गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन - दस


 एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन - दस 
खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर खून की बूँदे चुग रही है
            नाश्ते के बाद हम लोग टीले पर पहुंच गये ..बहुत बड़ा टीला और बीच में ट्रेंच । अशोक ने कहा  “ यह बिलकुल हमारे उज्जैन में जो पहलवानी के अखाड़े है उसकी तरह दिखाई दे रहा है .. अगर इसमे  मिट्टी डाल दी जाये तो यह कुश्ती के काम आ सकता है । “ रवीन्द्र के दिमाग़ मे अभी तक रोम के एम्फिथियेटर अखाड़े घूम रहे थे ..उसने पूछा .” शरद उन अखाड़ों में भी ऐसी ही मिट्टी होती थी क्या ? “ मैने कहा “ नहीं उनमे रेत होती थी क्योंकि सूर्य की रोशनी में रेत पर खून की चमकती हुई बून्दे अद्भुत दृश्य उपस्थित करती थीं जिन्हे देख कर रोम के अय्याश लोगों को बहुत मज़ा आता था ।पहले यहाँ शेर से मनुष्य को लड़वाया जाता था लेकिन जब उन्माद बढा तो मनुष्य को मनुष्य से लड़वाया जाने लगा ।“
            रवीन्द्र ने कहा “ कैसे होती थी ग्लेडियेटर्स की यह लड़ाई ?” मैने कहा चलो तुम्हे वहाँ का दृश्य दिखाता हूँ । जिस तरह हमारे यहाँ स्टेडियम होता है उस तरह का होता था यह एम्फिथियेटर बीच में यह अखाड़ा जिसे एरीना कहते हैं । जिस तरह क्रिकेट देखने के लिये भीड़ इकठ्ठा होती है उस तरह की भीड़ यहाँ उपस्थित है । ठीक वैसा ही उन्माद .. शोर । साइड की दीवार  के पास एक शेड है जहाँ ग्लेडियेटर के जोड़े लड़ने के लिये प्रतीक्षारत  हैं उसके दरवाजे से एरीना का दृश्य देखा जा सकता है । मैदान के एक ओर गाने और बजाने वालों का एक समूह बैठा है जब तक लड़ाई शुरू नहीं हो जाती यह वाद्य्यंत्रों से लोगों का मनोरंजन करता रहेगा । हर जोड़े में एक थ्रेसियन है और एक यहूदी या हब्शी अफ्रिका का रहने वाला । जोड़े के दोनो ग्लेडियेटर आपस में घर परिवार की बाते कर रहे हैं जबकि उन्हे पता है कि उनमें से एक को थोड़ी देर बाद मर जाना है ।
पहला जोड़ा एरीना में दाखिल हुआ । उन्होने अपने छुरे की मूठ को रेत से रगड़ा ,अखाड़े के उस्ताद ने अपनी चान्दी की सीटी बजाई और दोनो ग्लेडियेटर आपस में भिड़ गये । एक का छुरा चमका और दूसरे के सीने पर खून की एक लकीर खींच गई । रोमन दर्शकों ने तालियाँ बजाईं । फिर दोनों एक दूसरे से गुंथ गये जैसे उनमे बरसों पुरानी दुश्मनी हो । एक की बाँह में दूसरे का छुरा धंस गया रक्त  की एक धार निकली और रेत पर बिखर गई । वह धरती पर गिर पड़ा ,फिर लड़खड़ाता हुआ उठ खड़ा हुआ और अपने भाले से उसने दूसरे ग्लेडियेटर पर वार किया । उसका चेहरा रक्त में डूब गया ।
