12 - नहीं कोई आम हूँ मैं गुलफाम हूँ
बिलकुल
गाँव जैसा गाँव था दंगवाड़ा । पतली पतली संकरी गलियाँ, बेतरतीब बने हुए मकान, कुँओं
के पास कीचड़ से भरे हुए डबरे , झोपड़ियों के छप्पर इतने आगे तक झुके हुए जैसे चरण
स्पर्श करने आ रहे हों, अगर देखकर नहीं चलो तो सर टकरा जाए । गलियों में खेलते हुए
बच्चे हम लोगों को उचटती निगाह से देखते
और फिर अपने खेल में लग जाते । एक बूढ़ा ओसारे में बीड़ी के कश खींचता हुआ आसमान में
छाये बादलों की ओर देख रहा था । मुझे वह किसी भविष्यवक्ता की तरह लगा ।
हम लोगों ने उस बूढ़े से पूछा “कईं बासाब,
चाय की दुकान कठे हे ? ”उसने गाँव के बाहर जाने वाली सड़क की ओर इशारा किया और फिर
बीड़ी पीने में मग्न हो गया । बूढ़े के बताये रास्ते पर हम चलते चले गए लेकिन दुकान कहीं नहीं दिखी । हमें लगा बूढ़े ने
कहीं बेवकूफ तो नहीं बना दिया, फिर सोचा नहीं ..ऐसा तो अक्सर शहरों में बदमाश
बच्चे करते हैं यह बूढ़ा बेचारा क्यों हमसे
मज़ाक करेगा । आखिर में हम लोग गाँव के बाहर इंगोरिया वाली पक्की सड़क पर आ गए ।
गाँवों में अक्सर इस तरह की दुकानें
गाँव के बाहर पक्की सड़क पर ही होती हैं ताकि एक शहर से दूसरे शहर आने जाने वालों
से भी उनका व्यवसाय चल सके । नज़र घुमाई तो घास-फूस के एक छप्पर के नीचे चाय-पान की
एक गुमटी नज़र आई । एक टूटी हुई टेबल जिसका एक पांव टूटा हुआ था और जिसे दो ईटें
सहारा दे रही थी अपने सर पर एक पुराना सा स्टोव संभाले हुआ था । यह स्टोव धुएँ से
काले हो चुके एक टीन के परदे के भीतर खामोश पड़ा हुआ था । स्टोव देखकर ही हम लोग
समझ गए कि हमारी चाय की तलब यहाँ दूर हो सकती है ।
हम लोगों ने पहुँचते ही ऑर्डर किया
“भई जल्दी से चाय पिलाओ ।” और पटिये पर बैठ गए
। ‘चाय कम पान’ की दुकान वाले ने पान पर चूना लगाते हुए जवाब दिया “दूध खतम
हो गया है साहब ।” यह तो आसमान से गिरकर खजूर पर लटकने जैसी स्थिति थी । इतनी दूर
से चाय की तलाश में आए और यहाँ दूध नदारद ।
अजय ने आगे बढ़कर कहा “ कोई बात नहीं, दूध कहाँ मिलता है बताओ, हम ले आते हैं ।” “अभी
नहीं मिलेगा साब, अभी टेम नहीं हुआ है ।“ चाय वाले ने बेरुखी से जवाब दिया । “ऐसे
कैसे नहीं मिलेगा तुम ख़ाली गंजी तो दो ।” चाय वाला मुस्कुराया जैसे उसे
हम पर विश्वास ना हो फिर गंजी पकड़ाते हुए कहा “लो देख लो साब वो सामने वाले
घर में मिलता है मिल जाए तो अच्छा है ।“
चाय वाले ने जिस घर की ओर संकेत किया
था हम लोग उस घर के दरवाज़े तक जा पहुँचे । दालान में एक बुज़ुर्ग सा व्यक्ति बैठा
हुआ था और हुक्का गुड़गुड़ा रहा था । हमने उससे जयरामजी की और पूछा “दूध मिलेगा ?” उस
बुज़ुर्ग ने कहा “दूध तो कोनी ।“ हम शहरी लोगों को देखकर वह कुछ समझने की कोशिश करे
इससे पहले रवींद्र ने कहा “ ऐसा है बासाब , हम लोग छात्र हैं और उज्जैन से आये हैं
। दूध वो सामने चाय की दुकानवाले को चाहिये, हमें चाय पीनी है लेकिन उसके पास दूध
