गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – तेरहवां दिन – दो - अजंता यात्रा


किस्सा यह है कि उज्जैन के पास दंगवाड़ा में विक्रम विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व के स्नातकोत्तर के छात्र उत्खनन शिविर में आए हुए हैं और कार्य समाप्ति के पश्चात तम्बू में बैठकर गपशप कर रहे हैं । शरद कोकास सुना रहे हैं अपने मित्रों को अपनी अजंता यात्रा का वर्णन । छात्रों से भरी बस अजंता की गुफाओं के द्वार तक पहुँच चुकी है । अब पढ़िये इससे आगे ... 

          मैंने चारों ओर नज़रें इस तरह घुमाकर फेंकीं जैसे कोई मछुआरा अपना जाल घुमाकर फेंकता है । मुझे उन गुफाओं की तलाश थी जिनके बारे में मैं बचपन से सुनता चला आया था । पूछने पर ज्ञात हुआ कि उन गुफाओं तक पहुँचने के लिए पहले सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी । उसके बाद उन गुफाओं का संसार प्रारम्भ होगा जो आज पूरी दुनिया में मशहूर हैं । सीढ़ियों पर चढ़कर हम लोगों ने टिकट खरीदे और प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किया ।
            मैं मन ही मन हँसा । कितना मूर्ख हूँ मैं ,जो सोच रहा था कि यह गुफायें अब भी ढाई हज़ार साल पहले की स्थिति में होंगी । इन गुफाओं की खोज हुए भी जाने कितना समय बीत चुका है और अब तो यह बाकायदा एक टूरिस्ट सेन्टर बन चुका है । इस बात का हमें भान था कि हम लोग यहाँ टूरिस्ट की तरह नहीं बल्कि अध्ययनकर्ता की तरह आए हैं और हमे उसी तन्मयता के साथ इन गुफाओं का अवलोकन करना है जिस तन्मयता के साथ कलाकारों ने इन गुफाओं में चित्र उकेरे होंगे ।
            सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरांत हमें सबसे पहली गुफा जो मिली उसे पुरातत्व विभाग ने गुफा क्रमांक एक नाम दिया है । उसके बाद क्रम से गुफा क्रमांक दो , तीन ,चार आदि हैं । इस क्रम  का इन गुफाओं के निर्माण काल से कोई सम्बन्ध नहीं है । वास्तव में सबसे पहले जो गुफा बनी थी वह क्रमांक दस है । इसके बाद इस गुफा के दोनों ओर क्रमश: गुफाएँ कटती चली गईं हैं ।
            अजंता की यह गुफाएँ मनुष्य द्वारा निर्मित वे बेजोड़ गुफाएँ हैं जिन पर भारत को गर्व है । देश विदेश से आए सैलानी इन्हे देख आश्चर्य चकित हो उठते हैं । अहा ! इतना अद्भुत सौंदर्य ! इन गुफाओं में चित्रकला व शिल्प कला के बेजोड़ नमूने हैं । इनकी किसीसे तुलना नहीं हो सकती । बुद्धि व श्रम के संयोग से निर्मित इन गुफाओं को देख कर आधुनिक तकनीक भी हैरान है । प्राकृतिक रंगों के निर्माण व उपयोग के बारे में उस युग के मनुष्य की समझ व ज्ञान को देख कर ऐसा नहीं लगता कि वह मनुष्य कला के प्रति उस मनुष्य का सौन्दर्यबोध किसी भी तरह कम रहा होगा । इन गुफाओं के निर्माण का उद्देश्य भी स्पष्ट है । इक्कीस सौ वर्ष पूर्व जब बौद्ध धर्म अपने चरम पर था , लाखों की तादाद में बौद्ध भिक्षु दीक्षा ले रहे थे और उन्हे अपनी साधना के लिए किसी एकांत की आवश्यकता थी । इसी आवश्यकता ने इन गुफाओं को जन्म दिया ।
( सभी चित्र गूगल से साभार ) 

