शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-नवां दिन –दो

 नहीं भाई राव साहब ,डायरी बिला नहीं गई ,मै नवरात्र की कविताओं मे इतना व्यस्त हो गया था कि बिलकुल फुरसत नही मिली यह समझो कि खुदाई का काम बन्द हो गया था । चलो आज से फिर शुरू कर देते हैं । दर असल पुरातत्ववेत्ता के साथ ऐसा ही होता है ,वह करता कुछ है और लोग समझते कुछ हैं । चम्बल के किनारे उज्जैन के पास दंगवाड़ा के इस टीले पर भी हमारे साथ ऐसा ही हुआ । चलिये चलते हैं,रवीन्द्र भारद्वाज,अशोक त्रिवेदी.किशोर त्रिवेदी,अजय जोशी और राममिलन शर्मा के साथ और पूछते है डॉ.वाकणकर से कुछ नये सवाल । हाँ पहले उस दिन का किस्सा ज़रा याद कर लिया जाये । दृश्य यह है कि  ट्रेंच मे कहीं से एक साँप घूमता घामता आ गया है और काम वहीं रुक गया है सारे मज़दूर डरे हुए हैं और सच पूछो तो हम भी और डॉ. साहब हम लोगों का उत्साहवर्धन करने का प्रयत्न कर रहे हैं .. 

हम ज़मीन में गड़ा हुआ धन खोजने आये हैं
                     ट्रेंच से साँप की विदाई के पश्चात काम फिर आगे बढ़ा । आज हमें रेत की लेयर के नीचे फ्लोर तक पहुँचना ही था । लेकिन मज़दूरों में कोई उत्साह नहीं दिखाई दे रहा था । शायद वे साँप देखकर डर गये थे । “ कईं व्ही गयो ? “ डॉ. वाकणकर ने उनकी असमंजसता देख कर उनसे पूछा । एक मज़दूर ने धीरे से कहा “ बासाब यहाँ गड़ा हुआ खजाना तो नहीं है ? “ सर ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा ..” अरे तुम लोग कहीं यह तो नहीं समझ रहे हो कि यह खजाने वाला साँप था और अपने खजाने की रक्षा के लिये यहाँ बैठा था ? “ मज़दूर बेचारे क्या कहते वे तो सदियों से चली आ रही इस मान्यता के निरक्षर संवाहक थे । “ भई न तो ज़मीन में गड़ा कोई खजाना होता है न ही उसकी रक्षा करने वाला साँप होता है ,सब मनगढ़ंत बातें हैं ।
फिर सर हम लोगों की ओर मुखातिब होकर बोले “ देखो अपने देश में कैसी कैसी मान्यतायें व्याप्त हैं । हम लोग एक साइट पर उत्खनन कर रहे थे वहाँ गाँव वाले रोज़ आते थे और पूछते थे “ कईं बा साब सोणा खोदण वास्ते आया हो कईं ? “ एक गड़रिया बालक तो रोज़ आता था और घंटों खड़ा रहता था । रोज़ सुबह आते ही सबसे पहले वह पूछता “ कईं सोणा मिल्यों कईं ? “ मैं ना में सर हिला देता तो वो फिर पूछता “फेर कईं मिल्यो ? “ तो मैं ये टूटी –फूटी पॉटरीज़ की ओर इशारा कर देता और कहता “ई मिल्यो है”। तो वह बड़े लोगों की तरह सिर हिलाता और कहता .”.हूँ ठीकरो मिल्यो है । “ और फिर वह हँसता हुआ चला जाता ।
सही है रवीन्द्र ने कहा “ आम लोग अभी भी यही समझते हैं कि हम लोग गड़ा हुआ धन खोजने आये हैं । हम लोग जब शाम को दंगवाड़ा जाते हैं तो गाँव के लोग यही सवाल करते हैं । “ अरे बाप रे.. दंगवाड़ा का नाम रवीन्द्र ने क्या लिया सर का ध्यान हम लोगों की शरारत की ओर चला गया । उन्हे आर्य साहब ने बता दिया था कि हम लोगों ने राम मिलन के साथ शरारत की है और उसे अगिया बेताल के नाम पर डराने की कोशिश की है । उन्होने तुरंत कहा “ अच्छा तो तुम लोग दंगवाड़ा इसीलिये जाते हो कि बापड़े को परेशान करो । वो तो अच्छा हुआ मैने तुम लोगों की तरफ से समझा दिया नहीं तो वो कैम्प छोड़कर जा रहा था । “हम लोग क्या कहते कहाँ हमे डाँट खाने की उम्मीद थी लेकिन सर ने तो खुद ही हमे उबार लिया था