“बस कर यार तू तो ऐसे वर्णन कर रहा है जैसे फ्रीगंज चौराहे पर दो दादाओं की लड़ाई हो रही हो ।“ अशोक बोला । ’नहीं ऐसा नहीं है “ मैने कहा दादाओं की लड़ाई आपसी  दुश्मनी को लेकर होती है , ज़मीन को लेकर, स्त्री को लेकर , वर्चस्व को लेकर या पैसे को लेकर ।“ “ और आजकल धर्म को लेकर “ अजय ने बीच में पुछल्ला जोड़ा । “लेकिन इन ग्लेडियेटर्स की तो आपस में कोई दुश्मनी नहीं है ये धनाढ्य लोगों के मनोरंजन के लिये एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं । मैने कहा “ देखो उन में से एक ज़मीन पर गिर गया है ..खून से दोनो के जिस्म तरबतर हैं .. इधर देखने वाले लोग उन्माद से पागल हो रहे हैं मार डालो काट डालो की आवाज़ें गूंज रही हैं .. खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर गिरी खून की बून्दे चुग रही है ।
दोनो को रुका हुआ देख कर एक चाबुक लिये उस्ताद वहाँ आ गया है और दोनो की पीठ पर कोड़े बरसा रहा है ..” लड़ बे हरामज़ादे , रुक क्यों गया ?” लड़ लड़..लड़...मार डाल साले को काट डाल ..”। अगला क्या करे उसमें तो उठने की ताकत ही नहीं है । अचानक सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए सम्राट की ओर से एक फरमान गूंजता है ..एक हाथ हवा में उठता है और अंगूठा नीचे झुक जाता है .. यह संकेत है ..हत्या का ।एक ग्लेडियेटर दोनो हाथ से अपना भाला उठाता है और नीचे पड़े हुए दूसरे ग्लेडियेटर के सीने में पूरी ताकत से घुसा देता है ।
एक सिपाही उस के पास पहुंचा ,उसे तसल्ली नहीं हुई वह मरा है या नहीं.. उसने अपनी कमर में बन्धा एक हथौड़ा निकाला और उसे उस ग्लेडियेटर की लाश की कनपटी पर दे मारा ..उसका भेजा चूर चूर हो गया और उसके कुछ टुकड़े हथौड़े पर चिपक गये ..सिपाही ने हथौड़ा उठाकर रोमनों का अभिवादन किया । इतने में एक और उस्ताद एक गधा लेकर वहाँ आ गया उसने लाश को एक ज़ंजीर से उस गधे से बान्ध दिया और मैदान के चक्कर लगने लगा पूरे मैदान में उस लाश से भेजे और शरीर के टुकड़े टूट टूट कर गिर रहे हैं । रोमन जनता आनन्द विभोर होकर हँस रही है, खिलखिला रही है, उन्माद में तालियाँ बजा रही है , सीटियाँ बजा रही है , नाच रही है ।
उस खूनी रेत को पलट दिया गया है और अगला जोड़ा फिर मौत के इस खूनी खेल के लिये तैयार है ।“ “बस ..बस कर यार “ रवीन्द्र चीखा “ बन्द कर तेरी यह रनिंग कमेंट्री ...बहुत हो गया ।“

