शनिवार, 23 जून 2018

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -चौदहवां दिन -तीन

औरंगज़ेबवा की लुगाई की फरमाईस 

तो किस्सा कोताह यह कि आज भी  सूरज उसी तरह उगा जैसे कि रोज़ उगता है भाटी जी ने वैसे ही प्रेम से दोनों वक़्त का भोजन करवाया, शाम को सिटी का दौरा भी हुआ और फिर रात आई और हम लोग अपने तम्बू में रजाई ओढ़कर बैठ गए ।  “हाँ तो भाईजान आज क्या इरादा है, औरंगजेब की सल्तनत में चलें ? ” रजाई में पदस्थ हो जाने के बाद  रवीन्द्र ने मुझसे सवाल किया । “बिलकुल ।“ मैंने कहा “आज सुनाते हैं आगे की यात्रा की डायरी ।“  मैंने डायरी निकाली और पाठ शुरू कर दिया…

“अजंता से हम लोगों ने शाम लगभग चार बजे प्रस्थान किया । लेकिन अब वापसी  जलगाँव की ओर नहीं थी बल्कि हमारा गन्तव्य औरंगाबाद था । वह दुनिया हम पीछे छोड़ आये थे जहाँ बुद्धम शरणम गच्छामि के स्वर गूंजा करते थे । शाम ढलने से पूर्व ही हमारी बस औरंगाबाद पहुँच गई । बस की खिड़की से मार्च की धूप भीतर आ रही थी, मैं बाहर देखते हुए औरंगाबाद शहर का अक्स अपनी आँखों में बसाने की कोशिश कर रहा था । वातावरण में मग़रिब की अज़ान गूँज रही थी ..अल्ला हो अकबर ..। मैं कुछ सोचकर मुस्कुराया...अच्छा हुआ कि उस दौर में अलग अलग धर्म अलग अलग समय में साँस लेते रहे वर्ना एक धर्म वालों द्वारा दूसरे धर्म वालों की सांसें रोक दी जाती । हालाँकि मेरा सोचना पूरी तरह सही भी नहीं था । बौद्ध धर्म के बाद यद्यपि इस्लाम सैकड़ों साल बाद आया लेकिन उस समय ब्राह्मण धर्म ने यह काम किया । मेरी आँखों के सामने अचानक पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंतिम मौर्य सम्राट ब्रह्द्रथ की हत्या का दृश्य कौंध गया ।

मैं बस की खिड़की से निरंतर बाहर की ओर देख रहा था । यह दो ऋतुओं के बीच का संक्रमण काल था और मौसम में बोरियत भरी उदासी छाई हुई थी । दिन अब लम्बी उबासी की तरह कुछ लम्बे होने लगे थे । पंछी अभी आसमान में ही थे और पेड़ों के पास सन्नाटा छाया हुआ था । यह अजीब बात थी कि पंछियों के पास घर होने के बावजूद उन्हें भी घरौंदों में वापस लौटने की चिंता नहीं थी । फिर सूरज तो ठहरा बेघर ..वह लौटता भी तो कहाँ लौटता सो लाल पीले नीले कपड़े पहने हुए मज़े में पश्चिम के फुटपाथ पर टहल रहा था । जल्दी तो खैर हमें भी नहीं थी । हम सभी छात्र वैसे भी बेघर थे । अपना अपना घर छोड़कर कुछ बनने की इच्छा लेकर निकले थे, क्या बनेंगे, कहाँ रहेंगे किसी को नहीं पता था सो घर क्या और बाहर क्या, इस भाव के साथ इस यायावरी का आनंद ले रहे थे ।

दिन ढलने में अभी काफी समय था इसलिए तय किया गया कि धर्मशाला पहुँचने और अँधेरा होने से पहले बीबी का मक़बरा तो देख ही लिया जाए । हमारे बस ड्राइवर जमनालाल जी ने रास्ता पूछ पूछ कर आखिर बीबी का मक़बरा ढूँढ ही लिया । प्रवेश द्वार पर पहुँचते ही सामने थी मुगल काल की एक बेहतरीन इमारत  जिसे देखते ही बरबस मुँह से निकल गया …”अरे ! ताजमहल !“ ठीक ताजमहल की प्रतिकृति के रूप में उपस्थित थी वहाँ मुगल शासक औरंगज़ेब की बेग़म राबिया दौरानी की समाधि । लेकिन कहाँ ताजमहल और कहाँ बीबी का मक़बरा ! ताजमहल बेहतरीन सफेद संगमरमर का बना है और बीबी के मक़बरे  में यह संगमरमर सिर्फ़ सामने वाले भाग में है और वह भी लगभग पाँच साढ़े पाँच फ़ीट बस । शेष इमारत बलुआ पत्थर की है और मीनारें ईटों की बनी हुई हैं । इन पर चूने का मसाला लगा है जिसमें सीपियों की भस्म मिली हुई है ।
 
