मंगलवार, 3 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -दसवां दिन - पाँच

दंगवाड़ा के इस उत्खनन कैम्प में हमारा खुदाई का यह नौवाँ दिन है लेकिन  इस दिन एक ऐसी घटना घटी कि हम सभी को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा । क्या हुआ यह जानने से पहले ज़रा पाँचवें दिन की डायरीपर एक नज़र डाल लें। 

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -पाँचवा दिन 


आज की सतह निरीक्षण में हमे स्वास्तिक चिन्ह युक्त एक सिक्का , एक टेराकोटा ऑब्जेक्ट तथा एक स्टोन बॉल प्राप्त हुआ । आज हमने सतह से खुदाई प्रारम्भ की  और 31 सेंटीमीटर तक पहुंचे । इन प्रारम्भिक बातों के लिये डॉ.आर्य हमारा मार्ग दर्शन करते रहे । शाम को कार्य समाप्त करने के बाद हमे यह भी बताया गया कि प्राप्त वस्तुओं की देखभाल कैसे की जाये और उन्हे सम्भाल कर कैसे रखा जाये । सदियों से जो अवशेष ज़मीन के भीतर दफ्न हैं बाहर आते ही ऐसे लगा जैसे वे हमसे बातें करने लगे है । मिट्टी का 4 से.मी. का एक छोटा सा पात्र हाथ में लिये अशोक उसे बहुत देर तक निहारता रहा । “क्या देख रहा है अशोक ?” मैने ध्यान से पात्र देखते हुए अशोक से पूछा । “ वाह कितना सुन्दर पात्र है “ अशोक ने कहा । मुझे लगा वह ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की किसी विशेषता पर हम लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला है । लेकिन अशोक ने अपनी नज़रें उस पर से हटाये बगैर फिर कहा “ अपने तम्बू में सिगरेट की राख झाड़ने के लिये ऐश ट्रे नहीं है यह बढ़िया काम आयेगा । और फिर उसने धीरे से उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया ।

और अब ..एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -नौवाँ दिन-एक
  काश यह वस्तु हमारे ड्राइंग रूम में होती !!!

सुबह सोकर उठे ही थे कि डॉ.वाकणकर इंस्पेक्शन के लिये हमारे तम्बू में प्रवेश कर गये । बिस्तर वगैरह तो हमने करीने से लगा रखे थे सारी चीजें कपड़े बैग आदि व्यवस्थित रखे थे  । लेकिन वाह वाह कहते हुए अचानक उनकी निगाह उस चाल्कोलिथिक पात्र पर पड़ गई जिसे पाँच दिन पहले अशोक ट्रेंच से उठाकर ले आया था और बतौर ऐश ट्रे उसका बखूबी इस्तेमाल कर रहा था । “ व्वा बेटा “ उन्होने कटाक्ष करते हुए कहा । “ शौक तो तुम्हारे रईसों के हैं । इससे पहले कि अशोक अपने धूम्रपान की चोरी पकड़ी जाने पर शर्मिन्दा होता उन्होने कहा “ जानते हो तुम्हारी इस ऐश ट्रे की कीमत क्या है ? ये एक लाख से कम की नहीं है । “ अशोक ने तुरंत माफी माँगी ,बाहर जाकर ऐश ट्रे खाली की और डॉ. साब को देने लगा तो उन्होने कहा “ ऐसे नहीं इसे अच्छी तरह धोकर साफ करो , सुखाओ और फिर आर्काईव में जमा करो .. नहीं तो  तुम्हारा कोई जूनियर चाल्कोलिथिक पीरियड में विल्स या पनामा का उद्भव जैसे विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर देगा । ‘
            सुबह सुबह डाँट खाने का असर ट्रेंच पर पहुंचने तक था । हाँलाकि अशोक को इस बात पर संतोष था कि सिगरेट के लिये उसे डाँट नहीं पड़ी । लेकिन ऐश ट्रे के लिये पड़ी डाँट के लिये भी हम सभी अपने आप को दोषी मान रहे थे । बिना अनुमति उत्खनन में निकली किसी भी वस्तु का कोई भी उपयोग अपराध तो था । यद्यपि उसे घर ले जाने जैसी कोई मंशा हमारी नहीं थी क्योंकि यह इतनी कीमती वस्तु थी जिसकी कीमत हम नहीं आँक सकते थे ।लेकिन उपयोग करने के  इसी अपराध बोध के कारण हम सभी असहज थे यद्यपि सर ने इसे सहज बनाने का प्रयास किया था  ।
 यह तो हुई उत्खनन की बात लेकिन यह बताइये कि क्या हम लोग इन वस्तुओं की कीमत समझते हैं । मन्दसौर के शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि उत्खनन से पूर्व वह तालाब में आधा गड़ा हुआ था और उस पर कपड़े  धोये जाते थे । अभी भी कई पुरातात्विक महत्व के स्थानों पर आसपास के गाँवों के लोग अनजाने में वस्तुएँ उठा ले जाते हैं । मूर्तियाँ घर में ,मन्दिर में रखकर उनकी पूजा की जाती है जबकि यही वस्तुएँ म्यूज़ियम में रहें तो सभी लोग उसे देख सकें ।व्यक्तिगत संग्रह की प्रवृत्ति हमें ऐसी है कि हम लोग जब किसी पुरातात्विक महत्व के स्थान पर जाते हैं तो हमारा मन नहीं करता कि कोई वस्तु उठाकर अपनी जेब में डाल लें ? गनीमत है कि म्यूज़ियम और ऐसे ही अन्य स्थानों पर कड़ा पहरा रहता है अन्यथा हमारे दिमाग़ में यह ख्याल तो आता ही है कि हमारे ड्राइंगरूम में यह वस्तु कैसी लगती ? अब आप समझ गये होंगे कि पुरातात्विक वस्तुओं की इतनी सुरक्षा क्यों की जाती है । बावज़ूद इसके तस्कर अपना काम कर जाते हैं और देश की बहुमूल्य वस्तुएँ, कीमती मूर्तियाँ रातों रात विदेश पहुँच जाती हैं । 
एक प्रश्न और ..विदेशी संग्रहालयों में अपने देश की मूर्तियाँ और बहुमूल्य वस्तुएँ देखकर कभी आपके मन में यह ख्याल आया कि ये यहाँ तक कैसे पहुँची होंगी ? और आज़ादी के पहले कितनी वस्तुएँ जा चुकी हैं । हम तो गान्धी जी के व्यक्तिगत सामानों के लिये हायतौबा कर रहे थे लेकिन उसके पहले जो कुछ जा चुका है उसके बारे में कभी सोचा है ? क्या वह सब हमें वापस नहीं मिलना चाहिये ? क्या वह हमारे देश की कीमती धरोहर नहीं है ? (चित्र गूगल से साभार ।) कुछ जानकारी आप यहाँ से भी प्राप्त कर सकते हैं ।  - आपका - शरद कोकास