          इस वीभत्स वर्णन के लिये मुझे क्षमा करें लेकिन ऐसा इतिहास में हुआ है जब एक गुलाम इंसान की जान की यही कीमत थी ..उस समय मानवाधिकार जैसी कोई चीज़ नहीं थी ..। आज हम इंसान की जान की कीमत जानते हैं फिर भी हत्याएँ होती हैं ,दंगों और दुर्घटनाओं में लोग मारे जाते हैं ..क्या हमने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है ? - शरद   कोकास ( सभी चित्र गूगल से साभार तथा वर्णन के लिये 'आदिविद्रोही ' के लेखक हावर्ड फास्ट के प्रति कृतज्ञता )    


सोमवार, 7 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन नौ

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22 -  जननांगों को ढँकने के लिए एक चिन्दी तक नहीं

            रात्रि भोजन के पश्चात रज़ाई में घुसते ही रवीन्द्र ने  कहा “ यार यह ठंड तो कम होने का नाम ही नहीं ले रही । “ ठण्ड तो मुझे भी लग रही थी लेकिन सुविधा की इस सांसद में मुझे विपक्ष की भूमिका अदा करनी थी  “ रज़ाई में घुसे हो और ठंड से डर रहे हो .." मैंने आव्हान के अंदाज़ में कहा .." ज़रा रोम के उन गुलामों के बारे में सोचो जिन्हें भीषण ठंड में भी कपडे का एक टुकड़ा तक नसीब नहीं होता था । “यार तू भी ना..." रवींद्र ने नाक चढ़ाते हुए तुरंत मेरी बात पर रिएक्ट किया" मिस्त्र मेसोपोटामिया, रोम, इटली से नीचे बात ही नहीं करता.. अपने इधर नई क्या ऐसा होता है ..बिहार में ही देख लो, रोज खबरें छपती हैं शीत लहर में इतने लोग मरे ।“

            रवीन्द्र सीधे वार्तालाप का विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर से उतारकर राष्ट्रीय स्तर पर ले आया । "भाई ।" मैंने अपनी प्रतिवादी की भूमिका जारी रखते हुए कहा " चलो भारत के बारे में ही बात की जाए । लेकिन तुम भारत जैसे स्वतन्त्र देश के वर्तमान की बात कर रहे हो । । हम इतिहास के विद्यार्थी हैं, एक नज़र उस दौर पर भी डाल लेते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वह स्वर्ण युग था । क्या उस समय लोग ठण्ड से नहीं मरते थे ?" रवीन्द्र को इस तरह मेरा उसे वर्तमान से अतीत में ले जाना नागवार गुजरा .."अब क्या पता मरते थे या नहीं, इस बात का कोई प्रमाण भी तो नहीं है ।" "ज़रूर मरते होंगे..अकाल से मरने के तो प्रमाण मिलते ही हैं अब विज्ञान की प्रगति हो रही है हो सकता है आगे चलकर किसी कंकाल के परीक्षण से यह भी ज्ञात हो जाए कि फलां आदमी ठण्ड की वज़ह से मरा था ।"

अजय ने मेरे पक्ष में अपनी बात रखते हुए कहा .."बिलकुल हो सकता है ग़रीबी तो उस समय भी रही होगी लेकिन स्वर्ण युग में शायद ही कोई मरता हो ।" मुझे अजय की बात का उत्तर तो देना ही था .." स्वर्णयुग जैसी कोई चीज़ सच में हुई है या नहीं किसको पता । वह राजतन्त्र का दौर था, सारे राजा अपनी प्रजा के सुखी होने का दावा करते हुए अपने आप का नाम इतिहास में लिखाए जाने के लिए तत्पर थे । लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे राजाओं के शासन में भी प्रजा की बहुत बुरी स्थिति थी । इतिहास में यह बात कहीं नहीं लिखी गई । गुलामों की स्थिति तो और भी बदतर थी । आज भी संपन्न देशों में कमोबेश यही स्थिति है ।"

            रवीन्द्र मेरी बात से कुछ कुछ सहमत होता प्रतीत हुआ  .." लेकिन विडम्बना यह है हमारे देश की ग़रीबी के बारे में तो सब जानते हैं, संपन्न देशों की ग़रीबी के बारे में कोई नहीं जानता । अमेरिका को ही देख लो ..क्या वहाँ भिखारी नहीं होते होंगे ? ब्रिटेन में क्या लोग ठण्ड से नहीं मरते होंगे ? और मरते तो साम्यवादी रूस में भी होंगे , लेकिन वहाँ से खबरें यहाँ कहाँ आ पाती हैं ।" "खबरें तो अमेरिका से भी नहीं आतीं ।" अशोक ने कहा  .."हमें सिर्फ वहाँ की सम्पन्नता का चित्र ही दिखाया जाता है, जबकि वे लोग जब भी यहाँ टूरिस्ट की तरह आते हैं तो हमारे यहाँ के भिखारियों की ,मदारियों की और साधुओं की फोटो खींचकर ले जाते हैं। हमारे यहाँ की छवि बिगाड़ने का काम इन्ही टूरिस्टों ने किया है ।"

