तो चलिये शुरू करते हैं " एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी " बराहवें दिन के इस प्रथम खंड से । दृश्य कुछ इस तरह है कि उज्जैन के पास दंगवाड़ा नामक गाँव में चम्बल नदी के किनारे टीले पर हम लोगों का कैम्प लगा है । दिन भर का काम समाप्त हो चुका है और शाम को सिटी यानि दंगवाड़ा गाँव की सैर करने और भोजन के पश्चात हम लोग अपने तम्बुओं में घुस गये हैं और रज़ाई ओढ़े गपिया रहे हैं ..
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – बारहवां दिन - एक
ठंड के दिन भी कितने मज़ेदार होते हैं
ठंड के दिन भी कितने मज़ेदार होते हैं
ग्लेडियेटर्स की कहानी सुनकर सभी का मन बहुत भारी हो गया था । उस दिन किसी तरह खुदाई का काम निपटाया गया और शाम को फिर सिटी घूमने का प्लान बन गया । लौट कर आने के बाद महसूस हुआ कि ठंड बहुत बढ़ गई है और भोजन के बाद सिवाय बिस्तर में घुसने के और कोई चारा नहीं है ।
“ यार यह ठंड के दिन भी कितने मज़ेदार होते हैं । रवीन्द्र ने अपनी मंकी कैप के भीतर से झाँकते हुए कहा । “ घंट मजेदार होते हैं । “ अजय ने खीझकर कहा ..” घर में रहते तो दिन भर रजाई में घुसे रहते , बीबी के हाथ का गर्मागर्म खाना खाते ..और ... “ “ चुप रह यार ,तेरी बीबी है तो इतरा रहा है क्या , हम कुँवारों पर कुछ तो रहम कर । “ रवीन्द्र ने अपनी मंकी कैप के भीतर से बन्दर की तरह बाहर झाँककर कहा । “ यहाँ तो ठंड में हमारी कुल्फी जमी जा रही है ,ऊपर से इस तम्बू में भी छेद हैं , जाने कहाँ से रात में हवा घुस जाती है । सुबह जल्दी जागो , वाकणकर सर के आदेश का पालन करते हुए चम्बल में नहाने जाओ । अब अशोक के समान नहाने की टैबलेट खा लो तो बात अलग है । “
“ यार यह सिटी जाना नहीं होता तो अब तक इस जंगल में ऊब गए होते । “ अजय ने कहा । “ लेकिन हम लोगों का सिटी फ्रेन्ड तो आया ही नहीं इस बार “ रवीन्द्र बोला । “ कौन महेश ? “ अशोक ने सवाल किया । “ हाँ वही भीलवाड़ा का हीरो “ मैंने जवाब दिया । “ तुमने उसके साथ बहुत मस्ती की थी पिछले साल अजन्ता एलोरा के टूर में …क्यों ? रवीन्द्र ने मुझे छेड़ा । मैं मुस्कराने लगा । “ क्यों तैने तो डायरी में लिख रखा है ना उस टूर का किस्सा ? “ “ हाँ “ मैंने कहा । “ तो सुना ना यार , तू डायरी लेकर आया है ना ? “ रवीन्द्र ने कहा ।
मैंने बैग से डायरी निकाली और पन्ने पलटने लगा । इस बीच रवीन्द्र अपनी भूमिका प्रस्तुत करने लगा …” याद है ना होली के दिन गए थे , दो दिन तक तो इन लोगों की भंग ही नहीं उतरी थी ,ऐसी ऐसी हरकतें की इन लोगों ने कि पूछो मत । बस में सामने की ओर एक ही दरवाज़ा था और यह लोग बार-बार पीछे का दरवाज़ा ढूँढते थे । और इंदौर में उस पूड़ी की दुकान की मालकिन को इम्प्रेस करने के चक्कर में तीन किलो पूड़ी खा गए , आखिर रात में रास्ते में नदी किनारे बस रुकवानी पड़ी । “
“ चुप रहो यार “ मुझे लगा रवीन्द्र अपने किस्से न सुनाने लगे । मैं डायरी खोलकर बैठ गया और कहा “ लो सुनो । हम लोग धुलैन्डी के अगले दिन शाम को निकले थे और हमारे साथ थे हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति पुरातत्व अध्य्यनशाला के एच.ओ.डी.डॉ .कैलाशचन्द्र जैन और इन्दौर से मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक डॉ. एच .वी. त्रिवेदी भी हमारे साथ थे । “
“ तू किस्सा सुनाता है या नहीं , यह सब तो हमको भी मालूम है । “ रवीन्द्र ने अपनी उत्सुकता प्रकट करते हुए कहा । “ भाई सुन तो लो आखिर भूमिका बताना भी तो ज़रूरी है , और यह भी कि यह डायरी मैंने अजन्ता से लौटकर आने के बाद औरंगाबाद की उस टूटी- फूटी धर्म शाला में बैठकर लिखी थी ।“ “ हाहाहा “ अजय ज़ोर से हँस दिया …” अबे , टूटी फूटी नहीं जीर्ण - शीर्ण , हिन्दी का लेखक होकर ग़लत शब्द का प्रयोग करता है । जैसे हमारे कुछ लेखक लिखते हैं ‘ महिला लेखिकाएँ ‘… अबे लेखिका क्या पुरुष होते हैं… “
“ ठीक है माई-बाप आइंदा से ध्यान रखूँगा । मैंने उस चुप कराने के लिए कहा और डायरी पाठ प्रारम्भ कर दिया ।