शुक्रवार, 29 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दूसरा दिन-एक- 3 - वे उन्हें ज़िन्दा दफ़ना देते थे -भाग एक




दंगवाड़ा पुरातात्विक उत्खनन कैम्प की यह हमारी पहली सुबह थी । रात का साम्राज्य समाप्त हो चुका था और वह दिवस के जनतंत्र में सूरज को पहला प्रधानमंत्री घोषित कर वापस अपने देश जाने के लिए तत्पर थी । हम लोग रजाई के भीतर सिमटे हुए  पेट से लगाये अपने घुटनों को सीधा करते हुए हुए गहरी नींद से जागने की कोशिश में थे और दुष्यंत का वह मशहूर शेर झुठला रहे थे .."न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढँक लेंगे ,ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए " कमीज़ क्या हमारे पास तो रज़ाई भी थी । बावज़ूद इसके ठंड से बचने के लिए मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले इस नैसर्गिक उपाय के हम अपवाद नहीं थे । सफ़र की तो अभी शुरुआत ही हुई थी ।

            यही कोई छह बज रहा होगा । सुबह का हल्का सा उजाला किसी झिर्री से हमारे तम्बू रूपी बेडरूम में ताकझाँक करने की कोशिश में था । मैंने समय देखने के लिए उस धुंधलके में घड़ी पर निगाह डाली ही थी कि अचानक डॉ.वाकणकर की गरजती हुई आवाज़ सुनाई दी..” उठो रे सज्जनों.. । ” रवीन्द्र की नींद आदतन पहले ही खुल चुकी थी और वह बिस्तर में पड़ा पड़ा कुनमुना रहा था । उसने


रज़ाई फेंकी और हम सब को हमारी कुम्भकर्णी नींद से हिला हिला कर जगाया । हम लोग मधुमक्खियों की तरह भुनभुनाते हुए अपनी छत्तेनुमा रज़ाईयों से बाहर निकले । अपने बैग से टुथपेस्ट, ब्रश, टॉवेल, अंडरवियर,बनियान प्रक्षालन के सारे ज़रूरी सामान निकाले और नदी की ओर चल पडे । अशोक त्रिवेदी का मामला तो बगैर सिगरेट सुलगाये पिघलता ही नहीं था सो उसके पास यह अतिरिक्त वस्तु । रही बेड टी की बात तो उतने सभ्य हम लोग हुए नहीं थे ।

            चम्बल के पास किसी ज़माने में निर्मित पत्थरों का एक घाट जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौज़ूद  था । मोहनजोदाड़ो के चर्चित स्नानागार के स्थापत्य की कल्पना करते हुए उसे ही हम लोगों ने स्नानागार के रूप में प्रयुक्त करना उचित समझा । शौच के लिए किसी सरकारी शौचालय की व्यवस्था तो थी नहीं, न ही आठ दस लोगों के लिए टेम्पररी शौचालय बनाने का कोई प्रावधान था सो इस प्राकृतिक कार्य को संपन्न करने के लिए हम लोग प्रकृति प्रदत्त शौचालय अर्थात मैदान की ओर निकल गए और वहाँ स्थित झाड़ियों के पीछे अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली । घाट पर जाते हुए अपना अपना लोटा ,मग्गा या टिन का डिब्बा साथ ले जाने की हिदायत हमें पहले ही मिल गई थी । घाट पर लौटकर ब्रश करते हुए झाग भरे मुँह से हम लोगों ने नदी के महात्म्य पर चर्चा प्रारंभ की । आज की प्रातःकालीन चर्चा का शीर्षक था बस्तियाँ नदी के पास ही सबसे पहले क्यों बसीं ।

