गुरुवार, 3 सितंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-आठवां दिन -दो

विगत दिनो मेरे अनेक नये मित्रों ने मेरे इस ब्लॉग पुरातत्ववेत्तापर दस्तक दी है । आप सभी को मैं अत्यंत विनम्रता पूर्वक यह जानकारी देना चाहता हूं कि मैने इस ब्लॉग की रचना वैज्ञानिक दृष्टि के विकास और इतिहास बोध निर्माण के लिये की है । इसमें मै सबसे पहले अपने उन दिनो की डायरी लिख रहा हूँ जब मै विक्रम विश्वविध्यालय उज्जैन में प्राचीन भारती इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व में स्नातकोत्तर का छात्र था । उन दिनो भारत के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता पद्मश्री डॉ. वि.श्री. वाकणकर ( जिन्हे भीमबैठका गुफाओं में शैल चित्रों की खोज का श्रेय प्राप्त है ) के निर्देशन मे इन्दोर के पास चम्बल के किनारे दंगवाड़ा नामक स्थान पर हम लोगों ने इस उत्खनन शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त किया था । उस शिविर की रोचक जानकारी मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । इसमें डॉ.वाकणकर द्वारा प्रदत्त इतिहास और पुरातत्व की ज्ञानवर्धक जानकारी तो है ही साथ साथ छात्र जीवन की मस्तियाँ भी शामिल हैं । एक अर्थ में पहलद्वारा प्रकाशित मेरी लम्बी कवितापुरातत्ववेत्ता की यह भूमिका भी है । यह दैनन्दिनी आपको अवश्य पसन्द आयेगी । निवेदन यह भी है कि यदि पिछली कड़ियाँ भी पढ़ेंगे ( जिसकी सुविधा साईड बार में 25 पूर्व पोस्ट वाले गैजेट में है) तो आपका यह आनन्द द्विगुणित हो जायेगा । आपका –शरद कोकास


इस  घटना से राममिलन भैया अत्यंत दुखी हो गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि अब वे एक पल भी इस कैम्प में नहीं रहना चाहते । डॉ. आर्य के आगे जैसे ही हमने अपने उद्दंडता पुराण का पाठ किया उन्होंने बहुत गम्भीरता से कहा “ देखो भाई ,लगता है पंडित बहुत डर गया है, अब उसे और ज़्यादा परेशान मत करो वरना वह कैम्प छोड़कर चल देगा और बात सर तक पहँच जाएगी तो बहुत मुश्किल हो जाएगी ।“ डॉ.वाकणकर कुछ देर पूर्व ही किसी कार्यवश उज्जैन के लिए निकल गए थे । हमने सोचा जब तक वे वापस आएँ तब तक तो मज़ा लिया ही जा सकता है, उसके बाद हम लोग राममिलन भैया से माफ़ी-वाफी मांग लेंगे और उन्हें प्रसन्न कर लेंगे, वैसे भी इतने सह्रदय हैं कि बुरा नहीं मानेंगे । सो हमने डॉ. आर्य को भी मनाकर अपनी शरारत कम्पनी  में शामिल कर लिया ।

            राममिलन भैया चूँकि हम लोगों से सख्त नाराज़ हो गये थे इसलिए उन्होंने बाहर आकर घोषणा की कि वे हम लोगों के साथ टेंट में रात नहीं बिताएंगे सो वे तुरंत अपना बिस्तर हम लोगों के टेंट से उठाकर ले गए और अवशेषों वाले तम्बू में शिफ्ट हो गए । भोजन करते वक़्त भी राममिलन भैया हम लोगों से रूठे रूठे रहे और चुपचाप अपना भोजन ग्रहण करने के उपरान्त बिना कुछ बोले जाने लगे । किशोर भैया ने उन्हें छेड़ते हुए कहा " देखना भैया, अच्छे से सोना, उस तम्बू के ठीक ऊपर एक बरगद का पेड़ है कोई कह रहा था कि उस पर भी एक हज़ार साल से कोई जिन्न रहता है ।"