20 - पाँच खुर वाला घोड़ा 


            ठण्डी हवाओं ने आज अपने बक्से से कुछ तेज़ सुइयाँ निकाल ली हैं और हमें चुभो रही है  । ठण्ड से डरने का एक कारण यह भी है कि हम लोग शहर के रहने वाले हैं और इतनी ठण्ड की हमें आदत नहीं है । राममिलन भैया का बिस्तर अपने तम्बू में स्थापित करने के उपरांत हम लोग भोजन करने के लिए भोजनशाला में चले गए । अधिक रात नहीं हुई थी सो इतनी जल्दी बिस्तर में घुसने का मन भी नहीं था । ठण्ड की वज़ह से कहीं  टहलने जाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी । लेकिन किसी न किसी तरह समय तो बिताना ही था और हम किसी उपाय की तलाश में थे । कभी कभी ऐसा होता है कि हम समय बिताने के समस्त विकल्पों के बावज़ूद संतुष्ट नहीं होते हैं और किसी नवीनता की तलाश में रहते हैं ।

            ठण्ड भगाने के उपायों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है । सामान्य ठण्ड होती है तो हम हल्का फुल्का कोई स्वेटर पहन लेते हैं ,फिर ठण्ड बढ़ी तो कानों को ढँक लेते हैं । कोट, ओवरकोट,ऊनी पैंट , मफलर , इनर ,टोपी,शाल जाने कितने विकल्प होते हैं हमारे पास । लेकिन दुनिया में ऐसे करोड़ों लोग हैं जिनके पास यह सब कुछ नहीं होता । मुझे उस हिमयुग में जीवित रहने वाले उस आदिम मनुष्य की याद आई जिसके पास तन ढंकने के लिए भी कुछ न था उसके बाद भी वह भीषण ठण्ड में बचा रहा । ऐसा क्या था उसके पास मैं सोचने लगा और मुझे याद आया ...हाँ उसके पास आग थी ।

            सो हमने भी आज भोजनोपरांत कहीं टहलने जाने की बजाय तम्बू के सामने आग जलाकर ठण्ड से मुकाबला करते हुए गपशप करने का प्लान बनाया । कुछ लकडियाँ हम भोजनशाला से ले आए कुछ आसपास से इकठ्ठा कर लीं । आर्य साहब ने हम लोगों को लकड़ियाँ चुनते देखा तो खुश हो गए .." अच्छा तो आज कैंप फायर का प्रोग्राम है ?" मैंने कहा " सर, पहले लकड़ियाँ तो इकठ्ठी हो जायें , फायर तो बाद की बात है ।" उन्होंने हमारा उत्साह वर्धन करने के लिए घोषणा कर दी  “ जो सबसे ज़्यादा लकड़ियाँ इकठ्ठा करेगा उसे मेडल प्रदान किया जाएगा ।" इतने में डॉ. वाकणकर आते हुए दिखाई दिए उन्होंने आर्य साहब की यह घोषणा सुन ली थी । “ क्यों यहाँ कोई ओलम्पिक हो रहा है क्या ? “ उन्होंने सवाल किया । " हाँ सर , आग जलाने के लिए लकड़ी चुन कर लाने की स्पर्धा हो रही है । " अजय ने कहा ।

            अजय दौड़कर सर के तम्बू से एक मोढ़ा लेकर आ गया और उनके लिए बैठने की व्यवस्था कर दी । अब तक पर्याप्त लकड़ियाँ इकठ्ठा हो चुकी थीं । सर ने कहा "भाई आग तो जलाओ ।" अशोक की जेब में माचिस थी लेकिन पोल खुल जाने के भय से उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि जेब से माचिस निकाल कर आग लगाए । " अभी आया " कहकर वह उठा और भोजनशाला तक गया फिर तुरंत वहाँ से लौटकर आया और जेब से माचिस निकालकर आग जलाने लगा । सर मुस्कुराए और धीरे से कहा .. " अरे जेब में थी तो यहीं निकाल लेना था ना  ...इतना नाटक करने की क्या ज़रूरत थी ।" अशोक ने कुछ नहीं कहा और शर्म की वज़ह से लकड़ियों के परदे में अपना मुँह छुपा लिया ।