            रवीन्द्र ने एक निगाह चम्बल नदी की अथाह जल राशि पर डाली और कहा " अहा .. कितना सारा जल है नदी में.. नहाने में मज़ा आ जायेगा । अजय ने नहाने की बात सुनते ही अपने शरीर में झुरझुरी पैदा करते हुए अपने बाह्य अंग सिकोड़े और कहा " बाप रे , इतनी सुबह ठंडे पानी से कौन नहायेगा " रवीन्द्र ने कहा " अरे डरपोक , पानी में उतरकर तो देख, सुबह सुबह नदी का जल गर्म रहता है । फिर बिना नहाये ज़िन्दगी का क्या आनंद । अजय ने कहा " यार , आनंद की छोड़ यह बता अगर पृथ्वी पर पानी नहीं होता तो हम लोग कैसे नहाते ?" रवीन्द्र ने कहा " कैसी मूरख जैसी बात करता है ,अगर पृथ्वी पर जल नहीं होता तो यह जीवन भी नहीं होता । वैसे तो हम रोज़मर्रा की बातचीत में 'जल ही जीवन है ' इस वाक्य का हमेशा प्रयोग करते हैं लेकिन हमें यह ख्याल नहीं आता कि अगर पृथ्वी पर जल नहीं होता तो यहाँ जीवन संभव ही नहीं था ।" वो कैसे भाई ? " अजय ने सवाल किया ।

            रवीन्द्र ने जवाब दिया .." यह तो तुम जानते हो कि जीवन का अर्थ शरीर में प्रोटीन की अनिवार्य उपस्थिति है । हमारा शरीर कई प्रकार के एमिनो एसिड्स या प्रोटीन से बना है जो जीवन का एक प्रमुख कारण है  और यह जीवन पूरे सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही है । अन्य किसी ग्रह पर जीवन नहीं है । हमारे सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही जीवन इसलिए संभव  हो सका कि प्रोटीन की एंजाइमी किया के लिए मुक्तजल की उपस्थिति अनिवार्य थी और वह पृथ्वी पर पहले से ही मौजूद था । इस तरह जल जीवन के निर्माण का पहला तत्व है  ।  हमारी पृथ्वी सूर्य से न अधिक दूर है न अधिक पास,  इस वज़ह  से यहाँ वाष्पीकरण के  पश्चात भी काफी जल शेष रह जाता है । यही कारण है कि  वैज्ञानिक चन्द्रमा और मंगल  पर जीवन की सम्भावनाओं से पहले पानी की तलाश कर रहे हैं ।"

            अजय सुबह सुबह इतना वैज्ञानिक प्रवचन सुनने के लिए तैयार नहीं था । उसने अपने दोनों कानों में उँगलियाँ  ठूंस ली । मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया । फिर मैंने रवीन्द्र की  बात का समर्थन करते हुए कहा " तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो । प्रारम्भिक मनुष्य के जीवन का विस्तार भी इसी वज़ह से जल स्त्रोतों के निकट हुआ । इसका कारण यही था  कि अन्य सुविधायें उपलब्ध होने के बावज़ूद जल के स्त्रोत का निकट होना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि जल जीवन के लिए  सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है । प्राचीन समय में प्रारंभिक बस्तियाँ जलस्त्रोत के निकट ही बसीं ।"

            "लेकिन भाई ,बस्तियाँ तो नदियों से दूर भी बसी हुई मिलती हैं ?" अजय हमारे वार्तालाप से उतना भी निर्लिप्त नहीं था जैसा कि मैं सोच रहा था  । "हाँ ऐसा इसलिए हुआ ।" मैंने अजय से कहा  " कि  कालांतर में जब नदियों का प्रवाह दूर होता गया तो उसके अनुसार बस्तियाँ भी दूर होती गईं  । आज भी उत्खनन में अनेक बस्तियों में प्राप्त वस्तुओं पर पानी के निशान मिलते हैं ,साथ ही चिकने गोल पत्थर या नौका जैसे अनेक प्रमाण भी मिलते है जिन्हें देखकर  ज्ञात होता है कि पहले कभी यहाँ नदी रही होगी । यह बात ध्यान में रखने लायक है कि प्रारंभिक सभ्यताएं  सिन्धु नदी या दज़ला फरात और नील नदी के कांठे में बसी हुई थीं । आज भी तुम देख सकते हो कि विश्व के तमाम बड़े शहर नदियों के किनारे ही बसे हुए हैं ।"

