मंगलवार, 24 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन- सात


एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन - सात 
वे इतने गुलाम थे कि जननांगों को ढँकने के लिये एक चिन्दी तक उपलब्ध नहीं थी                                                               
रात्रि भोजन के पश्चात रज़ाई में घुसते ही रवीन्द्र ने  कहा “ यार यह ठंड तो कम होने का नाम ही नहीं ले रही । “ मैने कहा “ रज़ाई में घुसे हो और ठंड से डर रहे हो .. ज़रा रोम के उन गुलामों के बारे में सोचो जिन्हे  ठंड में भी कपडे का एक टुकड़ा तक नसीब नहीं होता था । “ “ अच्छा तुम रोम के गुलामों की बात कर रहे हो  ना जिन्होने स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह किया था   ? ” अजय ने सवाल किया । “ हाँ “ मैने कहा । अशोक बोला “ यार उसकी पूरी कहानी बताओ ना .. एक्चुअल में हुआ क्या था ? “ “ हाँ , यह हुई ना बात “ किस्सा सुनाने को तो मैं आतुर था ही .मैने अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली थी और किस्सागोई के मूड में आ गया था ।
ह 71 ईसापूर्व से भी पहले की बात है । रोम जब अपने उत्कर्ष पर था । बड़े बड़े धनाढ्य ,सम्पन्न लोग सत्ता के सुख के साथ जीवन का सुख भोग रहे थे । ढेर सारे मनोरंजन के साधन थे, हम्माम थे , अय्याशी के लिये औरतें थीं और सेवा के लिये हज़ारों गुलाम थे । मनोरंजन के लिये वहाँ के अखाड़ों में कुश्ती तो सामान्य बात थी लेकिन उन दिनों अचानक कुछ ऐसा हुआ था कि सब उसके दीवाने हो गये थे । कई अखाड़े हो गये थे जिन्हे एम्फिथियेटर कहा जाता था जिनमें इन ग्लेडियेटर्स की लड़ाई होती थी । इन अखाडों के मालिकों ने खदानों मे काम करने वाले गुलामों को खरीद लिया था और इन्हे ग्लेडियेटर बना दिया था ।                          
“ लेकिन इतने सारे गुलाम आते कहाँ से थे ?” राममिलन भैया का यह स्वाभाविक प्रश्न था । “ बिलकुल सही पूछा राममिलन भैया “ मैने कहा “ ये सारे गुलाम सोने की खदानो मे काम करते थे ? प्राचीन मिस्त्र में थीव्ज़ के पास नूबियन रेगिस्तान है वहीं रेत के बीच सोना उगलने वाली खदाने हैं जहाँ इन गुलामों की कई पीढ़ियाँ गुजर चुकी थीं । शुरू में लड़ाई में बचे हुए सिपाही गुलाम बनाये गये फिर तीन पीढ़ियों बाद वे कोरू कहलाये । मिस्त्र के फराओं का वैभव समाप्त हो जाने के बाद इन खदानों को रोम के धनाढ्य व्यापारियों ने ले लिया ।
ये खदानें दरअसल नर्क से भी बदतर थीं । आओ  मै तुम्हें वहाँ का एक दृश्य दिखलाता हूँ . ..कल्पना करो ..  देखो.. वह देखो.. सौ से भी अधिक गुलाम एक कतार में चल रहे हैं .. एकदम नंगे.. गर्म रेत में घिसटते हुए.पाँव लेकर ... उनकी गर्दन में एक पट्टा है जो काँसे का है और जो अगले गुलाम की गर्दन में बन्धे पट्टे के साथ एक ज़ंज़ीर से बन्धा हुआ है । बार बार उस पट्टे के गर्दन में टकराने की वज़ह से उनकी गर्दन में घाव हो गये है और उनसे खून बह रहा है ।                                                                                  
न्धेरा हो चुका है और वे दिन भर का काम खत्म करने के बाद अपनी बैरकों में लौट रहे हैं । एक बार भीतर घुस जाने के बाद उन्हे बाहर आने की इज़ाज़त नहीं है । वे केवल मरकर ही बाहर आ सकते हैं । वे बैरकों की फर्श पर ही गन्दगी करते हैं जो सड़कर सूख गई है । अभी थोड़ी देर में उन्हे खाना दिया जायेगा ..गेहूँ और टिड्डी का शोरबा और एक मशक में एक सेर पानी जो बहुत नाकाफी है .. जब पानी की कमी से उनका गुर्दा खराब हो जायेगा तो उन्हे रेगिस्तान में मरने के लिये छोड़ दिया जायेगा ।
न बैरकों में सड़ान्ध है, घुटन है ,बदबू है इतनी कि खाया पिया सब बाहर आ जाये ..लेकिन गुलाम इसे जज़्ब कर लेते है क्योंकि एक बार उल्टी कर देने के बाद उन्हे भूखे रहना पड़ेगा । खाना भी सिर्फ इतना ही मिलेगा कि ज़िन्दा रहा जा सके । वे यह सोचते हुए कि  ज़िन्दा क्यों है .अन्धेरी रात काट देंगे ...।                                     
            फिर सुबह होगी नगाड़े की आवाज़ के साथ ..सबको ज़ंजीरों में बान्धकर ले जाया जायेगा ।वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखेंगे ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोचेंगे और फिर उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं । पसीने से तरबतर गुलाम जो महीनों से नहाये नहीं हैं ,चार घंटे बिना रुके काम करेंगे ,हाथ रोकते ही उन्हे कोड़ों से पीटा जायेगा .. इस तरह  चार घंटे तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा , उन्हे खाना और पानी दिया जायेगा , जो गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पिये तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...।
देखो अभी अभी सोलह साल के उस थके हारे बालक ने भूख-प्यास ,ठंड और गर्मी  से लड़ते हुए स्पार्टकस की गोद में दम तोड़ दिया  है स्पार्ट्कस रोते हुए उसकी लाश को बेतहाशा चूम रहा है ।“
स कर यार “ किशोर के चीखने से मैं होश में आया । “ क्या सुना रहा है तू ... पूरी रात बरबाद कर दी  “ किशोर ने गांजे की सिगरेट जला ली थी और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कह रहा था ..ले एक सुट्टा लगा ले और वापस इस दुनिया में आजा .. बाकी कहानी कल सुनेंगे । मैने कहा  “ रेन दे यार अपन तो वेसेई टनाटन्न रेते हें....।