            हम लोग भी आग सुलगाने में अपनी अपनी तरह से अशोक की मदद करने लगे  । जैसे ही लकड़ियों ने आग पकड़ी और लपटें  कुछ तेज़ हुई  हम लोग उसके इर्द -गिर्द पालथी मारकर बैठ गए और सर से कुछ ज्ञानवर्धक बात सुनने की आशा में अपने कान खड़े कर दिए ।  हमें पता था, सर से जब तक कोई सवाल नहीं करेंगे उनके मुखारविंद से कोई ज्ञानवर्धक बात नहीं निकलेगी । अजय ने इसका ज़िम्मा लिया और तुरंत उनकी पिछली बात के तारतम्य में प्रश्न उछाल दिया “ सर ये ओलम्पिक खेलों की शुरुआत कैसे  हुई ?

            सर ने कहा “ यूनान या ग्रीस के बारे में तो तुम लोग जानते ही हो । ग्रीक माइथोलॉजी के अनुसार सबसे पहले खेल की यह प्रतियोगिताएँ ओलिम्पस पर्वत पर रहने वाले यूनानी देवी देवताओं के बीच प्रारंभ हुईं । एक दंतकथा के अनुसार एक प्रतियोगिता में सर्वोच्च देवता का पद प्राप्त करने के लिए उनके देवता ज्यूस या जीयस ने अन्य देवताओं को हराया । कुछ लोग कहते हैं हेराक्लीज़ नाम के एक देवता ने इसकी शुरुआत की । वैसे ओलम्पिक की शुरुआत के बारे में कुछ और दंतकथाएँ भी हैं । एक कथा तुम लोगों को सुनाता हूँ ।"

            सर की बात सुनकर हम लोग आग के और करीब आ गए । सर ने कहानी शुरू की । " प्राचीन यूनान में ओयेनामस नामका एक राजा था । उसकी हिप्पोडामिया नामक एक सुन्दर कन्या थी । एक श्राप के अनुसार यह तय था कि राजा की मृत्यु उसके ही दामाद के हाथों होगी इसलिए वह अपनी बेटी का विवाह ही नहीं होने देता था । लेकिन जब ज़रूरत हुई और रिश्ते आने लगे तो उसने यह शर्त रखी कि विवाह का इच्छुक जो भी युवक होगा उसे सर्वप्रथम राजा को रथ दौड़ में हराना होगा तभी वह उसकी कन्या से विवाह कर सकेगा । राजा ओयेनामस के पास समुद्र के देवता पोसाईडान द्वारा दिया गया एक दिव्य रथ था जिसके घोड़े हवा से भी तेज़ दौड़ते थे, इसलिए वह जानता था कि उसे हराना असम्भव है ।"

            कहानी में हम लोगों को मज़ा आने लगा था । सर ने कहानी आगे बढ़ाई "अब जो भी युवक राजा की  बेटी से विवाह करने आता था वह रथ दौड़ में राजा से हार जाता था और उसके हाथों मारा जाता । इस तरह अठारह युवकों को रथ दौड़ में हार जाने की वज़ह से अपनी जान गंवानी पड़ी । अंततः पोलेप्स नामक एक राजकुमार हिप्पोडामिया से विवाह करने आया । वह इतना सुन्दर था कि उसे देखते ही राजकुमारी उसे अपना दिल दे बैठी । इधर राजकुमार पोलेप्स ने इस दौड़ में जीतने के लिए एक चाल चली । उसने राजा के इस दिव्य रथ के सारथी मार्तिलस को पटा लिया । उसने उसे प्रलोभन दिया कि वह अगर जीतेगा तो वह राजा को मार डालेगा और उसके राज्य का स्वामी बनने के बाद उसे आधा राज्य भी दे देगा । यही नहीं बल्कि विवाह के बाद उसे पहली रात भी राजकुमारी के साथ बिताने को मिलेगी ।"

            "बाप रे ।" अजय ने कहा । " यह तो बड़ा भारी प्रलोभन था ।" "आगे सुनो.." सर ने कहा । "मार्तिलस ने पोलेप्स की बातों में आकर राजा के रथ के पहिये से कांसे की पिन निकालकर उसकी जगह मोम की पिन लगा दी । अब जैसे ही रथ दौड़ प्रतियोगिता प्रारंभ हुई कुछ ही देर में राजा के रथ की मोम की पिन पिघल गई और वह अपने ही रथ के नीचे आ गया इस तरह उसकी मृत्यु हो गई  । हाँ उसका सारथी इसमें बच गया लेकिन राजकुमार ने उसे पकड़कर उसकी हत्या कर दी । "