            बात चल ही रही थी कि राममिलन भैया आते हुए दिखाई दिए । “ अरे तुम कहाँ चले गए थे भाई ? ”अशोक त्रिवेदी ने उनसे प्रश्न किया । “यहाँ हम लोग नहाने की तैयारी में हैं और तुम्हारी लोटा परेड अभी तक चल रही है ?” “भाईसाहब, आप लोग तो बेशरम हो, कहीं भी निपट लेते हो ..मुझे तो आड़ के लिए  कोई पिरामिड जैसी चट्टान चाहिये थी । ” राममिलन ने कहा । हम लोग हँसने लगे “ अच्छा तो अब पिरामिड का यही उपयोग बचा है ?”  अजय ने पूछा । ”तो मिला कोई पिरामिड ?” मैंने हँसकर कहा ”भाई ,यहाँ कहाँ मिलेगा,सारे पिरामिड तो मिस्त्र में हैं यहाँ तो बस चम्बल की घाटियाँ मिलेंगीं । ”
            बात नदी से निकलकर अब पिरामिड पर आ गई थी । हम लोग भले ही प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थी हैं लेकिन समकालीन वैश्विक इतिहास जानना भी हमारी अनिवार्यता है सो पिरामिड्स के बारे में भी हम लोग पढ़ ही चुके थे । अजय ने मिस्त्र के पिरामिडों का ज़िक्र करते हुए सवाल किया  ”यार, यह खुफू का पिरामिड कबका है ?” सारे छात्रों में घटनाओं का काल सबसे अधिक मुझे ही याद रहता है,मैंने बताया..”लगभग छब्बीस सौ ईसा पूर्व का ।"

            "आश्चर्य है न..," अजय ने ऑंखें फाड़ते हुए कहा .." इतने वर्षों से यह पिरामिड जस का तस खड़ा है .. मतलब यह तो ताजमहल से भी काफी पहले का है ।" रवीन्द्र ने कहा .."अरे ताजमहल की और ख़ुफु के पिरामिड की कैसी तुलना, दोनों का काल और स्थापत्य बिलकुल अलग अलग हैं । ताजमहल तो अभी इसी सहस्त्राब्दी का है ।" " तुलना की बात नहीं है भाई " अजय ने कहा " आख़िर है तो दोनों कब्र ही । लेकिन यह भी हैरानी  की बात है कि पहले के राजा लोग अपनी कब्र के लिए इतनी विशाल इमारतें बनाते थे । मरने के बाद भी भला कोई देख पाता है कि उसकी कब्र कैसी है ।"

            मैंने कहा " हाँ मरने के बाद तो वाकई कोई नहीं देख पाता कि उसकी देह का क्या हुआ ,उसे कहाँ दफनाया गया इसीलिए प्राचीन मिस्त्र में वहाँ के राजाओं यानि फराओं द्वारा जीते जी अपनी कब्र का निर्माण किया जाता था । उस समय तक अंतिम संस्कार की विधियाँ तय हो चुकी थीं और मृत्यु  के बाद जीवन जैसे विषयों पर भी विचार होने लगा था । इन फराओं के बारे में कहा जाता है कि ये शासक बहुत ही क्रूर होते थे । वे स्वयं को देवताओं के समकक्ष मानते थे और मृत्यु के बाद भी समस्त सुखों की कामना करते थे । उनकी ऐसी मान्यता थी कि कब्र में दफनाने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब वे जीवित हो उठेंगे और समस्त सुखों का उपभोग करेंगे इसलिए उनकी कब्र में उनके साथ पानी, शराब, खाने पीने की वस्तुएं,फल,अनाज ,बिस्तर, अस्त्र-शस्त्र आदि रख दिया जाता था ।"

            "अजीब पागल राजा थे भाई " अजय ने कहा " अरे यह सब खाने-पीने की वस्तुएं तो कुछ ही दिनों में ख़राब हो जाती होंगी और वस्तुयें क्या खुद उनके शव भी सड़ जाते होंगे और बदबू आने लगती होगी । सड़ी हुई लाश की बदबू की कल्पना करते हुए अजय ने बहुत अजीब सा मुँह बनाया ..'आक़' ..जैसे उल्टी आ रही हो । मैंने कहा " भाई, शव को सड़ने से बचाने के लिए तो वे उन पर विशेष प्रकार का लेप लगाते थे लेकिन खाद्य वस्तुओं का वे कुछ नहीं कर सकते थे ।" "और क्या," अजय ने कहा " आज का ज़माना होता तो वे पिरामिड के भीतर बड़ा सा फ्रिज भी रख देते ।" अजय की  बात सुनकर रवीन्द्र पेट पकड़कर हँसने लगा .."तू भी यार जाने क्या क्या सोच लेता है ..अरे तब तो बिजली की खोज भी नहीं हुई थी फ्रिज क्या रेत से चलता ? "

