
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – बारहवां दिन - एक
ठंड के दिन भी कितने मज़ेदार होते हैं
ठंड के दिन भी कितने मज़ेदार होते हैं
ग्लेडियेटर्स की कहानी सुनकर सभी का मन बहुत भारी हो गया था । उस दिन किसी तरह खुदाई का काम निपटाया गया और शाम को फिर सिटी घूमने का प्लान बन गया । लौट कर आने के बाद महसूस हुआ कि ठंड बहुत बढ़ गई है और भोजन के बाद सिवाय बिस्तर में घुसने के और कोई चारा नहीं है ।
“ यार यह सिटी जाना नहीं होता तो अब तक इस जंगल में ऊब गए होते । “ अजय ने कहा । “ लेकिन हम लोगों का सिटी फ्रेन्ड तो आया ही नहीं इस बार “ रवीन्द्र बोला । “ कौन महेश ? “ अशोक ने सवाल किया । “ हाँ वही भीलवाड़ा का हीरो “ मैंने जवाब दिया । “ तुमने उसके साथ बहुत मस्ती की थी पिछले साल अजन्ता एलोरा के टूर में …क्यों ? रवीन्द्र ने मुझे छेड़ा । मैं मुस्कराने लगा । “ क्यों तैने तो डायरी में लिख रखा है ना उस टूर का किस्सा ? “ “ हाँ “ मैंने कहा । “ तो सुना ना यार , तू डायरी लेकर आया है ना ? “ रवीन्द्र ने कहा ।

“ चुप रहो यार “ मुझे लगा रवीन्द्र अपने किस्से न सुनाने लगे । मैं डायरी खोलकर बैठ गया और कहा “ लो सुनो । हम लोग धुलैन्डी के अगले दिन शाम को निकले थे और हमारे साथ थे हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति पुरातत्व अध्य्यनशाला के एच.ओ.डी.डॉ .कैलाशचन्द्र जैन और इन्दौर से मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक डॉ. एच .वी. त्रिवेदी भी हमारे साथ थे । “
“ तू किस्सा सुनाता है या नहीं , यह सब तो हमको भी मालूम है । “ रवीन्द्र ने अपनी उत्सुकता प्रकट करते हुए कहा । “ भाई सुन तो लो आखिर भूमिका बताना भी तो ज़रूरी है , और यह भी कि यह डायरी मैंने अजन्ता से लौटकर आने के बाद औरंगाबाद की उस टूटी- फूटी धर्म शाला में बैठकर लिखी थी ।“ “ हाहाहा “ अजय ज़ोर से हँस दिया …” अबे , टूटी फूटी नहीं जीर्ण - शीर्ण , हिन्दी का लेखक होकर ग़लत शब्द का प्रयोग करता है । जैसे हमारे कुछ लेखक लिखते हैं ‘ महिला लेखिकाएँ ‘… अबे लेखिका क्या पुरुष होते हैं… “
“ ठीक है माई-बाप आइंदा से ध्यान रखूँगा । मैंने उस चुप कराने के लिए कहा और डायरी पाठ प्रारम्भ कर दिया ।
भाई ये अभिनव ओझा जी के क्लोन को आप साथ रखते हैं…अब समझ में आया कि आपकी भाषा इतनी गठी हुई क्यों है! :-)
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएं@अशोक ,ओझा जी तो बहुत बाद में प्रकट हुए , हमारे मित्र श्री अजय जोशी एम ए की कक्षा में हमारे सहपाठी थे और कभी कभी प्राध्यापकों को भी इसी तरह आड़े हाथों ले लिया करते थे ।
जवाब देंहटाएंआपके इस ब्लाग पर तो पहली बार ही आना हुआ। बड़ा अच्छा लग रहा है। पुरातत्व के विषय तो वैसे भी बहुत ही अच्छे लगते हैं। लेकिन आपने तो शुरू करते ही समाप्त कर दिया।
जवाब देंहटाएं@अजित जी , मेरी कोशिश यही है कि पुरातत्व जैसे गम्भीर विषय को इस तरह प्रस्तुत करूँ कि उसकी गम्भीरता बनी रहे , वह रोचक भी हो और मनुष्यों में इतिहास बोध उत्पन्न करने में मैं सफल हो सकूँ । यदि आपका संकेत पोस्ट की लंबाई को लेकर है ,तो सही है लेकिन क्या करें ब्लॉगजगत में परम्परा ही ऐसी है कि लोग लम्बी पोस्ट पढ़ना नहीं चाहते ।
जवाब देंहटाएंचलिए शुरु कीजिए डायरी का पाठ, हम तैयार हैं.
जवाब देंहटाएंसचमुच इस गूढ़ विषय पर जितने मजे में लिखते हैं कि बस लगता है कि आपके साथ हे यात्रा कर रहे हैं..
जवाब देंहटाएंगूढ विषय पर, सुंदर जानकारी। आभार।
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अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
बेहतर .....:-)
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