रविवार, 23 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-आठवां दिन –एक



18 - माचिस कौन ले गया , अगिया बेताल  

          वाकणकर सर के साथ अवशेषों को संरक्षित करने की प्रक्रिया पूर्ण करते ही हम लोगों के अध्ययन का एक आवश्यक अध्याय पूर्ण हो चुका था सो शाम को हम लोग थोड़ा मनोरंजन चाहते थे और उसके लिए सिटी अर्थात दंगवाड़ा जाने से बेहतर और क्या हो सकता था  । किशोर हमेशा की तरह मुखर था और बार बार राममिलन को छेड़े जा रहा था । नदी के पास बरगद का एक बड़ा पेड़ देखकर किशोर ने कहा “ जानते हो पंडत , इस बरगद पर एक भूत रहता है ।“  राममिलन ने गुस्से में कहा “वो हमें भूत - वूत से डर नाही लगता हमरे बजरंग बली सब भूतों की छुट्टी कर देते हैं । भूत पिसाच निकट नहीं आवै महावीर जब नाम सुनावै ।"

            हमें नहीं पता था पंडित राममिलन शर्मा की यह बात सुनकर किशोर त्रिवेदी के दिमाग़ में कोई शरारत जन्म ले चुकी है । खैर, ऐसे ही हँसी मज़ाक करते हुए हम लोगों ने नाला पार किया और दंगवाड़ा गाँव पहुंचे ।  चौक में पहुँच कर उसी दुकान के पटिये पर बैठकर चाय पी, अखबार पढ़ा और थोड़ी देर गाँव वालों के साथ गपशप करने के बाद वापस कैम्प में जाने के लिए निकल पड़े । इतने दिनों में गाँव वालों पर हम लोग ऐसा रोब जमा चुके हैं जैसे हम उन्हीं के बाप-दादों का इतिहास लिखने के लिए यहाँ आये हैं, सो हम लोगों की ख़ातिरदारी भी बढ़िया होने लगी है । गाँव की यह सैर हम लोगों के लिए बहुत रोमांचक होती है । हमें गाँव के लोगों की  ज़िन्दगी को करीब से जानने का अवसर भी मिल रहा है और हमारी सामाजिकता की भूख भी इससे शांत हो रही है ।

            " गाँव की ज़िंदगी भी कितनी अच्छी होती है ।" अजय ने ज़मीन पर पड़ा एक पत्थर उठाया और काल्पनिक आम की कैरी तोड़ने के अंदाज़ में उसे पेड़ की ओर घुमाकर फेंक दिया । "ख़ाक अच्छी होती है ! " रवीन्द्र ने तपाक से कहा "हम लोग एक पर्यटक की तरह यहाँ आये हैं इसलिए यह जीवन हमें अच्छा लग रहा है, अगर कुछ दिन गाँव में बिताना पड़े तो समझ में आ जायेगा, इसलिए कि जिन बुनियादी सुविधाओं की हमें आदत है वे यहाँ नहीं हैं ,सुबह सुबह लोटा लेकर कितने दिन जाओगे भाई ।"

            " हाँ यह तुम ठीक कह रहे हो ।" अशोक ने कहा "यह गाँव भी भारत के अस्सी के दशक के अन्य गांवों जैसा ही है । यहाँ न ढंग का स्कूल है न ढंग का अस्पताल । सड़कें भी देखो कितनी ख़राब हैं, पीने का पानी भी अभी मिल रहा है लेकिन जैसे ही गर्मियाँ शुरू होंगी उसकी भी किल्लत हो जाएगी । देश के विकास के लिए कितनी पंचवर्षीय योजनायें बन चुकी हैं लेकिन विकास की रौशनी अभी तक यहाँ नहीं आई है ।" " फिर भी यार गाँव का जीवन शहर से तो अच्छा है, शुद्ध प्रदूषण रहित वायु, शुद्ध सुस्वादु भोजन और निश्चिन्तता की ज़िन्दगी अहाहा ..। " अजय जैसे किसी वादविवाद प्रतियोगिता में ग्राम्य जीवन के पक्ष में बोल रहा था  । 

