया था कि हम लोगों ने राम मिलन को  अगिया बेताल के नाम पर डराने की शरारत की है । उन्होंने तुरंत कहा “ अच्छा तो तुम लोग दंगवाड़ा इसीलिए जाते हो कि इस बापड़े को परेशान करो । वो तो अच्छा हुआ मैंने तुम लोगों की तरफ से इसे समझा दिया नहीं तो यह कल ही कैम्प छोड़कर जा रहा था । ऐसा मत किया करो भाई ..“ हम लोग क्या कहते, कहाँ हमें इससे अधिक डाँट खाने की उम्मीद थी लेकिन सर ने तो खुद ही हमें उबार लिया था ।
            फिर भी इतनी शर्म तो थी हम में थी कि आज  हमने दंगवाड़ा जाना स्थगित कर दिया  और समय बिताने के लिए  भाटीजी की भोजन शाला के इर्द-गिर्द मँडराते रहे । हम लोगों ने प्लानिंग की कि राम मिलन भैया को मस्का लगाया जाए  और उनकी नाराज़गी दूर की जाए  । राम मिलन भैया को उत्खनन के औज़ार फावड़ा, गैंती, घमेले वाले तम्बू से अपने तम्बू में भी वापस लाना था । उनके बगैर रात्रिकालीन सत्र में आनंद ही नहीं आ रहा था । यह सोचकर हम लोग उनके तम्बू में प्रवेश कर गये । हमने देखा कि वे काफी प्रसन्न मुद्रा में थे । उन्होंने एक खम्भे पर हनुमान जी की तस्वीर की स्थापना भी कर दी थी और पलंग पर बैठे हुए, मंकी कैप लगाये हनुमान चालीसा का पाठ करने में व्यस्त थे । हम लोगों के तम्बू में प्रवेश करते ही उन्होंने अपना पाठ बन्द कर दिया और खीझते हुए कहा “पता नहीं पिछले जनम में कउन से पाप किये थे जौने के लाने प्राचीन भारतीय इतिहास में  इम्मे करना पड़ा और यहाँ जंगल में मरने के लिए  आना पड़ा । “

            हम लोग सोचकर गए थे कि परसों  की घटना के लिए  राममिलन भैया से माफी मांगेंगे और ऐसी कोई बात नहीं करने का वादा करेंगे जिस से उन्हें  बुरा लगे । लेकिन इस से पहले कि हम कुछ कहते उनके ज़िगरी दुश्मन किशोरवा ने उन्हें  छेड़ दिया “ तुम पिछ्ले जनम में क्या थे पंडत ? “ राम मिलन ने कोई जवाब नहीं दिया तो किशोर का हौसला बढ़ गया .. “ ज़रूर बन्दर रहे होगे ।“ हमने तुरंत किशोर भैया को आँख से इशारा किया । अब तो राम मिलन इस बात पर उखड़ गए  ..” और तुम किशोरवा ज़रूर गधे रहे होगे या उल्लू या सुअर रहे होगे । “ अरे रे... राममिलन भैया काहे नाराज़ हो रहे हो…। “ किशोर ने तुरंत बात सम्भाली “ अरे हम तो इसलिए कह रहे थे कि तुम इतनी हनुमान चालीसा पढ़ते हो, बन्दर माने आखिर हनुमान जी के वंशज ही हुए ना ? बन्दर होना कौनों ख़राब बात है का ? हम सब के पूर्वज भी तो बन्दर थे । “

            हनुमान जी का नाम सुनकर राम मिलन थोड़े नर्म हुए और हँसने लगे । मैंने सोचा अब बात कुछ सम्भाली जाए  और माफ़ीनामा पेश कर ही दिया जाए  सो उनसे कहा “ राममिलन भैया, हम सब उस दिन की घटना के लिए शर्मिन्दा हैं, कृपया हमें क्षमा प्रदान करें और हमारे साथ पुनः तम्बू में आ जायें । आपके बिना हमारी महफिल सूनी है । और किशोरवा की बात का बुरा न मानें सही तो यह है कि  मनुष्य का कोई अगला या पिछला जन्म नहीं होता । कोशिकाओं से यह शरीर बनता है और कोशिकाओं के मरने के साथ ही मर जाता है । न उसमें कोई जीव होता है न कोई आत्मा ,न कोई दबी छुपी इच्छा शेष रहती है न कोई पाप पुण्य बचा रहता है । यह जो जीवन है बस एक बार का है । सो यह जीवन हमारे साथ बितायें ।"

