रविवार, 23 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-आठवां दिन –एक



18 - माचिस कौन ले गया , अगिया बेताल  

          वाकणकर सर के साथ अवशेषों को संरक्षित करने की प्रक्रिया पूर्ण करते ही हम लोगों के अध्ययन का एक आवश्यक अध्याय पूर्ण हो चुका था सो शाम को हम लोग थोड़ा मनोरंजन चाहते थे और उसके लिए सिटी अर्थात दंगवाड़ा जाने से बेहतर और क्या हो सकता था  । किशोर हमेशा की तरह मुखर था और बार बार राममिलन को छेड़े जा रहा था । नदी के पास बरगद का एक बड़ा पेड़ देखकर किशोर ने कहा “ जानते हो पंडत , इस बरगद पर एक भूत रहता है ।“  राममिलन ने गुस्से में कहा “वो हमें भूत - वूत से डर नाही लगता हमरे बजरंग बली सब भूतों की छुट्टी कर देते हैं । भूत पिसाच निकट नहीं आवै महावीर जब नाम सुनावै ।"

            हमें नहीं पता था पंडित राममिलन शर्मा की यह बात सुनकर किशोर त्रिवेदी के दिमाग़ में कोई शरारत जन्म ले चुकी है । खैर, ऐसे ही हँसी मज़ाक करते हुए हम लोगों ने नाला पार किया और दंगवाड़ा गाँव पहुंचे ।  चौक में पहुँच कर उसी दुकान के पटिये पर बैठकर चाय पी, अखबार पढ़ा और थोड़ी देर गाँव वालों के साथ गपशप करने के बाद वापस कैम्प में जाने के लिए निकल पड़े । इतने दिनों में गाँव वालों पर हम लोग ऐसा रोब जमा चुके हैं जैसे हम उन्हीं के बाप-दादों का इतिहास लिखने के लिए यहाँ आये हैं, सो हम लोगों की ख़ातिरदारी भी बढ़िया होने लगी है । गाँव की यह सैर हम लोगों के लिए बहुत रोमांचक होती है । हमें गाँव के लोगों की  ज़िन्दगी को करीब से जानने का अवसर भी मिल रहा है और हमारी सामाजिकता की भूख भी इससे शांत हो रही है ।

            " गाँव की ज़िंदगी भी कितनी अच्छी होती है ।" अजय ने ज़मीन पर पड़ा एक पत्थर उठाया और काल्पनिक आम की कैरी तोड़ने के अंदाज़ में उसे पेड़ की ओर घुमाकर फेंक दिया । "ख़ाक अच्छी होती है ! " रवीन्द्र ने तपाक से कहा "हम लोग एक पर्यटक की तरह यहाँ आये हैं इसलिए यह जीवन हमें अच्छा लग रहा है, अगर कुछ दिन गाँव में बिताना पड़े तो समझ में आ जायेगा, इसलिए कि जिन बुनियादी सुविधाओं की हमें आदत है वे यहाँ नहीं हैं ,सुबह सुबह लोटा लेकर कितने दिन जाओगे भाई ।"

            " हाँ यह तुम ठीक कह रहे हो ।" अशोक ने कहा "यह गाँव भी भारत के अस्सी के दशक के अन्य गांवों जैसा ही है । यहाँ न ढंग का स्कूल है न ढंग का अस्पताल । सड़कें भी देखो कितनी ख़राब हैं, पीने का पानी भी अभी मिल रहा है लेकिन जैसे ही गर्मियाँ शुरू होंगी उसकी भी किल्लत हो जाएगी । देश के विकास के लिए कितनी पंचवर्षीय योजनायें बन चुकी हैं लेकिन विकास की रौशनी अभी तक यहाँ नहीं आई है ।" " फिर भी यार गाँव का जीवन शहर से तो अच्छा है, शुद्ध प्रदूषण रहित वायु, शुद्ध सुस्वादु भोजन और निश्चिन्तता की ज़िन्दगी अहाहा ..। " अजय जैसे किसी वादविवाद प्रतियोगिता में ग्राम्य जीवन के पक्ष में बोल रहा था  । 