            किशोर भैया हमारी बातें  सुनकर ज़रा चिंतित हो उठे " भाई, यह सही है कि हमारी कल्पना के गांवों में बहुत सुन्दर जीवन है, कल कल करती बहती हुई नदियाँ, तितलियों के पीछे भागते बच्चे, गाँव की अमराइयों में ठंडी ठंडी हवा, पेड़ों से आम की खट्टी मीठी कैरियां तोड़कर खाती हुई अल्हड़ युवतियां, मक्के की रोटी सरसों का साग, हरी मिर्च की चटनी ..दूध ,दही,घी, गुड़ शहद आदि की बहुलता । लेकिन यह सब होते हुए भी ग्रामवासियों का जीवन दुखद तो है । किसान की फ़सल जब ख़राब हो जाती है वह कर्ज में डूब जाता है, वैसे भी कृषि कार्य से होने वाली आमदनी अब पूरे परिवार की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती । अन्य रोजगार और कुटीर शिल्प आदि की स्थिति भी ठीक नहीं है । अर्थाभाव के कारण बच्चों को भी काम पर जाना पड़ता है, उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो पाती, बीमार पड़ने पर कोई अस्पताल नहीं मिलता, फिर भूत -प्रेत, जादू -टोने जैसे अन्द्धविश्वास के चक्कर में वे आ जाते हैं ।" किशोर ने ग्राम्य जीवन के वास्तविक चेहरे पर पड़ा रूमानियत का पर्दा खींचकर उसे बेनक़ाब कर दिया था ।

            अशोक ने किशोर भैया की बात का समर्थन करते हुए कहा "यह सच है कि भारत के गांवों की दशा अब दयनीय होती जा रही है । सिंचाई आदि की उचित व्यवस्था न होने के कारण किसान सूखे की चपेट में आ जाते हैं या बाढ़ उनकी फ़सल लील जाती है फिर उन्हें महाजनों और साहूकारों के चक्कर काटना पड़ता है । इसके अलावा उनके आपसी झगड़े भी हैं जिनकी वज़ह से उन्हें अदालतों के चक्कर काटना पड़ता है । गांवों की बनिस्बत शहरों की स्थिति अभी काफी अच्छी है । यही कारण है कि शहरों की चकाचौंध गाँव के युवकों को आकर्षित कर रही है ..वह पान ठेले पर कुछ युवक हमसे नहीं कह रहे थे ,भैया हम लोगों को भी शहर में कुछ काम -वाम दिलवा दो ।"

            बातें करते हुए हम लोग नाले तक पहुँच गए । हम लोग शिविर की ओर लौट रहे थे और अन्धेरा हो चुका था । गाँव की ओर जाते समय हमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि  पिछले दिनों हुई वर्षा के कारण नाले में पानी कुछ बढ़ गया है और वे पत्थर जिन पर पाँव रखकर हम लोग पहले नाला पार करते थे पानी में डूब गए हैं । जाते समय काफी रौशनी थी और वे पत्थर साफ़ साफ़ दिखाई दे रहे थे लेकिन गपशप के बीच हमें ध्यान ही नहीं रहा कि इस बार जिन पत्थरों पर हमने पाँव रखकर नाला पार किया था उन पत्थरों को चिन्हित कर लें । हालाँकि इससे भी कोई फायदा नहीं होता, अँधेरा गहन होता जा रहा था और हम रौशनी के आदी  शहर वासियों को गांववालों की तरह अँधेरे में भी वस्तुएँ पहचान लेने का अभ्यास नहीं था अतः ठीक से कुछ दिखाई देना मुश्किल था ।

            राम मिलन उन्हें छेड़े जाने की वज़ह से गुस्से में थे और अपनी खामख्याली में हम लोगों से अलग-थलग और आगे आगे चल रहे थे । नाले तक पहुँचने से पहले ही किशोर ने हम लोगों को धीरे से एक टीले की ओट में छुप जाने का इशारा किया और ख़ुद राममिलन के पीछे चलते हुए उनसे कुछ दूरी बना ली । हम समझ गए किशोर अपनी शरारत को अंजाम देने जा रहे हैं । राममिलन नाले पर पहुँचकर कुछ पल ठहरे, हम लोगों की राह देखी फिर यह सोचकर कि हम लोग बहुत पीछे रह गए हैं  नाला पार करने के लिए अकेले ही आगे बढ़ गए  । पत्थरों पर सम्भल कर पाँव रखते हुए जैसे ही वे बीच नाले तक पहुँचे किशोर तेज़ी से दबे पाँव आगे बढ़े  और धीरे से उन्हें धक्का दे दिया । राम मिलन धड़ाम से पानी में गिर पड़े और हाय-तौबा मचाने लगे “ अरे कौन है ससुरा हमका गिराय दिया ..। “ और वे जोरों से राम राम कहने लगे । किशोर ने कुछ कदम पीछे हटकर इस तरह अभिनय किया जैसे वे उनकी आवाज़ सुनकर दूर से दौड़े चले आए  हों ।

            “क्या हुआ पंडत कौनो भूत वूत धक्का दे दिया का ? “ किशोर भैया ने हाँफने का अभिनय करते हुए कहा । भूत का नाम सुनते ही पंडित जी की घिग्गी बन्ध गई और वे ज़ोर ज़ोर से रटने लगे “जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ..राम दूत अतुलित बल घामा अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ..संकट तें हनुमान छुड़ावै मन क्रम बचन ध्यान जो लावै .. ।“ हम लोग चट्टानों की ओट से बाहर निकलकर जब तक उनके करीब पहुँचे तब तक वे उठकर खड़े हो चुके थे । लेकिन फिर उन्हें  ध्यान आया कि उनका एक जूता पानी के भीतर रेत - वेत में कहीं दब गया है । वे झुक कर पानी में हाथ डालकर अपना जूता तलाशने लगे ।