नहीं है ,उसने बताया कि आपके यहाँ मिल जाएगा । ” मुझे लगा शायद चायवाले के नाम से
दूध अवश्य मिल जाएगा ।
“ऐसे बोलो ना साहब, चाय पीना है ..लेकिन
दूध को तो अभी टेम है ।” उसने कहा । इससे पहले कि हम उसे अपनी भयानक तलब के बारे
में समझा पाते उसने दालान में पड़ी बेंच पर बैठने का इशारा करते हुए कहा " तो
साहब बैठिये न हम चाय पिलाते हैं ।" फिर उसने भीतर की ओर आवाज़ लगाई “बेटा जरा
चा बनाना ।” हम लोगों की तो बाछें खिल गईं । हम लोगों ने अपना परिचय देने के साथ
साथ उसके गाँव की तारीफ भी करनी शुरू कर दी । हाँलाकि वह सब समझ रहा था कि ये शहर
के छोरे सिर्फ अपना स्वार्थ पूरा करने के
लिए उसकी तारीफ कर रहे हैं ।
खैर बातचीत के बीच चाय भी आ गई और
हमने पी भी ली और चाय लाने वाली उसकी बेटी के बारे में यह जानकर कि वो स्कूल नहीं
जाती है उसके बाप को सलाह भी दे डाली कि लड़कियों को पढ़ाना चाहिये, एक लड़की को पढ़ाने
का अर्थ एक परिवार को पढ़ाना होता है, वगैरह वगैरह । उसके बाप ने सिर्फ इतना कहा कि
” बेटी भी काम पर जाती है तभी घर चलता है साब । ग़रीबी हमारी मजबूरी है ।” उसके प्रश्न का हमारे पास
उत्तर नहीं था सो हम लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए “ अच्छा भाई चलें, राम राम ।”
बुज़ुर्गवार के घर से बाहर निकलते हुए राम
मिलन भैया ने अपनी जेब से पर्स निकाला और पांच का एक नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा “लो
भैया ।” वह ग्रामीण हाथ जोड़कर खड़ा हो गया “अरे मालिक आप लोग तो पहुना हो आप से
कैसे पैसे ले सकता हूँ ।“ राम मिलन उसकी ग़रीबी
से काफी द्रवित हो गए थे “कोई बात
नहीं दूध के तो ले लो । “नई साब” उसने कहा “ दूध तो घर का ही बचा था उसके काहे के
पैसे ?” हम लोग निरुत्तर थे और सोच रहे थे
काहे हम अब तक इस गाँव को सिटी कहकर इसका अपमान कर रहे थे ।
गाँव की आत्मीयता और शहर की स्वार्थ
से भरी ज़िन्दगी के बारे में अपना फलसफा
बघारते हुए हम लोग बाहर निकले । “अब क्या प्रोग्राम है ?” रवीन्द्र ने एक
सार्वजनिक सवाल किया । " चलो पहले सिगरेट पी जाए ।" अशोक ने कहा । उसे
चाय के साथ सिगरेट पीने की आदत थी और बगैर सिगरेट के उसका दिमाग़ काम नहीं कर रहा
था । उसने उसी चाय की दुकान की ओर इशारा किया उसे मालूम था दूध वहाँ भले न हो
लेकिन सिगरेट ज़रूर मिल जायेगी ।
अशोक जितनी देर सिगरेट पीता रहा हम
लोग दो खूंटों पर टिके दुकान के पटिये पर बैठकर दुकान वाले से गपियाते रहे । वहाँ
खड़े गाँव के लोगों की बातचीत से हमें यह मालूम हुआ कि गाँव में इन दिनों यू.पी. से
कोई नौटंकी पार्टी आई है और गाँव के मध्य
में चौक पर उनका डेरा है । “चलो वहाँ चलते हैं । “ मैंने कहा ।“लेकिन अभी वहाँ
क्या मिलेगा नौटंकी तो रात में होगी ।” अजय ने कहा । नौटंकी का नाम सुनकर राम मिलन
भैया की आँखों में चमक आ गई थी । “चलो तो देखत हैं …का खेला है आज ।” उन्होंने कहा
