शनिवार, 8 सितंबर 2018

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - पन्द्रहवाँ दिन - एक -पनचक्की


पानी से चलने वाली चक्की    

बीबी का मकबरा औरंगाबाद 
उत्खनन शिविर में आये आज हमें पंद्रह दिन हो गए हैं । इन पंद्रह दिनों में मेहनतकशों के जीवन को बहुत क़रीब से जानने का अवसर हमें मिला है । मजदूरों से बातें करते हुए हमने उनके सुख-दुःख भी बांटे और जाना कि उनका जीवन बाहर से जैसा दिखाई देता है वास्तव में ऐसा नहीं है ।और लोगों की तरह हम भी यही समझते थे कि यह लोग खाते पीते मस्त रहते हैं और इन्हें कोई चिंता नहीं है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है । आम शहरी लोगों की तरह उन्हें सुविधाएँ हासिल नहीं हैं और वे बहुत कठिनाई से बहुत सीमित संसाधनों के साथ अपना जीवन व्यतीत करते हैं ।


  हम मध्यवर्गीय स्वयं को बहुत मेहनती और कार्यकुशल समझने के भ्रम में जीते हैं और सोचते हैं कि हम उतना ही श्रम कर लेंगे जितना कि श्रमिक करते हैं । लेकिन यदि एक दिन श्रमिक न आयें तो हमारा यह भ्रम टूट जाता है । साईट पर भी आज ऐसा ही कुछ हुआ । किसी कारणवश गाँव से आज अधिकांश श्रमिक नहीं आ पाये और उनकी अनुपस्थिति में मिटटी फेंकने और साफ़ सफ़ाई के कार्य भी हमें ही करने पड़े । शाम को ज्ञात हुआ कि हालत प्रतिदिन की अपेक्षा आज कुछ अधिक ही ख़राब है । शाम को चम्बल पर पहुँचकर हाथ-मुँह धोने तक अँधेरा होने लगा था सो हमने आज सिटी भ्रमण का कार्यक्रम स्थगित कर दिया और सन्ध्याकालीन भोजन भी शीघ्र ही ग्रहण कर लिया । आज शिवमंदिर की ओर टहलने जाने की भी मनस्थिति नहीं थी ।
एक पुरानी पनचक्की 

भोजनशाला में कुछ देर आर्य सर से गपियाने के उपरांत हम लोग अपने तम्बू में आ गए । थकावट कितनी भी हो बिना बतियाये हम लोगों को नींद नहीं आने वाली थी । नींद के महल में प्रवेश करने हेतु यह प्रवेश पत्र आवश्यक था । बिना किसीके कुछ कहे मैंने अपनी डायरी निकाली और कथावाचक की मुद्रा में बैठ गया । राममिलन भैया खाना पचाने के लिए अभी बाहर ही टहल रहे थे । किशोर ने तम्बू से बाहर सिर निकाला और ज़ोर से आवाज़ लगाई “ अरे ओ राममिलनवा, जल्दी आओ कथा शुरू हो रही है ।“ जैसे ही राममिलन भैया भीतर आकर बैठे मैंने
औरंगाबाद की पनचक्की 
डायरी पाठ प्रारम्भ कर दिया …

”बीबी का मकबरा देखने के बाद हमने वहीं परिसर में स्थित अन्य इमारतों का अवलोकन प्रारंभ किया । आगे उसी दौर की एक पनचक्की थी जो बरसों से बंद पड़ी थी । कहते हैं इसे सम्राट ने फ़कीरों के लिए  आटे का इन्तज़ाम करने के उद्देश्य से बनाया था । यह कभी पानी की ताकत से चलती थी , इसमें पानी के प्रवाह से एक चक्र को घुमाया जाता था उससे यह चक्की जुड़ी होती थी .पानी की ताकत को उस युग  में ही पहचान लिया गया था और इसी पहचान की वज़ह से आधुनिक युग में बिजली का जन्म हुआ । आज हम बगैर बिजली के इस दुनिया के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते । “

“ अच्छा इसीलिए हमारे गाँव में हमारी दादी अभी भी बिजली से चलने वाली चक्की को पनचक्की ही कहती हैं ।" राममिलन भैया ने चक्की के इतिहास को लोकपरम्परा से जोड़ते हुए कहा । “ बिलकुल सही ।" रवींद्र ने कहा । "यही कारण है कि हम अपने जीवन में इतिहास को इस तरह शामिल पाते हैं । हमारे जीवन में हमारे इर्दगिर्द आज जो भी वस्तुएँ है उनकी पूर्वज वस्तुएँ उसी तरह की हुआ करती थीं जैसे बिजली का पंखा, मेज़,चाकू, सीढ़ियाँ और भी बहुत कुछ । हर वस्तु में उसका इतिहास छुपा हुआ है । भले ही उनके नाम पूर्व में कुछ और रहे हों । इसीलिए ना हम उत्खनन कर आज की वस्तुओं की पूर्वज वस्तुओं को ढूँढ निकाल रहे है ताकि इन वस्तुओं के माध्यम से उस परम्परा की खोज कर सकें ।“

“ लेकिन इससे हो क्या जाएगा । परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है ।“ अजय विमर्श के मूड में था  “आज जो वस्तुएँ हम देख रहे हैं यह पुरातन वस्तुओं का परिवर्तित रूप ही तो है । कल इनका भी रूप परिवर्तन हो जाएगा और यह पहले से ज़्यादा सुविधाजनक हो जाएंगी । जैसे हाथ के पंखे के बाद, रस्सी से खेंचे जाने वाले पंखे का अविष्कार हुआ, फिर बिजली के पंखे का, फिर कूलर और फिर ए सी का । हमें जो भी परिवर्तन करना है वह वर्तमान में उपलब्ध वस्तुओं में करना है पुरातन वस्तुओं से इस परिवर्तन में क्या सहायता मिलने वाली है ? और इससे मानवजाति के विकास की प्रक्रिया में क्या अन्तर होने वाला है ?

“ वाह !“ रवीन्द्र ने कहा “अंतर कैसे नहीं होगा ? जब तक आप पिछली वस्तु पर अनुसंधान नहीं करेंगे, उसकी कमियों, अच्छाइयों या सीमा के बारे में नहीं जानेंगे  तब तक उसका रूप परिवर्तन  कैसे कर सकेंगे ?” “नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूँ । " अजय ने अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास किया । "जिस वस्तु पर अनुसंधान हो चुका है और जो ज़मीन के भीतर दब चुकी है वह भविष्य की वस्तुओं के लिए किस तरह उपयोगी है ?" मैंने कहा “मैं तुम्हारा आशय समझ गया हूँ । तुम यही कहना चाहते हो कि अब कूलर और ए सी के ज़माने में हाथ के पंखे का क्या काम ? वह तो पुराने ज़माने की बात हो चुका है । “ रवीन्द्र ने ठहाका लगाया …”जब बिजली गुल हो जाती है ना बेटा ..तब यही हाथ का पंखा याद आता है ।“

मैंने कहा “नहीं इसका उत्तर इतना सरल भी नहीं है । दर असल वस्तुओं के साथ साथ उनसे जुड़ी तकनीक का भी विकास होता है और इस विकास के लिए  पिछले अनुभव और विकास की प्रक्रिया को जानना बहुत ज़रूरी होता है । यदि ऐसा नहीं करेंगे तो क्रमवार विकास दर्ज नहीं हो पायेगा और वही गलतियाँ दोहराई जायेंगी जो पहले की पीढ़ियों में हो चुकी हैं । जैसे अभी हम्फ़ी के उत्खनन में राजा कृष्णदेव राय द्वारा बनवाया गया एक रानी का महल मिला है जिसमें दीवारों के भीतर नालियाँ बनाई गईं थीं जिनमें पानी प्रवाहित कर वातानुकूलन की व्यवस्था  की गई थी । अर्थात वातानुकूलन में पानी की उपयोगिता को रेखांकित किया गया । उसके बाद ही कूलर बना और अब गैस की खोज हो जाने के बाद उससे चलने वाला ए सी ।"