            किशोर ने चिल्लाकर कहा “ अरे अशोक जरा माचिस तो देना… पंडत का जूता अन्धेरे में दिख नहीं रहा है ।“ अशोक ने दूर से हाथ बढ़ाकर कहा “लो“ । कुछ सेकंड रुककर किशोर ने फिर कहा “ तुमसे कहा ना ..माचिस तो दे यार अशोक, अन्धेरे में कुछ सूझ नहीं रहा है ।“ अशोक बोला “ अभी तो यार तुम्हारे हाथ में पकड़ाई है माचिस ..तुमने हाथ बढ़ाया था ना या किसने हाथ बढ़ाया था ? “ किशोर सहित हम सब ने एक स्वर में कहा “ हमने तो हाथ नहीं बढ़ाया  । “ “ किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया तो ससुरी माचिस कहाँ गई ..कौनो अगिया बेताल ले गया क्या ? “ किशोर बोला ।


            अगिया बेताल का नाम सुनते ही राममिलन भैया की तो हवा बन्द हो गई । गनीमत इस समय तक उनका जूता मिल गया था । लेकिन वे जूते पहन ही नहीं पाए और उन्हें हाथ में लिए लिए गीले कपड़ों में ठण्ड से काँपते हुए, डर के मारे हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए और लगभग दौड़ते हुए कैम्प की ओर बढ़ गए  । हम लोग भी उनके साथ ही थे और बमुश्किल अपनी हँसी दबाते हुए उनका साथ दे रहे थे । हाँलाकि कैम्प तक पहुँचते हुए हँसी रोकना मुश्किल हो गया । पंडित राममिलन तो कपड़े बदलने के लिए तम्बू में घुस गए और हम लोग बाहर ही रुककर पेट पकड़ पकड़ कर हँसने लगे  । यह हमने सोचा ही नहीं कि राममिलन भैया हमारे इस तरह हँसने से हमारी शरारत समझ गए होंगे । 

शनिवार, 15 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-सातवाँ दिन –दो


शाम हो चुकी थी और हम लोग आज का कार्य समाप्त करने ही जा रहे थे कि डॉ.वाकणकर का आगमन हुआ । “ कैसा लग रहा है दुष्टों ?” उन्होंने हमारे मुरझाये चेहरों की ओर देखकर पूछा । हमने उन्हें अपनी उपलब्धियों और असफलताओं से अवगत कराया । सर अवशेषों के करीब बैठ गए और उनका निरीक्षण करते हुए बोले “असफलताओं को छोड़ो, हम उपलब्धियों पर बात करते हैं । यह जो अलग अलग कालखंड के मिश्रित रूप में अवशेष यहाँ मिल रहे हैं इनसे यह तो तय होता है कि यहाँ मिश्रित संस्कृति रही होगी । कई बार ऐसा होता है कि किसी एक सतह से किसी एक संस्कृति के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते । सो उतनी चिंता की बात नहीं ।"

            फिर उठते हुए उन्होंने कहा  "ठीक है, चलो,अब हम इन अवशेषों को लेकर शिविर में चलते हैं । अब हम सबसे पहले इन प्राप्त अवशेषों को तम्बू में ले जाकर साफ करेंगे फिर यह किस स्थिति में, किस लेयर में, कितनी गहराई में मिले, इनके साथ और कौन - कौन सी वस्तुएं मिलीं आदि जानकारी का टैग लगाकर इन्हें सावधानी पूर्वक सीलबन्द करेंगे । इसलिए तुम लोगों को भी यह नाप- वाप ध्यान में रखना है । यह सब कॉपी में नोट करते हो या नहीं ? “ “हाँ सर, आर्य सर ने बताया था सो हमने कॉपी में यह सब  विवरण दर्ज कर लिया है । ” रवीन्द्र ने कहा । " वेरी गुड ,अब चलो " सर ने कहा ।

            हम लोग तमाम अवशेष ,अपनी वही और औज़ार उठाकर सर के तम्बू में आ गए । सर ने वहाँ रखे ब्रश उठाये और अवशेषों से धूल हटाने लगे  । एक मनके को फूँक से साफ़ करते हुए देख कर अजय ने सवाल किया “ सर इन्हें साफ़ कर सीलबंद कर और टैग लगाकर तो हम रख देंगे लेकिन इसके बाद इन अवशेषों का क्या होगा ? सर ने कहा “ अरे, इतनी सी बात तुम्हें नहीं मालूम, इसके बाद उत्खनन की रिपोर्ट लिखते समय इस सामग्री की और इस विवरण की ज़रूरत होती है ना ।"