। “ चलो जैसी पंचों की राय ।“ मैंने कहा
और हम लोग पूछते हुए उस दिशा में बढ़ गए ।
जैसा कि अक्सर गाँवों में होता है इस गाँव
के बीचों बीच भी एक चौराहा था जहाँ एक ओर एक मंच बना था । हमने सामने पड़े पर्दे को
ज़रा सा उठाया और भीतर प्रवेश कर गए । भीतर की ओर मंच बहुत सुसज्जित था । उस पर
रंगबिरंगे पर्दे लगे थे जिन पर अनेक आकृतियाँ बनी हुई थीं ..किसी पर बडा सा मोर,
किसी पर बडा सा पेड़ अंकित था । वहीं कुर्सी डाले मैनेजर टाइप का एक व्यक्ति बैठा
था । हमें देखकर वह चौंक गया । फिर हमने उसे अपने बारे में बताते हुए उससे पता
किया तो पता चला कि नौटंकी शुरू होने का समय रात नौ बजे के बाद है और उस वक़्त शाम के लगभग सात बजे थे ।
हमने सोचा चलो बातचीत कर टाइमपास किया
जाए । ‘’ कौन कौन से खेल करते हो आप लोग ?‘’ मैंने नौटंकी वाले से पूछा .. “अरे
भैया सब खेल करते है..” उसने कहा “राजा हरिश्चंन्द्र, सुल्ताना डाकू, गुल बकावली,
सब्जपरी और गुलफाम ।” यहाँ कौन सा खेल
लेकर आए हो ?” मैंने फिर पूछा । उसने बताया ‘’यहाँ तो भैया, राजा हरिश्चंन्द्र खेल
रहे हैं ऊ भी बहुते लम्बा खेला है । फिर गाँव में तो यही ज्यादा पसंद किया जाता है
।“
हम लोग नौटंकी कला के
विषय में ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे । वैसे भी हम लोग मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं और
यहाँ की लोक कलाएं भिन्न थीं । नौटंकी वस्तुतः उत्तरप्रदेश का एक कलारूप है । हम
लोगों ने बचपन में उत्तर प्रदेश की रामलीला पार्टियों द्वारा प्रस्तुत की जाने
वाली रामलीला अवश्य देखी थी सो उसके बारे में थोडा बहुत जानते थे । नौटंकी के
मैनेजर द्वारा बताये गए नाटकों के यह नाम हमें बहुत रोचक लगे और उनके बारे में
विस्तार से जानने कि जिज्ञासा बढ़ गई ।
अचानक मुझे याद आया कि हमारे राममिलन
भैया तो इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं और वे अवश्य नौटंकी के बारे में
जानते होंगे । लेकिन राममिलन भैया इस समय दूसरे ही मूड में थे सो उनसे यह ज्ञान
उगलवाना ज़रा कठिन था ।राममिलन भैया नौटंकी के मैनेजर से बात करने में मशगूल थे ।
मैंने उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए किशोर भैया से कहा " किशोर भैया अपने
राममिलन भैया तो यू पी के ही हैं और बहुत बड़े स्कॉलर हैं, उन्हें नौटंकी के इतिहास
के बारे में अवश्य जानकारी होगी ।
किशोर भाई हमारा संकेत समझ गए । उन्होंने
राममिलन भैया को चने के झाड पर चढाते हुए कहा "राममिलन भैया, हम लोग तो
मध्यप्रदेश के मूल निवासी हैं न राम के बारे में ठीक से जानते हैं न रामलीला के
बारे में, नौटंकी क्या होती है इसका भी हमें पता नहीं । आप तो यू पी के विद्वान हैं आपको अवश्य पता होगा ।" यू
पी का नाम आते ही राममिलन का ध्यान हमारी
ओर आकृष्ट हो गया । वे अपनी प्रशंसा सुनकर गदगद हो गए । नौटंकी का मैनेजर भी हमारी