"तात्पर्य यह कि मनुष्य हर दौर में अपने आसपास उपलब्ध वस्तुओं की सहायता से अपने पूर्वजों द्वारा संचित ज्ञान के आधार पर ही विकास करता है ।" रवींद्र ने कहा । "हाँ ।" मैंने उसकी बात का समर्थन किया।  "अगर हम वस्तुओं के इतिहास को देखकर आगे विकास नही करेंगे तो  हम अपने अतीत को लेकर इतरा तो सकेंगे कि हमारे पूर्वजों ने यह किया, वह किया, लेकिन यह नहीं जान सकेंगे कि यह कैसे किया तथा उससे सबक लेकर उनके द्वारा अर्जित ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकेंगे । इस तरह यह एक ऐसा खोखला पुरातन प्रेम बन कर रह जाएगा जिसकी कोई सार्थकता नहीं होगी । “

“ठीक है ठीक है “ किशोर भैया जो अब तक चुपचाप बैठे थे बोल पड़े …” भाई पनचक्की के आगे भी तो बढ़ो ।“ मैं उनका आशय समझ गया था । मैंने फ़िर डायरी पढ़ना प्रारंभ कर दिया …“ पनचक्की के पास ही जल से भरा एक विशाल कुण्ड था जिसमें कई छोटी - बड़ी अनेक मछलियाँ तैर रही थीं । पास ही खड़े थे कुछ बच्चे जो उन मछलियों को राजगीरे के लड्डू खिला रहे थे और खुशी से उन मछलियों की तरह ही उछल रहे थे । “चलो बच्चों..“ बच्चों के अभिभावक ने आवाज़ लगाई । “मछलियों के सोने का टाइम हो गया है ।“ मुझे मुस्कुराता देख एक बच्चे ने सवाल किया “ मछली सोती कैसे होगी अंकल उसकी तो पलकें ही नहीं होतीं ?“ मैंने उस बच्चे की पीठ थपथपाई । मुझे सवाल करने वाले बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं ।

शरद कोकास 



शनिवार, 23 जून 2018

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -चौदहवां दिन -तीन

औरंगज़ेबवा की लुगाई की फरमाईस 

तो किस्सा कोताह यह कि आज भी  सूरज उसी तरह उगा जैसे कि रोज़ उगता है भाटी जी ने वैसे ही प्रेम से दोनों वक़्त का भोजन करवाया, शाम को सिटी का दौरा भी हुआ और फिर रात आई और हम लोग अपने तम्बू में रजाई ओढ़कर बैठ गए ।  “हाँ तो भाईजान आज क्या इरादा है, औरंगजेब की सल्तनत में चलें ? ” रजाई में पदस्थ हो जाने के बाद  रवीन्द्र ने मुझसे सवाल किया । “बिलकुल ।“ मैंने कहा “आज सुनाते हैं आगे की यात्रा की डायरी ।“  मैंने डायरी निकाली और पाठ शुरू कर दिया…

“अजंता से हम लोगों ने शाम लगभग चार बजे प्रस्थान किया । लेकिन अब वापसी  जलगाँव की ओर नहीं थी बल्कि हमारा गन्तव्य औरंगाबाद था । वह दुनिया हम पीछे छोड़ आये थे जहाँ बुद्धम शरणम गच्छामि के स्वर गूंजा करते थे । शाम ढलने से पूर्व ही हमारी बस औरंगाबाद पहुँच गई । बस की खिड़की से मार्च की धूप भीतर आ रही थी, मैं बाहर देखते हुए औरंगाबाद शहर का अक्स अपनी आँखों में बसाने की कोशिश कर रहा था । वातावरण में मग़रिब की अज़ान गूँज रही थी ..अल्ला हो अकबर ..। मैं कुछ सोचकर मुस्कुराया...अच्छा हुआ कि उस दौर में अलग अलग धर्म अलग अलग समय में साँस लेते रहे वर्ना एक धर्म वालों द्वारा दूसरे धर्म वालों की सांसें रोक दी जाती । हालाँकि मेरा सोचना पूरी तरह सही भी नहीं था । बौद्ध धर्म के बाद यद्यपि इस्लाम सैकड़ों साल बाद आया लेकिन उस समय ब्राह्मण धर्म ने यह काम किया । मेरी आँखों के सामने अचानक पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंतिम मौर्य सम्राट ब्रह्द्रथ की हत्या का दृश्य कौंध गया ।