ताजमहल से इस इमारत की तुलना करते हुए एक प्रश्न मन में आया, दोनों ही इमारतें सम्पन्न मुगल शासकों द्वारा बनाई गई हैं फिर इनमें इतना अंतर क्यों है ? जैन साहब ने हमारी शंका का समाधान किया …” प्रारंभिक मुग़ल शासकों के समय राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत थी, राजस्व की प्राप्ति भी अधिक होती थी और उनके खर्च भी अधिक नहीं थे इसलिए  इमारतें उच्च कोटि की सामग्री से बनाई जाती थीं, लेकिन बाद में साधनों के अभाव और धन की कमी के कारण उन्हें  सादा इमारतें बनानी पड़ीं, हालाँकि औरंगज़ेब ने भी सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में अपने शासनकाल के प्रारंभ में दिल्ली की मोती मस्जिद जैसी इमारत बनाई और लाहौर में बादशाही मस्जिद भी बनवाई परन्तु बाद में आर्थिक अभाव के कारण उसे बीबी के मक़बरे जैसी साधारण इमारत बनाने के लिए विवश होना पड़ा ।"

" सर ,लेकिन यह औरंगज़ेब शुरू से औरंगाबाद में ही था क्या ? मुगलों का शासन तो उस समय आगरा में था ? " अजय ने सवाल किया । सर ने बताना शुरू किया " औरंगज़ेब को उसके पिता शाहजहाँ ने सन सोलह सौ चौंतीस में दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया । उस वक्त उसकी उम्र सोलह वर्ष थी । उसने महाराष्ट्र  के गाँव किरकी को अपनी राजधानी बनाई और उसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया । उसके बाद सोलह सौ सैंतीस में राबिया दुर्रानी से उसकी शादी हुई जिसका यह मकबरा उसने सोलह सौ अठहत्तर में बनवाया  । हालाँकि शादी के बाद सिर्फ सात साल वह यहाँ रहा और उसके बाद उसके पिता शाहजहाँ ने उसे गुजरात और फिर बदक्षां का सूबेदार बनाकर अफगानिस्तान भेज दिया । सोलह सौ अठ्ठावन में उसने अपने पिता को ताजमहल पर राजकीय खजाना खर्च करने का जुर्म लगाकर आगरे के किले में कैद कर दिया और खुद को बादशाह घोषित कर दिया । इसके बाद उसने सत्रह सौ सात तक यानि लगभग पचास वर्ष तक शासन किया ।"

" सर, लेकिन इसका औरंगाबाद के बीबी के मकबरे की सादगी से क्या सम्बन्ध है ? मैंने पूछा ।" वही तो बता रहा हूँ ।" जैन सर ने कहा " चूँकि वह राजकीय कोश का व्यर्थ के कामों में खर्च करने के विरुद्ध था और खुद के लिए भी बहुत कम खर्च  करता था इसलिए उसने इस इमारत पर भी अधिक नहीं खर्च किया । हालाँकि उसने पैसा काफी कमाया जैसे उसने जजिया कर लगाया लेकिन वह सब राज्य के लिए खर्च किया ।" बहरहाल, इस इमारत के ताजमहल के मुकाबले कम सुन्दर होने का कारण  हम लोगों की समझ में आ गया था ..बोले तो  जितना पैसा उतना काम । औरंगज़ेब के बारे में वास्तविक और गढ़े गए दोनों तरह के इतिहास को ताक पर रखकर हम लोगों ने उसके बसाये औरंगाबाद में जी भरकर ईरान, मध्य एशिया, दिल्ली और आगरा से आई वास्तुकला की मुगल शैली के इस स्थापत्य का आनंद लिया और आगे बढ़ गए ।“

राम मिलन भैया जो हम लोगों से रूठकर पिछले दिनों अलग तम्बू में चले गए थे, उनका गुस्सा हमारे माफ़ीनामे के बाद शांत हो चुका है और एक सज्जन व्यक्ति की तरह वे हम दुर्जनों के बीच आकर बैठने लगे हैं । वे भी सब लोगों के साथ मेरा डायरी पाठ सुन रहे थे  । सुनते हुए  हुए अचानक उन्होंने एक महत्वपूर्ण जिज्ञासा सबके सामने प्रस्तुत की... “ का हो, ई शाहजहाँ ने तो अपन लुगाई की फ़रमाइस पर ताजमहल बनवा दिया, औरंगज़ेबवा की लुगाई की भी कौनो फ़रमाइस रही थी क्या ? “ राममिलन भैया की बात सुनकर पहले तो हम लोग बहुत हँसे  फिर अजय ने जवाब दिया “ अब क्या पता पंडित, हो सकता है कि बहू ने सोचा हो जब हमारी सास के लिए  इतना बड़ा मक़बरा  बना है तो छोटा-मोटा हमारे लिए  भी बन जाए । आखिर बड़े घर की सास है तो बहू भी कम बड़े घर की नहीं है । अब उसका आदमी कंजूस है तो क्या हुआ ।“ मुगलकालीन इतिहास के इस विखंडन पर मैं क्या कहता, मैंने अपना सिर पीट लिया और कहा “ बस भैया , आज के लिए बहुत हो गया,  बाकी का यात्रा विवरण कल ।"


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