            " बिलकुल ठीक किया सर उसने " अजय ने कहा । " लेकिन अपनी बीबी का सौदा किया यह अच्छा नहीं किया ।" "अरे यह कहानी है भाई ।" रवींद्र ने कहा "कहानियों में ऐसा ही होता है, हमारे यहाँ नहीं धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी को ही दांव पर लगा दिया था । ' फिर वह सर की ओर मुख़ातिब होकर बोला .." हाँ सर, फिर क्या हुआ ?

            "फिर क्या होना था ।" सर ने कहा " उसकी राजकुमारी से शादी हो गई । कहते हैं कि इसी जीत की स्मृति में और राजा को श्रद्धांजलि स्वरूप पोलेप्स द्वारा ओलम्पिक खेलों की शुरुआत की गई । इस तरह प्राचीन यूनान में उत्सव-पर्व आदि पर खेलकूद प्रतियोगिताएं  आयोजित होने लगीं । कहते हैं यह मशहूर प्रतियोगिता यूनान के पेलोपोनेसस प्रांत में ओलम्पिया नामक स्थान पर होती थी । इसीलिए इसका नाम ओलम्पिक पड़ा । यहाँ ओलिम्पस पर्वत पर रहने वाले ग्रीक देवता ओलिम्पी जियस का मन्दिर था जिसमें यूनानी मूर्तिकार फीडियस द्वारा निर्मित जियस की मूर्ति थी । साथ ही इस मन्दिर के आसपास अन्य देवी देवताओं, वीर पुरुषों और ओलम्पिक विजेताओं की भी अनेक मूर्तियाँ थी । यहाँ व्यायामशालायें भी थीं । एक दंतकथा के अनुसार हेराक्लीज़ ने यह ओलिम्पी जीयस का मंदिर बनवाया था । हालाँकि पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि सारे मंदिर और मूर्तियाँ मनुष्यों ने ही बनाई थीं ।"