मैं बस की खिड़की से निरंतर बाहर की ओर देख रहा था । यह दो ऋतुओं के बीच का संक्रमण काल था और मौसम में बोरियत भरी उदासी छाई हुई थी । दिन अब लम्बी उबासी की तरह कुछ लम्बे होने लगे थे । पंछी अभी आसमान में ही थे और पेड़ों के पास सन्नाटा छाया हुआ था । यह अजीब बात थी कि पंछियों के पास घर होने के बावजूद उन्हें भी घरौंदों में वापस लौटने की चिंता नहीं थी । फिर सूरज तो ठहरा बेघर ..वह लौटता भी तो कहाँ लौटता सो लाल पीले नीले कपड़े पहने हुए मज़े में पश्चिम के फुटपाथ पर टहल रहा था । जल्दी तो खैर हमें भी नहीं थी । हम सभी छात्र वैसे भी बेघर थे । अपना अपना घर छोड़कर कुछ बनने की इच्छा लेकर निकले थे, क्या बनेंगे, कहाँ रहेंगे किसी को नहीं पता था सो घर क्या और बाहर क्या, इस भाव के साथ इस यायावरी का आनंद ले रहे थे ।

दिन ढलने में अभी काफी समय था इसलिए तय किया गया कि धर्मशाला पहुँचने और अँधेरा होने से पहले बीबी का मक़बरा तो देख ही लिया जाए । हमारे बस ड्राइवर जमनालाल जी ने रास्ता पूछ पूछ कर आखिर बीबी का मक़बरा ढूँढ ही लिया । प्रवेश द्वार पर पहुँचते ही सामने थी मुगल काल की एक बेहतरीन इमारत  जिसे देखते ही बरबस मुँह से निकल गया …”अरे ! ताजमहल !“ ठीक ताजमहल की प्रतिकृति के रूप में उपस्थित थी वहाँ मुगल शासक औरंगज़ेब की बेग़म राबिया दौरानी की समाधि । लेकिन कहाँ ताजमहल और कहाँ बीबी का मक़बरा ! ताजमहल बेहतरीन सफेद संगमरमर का बना है और बीबी के मक़बरे  में यह संगमरमर सिर्फ़ सामने वाले भाग में है और वह भी लगभग पाँच साढ़े पाँच फ़ीट बस । शेष इमारत बलुआ पत्थर की है और मीनारें ईटों की बनी हुई हैं । इन पर चूने का मसाला लगा है जिसमें सीपियों की भस्म मिली हुई है ।
 
ताजमहल से इस इमारत की तुलना करते हुए एक प्रश्न मन में आया, दोनों ही इमारतें सम्पन्न मुगल शासकों द्वारा बनाई गई हैं फिर इनमें इतना अंतर क्यों है ? जैन साहब ने हमारी शंका का समाधान किया …” प्रारंभिक मुग़ल शासकों के समय राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत थी, राजस्व की प्राप्ति भी अधिक होती थी और उनके खर्च भी अधिक नहीं थे इसलिए  इमारतें उच्च कोटि की सामग्री से बनाई जाती थीं, लेकिन बाद में साधनों के अभाव और धन की कमी के कारण उन्हें  सादा इमारतें बनानी पड़ीं, हालाँकि औरंगज़ेब ने भी सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में अपने शासनकाल के प्रारंभ में दिल्ली की मोती मस्जिद जैसी इमारत बनाई और लाहौर में बादशाही मस्जिद भी बनवाई परन्तु बाद में आर्थिक अभाव के कारण उसे बीबी के मक़बरे जैसी साधारण इमारत बनाने के लिए विवश होना पड़ा ।"