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – तेरहवां दिन – एक

अरे सब गुफायें कहाँ हैं ?
          सुबह आर्य साहब ने कहा “ क्या बात है कल तुम लोग काफी देर तक जागते रहे ? “ रवीन्द्र ने कहा “ हाँ सर , कल शरद अपनी टूर डायरी पढ़कर सुना रहा था … अजंता एलोरा वाले टूर की । “ “ अरे वा ! “ आर्य सर ने कहा “ यह तो बहुत अच्छी बात है , लेकिन तुम लोग भी तो गए थे ना अजंता ? “ हाँ “ रवीन्द्र बोला “ लेकिन शरद की ज़ुबानी उस यात्रा का वर्णन सुनना बहुत मज़ेदार है । यह लेखक है ना , जो चीज़ें हम नहीं देख पाते वह सब यह देख लेता है । “
            फिर रोज़ की तरह हम लोग उत्खनन कार्य में लग गए । ट्रेंच से कुछ न कुछ नए अवशेष रोज़ ही निकल रही थीं और हमारे ज्ञान में वृद्धि होती जा रही थी । आज का दिन कल की अपेक्षा कुछ गर्म था और हवाएँ कुछ इस तरह थमी हुई थीं मानो बहुत लम्बी यात्रा करके आई हों । ऐसा लग रहा है कि शीत ऋतु अब अपने दायित्व का निर्वाह कर प्रस्थान करने वाली है ।
            शाम देर तक काम करते रहे हम लोग । डॉ. वाकणकर ने आज हमें सिखाया कि किस तरह अवशेषों को साफ करके कपड़े की थैलियों में बन्द किया जाये और उन्हे टैग किया जाये । भोजन के पश्चात तम्बू में घुसे ही थे कि अजय ने फरमाइश की “ तो अब अजंता के लिए प्रस्थान किया जाए ? “ मैंने अपनी डायरी निकाल ली और जनता के बीच उसका वाचन प्रारम्भ कर दिया ।
            “ इस तरह नाश्ते के बाद हम लोगों ने अजंता के लिए कूच किया । जलगाँव से अजंता की दूरी 61 किलोमीटर है और इसमें लगभग एक घन्टा लगता है । मैं खिड़की के पास बैठा था और मील के पत्थरों को पढ़ता जा रहा था …अजंता की गुफाएँ 4 कि मी , अजंता केव्ह्स 3 कि मी , अजिंठ्या लेण्या 2 कि मी । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं कुछ ही देर में बौद्धकालीन युग में प्रवेश करने वाला हूँ । चारों ओर विशालकाय पहाड़ियाँ थीं । आँखों को तृप्त करने वाली हरियाली से यात्रियों को आकर्षित करते हुए छोटे - बड़े पौधे बस की विपरीत दिशा में भागते प्रतीत हो रहे थे । मेरा मन उससे भी पीछे भाग रहा था । मुझे लगा कि बस कुछ ही देर बाद मेरी आँखों के सामने एक अद्भुत दृश्य होगा जिसमें गेरुए वस्त्रों में कलाकार से दिखाई देने वाले कुछ बौद्ध भिक्षु होंगे ,जिनके हाथों में कूचियाँ होंगी और वे किसी गुफा के भीतर चित्रकारी में रत होंगें ।
             मैं सोचने लगा समय के उस हिस्से के बारे में जब यहाँ यह पक्का रास्ता नहीं रहा होगा , यह मील के पत्थर भी नहीं रहे होंगे , यह बस, गाड़ियाँ और इस तरह के वाहन भी नहीं रहे होंगे । बस यहाँ रही होगी  यह निर्जन पहाड़ी , नाल के आकार में गुफाओं की लम्बी कतार , आकाश में विचरण करते ढेर सारे पक्षी । वातावरण  में गूंजते होंगे  ‘ बुद्धम शरणम गच्छामि ‘ के स्वर …।
            अचानक बस ने आखरी मोड़ लिया और अतीत के खुले आसमान में भटकता हुआ मेरा स्वप्न सैलानियों की कारों ,टूरिस्ट बसों , छोटी छोटी दुकानों और होटलों की भीड़ के बीच जा गिरा । मुझे लगा मैं जैसे किसी मेले में आ गया हूँ । ड्राइवर ने बस एक किनारे पर लगा दी । हम लोग उतर कर नीचे आए । कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह कौनसी जगह है । मैंने आश्चर्य व्यक्त किया …अरे सब गुफायें कहाँ हैं ? किसीने कुछ नहीं कहा । मैंने एक अंगड़ाई ली और हवा को ज़ोर से भीतर खींचकर फेफड़ों में भर लिया ।
(चित्र गूगल से साभार )