            "यार लेकिन इन पर रोक लगाने का कोई तरीका भी तो नहीं है ।" किशोर ने सरकारी अंदाज़ में कहा । अशोक जैसे उसकी बात का जवाब देने को तत्पर बैठा था  "मगर रोक लगाने की ज़रूरत भी क्या है ? टूरिस्ट तो आयेंगे ही और आयेंगे तो पुरातात्विक महत्व की इमारतों के साथ साथ यहाँ के जनजीवन की फोटो भी खींचकर ले जायेंगे । उनके पास अत्याधुनिक कैमरे होते हैं । उन पर रोक कैसे लगा सकते हैं ? ऐसा कोई कानून नहीं है । फिर अपने साथ वे विदेशी मुद्रा लेकर आते हैं और सरकार को उनके आने से आमदनी भी होती है । कश्मीर जैसी जगह में तो वहाँ के निवासियों का गुज़ारा ही इन टूरिस्टों की वज़ह से होता है । पर्यटन उद्योग को तो बढ़ावा मिलना ही चाहिए ।"

            "अच्छा तुम रोम के गुलामों की बात कर रहे थे  ना जिन्होंने स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह किया था ? ” अजय हमारे पर्यटन मंत्रालय टाइप की बातचीत से बोर हो रहा था । “ हाँ ।“  मैंने कहा । अशोक बोला “ तो यार उसकी पूरी कहानी बताओ ना .. एक्चुअल में हुआ क्या था ? तुम तो बिना कैमरे के ही द्रश्य की फोटो खींचकर रख देते हो ।“ “हाँ, यह हुई ना बात ।“ अपनी तारीफ़ से प्रसन्न होकर मैंने कहा .."लेकिन कहानी ज़रा लम्बी है ।" "कोई बात नहीं ..जब तेरी इतनी लम्बी लम्बी कहानियाँ सुन ली तो यह भी सुन लेंगे । तेरी कहानी लम्बी ज़रूर होती है लेकिन उबाऊ नहीं । " अशोक ने किसी आलोचक के अंदाज़ में कहा। किस्सा सुनाने को तो मैं आतुर था ही । मैंने रजाई के भीतर अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली थी और किस्सागोई के मूड में आ गया था ।

            “ यह आज से दो हज़ार साल पहले सन इकहत्तर ईसापूर्व से भी पहले की बात है । रोम उन दिनों अपने उत्कर्ष पर था । बड़े बड़े धनाढ्य  लोग, सम्पन्न लोग, सत्ता के सुख के साथ जीवन का सुख भोग रहे थे । ढेर सारे मनोरंजन के साधन थे, खेलकूद थे,  हम्माम थे, अय्याशी के लिए औरतें थीं और उनकी सेवा के लिए  हज़ारों गुलाम थे । मनोरंजन के लिए वहाँ के अखाड़ों में कुश्ती तो सामान्य बात थी लेकिन उन दिनों अचानक कुछ ऐसा हुआ था कि सब इस खेल के दीवाने हो गए थे । कई अखाड़ों का निर्माण किया गया । इन अखाड़ों को एम्फिथियेटर कहा जाता था और इनमें ग्लेडियेटर्स को आपस में या खूंख्वार जंगली जानवरों जैसे शेर आदि से लड़ाया जाता था । इन अखाडों के मालिकों ने खदानों में काम करने वाले गुलामों को खरीद लिया था और उन्हें  प्रशिक्षण देकर ग्लेडियेटर बना दिया था ।"
                         