            किशोर भैया हमारी बातें  सुनकर ज़रा चिंतित हो उठे " भाई, यह सही है कि हमारी कल्पना के गांवों में बहुत सुन्दर जीवन है, कल कल करती बहती हुई नदियाँ, तितलियों के पीछे भागते बच्चे, गाँव की अमराइयों में ठंडी ठंडी हवा, पेड़ों से आम की खट्टी मीठी कैरियां तोड़कर खाती हुई अल्हड़ युवतियां, मक्के की रोटी सरसों का साग, हरी मिर्च की चटनी ..दूध ,दही,घी, गुड़ शहद आदि की बहुलता । लेकिन यह सब होते हुए भी ग्रामवासियों का जीवन दुखद तो है । किसान की फ़सल जब ख़राब हो जाती है वह कर्ज में डूब जाता है, वैसे भी कृषि कार्य से होने वाली आमदनी अब पूरे परिवार की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती । अन्य रोजगार और कुटीर शिल्प आदि की स्थिति भी ठीक नहीं है । अर्थाभाव के कारण बच्चों को भी काम पर जाना पड़ता है, उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाती, बीमार पड़ने पर कोई अस्पताल नहीं मिलता, फिर भूत -प्रेत, जादू -टोने जैसे अन्द्धविश्वास के चक्कर में वे आ जाते हैं ।" किशोर ने ग्राम्य जीवन के वास्तविक चेहरे पर पड़ा रूमानियत का पर्दा खींचकर उसे बेनक़ाब कर दिया था ।

            अशोक ने किशोर भैया की बात का समर्थन करते हुए कहा "यह सच है कि भारत के गांवों की दशा अब दयनीय होती जा रही है । सिंचाई आदि की उचित व्यवस्था न होने के कारण किसान सूखे की चपेट में आ जाते हैं या बाढ़ उनकी फ़सल लील जाती है फिर उन्हें महाजनों और साहूकारों के चक्कर काटना पड़ता है । इसके अलावा उनके आपसी झगड़े भी हैं जिनकी वज़ह से उन्हें अदालतों के चक्कर काटना पड़ता है । गांवों की बनिस्बत शहरों की स्थिति अभी काफी अच्छी है । यही कारण है कि शहरों की चकाचौंध गाँव के युवकों को आकर्षित कर रही है ..वह पान ठेले पर कुछ युवक हमसे नहीं कह रहे थे ,भैया हम लोगों को भी शहर में कुछ काम -वाम दिलवा दो ।"

            बातें करते हुए हम लोग नाले तक पहुँच गए । हम लोग शिविर की ओर लौट रहे थे और अन्धेरा हो चुका था । गाँव की ओर जाते समय हमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि  पिछले दिनों हुई वर्षा के कारण नाले में पानी कुछ बढ़ गया है और वे पत्थर जिन पर पाँव रखकर हम लोग पहले नाला पार करते थे पानी में डूब गए हैं । जाते समय काफी रौशनी थी और वे पत्थर साफ़ साफ़ दिखाई दे रहे थे लेकिन गपशप के बीच हमें ध्यान ही नहीं रहा कि इस बार जिन पत्थरों पर हमने पाँव रखकर नाला पार किया था उन पत्थरों को चिन्हित कर लें । हालाँकि इससे भी कोई फायदा नहीं होता, अँधेरा गहन होता जा रहा था और हम रौशनी के आदी  शहर वासियों को गांववालों की तरह अँधेरे में भी वस्तुएँ पहचान लेने का अभ्यास नहीं था अतः ठीक से कुछ दिखाई देना मुश्किल था ।

            राम मिलन उन्हें छेड़े जाने की वज़ह से गुस्से में थे और अपनी खामख्याली में हम लोगों से अलग-थलग और आगे आगे चल रहे थे । नाले तक पहुँचने से पहले ही किशोर ने हम लोगों को धीरे से एक टीले की ओट में छुप जाने का इशारा किया और ख़ुद राममिलन के पीछे चलते हुए उनसे कुछ दूरी बना ली । हम समझ गए किशोर अपनी शरारत को अंजाम देने जा रहे हैं । राममिलन नाले पर पहुँचकर कुछ पल ठहरे, हम लोगों की राह देखी फिर यह सोचकर कि हम लोग बहुत पीछे रह गए हैं  नाला पार करने के लिए अकेले ही आगे बढ़ गए  । पत्थरों पर सम्भल कर पाँव रखते हुए जैसे ही वे बीच नाले तक पहुँचे किशोर तेज़ी से दबे पाँव आगे बढ़े  और धीरे से उन्हें धक्का दे दिया । राम मिलन धड़ाम से पानी में गिर पड़े और हाय-तौबा मचाने लगे “ अरे कौन है ससुरा हमका गिराय दिया ..। “ और वे जोरों से राम राम कहने लगे । किशोर ने कुछ कदम पीछे हटकर इस तरह अभिनय किया जैसे वे उनकी आवाज़ सुनकर दूर से दौड़े चले आए  हों ।