            राममिलन भैया ने मेरी बात के जवाब में जो कहा उसकी मुझे क्या किसी को उम्मीद नहीं थी । वे बोले "भाई, हमका सब मालूम है, कोई अगला पिछला जनम नहीं न होता है, न कोई भूत-प्रेत होता है, हम भी कौनो भूत- प्रेत से नहीं डरते हैं ,अगर डरते होते तो बताओ हियाँ अकेले रात बिताते ? हम कोई तुम लोगन से गुस्सा -वुस्सा नहीं हैं ,सब हमरे छोटे भाई जैसन हो ।

            इससे पहले कि किशोर भैया कुछ कहते रवींद्र ने कहा “सही कह रहे हो भैया आप ..भूत- प्रेत होते तो क्या वे हमारी मदद को नहीं आते ? जाने कितने पुरातत्ववेत्ता मनुष्य का इतिहास खोजने के इस कार्य में अब तक अपनी जान गँवा चुके हैं क्या उनके भूतों को हम पर रहम नहीं आता ? सर जॉन मार्शल का भूत आ जाता और ट्रेंच क्रमांक एक की खुदाई कर देता, राखाल दास  बेनर्जी का भूत आ जाता और दुसरी ट्रेंच खोद डालता ,फिर राय बहादुर दयाराम साहनी का भूत आ जाता और एक और ट्रेंच खोद डालता । आखिर हम उन्हीं  का अतीत तो खोज रहे हैं । रात भर में वे ट्रेंच खोद देते, सुबह हम अवशेष बटोर लेते । फिर वे सब अवशेषों की सोर्टिंग कर देते और उन पर टैग लगा भी लगा देते । हमें इतनी मेहनत तो ना करनी पड़ती ।“

            मैंने देखा रवींद्र की बात सुनते हुए अजय अपनी बाईं हथेली फैलाकर दाहिने हाथ से उस पर पतंग का मांजा लपेटने का अभिनय कर रहा है । यह हम लोगों का एक संकेत है जिसका मतलब यह है कि जब कोई ज़्यादा ही फेंकने लगता है तो हम लोग इस तरह का अभिनय करते हैं ताकि सामने वाला समझ जाए कि अब इससे ज़्यादा गप्प नहीं सुनाई जा सकती । रवींद्र ने उसकी ओर प्यार भरे गुस्से से देखा और उसका इशारा समझ कर उसकी पीठ पर एक जमाई । "चलो भाई राम मिलनवा का सामान उठाओ ।" किशोर भैया का आदेश हुआ । हम लोगों ने तुरंत  राममिलन भैया का बोरिया बिस्तर लपेटा और उसे कंधे पर उठाकर 'हाथी घोड़ा पालकी' करते हुए उन्हें अपने तम्बू में वापस लाकर उनकी घर वापसी का कार्यक्रम संपन्न किया  ।