            “ लेकिन इतने सारे गुलाम आते कहाँ से थे ?” राममिलन भैया का यह स्वाभाविक प्रश्न था । “ बिलकुल सही पूछा राममिलन भैया ।“ मैंने कहा “प्राचीन मिस्त्र में थीव्ज़ के पास नूबियन रेगिस्तान है वहीं रेत के बीच सोना उगलने वाली कई खदानें हैं । प्रारंभ में यह सारे मिस्त्र के फराओं के गुलाम थे और सोने की खदानों में काम करते थे । जहाँ इन गुलामों की कई पीढ़ियाँ गुजर चुकी थीं । फराओं के पास यह गुलाम इस तरह आये कि शुरूआत में जब युद्ध होते थे वे सिपाही गुलाम बना लिए जाते थे  जो लड़ाई में मारे जाने से बच जाते थे । यह युद्धबंदी गुलाम तीन पीढ़ियों बाद कोरू कहलाये । मिस्त्र के फराओं का वैभव समाप्त हो जाने के बाद इन खदानों को रोम के धनाढ्य व्यापारियों ने खरीद लिया ।"

            "ये खदानें दरअसल नर्क से भी बदतर थीं । आओ मैं तुम्हें वहाँ का एक दृश्य दिखलाता हूँ . ..कल्पना करो ..  देखो.. वह देखो.. सौ से भी अधिक गुलाम एक कतार में चल रहे हैं .. एकदम नंगे.. गर्म रेत में घिसटते हुए पाँव लेकर ... उनकी गर्दन में एक पट्टा है जो काँसे का है और जो अगले गुलाम की गर्दन में बन्धे पट्टे के साथ एक ज़ंजीर से बन्धा हुआ है । बार बार उस पट्टे के गर्दन में टकराने की वज़ह से उसकी गर्दन में घाव हो गए  है और उनसे खून बह रहा है । अँधेरा गहराता जा रहा है और यह गुलाम दिन भर का काम ख़त्म करके अपनी बैरकों में लौट रहे हैं । एक बार भीतर घुस जाने के बाद उन्हें  बाहर आने की इज़ाज़त नहीं है । वे केवल मरकर ही बाहर आ सकते हैं ।

            "उफ़ ..क्या बेबसी है " रवींद्र ने कहा । मेरी आँखें तम्बू की छत की और देख रही थीं और मुझे वहाँ उन बैरकों का दृश्य दिखाई दे रहा था .."वे बैरकों की फर्श पर ही गन्दगी कर रहे है वहीं कहीं पहले का मल पड़ा हुआ है जो सड़कर सूख गया है । अभी थोड़ी देर में उन्हें  खाना दिया जाएगा ..गेहूँ और टिड्डी का शोरबा और एक मशक में एक सेर पानी जो उनकी भूख और प्यास के हिसाब से नाकाफी है .. उनका पानी ख़त्म हो चुका है ..वे और पानी मांग रहे हैं लेकिन उन्हें पानी नहीं दिया जा रहा है ।"

            "लेकिन पानी क्यों नहीं ?" अजय ने पूछा "खाना भले ही कम दें लेकिन पानी तो मिलना चाहिए !" "अरे मूरख " अशोक ने कहा " वह रेगिस्तान है ,वहाँ पानी तो भोजन से भी अधिक मूल्यवान है ।" " ठीक कह रहे हो तुम " मैंने कहा "जब पानी की कमी से उनका गुर्दा खराब हो जाएगा और वे श्रम करने लायक नहीं रहेंगे उन्हें बैरक से बाहर कर दिया जाएगा और रेगिस्तान में मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा । इन बैरकों में सड़ान्ध है, घुटन है, इतनी बदबू है कि खाया पिया सब बाहर आ जाए  ..लेकिन गुलाम इसे जज़्ब कर लेते है वे उल्टी आने के बावज़ूद भी उल्टी नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार उल्टी कर देने के बाद उनका पेट ख़ाली हो जाएगा और फिर उन्हें दिन भर भूखे रहना पड़ेगा । खाना भी सिर्फ इतना ही मिलेगा कि ज़िन्दा रहा जा सके । वे यह सोचते हुए कि  ज़िन्दा क्यों है, यह सर्द अन्धेरी रात काट देंगे ...।"
                                     