            भोजन के बाद हम लोग धीरे से दबे पांव राममिलन भैया के टेंट की और गए लेकिन उन्होंने पर्दे की डोरियाँ बाँध रखी थीं और भीतर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा था । किशोर भैया ने धीरे से एक दरार से झांककर देखा राममिलन भैया एक निवार वाले पलंग पर बैठे हुए थे और कुछ पढ़ रहे थे । वे हमारे पास आये और कहा "क्या ख्याल है जिन्न की आवाज़ निकाली जाए ?" मैंने उन्हें टालने के हिसाब से कहा " किशोर भाई अभी तो वो जाग रहे हैं सब समझ जायेंगे , जब सो जायें तब डराना ।" मुझे इस बात का आभास था कि अगर बात हद से बाहर चली गई तो मुश्किल हो जायेगी ।

             फिर हम लोग अपने तम्बू में आ गए । रात  के किस्सों में बस राममिलन भैया के ही किस्से शामिल थे । अशोक ने कहा " पता है अपने राममिलनवा एक बार पुलिस के सिपाही को धौंस देकर आ गए थे । " अरे.. अरे क्या हुआ था ?" अजय ने अपनी गर्दन सामने की ओर बढ़ाते  हुए कहा । " हुआ यह कि .." अशोक ने बताना शुरू किया " अपना वह जूनियर नहीं है ..क्या नाम है उसका पटेल ,उसे अपनी साइकिल के पीछे बिठाकर राममिलन भाई कंठाल के पास से कहीं गुजर रहे थे । ग़लती से वे रांग साइड कहीं घुस गए । सामने ही ट्रेफिक का सिपाही था उसने इनकी साइकिल का हैंडल पकड़ लिया और कहा " रांग साइड कहाँ घुसते हो ?" राममिलन भैया का रौब तो उनके कपड़ों से ही जाहिर होता है , चुस्त पैंट वह भी कड़क क्रीज वाली, करीने से इन की हुई शर्ट ,चमचमाता हुआ चमड़े का जूता और आँखों पर गोगल्स । वे सीधे खड़े हो गए और कहा " हमका चीन्हे नहीं हो लगता । फिर डांटने के अंदाज़ में कड़कती हुई आवाज़ में उस सिपाही से कहा .. ए यू पुलिस मैन ..आई ऑफिसर ..टू द हेड मास्टर आई बेग टू से दैट आई ऍम सफरिंग फ्रॉम फीवर सिंस लास्ट नाईट काइंडली ग्रैंट मी थ्री डेज़ लीव ,अंडरस्टैंड यू ट्रेफिक मैन रोड साइड ... बस पुलिसवाले ने उनकी यह भयानक अंग्रेज़ी सुनकर उन्हें सलूट मारा और कहा .. ठीक है सर.. जाइए ।" उसके बाद हँसते हँसते ही हम लोग सो गए ।

            बहरहाल आज की सुबह अन्य दिनों की भांति ही हुई । आज हमारा यहाँ आठवां दिन है । डॉ.वाकणकर कल शाम ही उज्जैन निकल गए थे और आज शाम तक लौटने वाले थे । उनकी अनुपस्थिति में आर्य सर के मार्गदर्शन में हम लोगों ने हमें स्वतन्त्र रूप से सौंपी हुई ट्रेंच क्रमांक चार पर स्वतंत्र रूप से कार्य प्रारंभ किया । आज हमने पुन: 'पेग क्रमांक दो' से प्रारम्भ कर दक्षिण की ओर दो मीटर के वर्गाकार टुकड़े में खुदाई की । डॉ.वाकणकर की अनुपस्थिति और आर्य साहब की हमारी ट्रेंच पर निरंतर उपस्थिति की वज़ह से आज मुख्य ट्रेंच पर काम बंद था । वहाँ के सारे मज़दूर भी आदेशानुसार हमारी ट्रेंच पर पहुँच चुके थे इसलिए काम बहुत तेज़ी से हुआ । दोपहर तक हम लोग उत्खनन करते हुए 1.35 मीटर तक पहुँच चुके थे । हम लोगों के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि थी ।