            “क्या हुआ पंडत कौनो भूत वूत धक्का दे दिया का ? “ किशोर भैया ने हाँफने का अभिनय करते हुए कहा । भूत का नाम सुनते ही पंडित जी की घिग्गी बन्ध गई और वे ज़ोर ज़ोर से रटने लगे “जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ..राम दूत अतुलित बल घामा अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ..संकट तें हनुमान छुड़ावै मन क्रम बचन ध्यान जो लावै .. ।“ हम लोग चट्टानों की ओट से बाहर निकलकर जब तक उनके करीब पहुँचे तब तक वे उठकर खड़े हो चुके थे । लेकिन फिर उन्हें  ध्यान आया कि उनका एक जूता पानी के भीतर रेत - वेत में कहीं दब गया है । वे झुक कर पानी में हाथ डालकर अपना जूता तलाशने लगे ।

            किशोर ने चिल्लाकर कहा “ अरे अशोक जरा माचिस तो देना… पंडत का जूता अन्धेरे में दिख नहीं रहा है ।“ अशोक ने दूर से हाथ बढ़ाकर कहा “लो“ । कुछ सेकंड रुककर किशोर ने फिर कहा “ तुमसे कहा ना ..माचिस तो दे यार अशोक, अन्धेरे में कुछ सूझ नहीं रहा है ।“ अशोक बोला “ अभी तो यार तुम्हारे हाथ में पकड़ाई है माचिस ..तुमने हाथ बढ़ाया था ना या किसने हाथ बढ़ाया था ? “ किशोर सहित हम सब ने एक स्वर में कहा “ हमने तो हाथ नहीं बढ़ाया  । “ “ किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया तो ससुरी माचिस कहाँ गई ..कौनो अगिया बेताल ले गया क्या ? “ किशोर बोला ।


            अगिया बेताल का नाम सुनते ही राममिलन भैया की तो हवा बन्द हो गई । गनीमत इस समय तक उनका जूता मिल गया था । लेकिन वे जूते पहन ही नहीं पाए और उन्हें हाथ में लिए लिए गीले कपड़ों में ठण्ड से काँपते हुए, डर के मारे हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए और लगभग दौड़ते हुए कैम्प की ओर बढ़ गए  । हम लोग भी उनके साथ ही थे और बमुश्किल अपनी हँसी दबाते हुए उनका साथ दे रहे थे । हाँलाकि कैम्प तक पहुँचते हुए हँसी रोकना मुश्किल हो गया । पंडित राममिलन तो कपड़े बदलने के लिए तम्बू में घुस गए और हम लोग बाहर ही रुककर पेट पकड़ पकड़ कर हँसने लगे  । यह हमने सोचा ही नहीं कि राममिलन भैया हमारे इस तरह हँसने से हमारी शरारत समझ गए होंगे । 

16 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक किस्‍सा
    भूत से डरना मना है
    महावीर का नाम इसीलिए बना है
    राममिलन के बहाने
    हंसीमिलन अच्‍छा लगा ये सम्‍मेलन।

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  2. बहुत मज़ा आता है पुरानी शरारतो को याद करो तो।

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  3. कमाल है...इतनी पुरातन मसखरियां भी याद हैं!!
    दिलचस्प वृत्तांत...

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  4. अगिया बैताल पर ठिठोली अच्छी नहीं होती। जिस दिन पाला पड़ेगा उस दिन समझेंगे !

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  5. रोचक और दिलचस्प किस्सा है.

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  6. जय हो भूत बाबा की, राममिलन जी को याद दिलाया. सचमुच रोचक डायरी के पन्‍ने हैं. आभार.

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  7. गिरिजेश जी

    पाला मतलब

    कड़ाके की ठंड

    या ठंड रखें

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  8. @अविनाश जी,
    हम किसी और 'पाला' की बात कर रहे हैं।
    :)

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  9. yah aapke tippni bakse me tippni kahe nhi paste ho rahi...majburi me romanagari me likhna pad raaha hai.

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  10. @गिरिजेश राव

    किसी और पाला यानी

    किसको पाल लिया

    भूत साहब को।

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  11. अविनाश जी राव साहब का पाला पड़ेगा से तात्पर्य है जब सामना होगा वैसे आपका पाला भी चल सकता है मतलब जब कड़ाके की ठंड पड़ेगी तब ही ना अगिया बेताल की ज़रूरत होगी हा हा हा ।

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  12. @ शरद कोकास
    @ गिरिजेश राव
    पाला तो सच का भी पड़ सकता है
    सामना की तरह
    तो जो आ रहा है सीरियल
    बदलकर रख दें उसका नाम
    सच का पाला
    जो पले पलाओं को
    अलग थलग कर रहा है
    अपनी सच की मशीन की
    करतूत से

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