" सर ,लेकिन यह औरंगज़ेब शुरू से औरंगाबाद में ही था क्या ? मुगलों का शासन तो उस समय आगरा में था ? " अजय ने सवाल किया । सर ने बताना शुरू किया " औरंगज़ेब को उसके पिता शाहजहाँ ने सन सोलह सौ चौंतीस में दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया । उस वक्त उसकी उम्र सोलह वर्ष थी । उसने महाराष्ट्र  के गाँव किरकी को अपनी राजधानी बनाई और उसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया । उसके बाद सोलह सौ सैंतीस में राबिया दुर्रानी से उसकी शादी हुई जिसका यह मकबरा उसने सोलह सौ अठहत्तर में बनवाया  । हालाँकि शादी के बाद सिर्फ सात साल वह यहाँ रहा और उसके बाद उसके पिता शाहजहाँ ने उसे गुजरात और फिर बदक्षां का सूबेदार बनाकर अफगानिस्तान भेज दिया । सोलह सौ अठ्ठावन में उसने अपने पिता को ताजमहल पर राजकीय खजाना खर्च करने का जुर्म लगाकर आगरे के किले में कैद कर दिया और खुद को बादशाह घोषित कर दिया । इसके बाद उसने सत्रह सौ सात तक यानि लगभग पचास वर्ष तक शासन किया ।"

" सर, लेकिन इसका औरंगाबाद के बीबी के मकबरे की सादगी से क्या सम्बन्ध है ? मैंने पूछा ।" वही तो बता रहा हूँ ।" जैन सर ने कहा " चूँकि वह राजकीय कोश का व्यर्थ के कामों में खर्च करने के विरुद्ध था और खुद के लिए भी बहुत कम खर्च  करता था इसलिए उसने इस इमारत पर भी अधिक नहीं खर्च किया । हालाँकि उसने पैसा काफी कमाया जैसे उसने जजिया कर लगाया लेकिन वह सब राज्य के लिए खर्च किया ।" बहरहाल, इस इमारत के ताजमहल के मुकाबले कम सुन्दर होने का कारण  हम लोगों की समझ में आ गया था ..बोले तो  जितना पैसा उतना काम । औरंगज़ेब के बारे में वास्तविक और गढ़े गए दोनों तरह के इतिहास को ताक पर रखकर हम लोगों ने उसके बसाये औरंगाबाद में जी भरकर ईरान, मध्य एशिया, दिल्ली और आगरा से आई वास्तुकला की मुगल शैली के इस स्थापत्य का आनंद लिया और आगे बढ़ गए ।“

राम मिलन भैया जो हम लोगों से रूठकर पिछले दिनों अलग तम्बू में चले गए थे, उनका गुस्सा हमारे माफ़ीनामे के बाद शांत हो चुका है और एक सज्जन व्यक्ति की तरह वे हम दुर्जनों के बीच आकर बैठने लगे हैं । वे भी सब लोगों के साथ मेरा डायरी पाठ सुन रहे थे  । सुनते हुए  हुए अचानक उन्होंने एक महत्वपूर्ण जिज्ञासा सबके सामने प्रस्तुत की... “ का हो, ई शाहजहाँ ने तो अपन लुगाई की फ़रमाइस पर ताजमहल बनवा दिया, औरंगज़ेबवा की लुगाई की भी कौनो फ़रमाइस रही थी क्या ? “ राममिलन भैया की बात सुनकर पहले तो हम लोग बहुत हँसे  फिर अजय ने जवाब दिया “ अब क्या पता पंडित, हो सकता है कि बहू ने सोचा हो जब हमारी सास के लिए  इतना बड़ा मक़बरा  बना है तो छोटा-मोटा हमारे लिए  भी बन जाए । आखिर बड़े घर की सास है तो बहू भी कम बड़े घर की नहीं है । अब उसका आदमी कंजूस है तो क्या हुआ ।“ मुगलकालीन इतिहास के इस विखंडन पर मैं क्या कहता, मैंने अपना सिर पीट लिया और कहा “ बस भैया , आज के लिए बहुत हो गया,  बाकी का यात्रा विवरण कल ।"


एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - चौदहवां दिन - दो


दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो 


प्रतिदिन की भांति तैयार होकर हम लोग ट्रेंच पर पहुँच गए । आज हमारा उत्खनन शिविर में चौदहवां दिवस था । ट्रेंच पर पहुँचकर हम लोगों ने अपनी कापियों पर नज़र डाली और कल छोड़े हुए काम की तस्दीक की । अब हमें कल से आगे के उत्खनन कार्य में व्यस्त हो जाना था । फिर आज का दिन भी उसी तरह बीत गया जैसे कि पिछले तेरह दिन बीते थे । कोर्स की और परीक्षा की ज़रूरत के अनुसार जितना ज्ञान हमें चाहिये था उतना हम अर्जित कर चुके हैं और अब यहाँ मन भी नहीं लग रहा है । वैसे तो श्येड्युल के अनुसार हमें यहाँ एक माह रहना था लेकिन हमें पहले ही आने में देर हो गई इसलिए एक माह से पहले ही प्रशिक्षण कार्य पूर्ण करना होगा । फिर हमें थ्योरी की तैयारी भी करनी है जिसके लिए बहुत कम समय बचा है । इसलिए हम लोग यहाँ से जल्दी जाने की फिराक में हैं । फ़रवरी की समाप्ति के साथ साथ हमें वापस उज्जैन पहुँचना है । हमें पता है कि उत्खनन कार्य काफी समय तक चलेगा सो परीक्षा के बाद फिर कभी आ जाएँगे ऐसा विचार कर हम लोग यहाँ से जाने का मन बना रहे हैं । फिर लौटकर अन्य विषयों की तैयारी भी तो करनी है वरना परीक्षा में अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे और अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और अच्छी नौकरी नहीं मिली तो जीवन इसी तरह व्यर्थ बीत जाएगा ।

शाम से ही जाने क्यों सभी का मन उखड़ा हुआ था । ऐसा अक्सर होता है कि एक उम्र और एक सी परिस्थितियों में रहने वालों की मन:स्थिति भी एक सी हो जाती है । कभी कभी भविष्य की चिंताओं के कारण भी मन उदास हो जाता है  । शाम को कहीं जाने का मन नहीं था लेकिन समय तो बिताना ही था और फिर सिटी यानि दंगवाड़ा गाँव जाने का चस्का भी लग चुका है सो यह भ्रमण कार्य भी संपन्न हुआ । गाँव वालों से हमारी मित्रता हो चुकी है । हम लोग उनके बीच जाकर उन्हीं की तरह हो जाते थे । हमने ठान रखा है कि अन्य शहरियों की तरह उन्हें कोई उपदेश नहीं देंगे न उन्हें किताबी ज्ञान की बातें बताएँगे हालाँकि पर्यावरण ,अन्द्धश्रद्धा निर्मूलन और स्वास्थ्य जागरूकता सम्बन्धी बातें तो हम उन्हें बताते ही हैं । वे अपनी स्थितियों से भले ही पूरी तरह खुश न हों लेकिन हम जानते हैं कि उन्हें उनकी स्थितियों से बाहर निकालने के लिए हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं । ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था को गाली दे सकते हैं और उन्हें  उनकी ज़िल्लत का अहसास दिला सकते हैं । लेकिन इससे क्या हो जाएगा ? क्या इससे उनकी दशा बदल जाएगी ? हमें अपनी सीमायें पता हैं और हम उन्हीं  सीमाओं के भीतर रहकर उनकी बेहतरी के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं । मुक्तिबोध ने कहा भी है .."इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए ।"

फिर भी कभी कभी मन ख़राब हो जाता है अपने देश के गाँवों की स्थिति देखकर । आज़ादी के इतने साल बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित यह लोग आखिर देश के विकास में क्या योगदान दे सकते हैं ? सत्ताधीश इन्हें केवल वोट बैंक समझते हैं और इन्हें  ठीक ठीक मनुष्य का दर्ज़ा भी नही देते । रवीन्द्र जब भी मुझसे इस परेशानी को शेयर करना चाहता मैं उसे दुष्यंत का वह शेर सुना देता हूँ “

दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिन्जरा उनके पिंजरे में सुआ ।


एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - चौदहवां दिन - एक


लेखन कला दरअसल क्या है 

चम्बल नदी के किनारे स्थित पुराने घाट के बेरंग पत्थर अब हमारे पांवों का स्पर्श भलीभांति जान चुके हैं ।दिन भर यह पत्थर धूप से उसकी गर्मी चुराते हैं और रात भर खुले आकाश के नीचे रहने के बावज़ूद वे कुछ गर्मी हमारे लिए सहेज कर रखते हैं । हम लोग कुछ देर उन पत्थरों पर बैठकर आपस में बतियाने के साथ साथ नदी से भी बतियाते हैं । मंथर गति से बहती हुई चम्बल नदी कभी कभी हमारी बातें सुनकर पल भर के लिए ठहर जाती है और फिर किसी मज़ेदार बात पर खिलखिलाकर आगे बढ़ जाती है । नदी सुबह स्नान के पश्चात हम लोग एक सीढ़ी पर बैठ गए और बहती नदी को देखने लगे । रवीन्द्र को लगा नदी जैसे झील बन कर ठहर गई है । उसने इस भ्रामक ठहराव को तोड़ने के लिए एक कंकर नदी के जल में उछाला और कहा “यार, तू कुछ भी केह  तेरी यात्रा डायरी सुनने में बहुत मज़ा आ रहा है ।"

मैंने कहा " ऐसी मज़े की उसमें  क्या बात है, हम तो इस यात्रा में साथ ही थे । " वह तो है.. " रवीन्द्र ने कहा " लेकिन यही तो लेखन कला का कमाल है, कभी कभी किसी दृश्य से अधिक सुन्दर उसका वर्णन लगता है क्योंकि उसमें लेखक की अनुभूतियों के अलावा वे बिम्ब और रूपक भी शामिल होते हैं जो साधारण व्यक्ति को नहीं दिखाई देते, इसीलिए तो लेखन को कला कहा जाता है । मुझे नहीं पता था यात्रा वृतांत भी इतना सुंदर हो सकता है ।"  "हाँ सभी कलाओं की यही विशेषता होती है ।" मैंने कहा "स्थापत्य कला, चित्र कला, संगीत कला, नाटक, शिल्प, साहित्य सभी इस सुन्दरता का ही बखान करते हैं ।" " यार कला के छात्र तो हम भी हैं लेकिन तुझे देखकर अच्छा लगता है कि हमारे बीच एक कलाकार भी है जो इतनी सुन्दर कल्पनाएँ करता है । " रवीन्द्र ने कहा ।

"लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता " मैंने कहा । "कभी कभी यथार्थ कल्पना से अधिक भयावह होता है । तब उसे किसी कलारूप में प्रदर्शित करना बहुत कठिन भी होता है हालाँकि कला के रूप में उसकी बहुत तारीफ़ होती है .. जैसे गन्दी झोपड़पट्टी में ऐसे कोई जाना पसंद नहीं करेगा लेकिन यदि कोई कलाकार उसकी पेंटिंग  बनाकर किसी आर्ट गैलरी में लटका दे तो सारे अभिजात्य वर्गीय उसे देखने चले जायेंगे ।" "तू भी ना यार बात को कहाँ से कहाँ ले जाता है ।" रवींद्र ने कहा । "और कला के पारखी सारे लोग ऐसे ही होते हैं क्या ? कुछ लोग तो होते हैं जिनका मन चित्र देखकर या कविता पढ़कर द्रवित होता होगा और वे समाज को इस स्थिति से बाहर निकालने हेतु प्रयास भी करते होंगे । आख़िर कला का कुछ असर तो होता ही है ।" " छोड़ ना यार ,इस पर बात फिर कभी। " मैंने कहा "अभी एलोरा और औरंगाबाद की यात्रा भी बाक़ी है ना ?“ रवीन्द्र प्रसन्न हो गया “ बिलकुल । आज रात चलते हैं ना आगे की सैर के लिए । फ़िलहाल तो भोजनशाला पहुँचा जाए ..भूख पेट की यात्रा कर रही है ।"


आपका शरद कोकास