शुक्रवार, 19 जून 2020

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन-दो-चम्बल के पानी में चाँद


इस जंगल में हमारे लिए  यह पहला मुफ़्त का मनोरंजन कार्यक्रम था । बरगद के ढेर सारे पेड़ों के बीच में लगा था हमारा शिविर । पास ही चम्बल नदी बहती थी । हम लोगों ने अपना सामान तम्बू में रखा और नदी पर चल दिये हाथ मुँह धोने । हमने अब तक चम्बल के बीहड़ और उनमे रहने वाले डाकुओं के बारे में ही सुना था लेकिन यहाँ न बीहड़ थे न डाकू  । फिर भी हम हाथ मुंह धोते हुए अगल बगल देखते रहे ..कहीं किसी डाकू का घोड़ा न बंधा हो । लौटकर आए  तो रसोई प्रभारी भाटी जी ने गरमा गरम चाय पिलाई । चाय पीकर हम लोग टीले पर पहुँच गए  । यद्यपि हम लोगों का काम अगले दिन से प्रारम्भ होना था लेकिन उत्खनन स्थल देखने की उत्सुकता तो थी ही ।

अद्भुत दिखाई दे रहा था वह टीला..चांद के प्रकाश में । बीच में कहीं कहीं टेकडियों की छाँव जैसे पहली क्लास के किसी बच्चे ने अपनी ड्राइंग कॉपी में चित्र बनाये हों । शांत वेग से बह रही थी चम्बल जैसे कोई माँ अपने बच्चे को सुलाने के बाद आधी नींद में सो रही हो । हवा चलती तो चांद का अक्स पानी में लहराता हुआ नज़र आता । वातावरण इतना खामोश कि हम बहते हुए पानी की आवाज़ साफ साफ सुन सकते थे ।

डॉ.वाकणकर ने दो दिन पूर्व जिस आयताकार ट्रेंच की खुदाई शुरू की थी वह अभी नींद के आगोश में थी , उसे जगाना हमने उचित नहीं समझा और दूर खड़े चुपचाप उसे देखते रहे । उसके भीतर गहन अन्धकार था , सदियों से भीतर अवस्थित  अन्धकार । मैं उसे देखता रहा ..कविता कहीं भीतर से बाहर आने को आतुर थी ..मैंने कहा ..” ऐसा लगता है जैसे इस अतल गहराई में कोई रंगमंच है, जिस पर सैकडों सालों से कोई ड्रामा चल रहा है । जाने कितनी सभ्यताओं के पात्र आवागमन कर रहे हैं । कहीं युद्ध चल रहा है तो कहीं कोई चरवाहा किसी पेड़ के नीचे बैठकर बंसी बजा रहा है । कहीं कोई बच्चा पेड़ से लटके झूले पर बैठा झूला झूल रहा है ,कहीं कोई हरकारा दूर से अपने घोड़े पर बैठा आता हुआ दिखाई दे रहा है । “ “ सुनो सुनो  ...” अजय ने अचानक कहा “ मुझे तो घोडों की टापों की आवाज़ भी आ रही है...” “ बस कर यार ।” रवीन्द्र बोला ” जुकाम के कारण तेरे कान बन्द हैं , यह बलगम की आवाज़ होगी ।“ हम लोग रूमानियत से वास्तविकता के धरातल पर आ चुके थे ।

कल दिन में निखात के उस अंधेरे से साक्षात्कार करेंगे  यह सोच कर हम लोग टीले की ढलान पर बैठ गए  । मैंने कमर सीधी करनी चाही । पूरा आसमान मेरी आँखों के सामने था और उसमें चमक रहा था पूर्णिमा का पूरा चांद । चाँद की रौशनी की वज़ह से सितारे थोड़े मद्धम हो गए थे । मैंने उनमें  ध्रुव तारा ढूँढना चाहा ताकि मैं उत्तर दिशा का पता लगा सकूँ । चाँद को देखते हुए मुझे अचानक ऋतुओं का ख़याल आया और फिर ऋतुओं और चाँद सूरज के सम्बन्ध के बारे में । रवीन्द्र ने डॉ.वाकणकर के सान्निध्य में अपने खगोलीय ज्ञान का काफी विस्तार कर लिया था । मैंने रवीन्द्र से सवाल किया " यार यह बसंत का अयनांत तो नहीं है ? " रवींद्र ने जवाब दिया " भाई अभी अयनांत कहाँ, पिछला अयनांत 21 दिसंबर को हो चुका है और अगला इक्कीस जून को आएगा ।  मैंने फिर रवींद्र से सवाल किया ..यार लेकिन यह अयनांत और विषुव निर्धारित तिथि पर कैसे आते हैं ?"

रवींद्र ने कहा " चलो मैं तुम्हें एक सिरे से समझाता हूँ कि अयनांत यानी सोलिस्टीस और विषुव यानी इक्विनॉक्स क्या होता है । सबसे पहले विषुव यानि इक्विनॉक्स के बारे में बताता हूँ जब रात और दिन बराबर होते हैं । यह हमारे देश में 21 मार्च और 23 सितम्बर को होता है जब रात और दिन बराबर होते हैं । पहले कुछ बेसिक बातें समझ लो । तुमने ग्लोब में यह देखा होगा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर साढ़े तेईस डिग्री झुकी हुई है और वह स्वयं इसी तरह घूमते हुए सूर्य के चक्कर भी लगाती है । उसका यह पथ गोलाकार अथवा लम्बवत नहीं होता बल्कि दीर्घ वृत्ताकार यानि इलेप्टिकल होता है । पृथ्वी के ठीक मध्य से अर्थात उसके पेट से एक काल्पनिक रेखा जाती है जिसे भूमध्य रेखा कहते हैं । पृथ्वी का उपरी हिस्सा जो नासपाती जैसा चपटा है उत्तर ध्रुव तथा दक्षिणी हिस्सा दक्षिण ध्रुव कहलाता है । इस तरह दो गोलार्ध बनते हैं उत्तरी व दक्षिणी ।