            मैंने एक नज़र अपने मित्रों के चेहरे पर डाली । मुझे कहीं भी उनके चेहरों पर जुगुप्सा का भाव नहीं दिखाई दिया । उनके चेहरे देखकर मुझे santosh हुआ और इस बात का अहसास हुआ कि किस तरह एक मनुष्य के दुःख की गाथा सुनकर दूसरा मनुष्य उस दुःख को महसूस कर सकता है । यह संवेदनशीलता ही उसे मनुष्य बनाती है । मैंने रोम के गुलामों के इस दुःख की गाथा को शब्द देने शुरू किये   "देखो अब नगाड़े बजने लगे हैं, यह उनके लिए अलार्म है..अब सबको ज़ंजीरों में बान्धकर खदानों की ओर ले जाया जाएगा । वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखकर घिसटते कदमों से चल पड़े हैं ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोच रहे हैं । खदान तक पहुँचकर  वे उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं ।

            "उफ़ , कितना कठिन है यह सुनना ।" अजय ने अपने कानों पर हाथ रखते हुए कहा  "हाँ । " मैंने कहा " गुलामों की जीवन गाथा सुनना कठिन तो है । सारे गुलाम पसीने से तरबतर हैं  महीनों से उन्हें नहाना नसीब नहीं हुआ है , अब वे चार घंटे बिना रुके काम करेंगे, जिसका हाथ क्षण भर के लिए भी रुकेगा उसे कोड़ों से पीटा जाएगा .. इस तरह  चार घंटे लगातार काम करने के बाद तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा, फिर उन्हें  ज़िन्दा रहने लायक थोड़ा सा खाना और पानी दिया जाएगा, जो जल्दी में गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पियें  तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...। जो युवा हैं वे तो सह लेंगे लेकिन बच्चों का क्या ..देखो अभी अभी सोलह साल के उस थके हारे बालक ने भूख-प्यास, ठंड और गर्मी के इस उतार-चढ़ाव से लड़ते हुए स्पार्टकस की गोद में दम तोड़ दिया  है । स्पार्टकस रोते हुए उसकी लाश को बेतहाशा चूम रहा है । ”

            "बस कर यार “ किशोर के चीखने से मैं होश में आया । “क्या सुना रहा है तू ... पूरी रात बरबाद कर दी..ऐसा भी होता है कभी ..इतना अत्याचार ..“ किशोर ने गांजे की सिगरेट जला ली थी और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कह रहा था .."ले एक सुट्टा लगा ले और वापस इस दुनिया में आजा .. बाकी कहानी कल सुनेंगे ।" मैंने कहा  “ रेन दे यार अपन तो वेसेई टनाटन्न रेते हें....।

            मेरी ख़ामोशी के पर्दे पर अभी भी उन निरीह गुलामों के चित्र उभर रहे थे । मैं काफी देर तक चुपचाप बैठा उन मनुष्यों के बारे में सोचता रहा । किशोर, अशोक, अजय सब नींद  के आगोश में जा चुके थे । मैं जाग रहा था और एकटक तम्बू की छत की ओर देख रहा था । मेरे साथ जाग रहा था मेरा अंतरंग मित्र रवीन्द्र जो मेरी मनस्थिति समझने की कोशिश में था । “यार रवीन्द्र, तूने पढ़ी है हावर्ड फास्ट की “ आदिविद्रोही ” ? अचानक मैंने रवीन्द्र से पूछा । रवीन्द्र ने कहा “ पढ़ी तो नहीं है लेकिन सुना जरूर है कि उसमें स्पार्टाकस के विद्रोह की कथा है ।“ मैंने कहा “ मैंने तो जिस दिन से पढ़ी है मेरी नींद ही उड़ गई है । कैसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है, अपने मनोरंजन के लिए  एक इंसान की दूसरे इंसान द्वारा हत्या करवाना ?"