            वैसे तो हम यह सब कोर्स में पढ चुके हैं , लेकिन डॉ.वाकणकर जैसे विद्वान के मुँह से यह सब सुनना हमें अच्छा लगता है । इसलिए उनकी डांट खाकर भी हम उनके सामने बार बार अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं । हमें ज्ञात है कि उनका ज्ञान अपार है और जहाँ वे विश्व इतिहास की पहेलियों  के उत्तर सरलता पूर्वक दे देते हैं वहीं 'जंगल में अगर आपकी साइकल पंक्चर हो जाए तो ट्यूब में बारीक धूल डालकर हवा भर देने से कैसे पंक्चर की दुकान तक साईकल चल सकती है', जैसे फार्मूले भी उनके पास हैं  । वे अच्छे चित्रकार भी हैं और नक्षत्र विज्ञान के अलावा जड़ी-बूटियों  की भी जानकारी रखते हैं ।

            सर भी हमारे सवालों का मज़ा ले रहे थे । मैंने अगला सवाल किया “ लेकिन सर इतनी सामग्री भर से क्या इस जगह का इतिहास लिखा जाएगा ?” यह साधारण सा सवाल सुनकर किंचित रोश के साथ बोले “ अरे पागलों, दो साल से क्या पढ़ रहे हो ? इतिहास लिखने के लिए इसके सपोर्ट में और भी वस्तुएं चाहिये, यहाँ प्रचलित साहित्य,लोक मान्यताएं, निकटस्थ स्थानों पर प्राप्त सामग्री, आसपास हुए उत्खननों की रिपोर्ट आदि । सब मिलाकर इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता कई दिनों तक शोध करते हैं तब कहीं इतिहास तय होता है ।तुम लोग भी जब गाँव जाते हो तो यहाँ प्रचलित मान्यताओं के बारे में ग्रामवासियों से बात किया करो ।"

            “लेकिन सर जी, ई सब इतिहास-फितिहास लिखा जाने के बाद ई सब कचरा का करेंगे ,वापस गाड़ देंगे का ? “ राममिलन के इस सवाल पर सर ज़ोर से हँस पड़े । जिस बात को हम लोग स्पष्ट पूछने से डर रहे थे राममिलन ने अपने अंदाज़ में पूछ ही लिया । सर उसका आशय समझकर मज़ाक में बोले “ क्या करेंगे पंडित , इन पर सिन्दूर लगाकर सब तुमरे यहाँ इलाहाबाद में गंगा मैया में विसर्जित कर देंगे और क्या । “ सर की विनोद बुद्धि पर हम लोग भी हँस पड़े ।

            लेकिन किशोर कहाँ चुप रहने वाले थे । उन्हें  तो पंडित राममिलन को छेड़ने का मौका चाहिये था । बोले ” अरे पंडत, ई सब तोहरे इलाहाबाद के मूजियम में रख देंगे और तोहका म्यूजियम क्यूरेटर बना देंगे ।‘ हम लोग हँस पड़े लेकिन राम मिलन नाराज़ हो गए …“ किशोरवा, तुम तो चुपई रहो , हम तुमसे बात नाही कर रहे, हम तो सर से पूछ  रहे हैं ।“ लेकिन सर तो इतनी देर में हम लोगों को हँसता छोड़ तम्बू से बाहर निकल  चुके थे । हम समझ गए कि आज रात तक किशोर और राम मिलन के बीच ऐसी ही  नोक- झोंक चलती रहेगी ।

रविवार, 9 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-सातवाँ दिन-एक




17 - ताम्राश्मयुगीन ब्यूटी पार्लर की तलाश

          "बस बस संवर गईं तेरी ज़ुल्फे ।" रवींद्र ने मुझे आईने के सामने से हटाते हुए कहा " अब मुझे भी थोड़ा सा कंघी-वंघी करने देगा या नहीं ? वैसे भी तुझे क्या ज़रूरत.. तेरे बाल बिखरे हों या संवरे वह तो तुझे ही देखती रहती है.." "ले भाई " हम लोगों के बीच उपस्थित एकमात्र आईने के सामने से हटते हुए मैंने कहा "तू भी कर ले, अब मुझे क्या पता था वर्ना मैं भी एक आइना ले आता ।" "तुझे लाने की क्या ज़रूरत , उसकी आँखों में झाँक कर कंघी कर लिया कर ..मैं संवारूंगी तुझे आइना हूँ मैं तेरा " रवींद्र की छेड़खानी चल ही रही थी और मैं उसके छेड़ने का मज़ा ले रहा था । " "या फिर उससे कह देना कल तेरे लिए एक आइना लेती आयेगी ।" " बस कर यार ।" मैंने कहा "हालत देखी है उसकी, उस के घर में बमुश्किल एकाध आईना होगा ,मुझे दे देगी तो फिर खुद कंघी चोटी कैसे करेगी ?"

