मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन - आठ

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     एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी ––दसवां दिन - आठ 
ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे – तुम्हारे जैसे इंसान
किशोर , अशोक ,अजय सब नींद  के आगोश में जा चुके थे । मैं जाग रहा था और एकटक तम्बू की छत की ओर देख  रहा था । मेरे साथ जाग रहा था मेरा अंतरंग मित्र रवीन्द्र जो मेरी मनस्थिति समझने की कोशिश में था । “ यार रवीन्द्र , तूने पढ़ी है हावर्ड फास्ट की “ आदिविद्रोही ” ? अचानक मैने रवीन्द्र से पूछा । रवीन्द्र ने कहा “ पढ़ी तो नहीं है लेकिन सुना  जरूर है कि उसमें स्पार्टाकस के विद्रोह की कथा है  ।“ मैने कहा “ मैने तो जिस दिन से पढ़ी है मेरी नींद ही उड़ गई है । कैसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है ,अपने मनोरंजन के लिये एक इंसान की दूसरे इंसान द्वारा हत्या करवाना ?
रवीन्द्र जानता था जब तक मेरे भीतर की वेदना बाहर नहीं निकलेगी मुझे नींद नहीं आयेगी । उसने पूछा “ फिर उस सोने की खान के गुलामों के बीच से स्पार्टाकस बाहर कैसे आया और ग्लेडिएटर कैसे बना ? “  “हाँ “ इतना सुनते ही मेरी आवाज़ फूट पड़ी ..। मुझे इस बात का अहसास था कि हम मनुष्य इसीलिये हैं कि हमें अपने आप को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है  । लेकिन ऐसा क्यों होता है कि कई बार अपनी वेदना अभिव्यक्त करने से ज़्यादा छटपटाहट दूसरे की वेदना व्यक्त करने के लिये होती है ..शायद इसीलिये कि अपने दुख दूसरों के दुख की तुलना में गौण हो जाते हैं ? आज मुझे लग रहा था  कि स्पार्टाकस कहीं मेरे भीतर जीवित हो गया है और अपने दर्द को प्रकट करने के लिये छटपटा रहा है ।
मैने कहना शुरू किया “ इन खदानों का पता जैसे ही अखाड़ों के मालिकों को पता चला ,वे गुलामों को खरीदने के लिये इन खानों में पहुंचने लगे । ये लोग जैसे ही खानो में पहुंचते नग्न गुलाम इनके सामने प्रस्तुत किये जाते और ये लोग जिस तरह बैल या बकरे खरीदते है उस तरह इनके शरीर के अंग टटोल टटोल कर इनका सौदा करते और इनकी कीमत लगाते । “
“ लेकिन ये गुलाम इस तरह बिकने के लिये तैयार हो जाते थे ? रवीन्द्र ने पूछा । “ तैयार..? “ मैने कहा “ज़िबह किये जाने वाले जानवर से भी कभी उसकी मर्ज़ी पूछी जाती है क्या । वैसे भी इन खदानों में इन गुलामों की ज़िन्दगी साल या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल होती थी । खदान के मालिकों को उनके मरने से पहले उनकी कीमत मिल जाती थी । “ इतना कहकर मै चुप हो गया ।
“क्या हो गया शरद ?” रवीन्द्र ने मुझे छत की ओर ताकते देख पूछा । मैने छत की ओर देखते हुए ही जवाब दिया ... “ देखो रवीन्द्र ..अखाड़ों के दलाल ,नूबिया की उस खदान में स्पार्टाकस को और अन्य गुलामों को खरीदने आये हैं । स्पार्टाकस और उसका एक थ्रेशियन साथी चुपचाप उनके सामने खड़े है ..नंग-धड़ंग ,दोनों की दाढ़ी बढ़ी हुई है , उनके शरीर पर अनगिनत ज़ख्म हैं जिनमें मवाद पड़ चुका है, देह पर चाबुकों के नीले निशान हैं , शरीर से इतनी भयानक बदबू उठ रही है कि  उल्टी हो जाये , शरीर का मैल और गन्दगी शरीर पर ही चिपकी हुई है और सूख गई है । उनके शरीर पर माँस नहीं है ,आँखें बाहर को निकली पड़ रही हैं . दलाल उनकी निरीह ,थकी हुई और निरर्थक जननेन्द्रियों को छूकर देख रहे हैं जैसे अन्दाज़ लगाना चाहते हों कि रोम के अखाड़ों में इन ग्लेडियेटर्स के प्रदर्शन से कितनी उत्तेजना फैलाई जा सकती है और कितना धन कमाया जा सकता है .. । ऊफ... मुझसे तो यह नहीं देखा जा रहा रवीन्द्र ..क्योंकि मुझे पता है ये एक या दो माह के बाद इस दुनिया मे नहीं रहेंगे इन्हे खिला पिलाकर मर जाने के लिये तैयार किया जायेगा इन्हे मरता देख रोम की यह अभिजात्यवर्गीय जनता खुश होगी ... । “ रवीन्द्र मुझे थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश करने लगा । उसने सिर्फ इतना कहा कि ..” मुझे भी बाज़ार में बिकते बकरों और मुर्गों को देख कर यही अनुभूति होती है ..। “
            “रवीन्द्र.......... “ मै अचानक ज़ोरों से चीखा “ ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे –तुम्हारे जैसे इंसान ,इनके पास भी वही सब कुछ है जो हमारे पास है ..और इनका कत्ल करने के इरादे से इन्हे खरीदने वाले भी इंसान है .. इंसान-इंसान में इतना भेद ? ” इसके बाद रवीन्द्र ने कुछ नहीं कहा वह तब तक मुझे थपकियाँ देता रहा ..जब तक मुझे नींद नहीं आ गई ।----- आपका - शरद कोकास 
(चित्र गूगल से साभार )