            “सर जी, उनका देवता तो जियस था फिर ये ओलिम्पी जियस नामक देवता उससे कोई अलग देवता था क्या ?“ अजय ने बीच में ही सवाल किया । “अरे नहीं रे बावड़े ।“ सर ने कहा “अपने यहाँ कैसे एक ही देवता के अलग अलग नाम होते हैं जैसे … “ वे आगे उदाहरण देने ही वाले थे कि राममिलन ने तपाक से कहा …” जैसे बजरंग बली के नाम पवनसुत, अंजनीपुत्र, महावीर, केसरी नंदन ,फिर दक्षिणमुखी हनुमान, उत्तरमुखी हनुमान, मनोकामना हनुमान आदि । “ वाह भाई वाह ।“ आर्य सर ने कहा …” देखो इस बजरंग बली के भक्त ने बिलकुल सही बताया । अपने यहाँ उज्जैन में जैसे कालभैरव हैं और उन्हें लोकभाषा में भेरू बाबा कहा जाता है उनके नाम से भेरू बाबा के कितने मंदिर बन गए हैं । "हाँ सर“  मैंने कहा “मैंने भी देवास गेट पर एक उखाड़ पछाड़ भेरू बाबा का मंदिर देखा है । ऐसा कहते हैं कि जब भेरू बाबा नाराज़ हो जाते हैं तो तबाही मचा देते हैं ।“ वाकणकर सर को पता नही यह सुनकर क्या याद आया , वे उठे और अभी आता हूँ कहकर अपने तम्बू की ओर चले गए ।
            अशोक ने उनके जाते ही कहा “भाई अपने यहाँ तो भेरू बाबा ने अभी तक कोई तबाही नहीं मचाई है, लेकिन यह सही है कि एक भगवान से लोगों का मन नहीं भरता इसलिए सभी ने अपने अपने भगवान बना लिए हैं, उनके नाम पर अलग अलग धर्म बना लिए हैं और अब अपने अपने भगवानों को लेकर आपस में लड़ रहे हैं । एक कहता है मेरा भगवान बड़ा है दूसरा अपने भगवान को बड़ा बताता है, और तो और एक धर्म के भीतर भी कई उपधर्म हो गए हैं और उनके भी अपने अलग अलग भगवान हैं । जिनके भगवान एक हैं उनके अनुयायियों  में भी इस बात के लिए लड़ाई हो रही है कि मैं बड़ा भक्त हूँ । और जिनके अनुयायी एक हैं, उनके भगवानों में लड़ाई हो रही है । कहीं मनुष्य ने अपने आप को भगवान घोषित कर दिया है और दूसरे मनुष्य के भगवान को खारिज कर दिया है । सबके अपने अपने नियम हैं और वे अपने नियमों से अन्य को संचालित करना चाहते हैं । “
            “ यहाँ तक तो ठीक है …” किशोर ने कहा । “ लेकिन अपने धर्म को बड़ा और अपने भगवान को बड़ा और अन्य के धर्म और भगवान को छोटा बताकर जो वैमनस्यता फैलाई जाती है और दंगे किए जाते हैं वह तो बिलकुल ग़लत है । “ “ इसका केवल एक कारण है …” मैंने अपना ज्ञान बघारना शुरू किया । “ वास्तव में लोगों ने इतिहास को ठीक ढंग से पढ़ा ही नहीं है । इतिहास बोध के अभाव में केवल सतही ज्ञान व अपने ग्रंथों के आधार पर डींग हाँकना कहाँ तक उचित है । “ “ बिलकुल सही …” अशोक ने कहा “ कुछ ग्रंथ तो लिखे भी इसी उद्देश्य से गए जैसे बौद्ध धर्म की महत्ता समाप्त करने के लिए मनुस्मृति रची गई । फिर ग्रंथ लिखे जाने के बाद अपने ढंग से उनकी व्याख्या की गई । फिर किताबों को लेकर भी लोग लड़ने लगे । कुल मिलाकर यह धर्म है ही झगड़े की चीज ।“
            आर्य सर समझ गए कि अब बहस गम्भीर मोड़ की ओर जा रही है सो उन्होंने  इन्टरप्ट किया …”भाई यह भेरू बाबा से तुम लोग कहाँ पहुँच गए ?" फिर वे ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे और बोले …” सुनो,सुनो ..भेरू से याद आया, तुम लोगों से दो बैच पहले एक स्टूडेंट था भेरू मालवी नाम था उसका । एक दिन वो मेरे पास आया और कहने लगा, सर मेरा नाम बहुत खराब है मैं इसे बदलना चाहता हूँ । मैंने कहा, अरे तुम्हारा नाम तो बहुत बढ़िया है भेरू यानि भैरव, कालभैरव, शिव का नाम है यह । तुम अपने नाम का उच्चारण भैरव मालवी करो देखो कितना अच्छा लगता है । बस नाम को लेकर उसकी ग्लानि समाप्त हो गई ।“ हम लोग समझ गए कि धर्म  पर अब कोई गम्भीर चर्चा नहीं हो सकती ।           
            वाकणकर सर इस बीच अपने तम्बू से एक चक्कर लगाकर वापस आ चुके थे और मोढ़े पर विराजमान हो गए थे । “सर वो ओलम्पिक के बारे में बता रहे थे आप ।“ अजय ने सर को वापस आया देखकर मूल विषय पर वापसी के लिए संकेत दिया । “हाँ ।“ सर बोले “मैं कह रहा था कि उस दौर में ओलम्पिक देखने हज़ारों की संख्या में लोग आते थे । तम्बुओं में उनके रहने की व्यवस्था  की जाती थी लेकिन स्त्रियों के लिए इस ओलम्पिक में प्रवेश निषेध था । इस नियम का उल्लंघन करने वाली स्त्री को मौत की सज़ा तक दी जा सकती थी ।“

          “यह तो बड़ा अन्याय है सर ।“ रवीन्द्र ने कहा । “हाँ ।“ सर ने कहा “ हो सकता है देशकालानुसार ऐसा नियम रहा हो, यह तो बहुत बाद में स्त्रियों ने खेल में भाग लेना शुरू किया । हमारे देश में भी स्त्रियों के लिए बहुत से खेल वर्जित थे और आज देखो लड़कियाँ ही सर्वाधिक पदक जीतती हैं ।“  “ सर अपने यहाँ तो बचपन से ही लड़कियों को लड़कों के खेल खेलने से मना किया जाता है अपने यहाँ की लड़कियाँ कहाँ पदक जीतती हैं । “ अशोक बोला ।