इस बात से काफी प्रभावित हुआ ।
राममिलन भैया ने अपनी कमीज के कलर के
बटन को थोडा टाइट किया और प्रोफ़ेसर के अंदाज़ में कहना शुरू किया "भाइयों
बेसिकली यह यू पी की कला भी नहीं है । सबसे पहले मुल्तान में जो आज पकिस्तान में
है 'नौटंकी शहजादी' नामका एक नाटक खेला गया ..उ उ नहीं... 'शहजादी नौटंकी' नाम था
उसका । यह एक नृत्य नाटक था जिसमें शहजादी का नामई 'नौटंकी' था । उसीके नाम पर आगे
चलकर इस कला का नाम नौटंकी हुआ । दरअसल यह
नौटंकी स्वांग भरने की एक कला है । इसमें कलाकार तरह तरह के ऐतिहासिक और पौराणिक पात्रों
के स्वांग रचते हैं । हालाँकि स्वांग भी अपने आप में एक कला है लेकिन स्वांग और
नौटंकी में फर्क यह होता है कि स्वांग ज्यादतर धार्मिक विषयों पर आधारित होते हैं
और नौटंकी का विषय प्रेम कथाएँ होती हैं । जैसे लैला मजनू, शिरी फरहाद , गुले गुलफाम
आदि । हालाँकि अब तो सबै मिक्चर हो गया है और जो जनता चाहती है उसकी डिमांड पर
प्रस्तुत करते हैं ।"
रवींद्र को लगा राममिलन बस इतने में
ही न टरका दें सो उसने उनसे सवाल किया "राममिलन भैया, तो फिर इसमें जो
कहानियां बताई जाती हैं वे सच्ची कहानियां
होती हैं कि काल्पनिक ?" राममिलन भैया अब तक खुद को नौटंकी कला का विशेषज्ञ समझने
लगे थे सो उन्होंने जवाब दिया "भाई, इसमें कुछ तो सच्ची कहानियाँ होती हैं, जैसे कि आल्हा- उदल, यह बुंदेलखंड की
लोककथा है । सुल्ताना डाकू नाम की नौटंकी में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में हुए
एक डाकू की सच्ची कहानी है हालाँकि उसमे भी प्रेमकथा मुख्य है फिर भी थोड़ा
बहुत तो झूठ लोककथाओं में होता ही है ।
अजय ने कहा "मतलब इसमें नाटकों
के विषय सिर्फ प्रेम कहानियां होती हैं ?" राममिलन भैया ने कहा "नहीं
ऐसा भी नहीं है । नौटंकी के विषय समय समय पर बदले भी हैं । जैसे स्वतंत्रता
संग्राम के दौरान बहुत सारे खेल देशभक्ति की भावना पर रचे गए । गाँव गाँव में
स्वाधीनता की अलख जगाने का काम इन कलाकारों ने किया । आजकल तो समसामयिक विषय भी यह
लोग अपने नाटकों में शामिल करने लगे हैं, जैसे दहेज़ प्रथा के खिलाफ, निरक्षरता
उन्मूलन ,हिन्दू मुस्लिम एकता आदि आदि ।
"लेकिन भैया..." अजय ने
शंका ज़ाहिर की "नौटंकी को तो अच्छा नहीं समझा जाता है । हम लोग भी बातचीत में
अक्सर कहते हैं 'ज्यादा नाटक नौटंकी मत करो' ऐसा क्यों कहते हैं ?" राममिलन
भैया तनिक सोचने लगे.." भाई ऐसा है कि नौटंकी का विषय भले जागरूकता का रहा हो
लेकिन उद्देश्य तो विशुद्ध मनोरंजन ही
होता है । प्रेमकथाओं पर आधारित नौटंकियों में कालांतर में कुछ अश्लील तत्व भी जुड़
गए । हालाँकि शुरू में इसमें लडकियाँ नहीं होती थीं लेकिन कुछ नौटंकी वालों ने
अपने नाटकों में लडकियाँ रखीं तो छेड़छाड़, भद्दे
इशारे और पैसे लुटाना जैसे काम शुरू हो गए ।
राममिलन भैया इतना कहकर रुके । फिर