            आज हमने सबसे ऊपरी सतह से अर्थात पहले स्तर से कार्य प्रारंभ किया था । आधे मीटर नीचे उतरने के बाद दूसरे स्तर पर हमें दस सेंटीमीटर मोटी रेत की एक परत मिली । हमने डॉ.वाकणकर को दिखाने के उद्देश्य से रेत की उस परत को यथावत रखकर उसके साइड में खोदना प्रारंभ किया । इसके पश्चात और गहराई में उतरने पर तीसरे स्तर पर ईट का बना एक फ्लोर प्राप्त हुआ । इस तरह अब हमारे सामने सीढ़ीनुमा तीन सतह थीं सबसे ऊपरी सतह पर मिट्टी, फिर दूसरी सतह पर भी मिटटी लेकिन उसके नीचे रेत और तीसरी सतह पर ईटों का बना फ्लोर ।

            इस फ्लोर को स्पष्ट रूप से प्राप्त करने के लिए  हमने बाईं ओर इसका विस्तार किया अर्थात बाईं ओर थोड़ी खुदाई और की । ज़मीन के इतने नीचे रेत की परत देखकर हम लोगों को आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके ऊपर के दो स्तरों में सिर्फ मिटटी थी । हम सोच में पड़ गए कि इतने नीचे रेत कैसे पहुँची होगी ?

            रेत की परत के विषय में बताते हुए डॉ.आर्य ने कहा " तीसरे स्तर पर जो ईटों का फ्लोर है वह किसी बस्ती का प्रतीक है । हो सकता है उस समय नदी की बाढ़ यहाँ तक आई हो और उसमें यह बस्ती डूब गई हो ,यह रेत की सतह उसी वज़ह से है, लेकिन अगर यह इसी स्तर पर काफी दूर तक मिलेगी तभी यह कन्फर्म होगा अन्यथा यह किसी के द्वारा इकठ्ठा की गई रेत भी हो सकती है । उसके ऊपर की सतह पर मिटटी होने का अर्थ है कि बाढ़ के बाद जब कई बरस बीत गए और यह ज़मीन गाद मिटटी आदि से पट गई उस पर फिर से नई बस्ती बस गई ।"

            शाम का काम समाप्त होने से पूर्व डॉ.वाकणकर  शिविर पहुँच चुके थे । मुख्य ट्रेंच देखने के बाद वे हमारी प्रशिक्षण ट्रेंच पर आये । सबसे पहले उन्होंने तीसरे स्तर पर प्राप्त ईटों की इस फ्लोर का अवलोकन किया। हम लोगों ने उनसे रेत की उस सतह के विषय में भी पूछा । काफी देर तक अवलोकन करने के पश्चात उन्होंने कहा " यह ईटों का फ्लोर किसी ताम्राश्मयुगीन मकान का हिस्सा लगता है जो किसी आक्रमण, अग्निकांड अथवा बाढ़ के फलस्वरूप नष्ट हुआ है । केवल रेत के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सभ्यता बाढ़ की वज़ह से नष्ट हुई होगी । यह भी केवल अभी अनुमान है । अभी हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच रहे हैं । उत्खनन के विस्तार में जाने पर ही यह तय हो सकेगा कि वास्तविक कारण क्या था ।"  

            सर द्वारा प्रदत्त इस जानकारी ने हमें उत्साह से भर दिया । हमें याद आया कि हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो में भी खुदाई के दौरान इसी तरह पूरा का पूरा शहर निकला था । वहाँ उन अवशेषों के बीच खड़े पुरातत्ववेत्ताओं के छाया चित्र हम लोगों ने किताबों में छपे हुए देखे थे । हम लोग कल्पना करने लगे कि बस दो-तीन दिनों में हम भी यहाँ पूरा शहर ढूँढ निकालेंगे और फिर इन अवशेषों के बीच खड़े रहकर फोटो खिचवायेंगे । ग़नीमत कि डॉ वाकणकर से हम लोगों ने अपने इस शेखचिल्ली वाले ख़्वाब के बारे में कुछ नहीं कहा वर्ना वे उसी क्षण हमें डंटियाते हुए हमारा स्वप्न भंग कर देते ।