गुरुवार, 10 सितंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-हम्मुराबी

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-सातवाँ दिन –तीन
मतलब बैल और आदमी की कीमत एक बराबर ?
“हुआ यह कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पुरातत्ववेत्ताओं को काले पत्थर का ढाई मीटर ऊँचा एक स्तम्भ मिला जिस पर हम्मूराबी की यह कानून संहिता खुदी हुई थी । “ मैने बताया । “ अच्छा क्या लिखा था उस पर “ अजय ने पूछा । “ ऐसा है “ मैने कहा “ अब उसका पूरा पाठ तो मुझे याद नहीं है ,अपन लौटेंगे तो लायब्रेरी में देख लेंगे फिर भी उसकी मुख्य बातें जो मैने पढी हैं कुछ इस प्रकार हैं । जैसे,, मै हम्मूराबी ,देवताओं द्वारा नियुक्त शासक ,सभी राजाओं में प्रथम और फरात के तटीय क्षेत्रों का विजेता हूँ । मैने सम्पूर्ण राष्ट्र को सत्य एवं न्याय की शिक्षा प्रदान की है तथा लोगों को समृद्धता प्रदान की है ।“
मतलब हम्मूराबी की हिन्दी बहुत बढ़िया थी “ अजय ने तपाक से रियेक्ट किया । रवीन्द्र ने तत्काल अपने माथे पर हाथ पटका और कहा “ रहे ना तुम कोल्हू के बैल , अरे हम्मूराबी की विधि संहिता का यह हिन्दी अनुवाद है । हाँ शरद सुनाओ आगे क्या लिखा था । “ मैं तुरंत बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया और हम्मूराबी की मुद्रा बनाकर साभिनय कहना शुरू किया “ सुनो प्रजाजन .. आज से जो भी राजा की या मन्दिर की सम्पत्ति चुरायेगा उसे मृत्युदंड मिलेगा और जो चोरी का माल रखेगा उसे भी । मैने देखा सब को मज़ा आ रहा था । मैने आगे कहना शुरू किया “ जो दास या दासी चुरायेगा ,जो भागे हुए दास को शरण देगा उसे भी प्राणदंड मिलेगा । जो दास के शरीर पर लगा निशान मिटायेगा उसकी उंगलियाँ काट दी जायेंगी ।“
“ यह निशान वाला क्या चक्कर है यार “ अजय ने फिर बीच में टोक दिया । रवीन्द्र ने उसे जवाब दिया “ उस ज़माने में हर दास दासी के शरीर पर जलाकर या दागकर ऐसा निशान बना दिया जाता था जिससे उसके मालिक का पता चल जाता था । “ बाप रे.. बहुत यातनादायक होता होगा यह तो “ अजय ने कहा । “ हाँ “ मैने आगे बताना शुरू किया “ यही नहीं उस विधि संहिता में इससे भी कठोर दंडों का प्रावधान था ,जैसे जो पराये दास की हत्या करेगा उसे बदले में दास देना होगा और इसी तरह बैल के बदले में बैल । “मतलब बैल और आदमी की कीमत एक बराबर ? “ अजय ने सवाल किया । “अरे वा ! ” रवीन्द्र ने खुश होकर कहा “ यह किया तुमने आदमियों जैसा सवाल । “ हाँ “ मैने कहा “लेकिन सिर्फ दास ही थे जिन्हे मनुष्य नहीं माना जाता था । यह वर्गभेद इतन अधिक था कि जो अपने से उच्च वर्ग के या सभ्रांत वर्ग के या पुरोहित वर्ग के किसी व्यक्ति को गलती से भी थप्पड़ मार दे तो उसे बैल के चमड़े से बने हंटर से साठ कोड़े लगाये जाते थे । इसी वज़ह से लोग अपने पत्नी बच्चों सहित सभ्रांत वर्ग की गुलामी किया करते थे ।
“ बड़ी भयानक बात बताई यार तुमने” रवीन्द्र ने कहा । “ मुझे तो आज नीन्द नहीं आनेवाली । “ “ चुपचाप सो जाओ “ मैने कहा “ हमारे देश में इस से भी भयानक बातें घटित होती हैं नींद उड़ाने वाली ।


( हमारे देश में आज भी श्रम कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं । आपको होटलों , पंचर की दुकानों, मिस्त्रियों आदि की दुकानों से लेकर बड़े बड़े संस्थानों ,कारखानों में लगे नोटिस के बावज़ूद 14 साल से कम उम्र के बच्चे काम करते मिल जायेंगे , यह शोषण कहाँ कहाँ है आप खुद जानते हैं लेकिन क्या आपने कभी इसके खिलाफ आवाज़ उठाने के बारे में सोचा है ?- शरद कोकास )

