तम्बुओं
में लौटते हुए अन्धेरा घिर आया था । मौसम खुल गया था और ठंड अचानक बढ़ गई थी । हाथ
मुँह धोकर आने के पश्चात किशोर की ओर से प्रस्ताव आया “ क्यों सिटी घूमने चलें ?“
मैंने कहा “नहीं यार, आज वैसे भी दिन भर काम करके बहुत थक गए हैं और दिन भी अब डूब
चुका है । कल जल्दी काम खत्म करेंगे और शाम को चलेंगे दंगवाड़ा ।“ वैसे भी आज किसी
निखात पर स्वतंत्र रूप से काम करने का अनुभव हमें प्रफुल्लित किये हुए था । ज़मीन
के भीतर तो हम मात्र इकतीस सेंटीमीटर ही गए थे लेकिन इसके विलोम में हमारी उमंगें
आसमान छू रही थीं ।
भोजन ग्रहण करने तक का वक़्त बिताने और
भट्टी की आग तापने के उद्देश्य से हमने भाटी जी की भोजन शाला पर धावा बोल दिया और
लगे उनका दिमाग खाने । “ क्या भाटीजी ..” अशोक ने छेड़खानी शुरू की “ रोज़ रोज़ वही
लौकी, बैंगन, गोभी ..कुछ चिकन विकन का इंतज़ाम नहीं है क्या ?..” "श..श...”
भाटी जी ने डाँट लगाई “पंडित वाकणकर जी ने सुन लिया तो तुम्हारा कीमा बना देंगे ।“
अशोक बेचारा मायूस हो गया । भाटीजी ने पुचकारते हुए कहा “ कोई बात नहीं तुम मेरे एक सवाल का जवाब दे दोगे तो मैं तुम्हें चिकन खिला दूंगा ।“ अशोक की आंखों में चमक आ गई । भाटी जी ने कहा
“यह बतलाओ कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा ? “
अशोक बोला “बड़ा कठिन सवाल है भाई,
हमारे वैज्ञानिक डॉ.शरद ही इस पर रोशनी डाल सकते हैं ।“ मैंने कहा “कोई कठिन सवाल
नहीं है । विज्ञान इसका उत्तर ढूंढ चुका है । हम जानते ही हैं हर सजीव का जन्म और
विकास कैसे हुआ । सजीवों की उत्पत्ति से पूर्व रसायनों से लबाबब थी यह धरती ।
समुद्र के जल में मिश्रित रसायनों पर एक्स रेज़, बीटा रेज़, गामा रेज़ आदि के प्रभाव
से समुद्र में उपस्थित शैल भित्तियों पर एक कोशिकीय अमीबा जैसे जीवों ने जन्म लिया,
फिर धीरे धीरे अन्य बहु कोशिकीय जीव जन्म लेते गए
और उनके आकार भी बदलते गए । आप क्या सोचते हैं .. यह मुर्गी जो हम देखते
हैं क्या इसके पूर्वज भी ऐसे ही दो ‘ लेग पीस ‘ वाले रहे होंगे ?
"लो सुन लो तो क्या चार लेग पीस
वाली भी मुर्गी होती थी ?" अशोक ने कहा । "यह बिलकुल संभव है "
मैंने कहा "इससे पूर्व इससे मिलते जुलते जीवों ने जाने कितने रूप धारण किये
होंगे तब यह मुर्गी सदृश्य जीव बना होगा, फिर धीरे - धीरे इसकी प्रजनन क्षमता
विकसित हुई होगी, फिर अंडा-वंडा बनना शुरू हुआ होगा, इसकी भी लम्बी प्रक्रिया रही
होगी ।“ “ वो तो सब ठीक है “ अजय ने मेरे
भाषण से ऊबकर कहा “ लेकिन इसे खाना कब शुरू हुआ ?“ मैंने कहा “ सॉरी यार,
इस बारे में फिलहाल मेरे पास कोई जानकारी नहीं है । जैसे ही प्राप्त होगी तुम्हें
बता दूंगा ।“
रवीन्द्र इतनी देर तक हम लोगों की
बातें सुन रहा था । उससे रहा नहीं गया । उसने कहा” क्या तुम लोग भी खाने के समय
गन्दी बातें कर रहे हो ।“ “अच्छा अच्छा चुप हो जाओ भाई“ अशोक बोला “ पंडित
भारद्वाज माँसाहार की बात से नाराज हो
गए हैं ।“ भाटीजी हम लोगों की बातों का मज़ा लेते हुए अब
तक अरहर की दाल में हींग, जीरे, लहसुन व लालमिर्च की छौंक लगा चुके थे । पीले बल्ब
की रोशनी में ऊपर उठता हुआ धुआँ किसी स्वप्नलोक में मायावी धुन्ध की तरह दिखाई दे
रहा था । बाहर भी हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था लेकिन हमारे भीतर की धुंध धीरे
धीरे छंटती जा रही थी । भोजनशाला के गर्म वातावरण में गहन होती हुई छौंक की यह
गन्ध हमारी भूख के चरमोत्कर्ष में हमारे तंत्रिका तंत्र को शून्य कर रही थी और
हमें दुनिया के सबसे स्वादिष्ट भोजन अर्थात घर में माँ के हाथों बने खाने की याद
आने लगी थी ।
खाना खाकर
हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर
जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल
चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था ।
वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है
इसलिए ठंड ज्यादा लगती है ।
वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे
मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया
हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल
दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“
मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार
से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का
यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की
बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे
सो अलग ।“
“ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी
जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से
करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड
पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या
सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल
इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे
थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते
हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी
समझ में आ गया ।”
मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का
रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने
आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु
नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम
हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने
लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।
“चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक
मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं
नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो
असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह
सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म
के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता
है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“
आपका शरद कोकास
बढ़िया पोस्ट लगाई है।
जवाब देंहटाएंदोस्ती का जज़्बा सलामत रहे।
मित्रता दिवस पर शुभकामनाएँ।
Rochak prastuti.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }</a
कहने का मतलब पहले मुर्गी हुई... :)
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