शनिवार, 30 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दूसरा दिन-दो




मेरा स्नान तो बस पाँच मिनट में संपन्न हो गया । बाहर आते हुए मैंने रवीन्द्र से कहा “ तुम भी जल्दी बाहर आ जाओ । हम लोग नहाने के बाद कुछ देर नदी के आस-पास एक्स्प्लोर करेंगे, अब यहाँ पिरामिड तो मिलेगा नहीं क्या पता चीन की पीली नदी व्हांगहो के तट पर मिली कब्रों की तरह कोई प्राचीन कब्र मिल जाए  ।” “वहाँ शायद दूसरी शताब्दी ईसा  पूर्व की कब्रें मिली हैं ना ? “ रवीन्द्र ने पानी से बाहर आते हुए पूछा ।  “ हाँ ” मैंने कहा “और इनमें जो शव मिले हैं वे चटाईयों में लिपटे हैं , आश्चर्य की बात कि इनके पास भी घडा, अन्य पात्र और खाने पीने की वस्तुएं रखी हैं । मतलब मरणोपरांत जीवन की  मान्यता यहाँ भी थी । इसके अलावा भी बहुत सारी कब्रें मिली हैं जो ज़मीन के नीचे बने मकानों जैसी हैं, इनमें ताबूत के इर्द-गिर्द सोने के ज़ेवर,युद्ध के हथियार,पत्थर और कांसे के बर्तन भी मिले हैं । इसके अलावा उनके आसपास सैकड़ों कंकाल भी मिले हैं । “

            रवीन्द्र ने टॉवेल लपेटते हुए कहा “ इसका कारण यह रहा होगा कि चीन में उस वक्त दास प्रथा थी, और वहाँ भी मिस्त्र के फराओं की तरह मृतक की आत्मा की सेवा करने के लिए मृतक के साथ कई दास दासियों को भी दफ़ना दिया जाता था । कहते हैं ऐसे दासों को दफनाने से पहले उनका सर काट दिया जाता था और हाथ पैर बांध दिए जाते थे । कभी कभी उन्हें जला भी दिया जाता था । पुरातत्ववेत्ताओं को उस काल की हड्डी से बनी एक पट्टिका मिली है जिस पर लिखा है कि “दास को इसलिए जला रहे हैं कि पृथ्वी पर वर्षा हो ।" " ठीक कह रहे हो ।" मैंने कहा "इस क्रूरता के पीछे कारण यही था कि हमारे देश की तरह वहाँ  भी अकाल और बाढ़ के भय से लोग भयभीत हो जाते थे  । वे वायु, वर्षा और नदियों को अपना देवता मानते थे और वे रुष्ट न हों इसलिए या उन्हें प्रसन्न करने के लिए दासों की बलि चढ़ाया करते थे । "

            "यार चीन का ज़िक्र जब भी आता है तो उसकी दीवार की बात होती है । यह दीवार कब बनी ?" अजय का ध्यान हमारी बातों के केन्द्रीय विषय पर नहीं था लेकिन संवाद में चीन शब्द सुनकर उसने यह सवाल किया । मैंने बताया " यह भी उसी दौर की बात है । तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में चीन में कई राज्य थे जिनमे चीन  राज्य सबसे शक्तिशाली था । तत्कालीन राजा ने अन्य राजाओं की आपसी  कलह का लाभ उठाकर समस्त चीन पर अधिपत्य कर लिया और स्वयं 'चिन शिह ह्वान्गति' की उपाधि धारण की । इस समय उत्तर से खानाबदोश 'हूँ' कबीले लगातार आक्रमण करते थे और गाँवो और नगरों को लूट लेते थे । इन कबीलों के आक्रमण से चीन  की रक्षा करने के लिए उसने चार हजार किलो मीटर लम्बी दीवाल बनाई । इसकी चौड़ाई इतनी थी कि  इस पर पांच घुड़सवार एक साथ दौड़ सकते थे ।"

            अशोक नदी के जल में कमर तक पानी में खड़ा था, उसने इतिहासकारों के पुरखे हेरोडोटस का नाम लिया और पानी में डुबकी लगा दी । “जय बाबा हेरोडोटस की ।” वह एक मिनट में ही बाहर आ गया । देर हो रही थी इसलिए उसके बाहर आते ही हमने अपने गीले अंतर्वस्त्र और अन्य प्रक्षालन सामग्री उठाई तथा नदी किनारे एक्सप्लोरेशन की योजना स्थगित करते हुए हम लोग शिविर की ओर निकल पड़े ।

            भोजन स्थल और पाकशाला के निकट डॉ.सुरेन्द्र कुमार आर्य सूर्य की कोमल रश्मियों का आनंद लेते हुए खड़े थे । वे अलसुबह ही नहा धोकर आ चुके थे । उन्होंने हम लोगों के भीगे बदन और भीगे केश देखकर टिप्पणी की “ तुम लोगों को देखकर ऐसा लग रहा है जैसे यूनानी सेना समुद्र से निकलकर ट्राय के युद्ध में शामिल होने आ रही है । “ “क्यों मज़ाक कर रहे हैं सर..” मैंने कहा “ बिना हेलेन के कैसी सेना और कैसा युद्ध ? “ रवीन्द्र ने चुटकी लेते हुए कहा “अबे.... तुझे यहाँ जंगल में हेलेन कहाँ मिलने वाली है ? चुपचाप वस्त्र धारण करो और शीघ्रता पूर्वक अल्पाहार हेतु भाटीजी की पाकशाला में उपस्थित हो जाओ ।” “ ठीक है जैसी पंचों की राय ।” कहकर हम लोग कपडे बदलने के लिए तम्बू के भीतर घुस गए ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक हैं आपकी डायरी के पन्ने.
    'एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन -तीन'में जो दूसरी तस्वीर है, 'स्टोन सर्कल' सी; वो चम्बल की ही है क्या!

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  2. बहुत ही मजेदार ढंग से आप लिख रहे हैं वरना इतना दिलचस्पी से पढ पाना संभव न होता। लोकप्रिय तरह से लिखे गए आलेख विषय को सहज ही बनाते है। आपको पढने से तो यह बात और भी पुख्ता हो रही है।

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