क्या सोच रहे हैं आप ..? क्या भाव आ रहा है मन में ? दया ? करुणा ? या जुगुप्सा ? स्पार्टाकस भी इनमें से ही एक गुलाम था उसके मन में सिर्फ आक्रोश आता था .. इसलिये उसने एक ऐसा काम किया कि वह इतिहास में अमर हो गया .. यह उसने कैसे किया यह  कहानी ..अगली किश्त में  - शरद कोकास   

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेता की डायरी -दसवां दिन - छह


नेताओं के अल्पज्ञान के बारे में हम ढेर सारे किस्से सुनते हैं ,कई चुटकुले भी मशहूर है  जैसे एक नेता भाषण दे रहे थे हमारे देश मे तीन तरह के खेल होते है एक सेमी फाईनल एक फाईनल और एक ओलम्पिक .हाँलाकि अब तो नेताओं को ज़्यादा जानकारी रहती है और उनके पास उनके अधिकारी भी होते है । लेकिन इतिहास और पुरातत्व के बारे मे अब भी वही हाल है । लीजिये प्रस्तुत है एक नेता जी का एक सच्चा किस्सा जो हमे बरसों पहले डॉ. वाकणकर जी ने सुनाया था ।  
एक पुरातत्ववेता की डायरी -नौवाँ दिन -दो 
सरकार का पैसा क्या फालतू समझ रखा है ..बस ऊंडे जाओ ऊंडे जाओ
“ क्या यार इतने दिनों से खुदाई कर रहे हैं बस इतना ही खोद पाये । “ अजय ने खीझते हुए कहा । जाने कैसे डॉ. वाकणकर ने उसकी बात सुन ली और कहा “ धीरज रखो बेटा पुरातत्व की खुदाई इतनी आसान नहीं है । यह गढ्ढा खोदने का काम नहीं  है , रोज़ थोड़ा थोड़ा खोदते हुए आगे बढ़ना होता है , किसी वैज्ञानिक की तरह .किसी खोजी की तरह , किसी चिकित्सक की तरह । हम लोग पहले से ही मायूस थे ,उनकी बात सुनकर और मायूस हो गये । सर हम लोगों की उदासी भाँप गये । और फिर अचानक उन्होने कहा “ अरे दुष्टों इसमे उदास होने की क्या बात , चलो तुमको एक बढ़िया किस्सा सुनाता हूँ । 
एक बार कि नई क्या हुआ हम लोग एक साइट पर खुदाई कर रहे थे । एक माह से काम चल रहा था और एक ट्रेंच से बहुत महत्वपूर्ण तथ्य मिल रहे थे । कुछ भी नष्ट न हो इसलिये हम सावधानी से काम ले रहे थे ।एक दिन वहाँ एक नेताजी घूमते हुए आ गये । ट्रेंच को देखते हुए उन्होने अपने अन्दाज़ में पूछा “ हूँ... कितने दिनों से खुदाई चल रही है ? “ हमने बताया “ साब एक माह से । “ इतना सुनते ही वे आग बबूला हो गये और ट्रेंच की ओर इशारा करके चिल्लाने लगे “ एक महीने से खुदाई चल रही है और बस इतना ही खोदा है आप लोगों ने ? " फिर उन्होने मजदूरों की भीड़ देखी  तो और नाराज़ हुए .."कितने आदमी लगा रखे हैं .. सरकार का पैसा क्या फालतू समझ रखा है जो इस तरह बरबाद कर रहे हो ।अगर ठीक से खोदना नहीं आता तो बन्द कर दो खुदाई ।" इससे पहले कि हम उन्हे कुछ समझा पाते कि पुरातत्व की खुदाई और गढ्ढा खोदने मे फर्क होता है ..वे गुस्से मे निकल गये और जाते जाते कह गये ..” अभी तीन दिन बाद मैं फिर इधर आउंगा ,मुझे ठीक- ठाक काम दिखना चाहिये “
 “बस फिर क्या था “ सर ने कहा “ मेने दो मज़दूरों को बुलाया और साइट से बाहर दूर की एक ज़मीन बताकर कहा “ वहाँ खोद डालो रे जितना खोद सको ,बस ऊंडे जाओ ऊंडे जाओ  ।ये नेताजी को बड़ा सा गढ्ढा देखना है ..इन्हे इतिहास .तकनीकी और पुरातत्व विज्ञान से क्या मतलब ।“ तो ऐसा है अपने सत्ताधीशों का पुरातत्व ज्ञान । 
डॉ. वाकणकर की बात सुनकर हम लोग हँस हँस कर लोट पोट हो गये । सर ने कुछ देर बाद गम्भीर होकर कहा “ ऐसा नहीं है कि वे कुछ नहीं जानते या यह केवल तकनीकी ज्ञान के अभाव के वज़ह से उनका यह व्यवहार है । यह मनोवृति इतिहास को गैरज़रूरी समझने के कारण है । इतिहास बोध तो अपनी जगह है लेकिन अतीत को लोग इसलिये भी रहस्यमय मानते हैं कि   वो उनकी समझ से परे है ।  
अब डॉ. वाकणकर जैसे विद्वान पुराविद ने यह बात कह दी तो मै क्या कह सकता हूँ ..प्रतीक्षा है उनकी इस बात पर आपकी प्रतिक्रिया की - चित्र गूगल से साभार                                                                                             