            रवीन्द्र जानता था जब तक मेरे  भीतर की वेदना बाहर नहीं निकलेगी मुझे नींद नहीं आएगी । उसने पूछा “फिर उस सोने की खान के गुलामों के बीच से स्पार्टाकस बाहर कैसे आया और ग्लेडिएटर कैसे बना ? “  मुझे लगा उसकी आवाज़ कहीं दूर से आ रही है । हम मनुष्य इसीलिए कहलाते हैं कि हमें अपने आप को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है । लेकिन ऐसा क्यों होता है कि कई बार अपनी वेदना अभिव्यक्त करने से ज़्यादा छटपटाहट दूसरे की वेदना व्यक्त करते हुए  होती है  । शायद इसीलिए कि अपने दुख दूसरों के दुख की तुलना में गौण हो जाते हैं ? कभी कभी दूसरों के दुःख देखो तो लगता है अपने दुःख सिर्फ ओढ़े हुए दुःख हैं । आज मुझे लग रहा था कि स्पार्टाकस कहीं मेरे भीतर जीवित हो गया है और अपने दर्द को प्रकट करने के लिए  छटपटा रहा है ।

            मैंने कहना शुरू किया “ इन खदानों का पता जैसे ही अखाड़ों के मालिकों को पता चला, वे गुलामों को खरीदने के लिए इन खानों में पहुँचने लगे । ये लोग जैसे ही खानों में पहुँचते नग्न गुलाम इनके सामने प्रस्तुत किये जाते और ये लोग जिस तरह बैल या बकरे खरीदते है उस तरह इन्हें खरीदने वाले इनके शरीर के अंग टटोल टटोल कर इनका सौदा करते और इनकी कीमत लगाते । “ “ लेकिन ये गुलाम इस तरह बिकने के लिए  तैयार हो जाते थे ?" रवीन्द्र ने पूछा । “ तैयार..? “ मैंने कहा “ ज़िबह किये जाने वाले जानवर से भी कभी उसकी मर्ज़ी पूछी जाती है क्या । वैसे भी इन खदानों में इन  गुलामों की ज़िन्दगी साल या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल होती थी । खदान के मालिकों को उनके मरने से पहले उनकी कीमत मिल जाती थी । “ इतना कहकर मैं चुप हो गया । मुझे नींद नहीं आ रही थी लेकिन मैं कुछ कहना भी नहीं चाहता था ।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन - आठ