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-मेसोपोटामिया


  एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-सातवाँ दिन –दो
मिस्त्र की हसीना का कोई किस्सा सुनाओ यार
            आज रात बिस्तर में घुसते ही रवीन्द्र ने सवाल किया “ यार तैने बहुत दिनो से कोई किस्सा कहानी नहीं सुनाया है क्या बात है ? “ मैने कहा “ नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है ,हम लोग तो खुद ही नये किस्से गढ़ने में लगे थे सो छूट गया होगा ,खैर सुनाता हूँ ,बताओ अपने देश का किस्सा सुनोगे या फॉरेन का । अजय मिस्त्र मेसोपोटामिया यूनान आदि को फॉरेन कहता था ,तुरंत बोला “ मिस्त्र की हसीना का कोई किस्सा विस्सा सुनाओ यार ।“ मैने कहा ..” बेटा भाभी को पता चलेगा कि तू अभी भी हसीनाओं के किस्सों में दिलचस्पी लेता है तो तेरा किस्सा बना देगी ।“ अजय बोला “ तो क्या हुआ सिर्फ किस्से ही तो सुनता हूँ ।“
खैर चलो आज मैं तुम लोगों को हम्मूराबी की कहानी सुनाता हूँ ।“ इससे पहले कि अजय नाक भौं सिकोडे मैने बखान शुरू कर दिया “ यह तो तुम लोग जानते ही होगे कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व के अंत तक मेसोपोटामिया में राज्यों की स्थापना हो चुकी थी और फरात व दज़ला नदियाँ जहाँ करीब आ जाती हैं वहाँ बेबीलोन नगर बस चुका था । यह एक बड़ा व्यापारिक नगर था जहाँ बड़ी बड़ी मंडियाँ और गोदाम थे । इस बेबीलोन नगर में 1792 ईसापूर्व में हम्मूराबी नामका एक शासक हुआ जिसने 1750 ईसापूर्व तक शासन किया ।
बेबीलोन में अपार सम्पदा थी और हम्मूराबी के पास विशाल सेना । हम्मूराबी एक एक कर आसपास के राज्य हस्तगत करता गया । अपने आप को वह देवता समझता था और इस बात का उसे बहत गर्व था । उसने अपनी प्रजा के लिये एक कानून सन्हिता बनाई थी जो इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है । “ अच्छा ऐसा क्या था इस संहिता में ? “  रवीन्द्र ने पूछा । मैने बताया “  इस संहिता में सरकारी अधिकारियों के पास असीमित अधिकारों की व्याख्या थी । वे इसी संहिता के अनुसार राज्य के नागरिकों के आपसी झगड़ों का निपटारा करते थे और राजाज्ञा का उलंघन करने वालों को कठोर दंड दिया करते थे ।
“ मतलब हमारे यहाँ के सरकारी अधिकारियों जैसे थे । “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट दिया । “ नहीं भाई हमारे सरकारी अधिकारी उनके आगे कहाँ लगते हैं ।“ मैने कहा “ हमारे यहाँ तो जनतंत्र है और उस समय राजतंत्र था । राजतंत्र में राजा की ताना शाही आम बात है । “ “ लेकिन हमारे यहाँ भी तो सत्ताप्रमुख एक तरह से राजा ही होता है ना । “ अशोक ने कहा । रवीन्द्र ने बहस के बीच प्रवेश किया “ यह तो छोड़ो , ज़िले में कलेक्टर और गाँव में पटवारी तक राजा होता है । “ “ हाँ होता तो है “ मैने कहा लेकिन सबके ऊपर न्यायपालिक होती है और संविधान से ऊपर कुछ नहीं हो सकता । “ अजय बार बार हम लोगों का मुँह देख रहा था ऊब कर बोला “ अरे यार तुम लोग भी कहाँ की असंवैधानिक बहस में उलझ  गये , शरद तुम हम्मूराबी का किस्सा सुना रहे थे ना ? “
            “ हाँ भई “ मैने कहा “ लो आगे सुनो ।“ 
( सॉरी मिस्त्र की हसीना का किस्सा तो रह ही गया ,फिर कभी सुनाउंगा । फिलहाल यह मैप देखें, नये और हम्मूराबी के वक़्त के दो गूगल से  साभार और दो मेरे पास से , मेरा मानना है इतिहास पढ़ने के लिये यदि सामने नक्शा हो तो इतिहास जल्दी समझ में आता है -शरद कोकास )