15 टिप्‍पणियां:

  1. अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
    रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
    जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
    ख़ाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
    जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
    पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
    लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे?

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  2. बेहद गंभीर और होश उड़ा देने वाली बातें

    वाकई जब तक कोई थपकियाँ देकर नहीं सुला दे तो नींद न आये।

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  3. ये मार्मिक पोस्ट पढ कर पिछली पोस्ट भी पढने पर मजबूर हो गयी । अविश्वसनीय तो नहीं कह सकते मगर ऐसा होता था सहज विश्वास भी नहीं होता। ये आदमी तो पशू से भी बदतर है यही कह सकते हैं ।मानवीय संवेदनायें भी मरी नहीं आपके शब्दों से ये भी लगा । शुभकामनायें

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  4. स्पार्टाकस और उसका एक थ्रेशियन साथी चुपचाप उनके सामने खड़े है ..नंग-धड़ंग ,दोनों की दाढ़ी बढ़ी हुई है , उनके शरीर पर अनगिनत ज़ख्म हैं जिनमें मवाद पड़ चुका है, देह पर चाबुकों के नीले निशान हैं , शरीर से इतनी भयानक बदबू उठ रही है कि उल्टी हो जाये , शरीर का मैल और गन्दगी शरीर पर ही चिपकी हुई है और सूख गई है । उनके शरीर पर माँस नहीं है ,आँखें बाहर को निकली पड़ रही हैं . दलाल उनकी निरीह ,थकी हुई और निरर्थक जननेन्द्रियों को छूकर देख रहे हैं जैसे अन्दाज़ लगाना चाहते हों कि रोम के अखाड़ों में इन ग्लेडियेटर्स के प्रदर्शन से कितनी उत्तेजना फैलाई जा सकती है और कितना धन कमाया जा सकता है ..

    सम्वेदना के स्तर पर मन को भेद कर जाते हुए शब्द, बेहद mrmsparshi ......
    regards

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  5. शरद भाई यही होता आया है गुलामों के साथ उस समय भी और आज भी, हां! आज भी।

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  6. अकल्पनीय...क्या इन्सान इतना संवेदना शून्य भी हो सकता है!
    सिर्फ अपने मनोरंजन की खातिर्....

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  7. क्या बन्धुवर! यह ज्ञात तो था, पर पुन: पढ़ने ने बहुत असहज कर दिया!
    मेरा मन भी जोर से चीखने का कर रहा है - ये बकरे और मुर्गे नहीं .. इंसान थे।

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  8. लाजवाब प्रस्तुति। ग्लेडिएटर्स आज भी हैं, कभी उन के लिए भी लिखिए।

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  9. विचलनकारी व मार्मिक

    दिनेशजी से सहमति

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  10. इंसान इंसान का यही भेद समाप्त हो जाए तो सब समस्या ही निपट जाए.........

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  11. अब तो जानवर भी आपस में बात करते कहते हैं...क्या इंसानों जैसा बर्ताव कर रहा है...

    जय हिंद...

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  12. manav adhikaron ke hanan ke bhayanaktam drishyo me se ek se bade rochak dang se parichit hua.
    vahut hi accha likh rahe hai aap.
    Prof D N Sharma

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