नौटंकी के मैनेजर पर एक नज़र डालते हुए कहा "अब ऐसा है ना कि नौटंकी के संचालक
सब पर तो नज़र नहीं रख सकते इसलिए ऊँच - नीच भी हो जाती थी सो नौटंकी बदनाम हो गई ।
फिर नौटंकी वाले बहुत ग़रीब भी होते थे और यही उनकी रोजी-रोटी थी सो नौटंकी में भीड़
जुटाने के लिए उन्होंने नाच गाने , भद्दे शारीरिक क्रियाकलाप जैसे कारकों को बढ़ावा
देना शुरू किया ताकि ज़्यादा भीड़ जुटे और वे ज़्यादा पैसे कमायें । अब इसे देखने के
लिए समाज के निचले तबके के लोग ज़्यादा जाते थे, इसलिए सभ्य समाज में इसे बुरा माना
गया । उन लोगों के लिए तो वैसे भी बड़े बड़े नाटक और शास्त्रीय संगीत जैसे कार्यक्रम
होते थे ।
इतने में मेरे भीतर का कवि जाग गया था
। मैंने कहा "राममिलन भैया, मैंने सुना है कि नौटंकी में पूरे संवाद कविता
में होते हैं...।" राममिलन भैया ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही तपाक से
कहा "अरे काहे की कविता, सब तुकबन्दी होती है । हमारे देश की जनता को तुकबंदी
और कविता में अंतर कहाँ मालूम है ।उन्हें तुकबंदी में ही मज़ा आता है । पात्रों को
भी इस तरह डायलाग रटने में सुविधा रहती है । इसलिए इसमें साधारण बोलचाल की भाषा
में संवाद रहते हैं । पात्र आपस में कविता जैसी तुकबंदी में बात करते हैं, अपनी
भावनाएं प्रकट करते हैं । इससे ग्रामीण जनता को समझने में आसानी होती है हालाँकि नौटंकी
में उर्दू फारसी के शब्दों का प्रयोग भी बहुतायत में होता है लेकिन यह तो यू पी की
जनभाषा में शामिल है ।"
"लेकिन भैया इसमें संगीत मंडली
भी बहुत महत्वपूर्ण होती है " मैंने कहा । " बिलकुल " राममिलन भैया
बोले .."इसका कारण यह है कि इनके संवाद गेय होते हैं और यह गाकर ही अभिनय
करते हैं इसलिए साथ में नगाड़े, सारंगी,
ढोलक, तबला, हारमोनियम, बैंजो ,आदि वाद्ययंत्रों का भी खूब प्रयोग किया जाता है । इसके
लिए पूरी संगीत मंडली अलग से होती है और कपड़े भी इन पात्रों के बहुत चमकदार होते
हैं उनमे जरी के गोटे लगे होते हैं ।
नाचनेवालियों को नकली बाल लगाए जाते हैं और गाढ़ा मेकप किया जाता है ।"
नौटंकी के बारे में हम लोग राममिलन
भैया से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुके थे । अब हमारी नौटंकी देखने की इच्छा
बलवती हो उठी थी लेकिन हमारी मज़बूरी थी कि रात तक वहाँ रुक नहीं सकते थे । गाँवो
में अक्सर लोग के रात के भोजन के बाद निश्चिन्त होकर ऐसे कार्यक्रम देखते हैं सो
नौ बजे के पहले कुछ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था । मैंने राममिलन भैया से
कहा 'भैया हमें नौटंकी देखने की बहुत इच्छा है लेकिन आज तो संभव नहीं हो सकेगा ।"
राममिलन भैया अपनी ही रौ में थे । उन्होंने कहा " ज़रूर देखो हम तो बहुत खेला
देखे हैं अपने गाँव में, इसमें बहुतै मजा आता है ।" राममिलन भैया ने यह कुछ
ऐसे स्टाइल में कहा कि मुझे गब्बरसिंह का डायलाग याद आ गया ..'बहूत याराना लगता है