आपका - शरद कोकास                                                                                               

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -दसवां दिन - पाँच

दंगवाड़ा के इस उत्खनन कैम्प में हमारा खुदाई का यह नौवाँ दिन है लेकिन  इस दिन एक ऐसी घटना घटी कि हम सभी को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा । क्या हुआ यह जानने से पहले ज़रा पाँचवें दिन की डायरीपर एक नज़र डाल लें। 

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -पाँचवा दिन 


आज की सतह निरीक्षण में हमे स्वास्तिक चिन्ह युक्त एक सिक्का , एक टेराकोटा ऑब्जेक्ट तथा एक स्टोन बॉल प्राप्त हुआ । आज हमने सतह से खुदाई प्रारम्भ की  और 31 सेंटीमीटर तक पहुंचे । इन प्रारम्भिक बातों के लिये डॉ.आर्य हमारा मार्ग दर्शन करते रहे । शाम को कार्य समाप्त करने के बाद हमे यह भी बताया गया कि प्राप्त वस्तुओं की देखभाल कैसे की जाये और उन्हे सम्भाल कर कैसे रखा जाये । सदियों से जो अवशेष ज़मीन के भीतर दफ्न हैं बाहर आते ही ऐसे लगा जैसे वे हमसे बातें करने लगे है । मिट्टी का 4 से.मी. का एक छोटा सा पात्र हाथ में लिये अशोक उसे बहुत देर तक निहारता रहा । “क्या देख रहा है अशोक ?” मैने ध्यान से पात्र देखते हुए अशोक से पूछा । “ वाह कितना सुन्दर पात्र है “ अशोक ने कहा । मुझे लगा वह ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की किसी विशेषता पर हम लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला है । लेकिन अशोक ने अपनी नज़रें उस पर से हटाये बगैर फिर कहा “ अपने तम्बू में सिगरेट की राख झाड़ने के लिये ऐश ट्रे नहीं है यह बढ़िया काम आयेगा । और फिर उसने धीरे से उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया ।

और अब ..एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -नौवाँ दिन-एक
  काश यह वस्तु हमारे ड्राइंग रूम में होती !!!

