16 - दो लेग पीस वाले मुर्गी के पूर्वज
शिविर में
आज हमारा छठवाँ दिन था । सुबह काफी सुहावनी थी और स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के
दुःख को भुला देने वाली जनता की तरह वह अपना दुःख भुला चुकी थी । धूप भी बादलों की
कैद से मुक्त होकर बाहर निकल आई थी । आसमान में बादल छोटे छोटे गुच्छों में बिखरे
हुए थे । ऐसा लग रहा था जैसे किसी बच्चे ने मस्ती करते हुए तकिया की सीवन उधेड़ दी
हो और उसे आसमान में उछाल दिया हो और बादलों की शक्ल में रुई के गाले हवा में फ़ैल
गए हों । नदी किनारे घाट की सीढ़ियों पर धूप देखकर मैंने रवीन्द्र से कहा "इस
धूप को देखकर मुझे फिर दुष्यंत याद आ रहे हैं .." धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़
करती है ,एक सीढ़ी चढ़ती है और उतरती है "
रवीन्द्र ने कहा " लेकिन इस ग़ज़ल
का सबसे अच्छा शेर है .." मैं तुम्हें छूकर ज़रा सा छेड़ देता हूँ और गीली
पाँखुरी से ओस झरती है ।" मैंने कहा " लेकिन इतनी रोतली प्रेमिका
होने से भी क्या फ़ायदा .. हरदम रोती ही रहेगी । " " लो अब
तुम छेड़ोगे तो रोएगी नहीं ? " रवीन्द्र ने कहा । " अरे, तो कुछ कहने का
मतलब छेड़ना होता है क्या ? " मैंने प्रतिवाद किया " और जब प्रेम हो ही
गया है तो फिर छेड़ेंगे क्यों ?" इतने में अशोक वहाँ पहुँच गया .. "लो कर
लो बात .. अभी प्रेमिका हईये नहीं और उस पर बहस चालू ..इसी को कहते हैं सूत न कपास
जुलाहों में लट्ठम लट्ठा ।"
आज सब मस्ती के मूड में थे इसका कारण
यह था कि कल रात नींद बहुत अच्छी आई थी । इसीलिए सब के चेहरे भी ताज़ा खुदी निखात की तरह चमक रहे
थे । वैसे भी कल थकान हम लोगों पर इस कदर हावी थी कि गीले बिस्तर और
रज़ाइयों के बावजूद रात में अच्छी नींद आना अवश्यम्भावी था । आज भी सुबह मौसम साफ़
था और इस बात की पूरी पूरी सम्भावना थी कि काम शुरू किया जा सकता था ।
नहा -धोकर नाश्ता करने के बाद हम लोग
जैसे ही साईट पर पहुँचे हमें ज्ञात हुआ कि आज से हम लोगों को एक नई ट्रेंच यानि ट्रेंच क्रमांक चार पर कार्य प्रारंभ करना है । यह
ट्रेंच मुख्य ट्रेंच से दक्षिण की ओर लगभग पचास फीट पर ओपन करनी थी । फिर तो सारा
दिन उत्साहपूर्ण वातावरण में बीता । दिन भर में हम लोगों ने कई नई बातें सीखीं
जैसे ट्रेंच के लिए उपयुक्त जगह का चयन किस प्रकार किया जाए, किस प्रकार नाप लिया
जाए, खूंटियाँ किस प्रकार गाड़ी जाएँ आदि
आदि । हमारी यह नई आयताकार ट्रेंच दस बाइ चार मीटर की है । सर्वप्रथम हमने चारों
ओर पच्चीस सेंटीमीटर का मार्जिन छोड़ा तथा लम्बाई में एक एक मीटर के अंतर पर दस पेग
लगाये । यहाँ पेग से तात्पर्य गाड़ी गई खूँटियों से है । सारी ट्रेंच का एक साथ
निरीक्षण करने हेतु पेग नौ और दस के बीच एक कंट्रोल पिट बनाया ।
अरे यह बताना तो मैं भूल ही गया ,आज सुबह
पेग की इस बात पर हम लोगों ने बहुत आनंद लिया । डॉ.आर्य ने निखात की नाप -जोख के
पश्चात जैसे ही हम लोगों से कहा कि " भाइयों नाप -जोख़ तो पूरी हो गई अब आपको