            “ सर वो ओलम्पिक..” अजय ने फिर गाड़ी पटरी पर लाने के लिए इशारा किया । “ हाँ तो मैं बता रहा था... “ सर ने कहा “ इन प्राचीन ओलम्पिक खेलों में कुश्ती, चक्रफेंक, भालाफेंक, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि प्रमुख खेल थे । रथदौड़ के मैदान को हिप्पोड्रोम कहते थे । एक ईवेंट में एक रथ को मैदान के बारह चक्कर लगाने होते थे । कई बार आपस में टकराकर भीषण दुर्घटनायें भी होती थीं ।"

            “सर लेकिन इसमें तो केवल सम्पन्न लोग ही भाग ले पाते होंगे आखिर रथ और चार घोड़े जुटाना आसान नहीं है ।“ मैंने कहा । “हाँ ।“ सर बोले “सम्पन्न लोग ही विजेता होते थे । लेकिन वे रथ नहीं दौड़ाते थे बल्कि उनके सारथी दौड़ाते थे और विजेता भी रथ का सारथी नहीं बल्कि मालिक ही होता था । भले ही दुर्घटना में सारथी मारा जाये इनाम मालिक को ही मिलता था । क्योंकि सारथी तो दास होता था और उसकी कोई हैसियत नहीं थी । “

            "यह तो बहुत ही ग़लत बात है सर ।“ रवींद्र ने कहा " मतलब सारथी को मनुष्य ही नहीं समझा जाता था ।" " यार, तुम लोगों को मालिक और दास की पड़ी है और बेचारे घोड़े का कोई रोल नहीं ? इनाम तो घोड़े को भी मिलना चाहिए । “ मैंने कहा । मेरी बात सुनकर सारे लोग हँसने लगे " लो सुन लो इनकी बात ।" रवीन्द्र ने कहा यहाँ इंसान की बात हो रही है और इन्हें घोड़े की चिंता है । मैंने कहा " क्यों नहीं होगी भाई आख़िर है तो वह इंसान के बराबर का ही साथी आख़िर जंगल के घोड़े ने उंगलियाँ  गँवाकर खुर क्या प्राप्त किया इंसान का वाहन बन गया ।" “ ये क्या कहानी है भाई ? “ रवीन्द्र ने सवाल किया ।“ तुम्हें  नहीं पता ? “ मैंने कहा । “ चलो बताता हूँ ।"

            अब सब लोगों का ध्यान मेरी ओर था । मैंने अपनी बात शुरू की "लाखों साल जब इस धरती पर जंगल ही जंगल थे  घोड़े की पाँच उंगलियाँ हुआ करती थीं । इसका कारण यह था कि जंगलों में ज़मीन पर सूखे पत्ते बिछे होते थे और उन पर दौड़ने के लिए अधिक उंगलियाँ ही काम आती थीं । इनकी वज़ह से उसे ज़मीन पर पैर अच्छी  तरह टिकाने में मदद मिलती थी । कालांतर में जब महावन कम होते गए और मैदानों की संख्या में वृद्धि होने लगी तब घोड़े के उन पूर्वजों को भी खुले मैदान में आना पड़ा । जंगल में छुपने की जगह नहीं बची थी और केवल वही जानवर बच सके जिनकी लम्बी टांगें थीं जिनसे वे तेज़ दौड़ सकते थे । उस वक़्त सबसे ज्यादा तेज़ दौड़ने वाले जानवर घोड़े ही थे ।

"लेकिन उसे मैदानी इलाके में आने की ऐसी क्या ज़रूरत पद गई ?" अजय ने सवाल किया ।मैंने कहा " अरे भाई ,उसे भी तो चारा चाहिए था ना और पहले जंगल में वह हिंसक प्राणियों से अपनी रक्षा कर लेता था जब जंगल कम हुए तो उसे भी मैदान में आना पड़ा । अब मैदान में दौड़ने के लिए  अधिक उंगलियों की ज़रूरत ही नहीं बची सो घोड़े की अगली नस्लों में पाँच से घटकर तीन उंगलियाँ हुईं और अंतत: हजारों साल बाद केवल दो उँगलियाँ रह गईं जिन्हें आज हम खुर कहते हैं  । इसके अलावा घोड़े भी पहले आज जैसे कद्दावर नहीं थे बल्कि बौने थे इधर उनकी उँगलियाँ कम होती गईं और कद बढ़ता गया । यह सब उनके जींस में परिवर्तन के कारण हुआ । पुरातत्ववेत्ताओं को सभी काल के घोड़ों की हड्डियाँ मिल चुकी हैं जिनके आधार पर घोड़े की इन प्रजातियों के नाम क्रमश: हिप्पस, मेसोहिप्पस ,प्लियोहिप्पस और इक्वस रखे गए हैं ।"