            "चलो ना यार ।"बाहर से अशोक की आवाज़ आई " नाश्ता नहीं करना क्या ,ज़ोरों की भूख लग रही है .. एक ठो छोरी है सब उसके चक्कर में लगे रहते हैं ।" "आ रहे हैं भाई, क्यों नाराज़ हो रहा है " मैंने तम्बू से बाहर निकलते हुए कहा । मुझे देखकर अशोक मुस्कुराया । उसके गुलाबी होंठ और ज़्यादा गुलाबी हो उठे "तेरे तो अलग ही जलवे हैं बाबू ..कईं लफड़ा -वफड़ा मत कर बैठना ..इस साल भी तुझे टॉप करना हे कि नई ?" " नहीं करूँगा भाई भरोसा रखो..दंगवाड़ा में कोई प्रेम कहानी जन्म नहीं लेगी .." "फिर ठीक है ।" अशोक ने गरम गरम भजिया मुँह में डालते हुए कहा "वर्ना गुरूजी तेरे साथ हम सबका भी कोर्ट मार्शल कर देंगे ।"

            नाश्ता करके हम लोग सीधे टीले पर पहुंचे । ट्रेंच क्रमांक चार हमारी राह देख रही थी । हमारी यह ट्रेंच मुख्य ट्रेंच से लगी हुई ही थी इसलिए हमें अलग से मज़दूर नहीं दिए गए थे आवश्यकतानुसार हम उन्हें बुला लेते थे । यह ट्रेंच हम लोगों के नाम से अलाट की गई थी और यहाँ प्राप्त वस्तुएँ हमारी उपलब्धि में शामिल होने वाली थीं इसलिए हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई थी । सुबह की खिली खिली धूप बहुत भली लग रही थी और हम लोग उसका मज़ा लेते हुए काम शुरू कर ही रहे थे कि देखा पास के शिव मंदिर तक आने वाले कुछ दर्शनार्थी हमारी ट्रेंच का दर्शन करने भी आ गए ।

            "भैया कोई भगवान की मूर्ति नहीं मिली क्या ?" उनमें से एक ने सवाल किया । " मूर्ति तो नहीं मिली भाई ! " रवींद्र ने कहा " और मिल भी जाये तो तुम्हें थोड़े ही देंगे, तुम लोग तो दंगवाड़ा के चौक पर ले जाकर उसकी स्थापना कर दोगे और उसकी पूजा करने लगोगे ।  " भानपुरा की तरह ।" मैंने रवीन्द्र की ओर देखकर हँसते हुए कहा ।  रवीन्द्र बोला ” हाँ ,इन लोगों का क्या भरोसा वैसे ही करने लगें जैसे कुबेर की पूजा हमारे यहाँ अन्नपूर्णा माता के रूप में करने लगे थे । “

            “ ये क्या किस्सा है ? ” अजय ने सवाल किया । “अरे वो बड़ा मज़ेदार किस्सा है ।“ मैंने कहा “दीपावली अवकाश से पूर्व मैं रवीन्द्र के साथ उसके गाँव भानपुरा गया था, सुबह सुबह जब  हम लोग घूमने निकले तो देखा एक चौक पर बहुत भीड़ लगी है ,मैंने रवीन्द्र से पूछा यहाँ क्या हो रहा है तो उसने बताया कि यहाँ अन्नपूर्णा माता की पूजा हो रही है । करीब जाकर मैंने देखा तो अन्नपूर्णा माता जैसी कोई प्रतिमा नहीं थी बल्कि वहाँ कुबेर की मूर्ति रखी थी तुन्दिल काया, कानों में बड़े बड़े कुंडल, हाथ में धन की थैली और लोग उसी की पूजाकर रहे थे । मैंने कहा "कहाँ है अन्नपूर्णा? तो रवीन्द्र ने कहा " बस यही है ..इसीको लोग अन्नपूर्णा माता कहते हैं ।"

            मेरी हँसी रुक नहीं रही थी मैंने हँसते हुए रवीन्द्र से कहा “ रविंदर ..यह तो कुबेर है, इसकी पूजा अन्नपूर्णा के रूप में ?  ” तो रवीन्द्र ने मेरे मुँह पर हाथ रखा और कहा  “ धीरे बोल, अगर कोई सुन लेगा तो बहुत मार पड़ेगी ।" फिर हम लोग उसे नज़र अंदाज़ करते हुए आगे बढ़ गए । "लेकिन यार रवींद्र " अजय ने कहा " तू तो वहाँ बचपन से रह रिया है तूने कभी मना नहीं किया ?" रवीन्द्र ने ठंडी साँस भरते हुए कहा .."अब क्या करें लोगों ने कुबेर को अन्नपूर्णा माता मान लिया है तो मान लिया , उनको पूजा से मतलब । भले ही हम प्रतिमा शास्त्र के ज्ञाता हैं अगर इसे कुबेर बताकर पूजा करने से रोकेंगे तो फालतू का बवाल खड़ा हो जाएगा ।“ शिवजी के दर्शन करने आये ग्रामीण भी वहाँ खड़े हुए हमारी बात सुन रहे थे लेकिन उन्हें हमारी बात कुछ समझ में नहीं आई और वे चुपचाप वहाँ से खिसक लिए ।