20 टिप्‍पणियां:

  1. @ चाल्कोलिथिक पीरियड में विल्स या पनामा का उद्भव
    हा! हा !हा!! भैया क्या क्या बातें निकल कर आती हैं आप की डायरी से। बहुत रोचक चल रही है। बहाने से ही सही लोगों को संवेदित करते चलने का अन्दाज बहुत प्यारा लगता है।

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  2. शरद वृतांत बढ़िया चल रहा है, बधाई.

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  3. bahut hi rochak aur gyanvardhak jaankari ...sansmaran ke saath......

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  4. बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने! बहुत अच्छा लगा! हमेशा की तरह एक उम्दा पोस्ट!

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  5. बहुत रोचक बात कोकाश जी, एक ऐसा ही वाक्य याद आ रहा है, उस जमाने में टिहरी गढ़वाल का पुराना शहर खूब रचा बसा था ( अब तो डैम के अन्दर डूब गया ) मेरे एक परिचित की वहाँ दुकान थी, काफी समृद्ध थे, उनकी स्मृद्ता के बारे में अपने दादाजी से सुना था की एक समय में उनके बहुत बुरे हाल थे, की एक दिन उनके पदोश में रहने वाला एक लाटा किस्म का इंसान भागीरथी सेपानी भरकर ला रहा था थ जब उसने पानी भरने के लिए बाल्टी नदी में डुबोई होगी तो पानी के साथ-साथ एक हीरा भी आ गया, लाटा नहीं जानता था कि यह हीरा क्या कीमती चीज होती है, अतः उसके लाते पण का फायदा उठा उन महाशय ने बाल्टी वही पर यह कह कर उडेल दी कि इससे पानी जहरीला हो जाएगा और उस लाते को दूसरी बाल्टी भरकर लाने को कहा, जैसे ही वह गया इन महाशय ने वह हीरा उठाकर जेब में डाल दिया, और तब से अमीर बन गए !

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  6. yah baat to ek puratatv vetta aur itihaskar jyada samjh sakate hai..waise ham log bhi samajhte hai par mahatv thoda alag hota hai...aur agar wastvik jaankari ho to fir bahut badhiya...sundar jaankari..aabhar..sharad ji

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  7. भारतीयों की मानसिकता ऐसी ही है .. अपने किसी कारीगर को या उसकी कारीगिरी को वे तबतक महत्‍व नहीं देते .. जबतक उसकी महानता के किस्‍से किताबों में लिखे न मिलें .. टी वी में दिखाई न पडें .. या किसी विदेशी संस्‍था के द्वारा पुरस्‍कृत न कर दिया जाए .. जिन प्राचीन वस्‍तुओं को हम पैरों तले रौंदते आए हैं .. उसे महत्‍व देकर विदेशियों ने अबतक संभाले रखा तो इसमें हर्ज क्‍या है .. अब उसे देखकर ललचना तो हमारी बेवकूफी ही होगी .. इसके बाद भी हम अपने कलाकारों का , कलाकृतियों का महत्‍व देना सीख जाएं .. तो हमारे लिए बहुत बडी उपलब्धि होगी !!