।'
मैंने झट से राममिलन भैया से कहा "भैया
कोई डायलाग याद हो तो सुनाओ ना ।" राममिलन भैया तो जैसे तैयार ही बैठे थे । उन्होंने झट से कहा "हाँ हाँ
क्यों नहीं.. हम सुल्ताना डाकू का एक डायलाग सुनाते हैं । इस नौटंकी में सुल्ताना
डाकू की एक प्रेमिका भी है का नाम है उसका... हाँ नीलकमल... जिससे वह कहता है कि
हम कंगाल नहीं है बल्कि हमारा जन्म गरीबों
की सहायता के लिए हुआ है ..इसलिए हम अमीरों को लूटते हैं ।" "ऐसे नहीं भैया" किशोर भाई ने कहा "जरा
एक्टिंग करके सुनाओ तो मिजा आये ।" राममिलन भैया फिर चने के झाड पर चढ़ गए । वे
थोडा दूर हट कर खड़े हो गए और पूरे हावभाव के साथ कहना शुरू किया
प्यारी
कंगाल किसको समझती है तू
कोई मुझसा
दबंगर न रश्के- कमर
जब हो
ख्वाहिश मुझे लाऊं दम भर में तब
क्योंकि
मेरी दौलत है जमा अमीरों के घर
उसकी बात
सुनकर उसकी प्रेमिका कहती है ...
आफरीन
आफरीन उस खुदा के लिए
जिसने ऐसे
बहादुर बनाये हो तुम
मेरी
किस्मत को भी आफरीन आफरीन
जिससे
सरताज मेरे कहाए हो तुम
इसके बाद
सुल्ताना डाकू फिर कहता है ...
पाके जर जो
न खैरात कौड़ी करे
जर माने धन
उनका
दुश्मन खुदा ने बनाया हूँ मैं
जिन गरीबों
का गमख्वार कोई नहीं
उनका
गमख्वार पैदा हो आया हूँ मैं
वाह वाह, वाह वाह कहते हुए हम लोगों
ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं ।राममिलन भैया हमारी तालियों से निर्लिप्त होकर इस बीच
ग्रीन रूम में प्रवेश कर गए थे । वहीं से उन्होंने चिल्लाकर पूछा । ‘’ कौनो नचकारिन नहीं है भैया
नौटंकी में ? 'नचकारिन' शब्द सुनते ही हम
लोगों की भी आँखे चमक उठी और राममिलन जी के बहाने हम लोग भी भीतर प्रवेश कर गए ।
भीतर ग्रीन रूम जैसा कुछ दृश्य था । हमने
देखा हारमोनियम, सारंगी, क्लेरेनेट, तबला, नगाड़ा और बेंजो के अलावा मेक अप का बहुत
सारा सामान वहाँ रखा है । अलग अलग खूंटियों पर रंगबिरंगे परिधान लटक रहे हैं और
टीन की पेटियों और दरियों पर बैठ कर कुछ कलाकार सुस्ता रहे हैं । एक दो कलाकार शाम
की प्रस्तुति के लिए मेकअप की तैयारी कर रहे हैं । नचकारिन के बारे में पूछने पर
पता चला कि इस नौटंकी में पुरुष ही महिला पात्र का अभिनय करते हैं । हम लोगों को
थोड़ी निराशा हुई । कलाकारों को हम लोगों ने अपना परिचय दिया और बताया कि रात को हम
लोग नौटंकी देखने ठहर नहीं सकते हैं, बाहर से आए शिविरार्थी हैं और वापस शिविर में
लौटना है ।
राममिलन ने इतनी देर में कलाकारों से
दोस्ती गांठ ली थी, बोले “कौनो बात नहीं भैया, एकाध डायलाग ही सुना दो ।“
कलाकार हम शहर के लोगों को देखकर वैसे ही
प्रभावित थे । एक कलाकार आगे आया और बोला
"साहब, कोई बात नहीं, अभी तो बिगेर डिरेस के ही एक सीन आप लोगन को
दिखा देते हैं ।" उसने अपनी मुद्रा संभाली और कहा .. "चलो 'राजकुमार
गुलफाम' का एक डायलाग बताते हैं ।" फिर एकदम
नाटकीय अंदाज में कहा ...