            हम लोगों ने धीरे धीरे ट्रेंच में उत्खनन शुरू ही किया था कि रवीन्द्र की ख़ुशी से भरी आवाज़ सुनाई दी ..“अरे यह तो सूरमा लगाने की सींक है । " उसके हाथों में ताम्बे की एक सींक थी और आँखों में चमक । वह हँसते हुए बोला “ ज़रूर उस ताम्राश्म युग में यहाँ कोई ब्यूटी पार्लर रहा होगा ।“ “चुप ।“ अजय ने उसे डाँटते हुए कहा “ यह किसी के घर में रही होगी , फिर तो यह पैर घिसने का पत्थर देख कर मैं भी कह सकता हूँ कि यहाँ उस ज़माने का हम्माम रहा होगा ।“ राममिलन भैया दूर बैठे हम लोगों की बातें सुन रहे थे । वहीं से चिल्लाकर बोले “भैया अभी से काहे आसमान सर पर उठाये हो जब कौनो चड्डी बनियान, साबुन-वाबुन मिल जाए तब बताना ।“

            किशोर ने राम मिलन को छेड़ना शुरू किया “राममिलन तुम खुद तो कुछ करते नहीं हो बस बैठे - बैठे कमेंट करते रहते हो ।“ डॉ.आर्य हम लोगों की गूटर- गूँ सुन रहे थे, बोले “ ठीक तो कह रहा है राम मिलन ,इतनी जल्दी किसी परिणाम पर नहीं पहुँचना चाहिये, जब तक अन्य पूरक सामग्री न प्राप्त हो जाए  हम इतिहास विषयक कोई धारणा नहीं बना सकते । ऐसा बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि नाल मिल गई है तो घोड़ा मिल ही जाएगा । वैसे भी यह धातु थी इसलिए बची रह गई, हो सकता है सुरमादानी लकड़ी-वकड़ी की बनी हो इसलिए नष्ट हो गई हो ..इसलिए कि उस काल के कपड़े लकड़ी इत्यादि तो पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं ।“

            "हाँ सर सुरमादानी तो लकड़ी की ही होगी जैसे कि आजकल हमारे घरों में सिंदूरदान होता है ।" अजय ने सर की बात का समर्थन करते हुए कहा । फिर वह उछलकर बोला " मेने भी ना सर, अपनी शादी में अपनी पत्नी की माँग लकड़ी के सिंदूरदान  से भरी थी ।" "बेटा अपनी शादी में अपनी पत्नी की ही मांग भरते हैं .." रवीन्द्र ने हँसते हुए कहा .." ओर तेरे ससुर ने जो सोने की सींक दी थी मांग भरने के लिए वो नहीं बताएगा ..?" क्या रवींद्र भैया आप भी .." अजय ने थोड़ा शर्माते हुए कहा .." वो तो बाती मिलाई में दी थी , मांग तो चांदी की सलाई से भरी थी ।"

            "बस बस " आर्य सर ने कहा " अब अपनी पोल खुद मत खोलो ।" इस थोड़े बहुत हँसी मज़ाक के बाद हम लोग फिर गंभीर हो गए अब अशोक की बारी थी .."सर ,मेरे मन में अक्सर एक सवाल आता है । " उसने  कहा । " आप कह रहे हैं कि आदिम मानव जो कपड़े पहनता था वे पूरी तरह नष्ट हो गए फिर हम अभी जो आदिम मानव के चित्र देखते हैं कि वह जानवरों की खाल के कपड़े पहने है या बाद के मनुष्य के रंगबिरंगे कपड़े देखते हैं वे तो उत्खनन में कहीं मिले नहीं फिर क्या यह सिर्फ कल्पना है ? " अशोक  ने बहुत सही सवाल किया था और हम प्रशंसा भरी निगाह से उसकी ओर देख रहे थे ।