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  8. उस खुदाई में मिली वस्‍तु से अधिक बेहतर यह वस्‍तु है जो मन के अंदर लालसा के रूप में सदा मौजूद रहती है जबकि यह सबके अंदर ही हो ऐसा भी नहीं है। पर फिर भी अधिकतर इस वायरस से ग्रस्‍त हैं जबकि इसके असली रस का आनंद इसे बांटने पर ही मिलता है। बांटने के लिए संग्रहालय में संजोने से बेहतर और क्‍या हो सकता है और लालच की मंशा से खुद चुरा लेना अथवा घर ले जाकर इस्‍तेमाल करना मानव के स्‍वार्थ को ही प्रकट करता है। आपने पुरातत्‍ववेत्‍ता के इस ब्‍लॉग में मानव मन की भी बेहतर खुदाई कर डाली है। आप धन्‍य हैं बंधु। ऐसे ही धन को सबको बांटते रहें।

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  9. हम्म ..बात तो सही है की मंदिरों के स्थान पर वे मूर्तियाँ संग्रहालय में रहने पर अधिक सुरक्षित और प्रासंगिक होंगी पर आप हमारे देश की जनता को बेहतर समझते होंगे ..इसलिए इसे दिवास्वप्न ही समझिए

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  10. वाकई बहुत कुछ हम खो चुके हैं। पर हम अभी भी इस राष्ट्रीय संपदा के प्रति सतर्क नहीं और लगातार इन्हें खोते जा रहे हैं।

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  11. पढे लिखे प्रशिक्षित व्यक्तियों का ये हाल तो फिर औरों का कहना ही क्या ।

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  12. लीजिए, हम अभी तक आपकी कविताएं ही पढ़ रहे थे...
    यहां तो आप खोदा-खोदी भी कर रहे हैं...

    गिरिजेश जी ने क्या खूब कहा है...

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  13. रोचक किस्सा है.
    **कभी इतनी गहराई से सोचा नहीं की ये वस्तुएं संग्रहालय तक कैसे पहुंची..क्योंकि मालूम है की इस सब के लिए विभाग हैं जो अपना काम कर रहे हैं-
    -हाँ ,इनकी कीमत किस आधार पर तय होती है यह ज़रूर सोचा जाता है.

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  14. वाकई में बडी मेहनत और सजगता का काम है ।
    हमारे गांव के पास के एक मन्दिर में महावीर की मूर्ति है जिसे लोग देवी मानकर पूजा करते हैं । वह मूर्ति शायद बौद्धकालीन है । आपकी बात सही है । हमने ऐसे कई गांव देखे हैं जहां पुरातात्विक महत्व की चीजें गांव वाले अनजाने में अपने घरों में लगाए हुए हैं ।

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  15. नहीं तो तुम्हारा कोई जूनियर चाल्कोलिथिक पीरियड में विल्स या पनामा का उद्भव जैसे विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर देगा ।
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    क्या बात है। तार न मिला तो युग वायरलेस का!

    खैर, हमारी पुरातत्वीय विरासत तो धूल खा रही है। उसकी कीमत ही नहीं जानते हम लोग! आपके ब्लॉग पर आ कर सोचने को तो मिलता है यह।

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  16. शरदजी आपके ब्लाग पर मेरा आना-जाना होता है। डैस बोर्ड में ही दर्ज आपके ब्लाग की प्रविष्टियां मुझे देखने को मिल जाती हैं। बेहद अच्छा और नियमित लिखते हैं आप। मैं ब्लागलेखन में निरंतरता नहीं कायम रख पाता हूं। इसीलिए व्यवस्थित नहीं लिख पारहा हूं। मगर आपका योगदान ब्लागजगत में सराहनीय है। इसे बनाए रखिए।

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  17. हम अपने पुरातत्व के प्रति गैर संवेदनशील हैं. मैंने भोपाल के निकट भीमबेटिका में युगों पूर्व के भित्तचित्रों पर किसी साधू की पुताई देखी है, उधर अशोक की कई शिलायें गैर जिम्मेवार रवैये से नष्ट हो रही हैं.

    आपका ब्लाग हमें ज्ञान तो देता ही है, चेताता भी है. आदर.

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