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-आठवां दिन -दो

विगत दिनो मेरे अनेक नये मित्रों ने मेरे इस ब्लॉग पुरातत्ववेत्तापर दस्तक दी है । आप सभी को मैं अत्यंत विनम्रता पूर्वक यह जानकारी देना चाहता हूं कि मैने इस ब्लॉग की रचना वैज्ञानिक दृष्टि के विकास और इतिहास बोध निर्माण के लिये की है । इसमें मै सबसे पहले अपने उन दिनो की डायरी लिख रहा हूँ जब मै विक्रम विश्वविध्यालय उज्जैन में प्राचीन भारती इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व में स्नातकोत्तर का छात्र था । उन दिनो भारत के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता पद्मश्री डॉ. वि.श्री. वाकणकर ( जिन्हे भीमबैठका गुफाओं में शैल चित्रों की खोज का श्रेय प्राप्त है ) के निर्देशन मे इन्दोर के पास चम्बल के किनारे दंगवाड़ा नामक स्थान पर हम लोगों ने इस उत्खनन शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त किया था । उस शिविर की रोचक जानकारी मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । इसमें डॉ.वाकणकर द्वारा प्रदत्त इतिहास और पुरातत्व की ज्ञानवर्धक जानकारी तो है ही साथ साथ छात्र जीवन की मस्तियाँ भी शामिल हैं । एक अर्थ में पहलद्वारा प्रकाशित मेरी लम्बी कवितापुरातत्ववेत्ता की यह भूमिका भी है । यह दैनन्दिनी आपको अवश्य पसन्द आयेगी । निवेदन यह भी है कि यदि पिछली कड़ियाँ भी पढ़ेंगे ( जिसकी सुविधा साईड बार में 25 पूर्व पोस्ट वाले गैजेट में है) तो आपका यह आनन्द द्विगुणित हो जायेगा । आपका –शरद कोकास


इस  घटना से राममिलन भैया अत्यंत दुखी हो गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि अब वे एक पल भी इस कैम्प में नहीं रहना चाहते । डॉ. आर्य के आगे जैसे ही हमने अपने उद्दंडता पुराण का पाठ किया उन्होंने बहुत गम्भीरता से कहा “ देखो भाई ,लगता है पंडित बहुत डर गया है, अब उसे और ज़्यादा परेशान मत करो वरना वह कैम्प छोड़कर चल देगा और बात सर तक पहँच जाएगी तो बहुत मुश्किल हो जाएगी ।“ डॉ.वाकणकर कुछ देर पूर्व ही किसी कार्यवश उज्जैन के लिए निकल गए थे । हमने सोचा जब तक वे वापस आएँ तब तक तो मज़ा लिया ही जा सकता है, उसके बाद हम लोग राममिलन भैया से माफ़ी-वाफी मांग लेंगे और उन्हें प्रसन्न कर लेंगे, वैसे भी इतने सह्रदय हैं कि बुरा नहीं मानेंगे । सो हमने डॉ. आर्य को भी मनाकर अपनी शरारत कम्पनी  में शामिल कर लिया ।

            राममिलन भैया चूँकि हम लोगों से सख्त नाराज़ हो गये थे इसलिए उन्होंने बाहर आकर घोषणा की कि वे हम लोगों के साथ टेंट में रात नहीं बिताएंगे सो वे तुरंत अपना बिस्तर हम लोगों के टेंट से उठाकर ले गए और अवशेषों वाले तम्बू में शिफ्ट हो गए । भोजन करते वक़्त भी राममिलन भैया हम लोगों से रूठे रूठे रहे और चुपचाप अपना भोजन ग्रहण करने के उपरान्त बिना कुछ बोले जाने लगे । किशोर भैया ने उन्हें छेड़ते हुए कहा " देखना भैया, अच्छे से सोना, उस तम्बू के ठीक ऊपर एक बरगद का पेड़ है कोई कह रहा था कि उस पर भी एक हज़ार साल से कोई जिन्न रहता है ।"

            भोजन के बाद हम लोग धीरे से दबे पांव राममिलन भैया के टेंट की और गए लेकिन उन्होंने पर्दे की डोरियाँ बाँध रखी थीं और भीतर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा था । किशोर भैया ने धीरे से एक दरार से झांककर देखा राममिलन भैया एक निवार वाले पलंग पर बैठे हुए थे और कुछ पढ़ रहे थे । वे हमारे पास आये और कहा "क्या ख्याल है जिन्न की आवाज़ निकाली जाए ?" मैंने उन्हें टालने के हिसाब से कहा " किशोर भाई अभी तो वो जाग रहे हैं सब समझ जायेंगे , जब सो जायें तब डराना ।" मुझे इस बात का आभास था कि अगर बात हद से बाहर चली गई तो मुश्किल हो जायेगी ।