            सर ने कहा " तुम्हारा यह सवाल वाजिब है । कपड़े ज़मीन के भीतर नष्ट हो जाने वाली वस्तु है । हमारी चमड़ी और मांस की भांति  उन पर होने वाली अनेक रासायनिक क्रियाओं के कारण या कीड़े मकोड़े ,दीमक आदि की वज़ह से उनका नष्ट हो जाना स्वाभाविक है ।लेकिन पुरातत्ववेत्ताओं को कुछ ऐसी सामग्री मिली है जिनके आधार पर यह तय किया गया कि आदिम मनुष्य वस्त्र धारण करते होंगे, जैसे हड्डी की सुइयाँ और बाद के समय में कुछ ऐसी वनस्पतियाँ जिनसे कपड़े रंगे जाते होंगे । हिमयुग के बाद के नियेंडरथल मनुष्य के भीतर यद्यपि उस समय की शीत सहन करने की क्षमता थी लेकिन वह अपने आप को बचाने के लिए जानवरों की खाल पहनता था , शुरूआती दौर में भले उसे सीना न आता हो लेकिन बाद में हड्डी की सुई और पौधों के रेशों से उसने सीना सीख लिया । बाद के दौर में जब प्राकृतिक रेशों से उसने कपड़े का आविष्कार किया तब उसके जीवन में क्रांति हो गई ।"

            खुदाई करते हुए दोपहर तक हम लोग पचपन सेंटीमीटर गहराई तक पहुँच गए । ट्रेंच की उपरी सतह में 'पेग क्र.दो' से 'पेग क्र. दो बी' के बीच 'दो मीटर बाय दो मीटर' के क्षेत्र में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण ऑब्जेक्ट हमें प्राप्त हुए जिनमें पैर घिसने का एक पत्थर, सुरमा लगाने की एक ताम्र शलाका, मिट्टी का बना आग में पकाया हुआ एक पात्र तथा मनका शामिल है । लेकिन हमें सर की बात सिद्ध करनी थी अतः पूरक सामग्री ढूँढने के उद्देश्य से हम लोगों ने दोपहर के भोजन के बाद दक्षिण की ओर दो बाइ दो मीटर के हिस्से में भी चार सेंटीमीटर खुदाई कर डाली । पर अफ़सोस उसमें भी हमें कोई महत्वपूर्ण ऑब्जेक्ट नहीं मिला ।

            राम मिलन भैया टेरीकॉट का टाइट पैंट पहने और धूप का काला चश्मा लगाए एक पत्थर पर बैठे हुए थे और हमारी मेहनत को अकारथ जाते देख प्रसन्न हो रहे थे, हँसकर कहने लगे  “ का हो अजयवा .. चड्डी बनियान मिला कि नहीं तुम्हारे पुरखों का ..ढूँढो ढूँढो, मोहनजोदाड़ो की तरह छोटा-मोटा नहाने का बाथरूम यहाँ भी मिलेगा । अभी एड़ी घिसने का पत्थर मिला है ना , कुछ देर में साबुन भी मिलेगा, टुथपेस्ट और ब्रश  भी मिलेगा और गाँव की गोरी के बालों को धोने वाला रीठा छाप शंपू भी मिलेगा ।“ किशोर भैया मन ही मन गुस्सा हो रहे थे , धीरे से बोले  “ ई पंडितवा बहुतै बकबक कर रहा है ..इसको मज़ा चखाना ही पड़ेगा । “  

            हमारी असफलता के बावज़ूद डॉ.आर्य ने हम लोगों को दिलासा देते हुए कहा “ कोई बात नहीं अगर कुछ नहीं मिला । पुरातत्ववेत्ताओं के साथ अक्सर ऐसा होता है कि कई कई दिन मेहनत करने के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगता । यहीं उनके धैर्य की परीक्षा होती है । जो अधीर होते हैं वे आधी-अधूरी जानकारी के साथ गलत रिपोर्ट दे देते हैं और इस तरह गलत इतिहास रचने में अपना योगदान देते हैं  । कई बार उन पर गलत रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए  भी दबाव डाला जाता है । कई प्रकार के लोभ लालच भी दिये जाते हैं । यह कहने के लिए बाध्य किया जाता है कि बता दो यह यह मिला है , लेकिन जो सच्चे पुरातत्ववेत्ता होते हैं वे सच्चे देशभक्त की तरह होते हैं, वे किसी के भी आगे झुकते नहीं ।"


मंगलवार, 4 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-छठवां दिन –तीन



खाना खाकर हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए  । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था । वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है इसलिए  ठंड ज्यादा लगती है ।

            वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“ मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे सो अलग ।“

            “ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी समझ में आ गया ।”

            मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान  करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।

            “चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“

रविवार, 2 अगस्त 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-छठवां दिन –दो

तम्बुओं में लौटते हुए अन्धेरा घिर आया था । मौसम खुल गया था और ठंड अचानक बढ़ गई थी । हाथ मुँह धोकर आने के पश्चात किशोर की ओर से प्रस्ताव आया “ क्यों सिटी घूमने चलें ?“ मैंने कहा “नहीं यार, आज वैसे भी दिन भर काम करके बहुत थक गए हैं और दिन भी अब डूब चुका है । कल जल्दी काम खत्म करेंगे और शाम को चलेंगे दंगवाड़ा ।“ वैसे भी आज किसी निखात पर स्वतंत्र रूप से काम करने का अनुभव हमें प्रफुल्लित किये हुए था । ज़मीन के भीतर तो हम मात्र इकतीस सेंटीमीटर ही गए थे लेकिन इसके विलोम में हमारी उमंगें आसमान  छू रही थीं ।