पेग लगाना है ।" किशोर हँसने लगा .."सर इन बच्चों को तो पेग का स्वाद भी
नहीं मालूम है लेकिन मैं लगा सकता हूँ, हालाँकि दिन में लगाना ठीक नहीं है , रात को
देखेंगे ।" सर हँसने लगे । वे समझ गए
थे कि किशोर भैया मस्ती के मूड में हैं । उन्होंने कहा "भाई मैं उस पेग की
बात नहीं कर रहा हूँ .. पेग लगाना है मतलब यहाँ खूंटियां गाड़ना है ।" किशोर
भैया ने कहा .." क्या सर, पहले तो आपने हमें खुश किया फिर बिलकुल ही निराश कर
दिया ।" उसकी इस अदा पर हम लोग जोर से हँस पड़े ।
आज हमने प्रारम्भिक रूप से पेग
क्रमांक एक और दो के बीच दो बाई एक मीटर के क्षेत्र में अपना कार्य प्रारंभ किया ।
ट्रेंच के प्रथम सतह निरीक्षण में हमें स्वास्तिक चिन्ह युक्त एक सिक्का, एक
टेराकोटा ऑब्जेक्ट तथा एक स्टोन बॉल प्राप्त हुआ । ऊपरी सतह से खुदाई प्रारम्भ करते
हुए हम इकतीस सेंटीमीटर तक पहुँचे । इन प्रारम्भिक कार्यों को सीखने में डॉ.आर्य लगातार हमारा मार्ग दर्शन करते रहे ।
हमें पता ही नहीं चला कि हमारा शाम तक
का वक़्त कैसे बीत गया । शाम को कार्य समाप्त करने के बाद हमें यह भी बताया गया कि
प्राप्त वस्तुओं को कैसे साफ़ किया जाए और कैसे उन्हें सम्भाल कर रखा जाए । आज
उत्खनन करते हुए हम लोगों ने अपने आप को कुछ ख़ास महसूस किया । सदियों से ज़मीन के
भीतर दफ्न अवशेष जैसे जैसे बाहर आते जा रहे थे हमें लगा जैसे वे हमसे बातें कर रहे
हों और इस क़ैद से छुटकारा दिलवाने के लिए हमारा शुक्रिया अदा कर रहे हों । मेरे मन में विचार आया ...यह वस्तुएँ तीन - चार
हज़ार वर्ष पूर्व ही इस ज़मीन के भीतर दफ़न हो गई थीं । कोई तो ऐसा इंसान होगा जिसने उस वक़्त इन्हें अंतिम बार देखा होगा । तब उसके
मन में ग़लती से भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि इतने सालों बाद उसीके जैसा कोई इंसान
इन्हें ढूंढ निकालेगा ।
मैं सोचने लगा ..कितने लम्बे अँधेरे
में बीता होगा उनका यह कारावास , न हवा ,न पानी , चारों ओर फकत अँधेरा ही अँधेरा ।
बस धरती माँ का सख्त आलिंगन उन्हें दिलासा देता होगा कि कभी न कभी कोई ज़रूर आएगा सिकुड़ते
हुए उनके फेफड़ों के लिए ऑक्सीजन लेकर ।
फिर इसी विश्वास में सदियाँ बीतती रहीं और उनके कान किसी इंसान के कदमों की आहट सुनने
के लिए तरसते रहे । इस बीच चम्बल में जाने कितना पानी बह गया और
जलवायु चक्र में बादल बनकर जाने कहाँ कहाँ बरस गया । लेकिन आखिर उनकी प्रतीक्षा
पूरी हुई । अंततः एक खोजकर्ता यहाँ आया और उनके भीतर मुक्ति के स्वप्नों को जन्म
दे गया । मैं काफी देर तक ज़मीन से निकले
उन अवशेषों को देखता रहा जिन्हें हमने ज़मीन की इस कारा से मुक्त किया था । मुझे
अचानक महसूस हुआ कि इन्हें इस तरह देखना विशेष है और यह अजायब घर में रखी किसी
प्राचीन वस्तु को देखने से बिलकुल अलग है , यहाँ हम उसे देखने वाले प्रथम व्यक्ति हैं
जबकि म्यूज़ियम में जाने कितने लोग देख चुके होते हैं ।
खुदाई से निकला पकी हुई मिट्टी का चार