             फिर हम लोग अपने तम्बू में आ गए । रात  के किस्सों में बस राममिलन भैया के ही किस्से शामिल थे । अशोक ने कहा " पता है अपने राममिलनवा एक बार पुलिस के सिपाही को धौंस देकर आ गए थे । " अरे.. अरे क्या हुआ था ?" अजय ने अपनी गर्दन सामने की ओर बढ़ाते  हुए कहा । " हुआ यह कि .." अशोक ने बताना शुरू किया " अपना वह जूनियर नहीं है ..क्या नाम है उसका पटेल ,उसे अपनी साइकिल के पीछे बिठाकर राममिलन भाई कंठाल के पास से कहीं गुजर रहे थे । ग़लती से वे रांग साइड कहीं घुस गए । सामने ही ट्रेफिक का सिपाही था उसने इनकी साइकिल का हैंडल पकड़ लिया और कहा " रांग साइड कहाँ घुसते हो ?" राममिलन भैया का रौब तो उनके कपड़ों से ही जाहिर होता है , चुस्त पैंट वह भी कड़क क्रीज वाली, करीने से इन की हुई शर्ट ,चमचमाता हुआ चमड़े का जूता और आँखों पर गोगल्स । वे सीधे खड़े हो गए और कहा " हमका चीन्हे नहीं हो लगता । फिर डांटने के अंदाज़ में कड़कती हुई आवाज़ में उस सिपाही से कहा .. ए यू पुलिस मैन ..आई ऑफिसर ..टू द हेड मास्टर आई बेग टू से दैट आई ऍम सफरिंग फ्रॉम फीवर सिंस लास्ट नाईट काइंडली ग्रैंट मी थ्री डेज़ लीव ,अंडरस्टैंड यू ट्रेफिक मैन रोड साइड ... बस पुलिसवाले ने उनकी यह भयानक अंग्रेज़ी सुनकर उन्हें सलूट मारा और कहा .. ठीक है सर.. जाइए ।" उसके बाद हँसते हँसते ही हम लोग सो गए ।

            बहरहाल आज की सुबह अन्य दिनों की भांति ही हुई । आज हमारा यहाँ आठवां दिन है । डॉ.वाकणकर कल शाम ही उज्जैन निकल गए थे और आज शाम तक लौटने वाले थे । उनकी अनुपस्थिति में आर्य सर के मार्गदर्शन में हम लोगों ने हमें स्वतन्त्र रूप से सौंपी हुई ट्रेंच क्रमांक चार पर स्वतंत्र रूप से कार्य प्रारंभ किया । आज हमने पुन: 'पेग क्रमांक दो' से प्रारम्भ कर दक्षिण की ओर दो मीटर के वर्गाकार टुकड़े में खुदाई की । डॉ.वाकणकर की अनुपस्थिति और आर्य साहब की हमारी ट्रेंच पर निरंतर उपस्थिति की वज़ह से आज मुख्य ट्रेंच पर काम बंद था । वहाँ के सारे मज़दूर भी आदेशानुसार हमारी ट्रेंच पर पहुँच चुके थे इसलिए काम बहुत तेज़ी से हुआ । दोपहर तक हम लोग उत्खनन करते हुए 1.35 मीटर तक पहुँच चुके थे । हम लोगों के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी ।

            आज हमने सबसे ऊपरी सतह से अर्थात पहले स्तर से कार्य प्रारंभ किया था । आधे मीटर नीचे उतरने के बाद दूसरे स्तर पर हमें दस सेंटीमीटर मोटी रेत की एक परत मिली । हमने डॉ.वाकणकर को दिखाने के उद्देश्य से रेत की उस परत को यथावत रखकर उसके साइड में खोदना प्रारंभ किया । इसके पश्चात और गहराई में उतरने पर तीसरे स्तर पर ईट का बना एक फ्लोर प्राप्त हुआ । इस तरह अब हमारे सामने सीढ़ीनुमा तीन सतह थीं सबसे ऊपरी सतह पर मिट्टी, फिर दूसरी सतह पर भी मिटटी लेकिन उसके नीचे रेत और तीसरी सतह पर ईटों का बना फ्लोर ।

            इस फ्लोर को स्पष्ट रूप से प्राप्त करने के लिए  हमने बाईं ओर इसका विस्तार किया अर्थात बाईं ओर थोड़ी खुदाई और की । ज़मीन के इतने नीचे रेत की परत देखकर हम लोगों को आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके ऊपर के दो स्तरों में सिर्फ मिटटी थी । हम सोच में पड़ गए कि इतने नीचे रेत कैसे पहुँची होगी ?