            यह बात तो हमें बहुत बाद में समझ आई कि किसी भी अवशेष की प्रारम्भिक अवस्था को देखकर उसके भविष्य के बारे में अटकलें नहीं लगाना चाहिये क्योंकि अनुमान गलत भी हो सकते हैं । बिना सम्पूर्ण प्रमाणों के केवल  पूर्वाग्रहों के आधार पर लिखा गया इतिहास हमेशा हमेशा के लिए  गलत मान्यताओं को स्थापित कर देता है । हमारे देश के इतिहास लेखन में कई बार ऐसा हुआ है जब यथार्थ से अधिक अनुमान या कल्पना को स्थान दिया गया ।

            शिविर में वापस लौटते हुए हमने सर से सवाल किया "सर, लेकिन केवल अनुमान या कल्पना के आधार पर लोग इतिहास कैसे लिख देते हैं ? ' सर ने कहा "इसके अनेक कारण हो सकते हैं जैसे काम की जल्दबाज़ी, आधा अधूरा ज्ञान, पूर्वाग्रह, पुरस्कार या नाम हासिल कर लेने का लोभ या  सत्ता का दबाव आदि । हालाँकि कई बार पूरे प्रमाण मिलते ही नहीं हैं । इतिहासकारों में इस बात पर विवाद अब तक जारी है कि ऐसी स्थिति में निष्कर्ष पर मुहर लगानी चाहिए या नहीं ।" जो भी हो आज साईट से लौटते समय हम लोग बहुत उत्साह में थे । ऐसा लग रहा था जैसे हमारा आना सार्थक हो गया है । इस खुशी में आज हम लोग फिर एक बार सिटी का चक्कर लगा आए  । हाँ ..आज राम मिलन भैया हमारे साथ नहीं गए 

11 टिप्‍पणियां:

  1. हम इतिहास को झुठला नही सकते है..ऐसे बहुत से प्रमाण आ चुके है और बहुत से आते रहेंगे..मोहनजोदड़ो और हडप्पा भी एक खोज ही थी और खोज जारी रही तो हमे बहुत कुछ नया मिलेगा. आपका लेख सार्थक है..बधाई

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  2. aapse sahmat hu purwagrah ke aadhar par kiya gaya koi bhi kaam bhawishay ke liye prashn chinh chhod jata hai ..niymit padh rahi hun.

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  3. हां भाई पर निरपेक्ष कुछ होता भी नही
    पक्षधरतायें तो होती ही हैं

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  4. रोचक जानकारी है। शायद इसी बहाने हमारी सभ्यता और संस्कृति के कुछ पहलू सामने आएं।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  5. सुन्दर लेख ........जानकारी अच्छी लगी....

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  6. रोचक जानकारी!! बढिया पोस्ट्!!
    ये पूर्वाग्रह वाली बात तो इस जगत की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू होती है। यदि जीवन में अपने पूर्वाग्रहों को लेकर ही जीते रहेंगे तो सत्य का मार्ग हमेशा अवरूद्ध रहेगा!!

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  7. पूर्वाग्रह नहीं पूर्वग्रह होता है।

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  8. धन्यवाद राव साहब , यह आप ने सही फरमाया दर असल यूनिकोड में लिखते हुए अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए हैं और कलम से लिखने की प्रेक्टिस ही ज़्यादा है । पोस्ट करने की जल्दी में यह गल्तियाँ हो रही हैं । लेकिन आप ध्यान दिला देते हैं यह आपका प्रेम है । हंस मे अभिनव ओझा भी यही काम करते हैं । ब्लॉग की दुनिया में भी एक ऐसे "सुधारक" की ज़रूरत है । - आपका शरद कोकास

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  9. itihas bhi dilchasp hota hai, is par yakin karane ke liye apaki dairy ko dekhana zaroori ho jata hai

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