            मैंने बात को गंभीर मोड़ देते हुए कहा " दरअसल इसके पीछे मरणोपरांत जीवन की एक ऐसी कामना थी जिसे उनकी सम्पन्नता पोषित करती थी । वे राजा थे इसलिए ऐसा कर सकते थे, धर्म और सत्ता दोनों उनके साथ थे ।अपनी मान्यताओं के वे ही नियामक थे । पुरोहित वर्ग भी उनके साथ था । ग़रीब जनता के लिए तो ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल था और यही नहीं, शासकों की मृत्यु पश्चात जीवन की यह मान्यता उनसे एक ऐसा क्रूर कर्म करवाती थी जिसके बारे में आज हम सोच भी नहीं सकते हैं ।

            "ऐसा क्या करते थे भाई वे ?" अजय ने सवाल किया । मैंने कहा " उनका मानना था कि मृत्यु के कुछ समय बाद जब वे फिर से जीवित हो उठेंगे तब समस्त राजसी सुविधाओं का उपभोग करने के लिए  अर्थात खिलाने -पिलाने, नहलाने-धुलाने आदि के लिए और उनके मनोरंजन के लिए उन्हें सेवकों की भी आवश्यकता होगी अतः  कई बार तो उनके साथ जीवित सेवकों को, नर्तकियों आदि को भी पिरामिड में बन्द कर दिया जाता था ताकि उनके पुनः जीवित होने पर वे उनकी सेवा कर सकें ।"

            "ओह , यह तो गज़ब की क्रूरता है " रवीन्द्र ने कहा " उन बेचारे ग़रीब सेवकों का क्या दोष, इस तरह ज़िन्दा दफ़नाकर तो उन्हें जीते जी मार दिया जाता था ।" मैंने कहा .." इनकी क्रूरता के और भी किस्से हैं । इन फराओं ने अपने साम्राज्य में अनेक सभ्रांत लोगों को विभिन्न प्रदेशों का शासक नियुक्त कर रखा था । ये अधिकारी लोग सम्पति छीनने व आम जनता को यंत्रणाएँ देने का कार्य किया करते थे तथा अपनी कठोरता व   क्रूरता की डींगें हांका करते थे । उनके इस कार्य के बदले उन्हें बड़े बड़े पद, जागीर व ज़मीनें मिला करती थीं । पिरामिडों के बाहर खडी नारसिंही मूर्तियाँ 'स्फिंक्स' भी इन्ही फराओं की निरंकुश सत्ता का प्रतीक है । इन विशाल मूर्तियों में आधा भाग मनुष्य का और आधा सिंह का है जो यह बताता है कि उनकी ताकत इतनी है कि वे कुछ भी कर सकते हैं । “

            अचानक मुझे महसूस हुआ कि नहाने हेतु तत्पर कपड़े उतारकर सिर्फ बनियान पहने हुए ठंड में ठिठुरते अपने मित्रों को इससे ज्यादा भाषण देना ठीक नहीं है सो मैं खामोश हो गया । मुझे चुप होता देख अजय ने चुटकी ली .."मुझे तो ऐसा लगता है हमारे आज के जो सरकारी अधिकारी हैं उनमें भी फराओं के उन अधिकारियों के संस्कार आ गए हैं  ।" "नो कमेन्ट" मैंने मुंह पर उंगली रखकर अजय को चुप रहने का संकेत किया ।“चलो चलो जल्दी नहाओ नहीं तो हमारे ‘फराओ’ नाराज़ हो जाएँगे । “रवीन्द्र ने अंततः बातों को विराम देते हुए तुरंत अपना फर्मान ज़ारी किया । “ठीक है ।” मैंने कहा । फिर हम लोग नदी में उतर गए और अपने शरीर पर पानी का लेप लगाने लगे उसी तरह जैसे फराओं के मुर्दा शरीरों पर रसायन का लेप लगाया जाता था फर्क इतना था कि हमारे जीवित शरीर पर जीवन देने वाले जल का लेप था जो हमें कई साल जीवित रखने वाला था । 
आपका- शरद कोकास

3 टिप्‍पणियां:

  1. बातों ही बातों में काफी ज्ञान की बात बता जाते हैं. आभार.

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  2. लोटा परेड का किस्सा चौकस लगा। बाकी अभी और पढ़वायेंगे न आग!

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  3. अच्छा आलेख पर पढने में तकलीफ हो रही है.

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