सुबह सोकर उठे ही थे कि डॉ.वाकणकर इंस्पेक्शन के लिये हमारे तम्बू में प्रवेश कर गये । बिस्तर वगैरह तो हमने करीने से लगा रखे थे सारी चीजें कपड़े बैग आदि व्यवस्थित रखे थे  । लेकिन वाह वाह कहते हुए अचानक उनकी निगाह उस चाल्कोलिथिक पात्र पर पड़ गई जिसे पाँच दिन पहले अशोक ट्रेंच से उठाकर ले आया था और बतौर ऐश ट्रे उसका बखूबी इस्तेमाल कर रहा था । “ व्वा बेटा “ उन्होने कटाक्ष करते हुए कहा । “ शौक तो तुम्हारे रईसों के हैं । इससे पहले कि अशोक अपने धूम्रपान की चोरी पकड़ी जाने पर शर्मिन्दा होता उन्होने कहा “ जानते हो तुम्हारी इस ऐश ट्रे की कीमत क्या है ? ये एक लाख से कम की नहीं है । “ अशोक ने तुरंत माफी माँगी ,बाहर जाकर ऐश ट्रे खाली की और डॉ. साब को देने लगा तो उन्होने कहा “ ऐसे नहीं इसे अच्छी तरह धोकर साफ करो , सुखाओ और फिर आर्काईव में जमा करो .. नहीं तो  तुम्हारा कोई जूनियर चाल्कोलिथिक पीरियड में विल्स या पनामा का उद्भव जैसे विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर देगा । ‘
            सुबह सुबह डाँट खाने का असर ट्रेंच पर पहुंचने तक था । हाँलाकि अशोक को इस बात पर संतोष था कि सिगरेट के लिये उसे डाँट नहीं पड़ी । लेकिन ऐश ट्रे के लिये पड़ी डाँट के लिये भी हम सभी अपने आप को दोषी मान रहे थे । बिना अनुमति उत्खनन में निकली किसी भी वस्तु का कोई भी उपयोग अपराध तो था । यद्यपि उसे घर ले जाने जैसी कोई मंशा हमारी नहीं थी क्योंकि यह इतनी कीमती वस्तु थी जिसकी कीमत हम नहीं आँक सकते थे ।लेकिन उपयोग करने के  इसी अपराध बोध के कारण हम सभी असहज थे यद्यपि सर ने इसे सहज बनाने का प्रयास किया था  ।
 यह तो हुई उत्खनन की बात लेकिन यह बताइये कि क्या हम लोग इन वस्तुओं की कीमत समझते हैं । मन्दसौर के शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि उत्खनन से पूर्व वह तालाब में आधा गड़ा हुआ था और उस पर कपड़े  धोये जाते थे । अभी भी कई पुरातात्विक महत्व के स्थानों पर आसपास के गाँवों के लोग अनजाने में वस्तुएँ उठा ले जाते हैं । मूर्तियाँ घर में ,मन्दिर में रखकर उनकी पूजा की जाती है जबकि यही वस्तुएँ म्यूज़ियम में रहें तो सभी लोग उसे देख सकें ।व्यक्तिगत संग्रह की प्रवृत्ति हमें ऐसी है कि हम लोग जब किसी पुरातात्विक महत्व के स्थान पर जाते हैं तो हमारा मन नहीं करता कि कोई वस्तु उठाकर अपनी जेब में डाल लें ? गनीमत है कि म्यूज़ियम और ऐसे ही अन्य स्थानों पर कड़ा पहरा रहता है अन्यथा हमारे दिमाग़ में यह ख्याल तो आता ही है कि हमारे ड्राइंगरूम में यह वस्तु कैसी लगती ? अब आप समझ गये होंगे कि पुरातात्विक वस्तुओं की इतनी सुरक्षा क्यों की जाती है । बावज़ूद इसके तस्कर अपना काम कर जाते हैं और देश की बहुमूल्य वस्तुएँ, कीमती मूर्तियाँ रातों रात विदेश पहुँच जाती हैं । 
एक प्रश्न और ..विदेशी संग्रहालयों में अपने देश की मूर्तियाँ और बहुमूल्य वस्तुएँ देखकर कभी आपके मन में यह ख्याल आया कि ये यहाँ तक कैसे पहुँची होंगी ? और आज़ादी के पहले कितनी वस्तुएँ जा चुकी हैं । हम तो गान्धी जी के व्यक्तिगत सामानों के लिये हायतौबा कर रहे थे लेकिन उसके पहले जो कुछ जा चुका है उसके बारे में कभी सोचा है ? क्या वह सब हमें वापस नहीं मिलना चाहिये ? क्या वह हमारे देश की कीमती धरोहर नहीं है ? (चित्र गूगल से साभार ।) कुछ जानकारी आप यहाँ से भी प्राप्त कर सकते हैं ।  - आपका - शरद कोकास