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     एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी ––दसवां दिन - आठ 
ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे – तुम्हारे जैसे इंसान
किशोर , अशोक ,अजय सब नींद  के आगोश में जा चुके थे । मैं जाग रहा था और एकटक तम्बू की छत की ओर देख  रहा था । मेरे साथ जाग रहा था मेरा अंतरंग मित्र रवीन्द्र जो मेरी मनस्थिति समझने की कोशिश में था । “ यार रवीन्द्र , तूने पढ़ी है हावर्ड फास्ट की “ आदिविद्रोही ” ? अचानक मैने रवीन्द्र से पूछा । रवीन्द्र ने कहा “ पढ़ी तो नहीं है लेकिन सुना  जरूर है कि उसमें स्पार्टाकस के विद्रोह की कथा है  ।“ मैने कहा “ मैने तो जिस दिन से पढ़ी है मेरी नींद ही उड़ गई है । कैसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है ,अपने मनोरंजन के लिये एक इंसान की दूसरे इंसान द्वारा हत्या करवाना ?
रवीन्द्र जानता था जब तक मेरे भीतर की वेदना बाहर नहीं निकलेगी मुझे नींद नहीं आयेगी । उसने पूछा “ फिर उस सोने की खान के गुलामों के बीच से स्पार्टाकस बाहर कैसे आया और ग्लेडिएटर कैसे बना ? “  “हाँ “ इतना सुनते ही मेरी आवाज़ फूट पड़ी ..। मुझे इस बात का अहसास था कि हम मनुष्य इसीलिये हैं कि हमें अपने आप को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है  । लेकिन ऐसा क्यों होता है कि कई बार अपनी वेदना अभिव्यक्त करने से ज़्यादा छटपटाहट दूसरे की वेदना व्यक्त करने के लिये होती है ..शायद इसीलिये कि अपने दुख दूसरों के दुख की तुलना में गौण हो जाते हैं ? आज मुझे लग रहा था  कि स्पार्टाकस कहीं मेरे भीतर जीवित हो गया है और अपने दर्द को प्रकट करने के लिये छटपटा रहा है ।
मैने कहना शुरू किया “ इन खदानों का पता जैसे ही अखाड़ों के मालिकों को पता चला ,वे गुलामों को खरीदने के लिये इन खानों में पहुंचने लगे । ये लोग जैसे ही खानो में पहुंचते नग्न गुलाम इनके सामने प्रस्तुत किये जाते और ये लोग जिस तरह बैल या बकरे खरीदते है उस तरह इनके शरीर के अंग टटोल टटोल कर इनका सौदा करते और इनकी कीमत लगाते । “
“ लेकिन ये गुलाम इस तरह बिकने के लिये तैयार हो जाते थे ? रवीन्द्र ने पूछा । “ तैयार..? “ मैने कहा “ज़िबह किये जाने वाले जानवर से भी कभी उसकी मर्ज़ी पूछी जाती है क्या । वैसे भी इन खदानों में इन गुलामों की ज़िन्दगी साल या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल होती थी । खदान के मालिकों को उनके मरने से पहले उनकी कीमत मिल जाती थी । “ इतना कहकर मै चुप हो गया ।
“क्या हो गया शरद ?” रवीन्द्र ने मुझे छत की ओर ताकते देख पूछा । मैने छत की ओर देखते हुए ही जवाब दिया ... “ देखो रवीन्द्र ..अखाड़ों के दलाल ,नूबिया की उस खदान में स्पार्टाकस को और अन्य गुलामों को खरीदने आये हैं । स्पार्टाकस और उसका एक थ्रेशियन साथी चुपचाप उनके सामने खड़े है ..नंग-धड़ंग ,दोनों की दाढ़ी बढ़ी हुई है , उनके शरीर पर अनगिनत ज़ख्म हैं जिनमें मवाद पड़ चुका है, देह पर चाबुकों के नीले निशान हैं , शरीर से इतनी भयानक बदबू उठ रही है कि  उल्टी हो जाये , शरीर का मैल और गन्दगी शरीर पर ही चिपकी हुई है और सूख गई है । उनके शरीर पर माँस नहीं है ,आँखें बाहर को निकली पड़ रही हैं . दलाल उनकी निरीह ,थकी हुई और निरर्थक जननेन्द्रियों को छूकर देख रहे हैं जैसे अन्दाज़ लगाना चाहते हों कि रोम के अखाड़ों में इन ग्लेडियेटर्स के प्रदर्शन से कितनी उत्तेजना फैलाई जा सकती है और कितना धन कमाया जा सकता है .. । ऊफ... मुझसे तो यह नहीं देखा जा रहा रवीन्द्र ..क्योंकि मुझे पता है ये एक या दो माह के बाद इस दुनिया मे नहीं रहेंगे इन्हे खिला पिलाकर मर जाने के लिये तैयार किया जायेगा इन्हे मरता देख रोम की यह अभिजात्यवर्गीय जनता खुश होगी ... । “ रवीन्द्र मुझे थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश करने लगा । उसने सिर्फ इतना कहा कि ..” मुझे भी बाज़ार में बिकते बकरों और मुर्गों को देख कर यही अनुभूति होती है ..। “
            “रवीन्द्र.......... “ मै अचानक ज़ोरों से चीखा “ ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे –तुम्हारे जैसे इंसान ,इनके पास भी वही सब कुछ है जो हमारे पास है ..और इनका कत्ल करने के इरादे से इन्हे खरीदने वाले भी इंसान है .. इंसान-इंसान में इतना भेद ? ” इसके बाद रवीन्द्र ने कुछ नहीं कहा वह तब तक मुझे थपकियाँ देता रहा ..जब तक मुझे नींद नहीं आ गई ।----- आपका - शरद कोकास 
(चित्र गूगल से साभार )