सेंटीमीटर लम्बा और दो सेंटीमीटर चौड़ा का एक छोटा सा पात्र हाथ में लिए अशोक उसे
बहुत देर तक निहारता रहा । वह उसे उल्टा-सीधा करते हुए कई कोणों से सूक्ष्मता
पूर्वक देख रहा था । “ क्या देख रहा हो अशोक ?” मैंने अशोक से पूछा । “ वाह कितना
सुन्दर पात्र है ।“ अशोक ने कहा । मुझे लगा वह ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की किसी
विशेषता पर हम लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला है । लेकिन अशोक ने मेरी आशाओं पर
तुषारापात करते हुए अपनी नज़रें उस पर से हटाये बगैर धीरे से कहा “ अपने तम्बू में
सिगरेट की राख झाड़ने के लिए ऐश ट्रे नहीं है, यह बढ़िया काम आएगा । फिर उसने धीरे
से उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया । मैंने तुरंत चारों ओर अपनी नज़रें घुमाईं और
इस बात पर आश्वस्ति महसूस की कि उसे ऐसा करते हुए किसीने नहीं देखा था ।
तम्बुओं में लौटते हुए अन्धेरा घिर
आया था । मौसम खुल गया था और ठंड अचानक बढ़ गई थी । हाथ मुँह धोकर आने के पश्चात
किशोर की ओर से प्रस्ताव आया “ क्यों सिटी घूमने चलें ?“ मैंने कहा “नहीं यार, आज
वैसे भी दिन भर काम करके बहुत थक गए हैं और दिन भी अब डूब चुका है । कल जल्दी काम
खत्म करेंगे और शाम को चलेंगे दंगवाड़ा ।“ वैसे भी आज किसी निखात पर स्वतंत्र रूप
से काम करने का अनुभव हमें प्रफुल्लित किये हुए था । ज़मीन के भीतर तो हम मात्र
इकतीस सेंटीमीटर ही गए थे लेकिन इसके विलोम में हमारी उमंगें आसमान छू रही थीं ।
भोजन ग्रहण करने तक का वक़्त बिताने और
भट्टी की आग तापने के उद्देश्य से हमने भाटी जी की भोजन शाला पर धावा बोल दिया और
लगे उनका दिमाग खाने । “ क्या भाटीजी ..” अशोक ने छेड़खानी शुरू की “ रोज़ रोज़ वही
लौकी, बैंगन, गोभी ..कुछ चिकन विकन का इंतज़ाम नहीं है क्या ?..” "श..श...”
भाटी जी ने डाँट लगाई “पंडित वाकणकर जी ने सुन लिया तो तुम्हारा कीमा बना देंगे ।“
अशोक बेचारा मायूस हो गया । भाटीजी ने पुचकारते हुए कहा “ कोई बात नहीं तुम मेरे एक सवाल का जवाब दे दोगे तो मैं तुम्हें चिकन खिला दूंगा ।“ अशोक की आंखों में चमक आ गई । भाटी जी ने कहा
“यह बतलाओ कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा ? “
अशोक बोला “बड़ा कठिन सवाल है भाई,
हमारे वैज्ञानिक डॉ.शरद ही इस पर रोशनी डाल सकते हैं ।“ मैंने कहा “कोई कठिन सवाल
नहीं है । विज्ञान इसका उत्तर ढूंढ चुका है । हम जानते ही हैं हर सजीव का जन्म और
विकास कैसे हुआ । सजीवों की उत्पत्ति से पूर्व रसायनों से लबाबब थी यह धरती ।
समुद्र के जल में मिश्रित रसायनों पर एक्स रेज़, बीटा रेज़, गामा रेज़ आदि के प्रभाव
से समुद्र में उपस्थित शैल भित्तियों पर एक कोशिकीय अमीबा जैसे जीवों ने जन्म लिया,
फिर धीरे धीरे अन्य बहु कोशिकीय जीव जन्म लेते गए
और उनके आकार भी बदलते गए । आप क्या सोचते हैं .. यह मुर्गी जो हम देखते
हैं क्या इसके पूर्वज भी ऐसे ही दो ‘ लेग पीस ‘ वाले रहे होंगे ?