            भोजन ग्रहण करने तक का वक़्त बिताने और भट्टी की आग तापने के उद्देश्य से हमने भाटी जी की भोजन शाला पर धावा बोल दिया और लगे उनका दिमाग खाने । “ क्या भाटीजी ..” अशोक ने छेड़खानी शुरू की “ रोज़ रोज़ वही लौकी, बैंगन, गोभी ..कुछ चिकन विकन का इंतज़ाम नहीं है क्या ?..” "श..श...” भाटी जी ने डाँट लगाई “पंडित वाकणकर जी ने सुन लिया तो तुम्हारा कीमा बना देंगे ।“ अशोक बेचारा मायूस हो गया । भाटीजी ने पुचकारते हुए कहा “ कोई बात नहीं तुम मेरे  एक सवाल का जवाब दे दोगे तो मैं तुम्हें  चिकन खिला दूंगा ।“  अशोक की आंखों में चमक आ गई । भाटी जी ने कहा “यह बतलाओ कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा ? “

            अशोक बोला “बड़ा कठिन सवाल है भाई, हमारे वैज्ञानिक डॉ.शरद ही इस पर रोशनी डाल सकते हैं ।“ मैंने कहा “कोई कठिन सवाल नहीं है । विज्ञान इसका उत्तर ढूंढ चुका है । हम जानते ही हैं हर सजीव का जन्म और विकास कैसे हुआ । सजीवों की उत्पत्ति से पूर्व रसायनों से लबाबब थी यह धरती । समुद्र के जल में मिश्रित रसायनों पर एक्स रेज़, बीटा रेज़, गामा रेज़ आदि के प्रभाव से समुद्र में उपस्थित शैल भित्तियों पर एक कोशिकीय अमीबा जैसे जीवों ने जन्म लिया, फिर धीरे धीरे अन्य बहु कोशिकीय जीव जन्म लेते गए  और उनके आकार भी बदलते गए । आप क्या सोचते हैं .. यह मुर्गी जो हम देखते हैं क्या इसके पूर्वज भी ऐसे ही दो ‘ लेग पीस ‘ वाले रहे होंगे ?

            "लो सुन लो तो क्या चार लेग पीस वाली भी मुर्गी होती थी ?" अशोक ने कहा । "यह बिलकुल संभव है " मैंने कहा "इससे पूर्व इससे मिलते जुलते जीवों ने जाने कितने रूप धारण किये होंगे तब यह मुर्गी सदृश्य जीव बना होगा, फिर धीरे - धीरे इसकी प्रजनन क्षमता विकसित हुई होगी, फिर अंडा-वंडा बनना शुरू हुआ होगा, इसकी भी लम्बी प्रक्रिया रही होगी ।“ “ वो तो सब ठीक है “ अजय ने मेरे  भाषण से ऊबकर कहा “ लेकिन इसे खाना कब शुरू हुआ ?“ मैंने कहा “ सॉरी यार, इस बारे में फिलहाल मेरे पास कोई जानकारी नहीं है । जैसे ही प्राप्त होगी तुम्हें बता दूंगा ।“

            रवीन्द्र इतनी देर तक हम लोगों की बातें सुन रहा था । उससे रहा नहीं गया । उसने कहा” क्या तुम लोग भी खाने के समय गन्दी बातें कर रहे हो ।“ “अच्छा अच्छा चुप हो जाओ भाई“ अशोक बोला “ पंडित भारद्वाज माँसाहार की बात से  नाराज हो गए  हैं ।“  भाटीजी हम लोगों की बातों का मज़ा लेते हुए अब तक अरहर की दाल में हींग, जीरे, लहसुन व लालमिर्च की छौंक लगा चुके थे । पीले बल्ब की रोशनी में ऊपर उठता हुआ धुआँ किसी स्वप्नलोक में मायावी धुन्ध की तरह दिखाई दे रहा था । बाहर भी हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था लेकिन हमारे भीतर की धुंध धीरे धीरे छंटती जा रही थी । भोजनशाला के गर्म वातावरण में गहन होती हुई छौंक की यह गन्ध हमारी भूख के चरमोत्कर्ष में हमारे तंत्रिका तंत्र को शून्य कर रही थी और हमें दुनिया के सबसे स्वादिष्ट भोजन अर्थात घर में माँ के हाथों बने खाने की याद आने लगी थी ।

          खाना खाकर हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए  । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था । वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है इसलिए  ठंड ज्यादा लगती है ।

            वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“ मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे सो अलग ।“

            “ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी समझ में आ गया ।”

            मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान  करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।


            “चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“

आपका शरद कोकास