“मैं खास हूँ - नहीं कोई आम हूँ ..
मैं गुलफाम हूँ ... मेरे बिना ज़हर में ज़हर नहीं हैं, मेरे बिना कहर में कहर नहीं है ” फिर
अपनी लकड़ी की तलवार उठाई और ज़मीन पर उसकी नोक टिकाते हुए कहा .. “ज़मीं से लगा दूँ
ज़मीं छेद डालूँ ..आसमाँ से लगा दूँ आसमाँ भेद डालूँ ..मैं खास हूँ …नहीं कोई आम
हूँ मैं गुलफाम हूँ …।” उसके इस प्रदर्शन पर हम लोगों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं और
फिर आने का आश्वासन देते हुए बाहर निकल आए
।
नौटंकी वालों से मिलकर मुझे फणीश्वर
नाथ रेणु के उपन्यास 'मारे गये गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम' का भोला- भाला ,सीधा-सादा गाड़ीवान
हिरामन याद आने लगा । वह भी नौटंकी में नाचने वाली अपनी मितानिन हीराबाई को मेले
की नौटंकी में लेकर जाता है । मेरे मन में अनेक साज़ बजने लगे और हवाओं में घुंघरू
की खनक गूंजने लगी .." पान खाए सैंया हमारो ..सांवली सूरतिया होंठ लाल लाल ..
हाय हाय मलमल का कुरता ..मलमल के कुरते पे छींट लाल लाल ..। एक हूक सी मन में उठी और मुँह से अस्फुट से
शब्द निकले ..मीता । रवीन्द्र ने पलटकर मेरी ओर देखा और पूछा .. "क्या हुआ
?" मैंने कहा " कुछ नहीं.. एक भूली -बिसरी कहानी याद आ गई ।
लौटते समय अंधेरा हो चला था । हवाएँ
तेज़ तेज़ चल रही थीं और बूँदाबाँदी भी होने लगी थी । आसमान में काले बादलों के बीच विदा
लेते हुए सूरज की रोशनी समाई हुई थी और वे बहुत भयावह दृश्य उपस्थित कर रहे थे । हमें
एक बार लगा कि हमें जल्दी लौट जाना चाहिए था, लेकिन अब कोई चारा नहीं था । नाले तक
पहुँचने का रास्ता तो समझ आ रहा था लेकिन नाले में कुछ नज़र नहीं आ रहा था । सेतु
के वे पत्थर जिन पर राम मिलन जी ने खड़े होकर प्रार्थना की थी ग़नीमत कि दिखाई दे रहे
थे । उन पर पाँव रखते हुए जैसे तैसे हम लोगों ने नाला पार किया और इससे
पहले कि बारिश तेज़ हो जाती अपने तम्बुओं
में लौट आए ।
आपका शरद कोकास
पुरातत्वेत्ता को कितना श्रम करना पड़ता है यह तो डॉ भगवतशरण उपाध्याय की पुस्तकों और संस्मरणों से ही पता चला था। आज सुबह ही उनकी पुस्तक 'पुरातत्व का रोमांस' मे हाईनरिख श्लीमान की ट्रॉय खोज का वर्मन पढ़ रहा था।
जवाब देंहटाएंआपके अनुभवों में उसके पीछे की बहुत सी बातें पता चल रही हैं जो डॉ उपाध्याय के लेखन का हिस्सा शायद नहीं बनी। जड़ों से जुड़ रहे हैं हम। पुरातत्व का ककहरा सीख रहे हैं।
खिलंदड़े प्रसंग इसे रोचक बना रहे हैं। गुडजी।
अब ठीक है। हमको छोटा कैनवास अच्छा नहीं लगता। बड़ा कैनवास पकड़ो और ब्रश को बिन्दास चलाओ, सीधे आड़े तिरछे -
जवाब देंहटाएंछू छा छं।
लोग रह जाएँ दंग।
मनोरंजक प्रस्तुति. अजित जी ने शायद पूछा था की दंगवाड़ा कहाँ है. क्या बताएँगे? हम भी उत्सुक हैं.
जवाब देंहटाएं