"लो सुन लो तो क्या चार लेग पीस
वाली भी मुर्गी होती थी ?" अशोक ने कहा । "यह बिलकुल संभव है "
मैंने कहा "इससे पूर्व इससे मिलते जुलते जीवों ने जाने कितने रूप धारण किये
होंगे तब यह मुर्गी सदृश्य जीव बना होगा, फिर धीरे - धीरे इसकी प्रजनन क्षमता
विकसित हुई होगी, फिर अंडा-वंडा बनना शुरू हुआ होगा, इसकी भी लम्बी प्रक्रिया रही
होगी ।“ “ वो तो सब ठीक है “ अजय ने मेरे
भाषण से ऊबकर कहा “ लेकिन इसे खाना कब शुरू हुआ ?“ मैंने कहा “ सॉरी यार,
इस बारे में फिलहाल मेरे पास कोई जानकारी नहीं है । जैसे ही प्राप्त होगी तुम्हें
बता दूंगा ।“
रवीन्द्र इतनी देर तक हम लोगों की
बातें सुन रहा था । उससे रहा नहीं गया । उसने कहा” क्या तुम लोग भी खाने के समय
गन्दी बातें कर रहे हो ।“ “अच्छा अच्छा चुप हो जाओ भाई“ अशोक बोला “ पंडित
भारद्वाज माँसाहार की बात से नाराज हो
गए हैं ।“ भाटीजी हम लोगों की बातों का मज़ा लेते हुए अब
तक अरहर की दाल में हींग, जीरे, लहसुन व लालमिर्च की छौंक लगा चुके थे । पीले बल्ब
की रोशनी में ऊपर उठता हुआ धुआँ किसी स्वप्नलोक में मायावी धुन्ध की तरह दिखाई दे
रहा था । बाहर भी हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था लेकिन हमारे भीतर की धुंध धीरे
धीरे छंटती जा रही थी । भोजनशाला के गर्म वातावरण में गहन होती हुई छौंक की यह
गन्ध हमारी भूख के चरमोत्कर्ष में हमारे तंत्रिका तंत्र को शून्य कर रही थी और
हमें दुनिया के सबसे स्वादिष्ट भोजन अर्थात घर में माँ के हाथों बने खाने की याद
आने लगी थी ।
खाना खाकर
हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर
जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल
चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था ।
वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है
इसलिए ठंड ज्यादा लगती है ।
वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे
मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया
हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल
दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“
मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार
से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का
यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की
बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे
सो अलग ।“
“ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी
जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से
करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड
पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या
सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल
इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे
थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते
हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी
समझ में आ गया ।”
मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का
रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने
आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु
नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम
हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने
लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।
“चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक
मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं
नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो
असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह
सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म
के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता
है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“
PEGX PEG IX PEG VIII PEGVII PEG VI PEG IV PEG III PEG II PEG I PEG 0
CONTROL
PIT
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चित्र गूगल से साभार रेखांकन-शरद कोकास
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भाई जी
जवाब देंहटाएंयह भरमाने वाला शीर्षक न लगाया करो जी//
हम तो सोचे महफिल जमी है शरद भाई की..भागे भागे आये कि पटियाला चल रहा है एक एक मीटर वाला..मजा आ आयेगा. तो यहाँ तो नजारा ही दूसरा है.
खैर, मजा तो फिर भी आया.
हा हा बिल्कुल कुछ तो चाहिये न ऐश के लिये ...
जवाब देंहटाएंअरे भाई, वह प्याला पैग सर्व करने का पात्र था।
जवाब देंहटाएंइस एपिसोड मे मज़ा आया लेकिन ज़रा टेक्निकल है.
जवाब देंहटाएंinteresting!first time dekha hai yah blog.
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