            सभी ने मेरी बात पर ताली बजाई । रवींद्र ने कहा “अच्छा इसलिए  ओलम्पिक में घुड़दौड़ के मैंदान को घोड़े के जैविक नाम हिप्पो की वज़ह से हिप्पोड्रोम कहते हैं ।“अजय का अभी ओलम्पिक की बात से मन नहीं भरा था उसने सर से कहा " सर यह तो हो गई प्राचीन काल के ओलम्पिक खेलों की बात लेकिन आधुनिक काल में यह खेल कैसे शुरू हुए ?" सर ने कहा "भाई, आधुनिक ओलम्पिक खेलों के बारे में तो कोई खिलाड़ी ही अच्छी तरह से बता पायेगा । लेकिन मेरी जानकारी में  तीन सौ तिरानबे ईसवी में यह खेल बंद हो गए थे । दोबारा इनकी शुरुआत 1896 में हुई । उसके बाद हर चार साल के अंतराल पर यह खेल होते रहे । बीच में शायद युद्ध के समय यह खेल बंद भी हुए थे ।" अजय ने फिर पूछा " सर भारत ने कब इन खेलों में भाग लिया ?" सर ने ऊब कर कहा.." अब सब मुझ से ही पूछोगे क्या .. वैसे मेरी जानकारी के अनुसार भारत ने उन्नीस सौ में इन खेलों में भाग लिया था और एथलेटिक्स में दो रजत पदक भी जीते थे ।

            हम सब लोगों को अब नींद आने लगी थी । रवीन्द्र ने कहा "आज ओलम्पिक  के बारे में बढ़िया कहानी सुनने को मिली, लेकिन यह बात तो है कि कहानियों का कोई ओलम्पिक होगा तो शरद को गोल्डमेडल ज़रूर मिलेगा । “ठीक है ठीक है । चलो अब सो जाकर …सुबह जल्दी सोकर नहीं उठे तो खैर नहीं । और सुनो ..ओलम्पिक की शुरुआत करने वाली उस राजकुमारी का नाम याद है न ..हिप्पोडामिया  ..इसका अर्थ होता है घोड़ों को काबू में रखने वाली, सो वह राजकुमारी भी कई घोड़ों की मालकिन थी । चलो अब सभा समाप्त ।“ सर ने हमारी अलाव सभा बर्खास्त करते हुए फरमान जारी किया ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. सब छोड़ कर पहले ये बताइए कि ये ताजे ताजे 1000 के नोट कहाँ की खुदाई में मिल रहे हैं। मैं अभी ट्रेन पकड़ने के मूड में हूँ। दो दिन छुट्टी है। कुछ हासिल हो जाएगा।

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  2. मैं अपने लॉकर का नंबर और उसकी चाबी भेजूं
    गर मिल जाए तो ...

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  3. ठीकरे को परखने के लिये आंखें चाहियें न। हीरे को कंकर समझने वाली तो पूरी दुनियां है!

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  4. शरद भाई, आपकी शैली बहुत रोचक है और बांध लेता है। पर, बुरा मत मानना, आपका ये ब्लॉग टेम्प्लेट ऐसा है कि पढ़ा नहीं जाता। एक तो हरे रंग के बैकग्राउंड में काले अक्षर वैसे ही समझ में नहीं आते और फिर आपका फोंट साइज भी 11 है, फोंट साइज को 14 कर दो तो ज्यादा अच्छा हो। मैं तो पोस्ट को कॉपी करके तख्ती में पेस्ट करता हूँ और फिर पढ़ता हूँ।

    अधिक अच्छा हो यदि टेम्प्लेट ही बदल दो।

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  5. शरद भाई,कभी इधर पंजाब की तरफ चक्कर लगाईये...हमारेँ यहां भी बहुत से खजाने गढे हैं:)

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  6. अविनाश जी चाबी मेरे पास भेज देना . I कुछ रखना है या निकालना यह फैसला चाबी मिलने पार किया जायेगा ,चाबी वापिस तो नहीं भेजनी पड़ेगी

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