            रेत की परत के विषय में बताते हुए डॉ.आर्य ने कहा " तीसरे स्तर पर जो ईटों का फ्लोर है वह किसी बस्ती का प्रतीक है । हो सकता है उस समय नदी की बाढ़ यहाँ तक आई हो और उसमें यह बस्ती डूब गई हो ,यह रेत की सतह उसी वज़ह से है, लेकिन अगर यह इसी स्तर पर काफी दूर तक मिलेगी तभी यह कन्फर्म होगा अन्यथा यह किसी के द्वारा इकठ्ठा की गई रेत भी हो सकती है । उसके ऊपर की सतह पर मिटटी होने का अर्थ है कि बाढ़ के बाद जब कई बरस बीत गए और यह ज़मीन गाद मिटटी आदि से पट गई उस पर फिर से नई बस्ती बस गई ।"

            शाम का काम समाप्त होने से पूर्व डॉ.वाकणकर  शिविर पहुँच चुके थे । मुख्य ट्रेंच देखने के बाद वे हमारी प्रशिक्षण ट्रेंच पर आये । सबसे पहले उन्होंने तीसरे स्तर पर प्राप्त ईटों की इस फ्लोर का अवलोकन किया। हम लोगों ने उनसे रेत की उस सतह के विषय में भी पूछा । काफी देर तक अवलोकन करने के पश्चात उन्होंने कहा " यह ईटों का फ्लोर किसी ताम्राश्मयुगीन मकान का हिस्सा लगता है जो किसी आक्रमण, अग्निकांड अथवा बाढ़ के फलस्वरूप नष्ट हुआ है । केवल रेत के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सभ्यता बाढ़ की वज़ह से नष्ट हुई होगी । यह भी केवल अभी अनुमान है । अभी हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच रहे हैं । उत्खनन के विस्तार में जाने पर ही यह तय हो सकेगा कि वास्तविक कारण क्या था ।"  

            सर द्वारा प्रदत्त इस जानकारी ने हमें उत्साह से भर दिया । हमें याद आया कि हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो में भी खुदाई के दौरान इसी तरह पूरा का पूरा शहर निकला था । वहाँ उन अवशेषों के बीच खड़े पुरातत्ववेत्ताओं के छाया चित्र हम लोगों ने किताबों में छपे हुए देखे थे । हम लोग कल्पना करने लगे कि बस दो-तीन दिनों में हम भी यहाँ पूरा शहर ढूँढ निकालेंगे और फिर इन अवशेषों के बीच खड़े रहकर फोटो खिचवायेंगे । ग़नीमत कि डॉ वाकणकर से हम लोगों ने अपने इस शेखचिल्ली वाले ख़्वाब के बारे में कुछ नहीं कहा वर्ना वे उसी क्षण हमें डंटियाते हुए हमारा स्वप्न भंग कर देते ।

            यह बात तो हमें बहुत बाद में समझ आई कि किसी भी अवशेष की प्रारम्भिक अवस्था को देखकर उसके भविष्य के बारे में अटकलें नहीं लगाना चाहिये क्योंकि अनुमान गलत भी हो सकते हैं । बिना सम्पूर्ण प्रमाणों के केवल  पूर्वाग्रहों के आधार पर लिखा गया इतिहास हमेशा हमेशा के लिए  गलत मान्यताओं को स्थापित कर देता है । हमारे देश के इतिहास लेखन में कई बार ऐसा हुआ है जब यथार्थ से अधिक अनुमान या कल्पना को स्थान दिया गया ।

            शिविर में वापस लौटते हुए हमने सर से सवाल किया "सर, लेकिन केवल अनुमान या कल्पना के आधार पर लोग इतिहास कैसे लिख देते हैं ? ' सर ने कहा "इसके अनेक कारण हो सकते हैं जैसे काम की जल्दबाज़ी, आधा अधूरा ज्ञान, पूर्वाग्रह, पुरस्कार या नाम हासिल कर लेने का लोभ या  सत्ता का दबाव आदि । हालाँकि कई बार पूरे प्रमाण मिलते ही नहीं हैं । इतिहासकारों में इस बात पर विवाद अब तक जारी है कि ऐसी स्थिति में निष्कर्ष पर मुहर लगानी चाहिए या नहीं ।" जो भी हो आज साईट से लौटते समय हम लोग बहुत उत्साह में थे । ऐसा लग रहा था जैसे हमारा आना सार्थक हो गया है । इस खुशी में आज हम लोग फिर एक बार सिटी का चक्कर लगा आए  । हाँ ..आज राम मिलन भैया हमारे साथ नहीं गए