बुधवार, 7 अगस्त 2019

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - पन्द्रहवां दिन - दो


29.उजड़ी इमारत की तरह का इंसान 

लेकिन हमारे पास पलकें भी थीं और हमें आज की रात चैन से सोना भी था और इसके लिए सर्वाधिक आवश्यक था सबसे पहले एक ठिकाना ढूँढना । जैन सर ने बताया कि ठहरने के लिए  औरंगाबाद में एक धर्मशाला पहले से ही उन्होंने तय कर रखी है । धर्मशाला का नाम सुनकर महेश ने मुँह बिचकाया । मैंने उसे इशारा किया कि फ़िलहाल चुप रहे । लेकिन जैन सर ने उसकी यह हरकत देख ली थी । वे बोले “ भई, हम लोगों का डिपार्टमेंट बहुत ग़रीब  है । अब होटल - वोटल में तो ठहरने लायक पैसा तो विश्वविद्यालय से नहीं मिलता है सो इसी में गुजारा करना होगा ।“

धर्मशाला के गेट पर पहुँचते ही ऐसा लगा जैसे हम लोग किसी ढहती हुई ऐतिहासिक इमारत के अहाते में प्रवेश कर रहे हों । प्रांगण में ढेर सारी जंगली घास उगी हुई थी । दीवारों पर सफ़ेदी हुए बरसों बीत चुके थे और मॉडर्न आर्ट की तरह जगह जगह काई के धब्बे दिखाई दे रहे थे । ईट- पत्थर मुन्डेरों पर इस तरह लटके हुए थे जैसे कुछ ही देर में आत्महत्या करने वाले हों  । बिजली भी शायद कट चुकी थी और अंधेरे कमरों में लालटेनें टिमटिमा रही थीं । प्रांगण में कुछ मुसाफ़िर ईट के चूल्हों पर शाम का भोजन पकाने में व्यस्त थे । धुएं की गंध के साथ रोटी की गंध मिलकर एक अजीब सी बू पैदा कर रही थी । हमारे जिस्मों का पसीना हमें बार बार चेतावनी दे रहा था कि उसे पानी से धो दिया जाए वर्ना वह हमारी रात बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा ।

हमारे पहुँचने की खबर मिलते ही धर्मशाला का मैनेजर जिसका नाम शायद देवड़ा था, दौड़ा चला आया । वह जैन सर को जानता था । हम समझ गए.. हम से पहले की बैचेस को इस धर्मशाला में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है । देवड़ा नामक वह व्यक्ति मैले कुचैले से कपड़े पहने हुए था और पाँवों में स्पंज की टूटी हुई स्लीपर थी। वह आदमी कहीं से भी उस धर्मशाला का मैनेजर नहीं दिखाई दे रहा था । सर ने बताया कि उजड़ी इमारत की तरह दिखाई देने वाला यह इन्सान इस धर्मशाला का मालिक भी है जो पहले कभी बहुत संपन्न  हुआ करता था । “तो अब क्या हो गया है जो यह इस इमारत का मेन्टेनेन्स भी नहीं कर सकता ?“ मेरे मन में विचार आया लेकिन देवड़ा की लाल लाल आँखों, बहकती आवाज़ और लड़खड़ाते कदमों ने उसकी और इमारत की बदहाली का राज़ खोल दिया । अपने ज़माने का सम्पन्न देवड़ा अब पूरी तरह ‘बेवड़ा‘ हो चुका था ।

फिर भी वह होशियार था और कुछ व्यावसायिक बुद्धि तो उसमें थी ही । उसने हमारी आँखों में कौन्धता हुआ रोशनी का सवाल देखा और आवाज़ लगाई “इब्राहिम भाई, जल्दी से एक पेट्रोमैक्स का इन्तज़ाम करो ।“ फिर वह खिसियानी सी हँसी के साथ हमारी ओर मुख़ातिब हुआ “ क्या करें साब, वो बिल ज़्यादा आता था ना, दो तीन बार नहीं भर पाया इसलिए …हेहेहे…। फिर उसने काम करने वाली लड़की को आवाज़ लगाई …”कान्ता इन लोगों के लिए कुएँ से पानी निकाल दो …।”

फिर वह मैनेजरों सी विशिष्ट स्टाइल में बोला ...“ चलिए साहब, आप लोगों के लिए एक बड़े हाल का इन्तज़ाम कर दिया है, सामान वगैरह रखकर हाथ मुँह धो लीजिए मैं आप लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करता हूँ । फ़िर उसने इब्रहिम भाई के ज़रिये एक ढाबे वाले को बुलाया । जैन सर ने पूछा “ एक थाली का कितना लोगे ? “ उसने तपाक से उत्तर दिया “ आप लोगों के लिए मात्र पंद्रह रुपए सर । “ जैन सर कुछ देर सोचते रहे फिर उन्हें  लगा ज़रूर कहीं कुछ गड़बड़ है । उन्होंने देवड़ा से कहा “ रहने दीजिये भोजन की व्यवस्था हम खुद कर लेंगे ।“

“बस कर यार .. आज बहुत थक गए हैं अब नींद आ रही है ..आगे की डायरी कल सुनेंगे । " अशोक ने अपनी रजाई सर तक ओढ़ते हुए कहा । " यार कुछ भी कहो जैन साब खयाल तो बहुत रखते हैं हम लोगों का ।“ अजय भी सोने के लिए अपनी पोजीशन संभाल चुका था । रवीन्द्र ने उसकी रज़ाई खींची और उसे छेड़ते हुए चुटकी ली …” फिर भी बेटा, तुम मैडम के अंडर में डिज़र्टेशन लिख रहे हो ।“ “तो उससे क्या होता है  । “ अजय ने वापस अपनी रज़ाई गले तक ओढ़ते हुए कहा “ मैं तो जैन साहब की अनुशासन प्रियता और गुणों की बात कर रहा था । “ मैं समझ गया अब सब लोग सोने के मूड में आ गए हैं सो मैंने डायरी बंद की और उसे बैग में रखकर मैं भी बिस्तर में घुस गया ।


शरद कोकास