अब होता यह है कि सूर्य के चारों ओर घूमते  हुए पृथ्वी की  साल में एक बार ऐसी स्थिति आती है जब वह सूर्य की ओर अधिक झुकी होती है और एक बार ऐसी स्थिति आती है जब वह सूर्य के विपरीत झुकी रहती है । पहली स्थिति में दिन बड़ा होता है और दूसरी स्थिति में रात । लेकिन दो बार ऐसी स्थिति आती है जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर होता है न उसके विपरीत बल्कि वह मध्य में होती है । इन दोनों  स्थितियों में रात और दिन बराबर होते हैं और इन्हें विषुव अथवा इक्विनॉक्स  कहते हैं । अगर इक्विनोक्स के समय हम भूमध्य रेखा पर खड़े हों तो सूर्य ठीक हमारे सर के ऊपर होता है । वैसे दिन और रात बराबर होने कि स्थिति सैद्धांतिक है वास्तव में ऐसा होता नहीं है, फिर अलग अलग देशों में तिथियों में भी फर्क होता है ।

मैंने कहा " इसका अर्थ यह हुआ कि  पृथ्वी का एक गोलार्ध छह माह तक सूर्य की  ओर झुका रहता है और दूसरा गोलार्ध अगले छह माह तक । इसी वज़ह से उत्तर व दक्षिण ध्रुव पर छह माह का दिन और छह माह की रात होते हैं । और जब उत्तरी गोलार्ध में गर्मी होती है तो दक्षिणी गोलार्ध में ठण्ड पड़ती है उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले लोगों के लिए इक्विनॉक्स  के अगले छह माह दिन वाले होते हैं जबकि दक्षिण ध्रुव पर रहने वालों के लिए अगले छह माह रात के । मतलब इस विशेष दिन दोनों ध्रुव के लोगों को सूर्य का प्रकाश एक जैसा देखने को मिलता है ।

" बिलकुल ठीक " रवींद्र ने कहा " अब अयनांत या सोलिस्टीस  के बारे में बताता हूँ यह भी साल में दो बार आता है 21 जून को जब दिन सबसे बड़ा होता है और 21 दिसंबर को जब दिन सबसे छोटा होता है । ग्रेगोरियन वर्ष आरम्भ होने के समय अर्थात जनवरी में सूरज दक्षिणी गोलार्ध में होता है फिर वह उत्तरी गोलार्ध में जाना शुरू करता है मकर संक्रांत से । लेकिन दिसंबर आते आते फिर दक्षिणी गोलार्ध में पहुँच जाता है । इस तरह आते जाते सूर्य वर्ष में दो बार भूमध्य रेखा पर होता है । असल में सूर्य कहीं नहीं जाता वस्तुतः यह भी पृथ्वी के घूमने के कारण ही होता है । अयनांत को कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि जून में यदि उत्तर ध्रुव से देखा जाए तो सूर्य  सर्वोच्च ऊंचाई पर होता है इसे ग्रीष्म अयनांत  कहते है उसी तरह दिसंबर में यह सूर्य  दक्षिण ध्रुव से देखा जाए तो यह वहाँ से सर्वोच्च ऊंचाई पर होता है ऐसा दिसम्बर में होता है इसलिए उसे शीत अयनांत कहते हैं । जो एक ध्रुव के लिए ग्रीष्म अयनांत होता है वह दुसरे ध्रुव के लिए शीत अयनांत होता है

" मतलब यह कि अभी फरवरी का महिना है और दिन बड़े होते जा रहे हैं " मैंने निष्कर्ष दिया । इस वक़्त चाँद हमारे सामने था और हमारी यह गुस्ताख़ी थी कि हम चाँद की बात न करके सूरज की बात कर रहे थे । चाँद हमसे नाराज़ न हो जाए इसलिए मैंने अपने भीतर के वैज्ञानिक ,खगोलज्ञ और पुरातत्ववेत्ता से कहा .." तुम अभी चुप रहो " और कवि से कहा .. " कोई कविता सुनाओ " मैंने गुनगुनाना शुरू किया ..और बेसाख्ता मेरे मुँह से एक गीत फूट पड़ा..”ये पीला बासंतिया चांद…संघर्षों का ये दिया चांद… .चंदा ने कभी रातें पी थीं… रातों ने कभी पी लिया चांद । “ कभी क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय भोपाल में अध्ययन के दौरान कवि रमेश यादव से यह गीत सुना था।


“ बस कर यार । ” इतनी ठण्ड में तुझे बासंतिया चांद कहाँ से दिखाई दे रहा है ? रवीन्द्र भारद्वाज ने मेरे भीतर के कवि और गायक से पुरातत्ववेत्ता की तरह सवाल किया । मेरा रूमानियत का किला उसके इस डायनामाईट से ध्वस्त हो चुका था ..मैं भौंचक होकर उसकी ओर देखता रहा कि अचानक मुझे चुप कर वह खुद शुरू हो गया ‘शरद रैन मदमात विकल भई , पिउ के टेरत भामिनी कैसी, कैसी निकसी चांदनी कैसी..चांदनी चांदनी चांदनी....। उसके बाद हम लोग बसंत और शीत ऋतु के कालखंड और अयनांत पर बहस करते हुए अपने तम्बू में वापस आ गये । 

🔲 शरद कोकास 🔲

1 टिप्पणी:

  1. भैय्या जल्दी बताईये की टीले के अन्दर से क्या क्या मिला. भूमिका बहुत हो गयी

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