15 - यक्षी का फोटुआ हमें भी दिखाओ भाई
फुलान से लौटकर शिविर में
पहुँचते पहुँचते शाम अपनी वृद्धावस्था तक पहुँच चुकी थी । हवाओं में नमी अभी भी
बाक़ी थी । सूरज ने कोशिश तो बहुत की थी दिनभर कि हवाओं का दिल बहला ले और उन्हें
अपने अतीत की याद न आये लेकिन वह नाकाम ही रहा । हवाओं की ऑंखें भले नम थीं लेकिन
आसमान के आँसू थम चुके थे और रोने के बाद धुले धुले से दिखाई देने वाले चेहरे ही
तरह उसका चेहरा भी साफ़ दिखाई दे रहा था । फुलान की मिटटी हमारे जूतों के साथ उसी
तरह चली आई थी जैसे कोई बच्चा अपने पिता के मना करने के बावज़ूद उसके पीछे पीछे चला
आता है । हमने जूते उतारकर उस मिटटी को तम्बू के बाहर ही झाड़ा और लकड़ी से खुरच
खुरचकर अतीत के दुखों की तरह उसे पूरी तरह हटा दिया । फिर कपड़े बदलकर पांवों में
चप्पलें अटकाकर चम्बल की ओर चले गए । मौसम कितना भी ठंडा हो लेकिन ठंडे पानी का
स्पर्श देह में रक्त संचार को तीव्र कर देता है सो हाथ मुँह धोकर कुछ उर्जा का
संचार हुआ ।
दिनभर से कुछ खाया नहीं था । भूख बार
बार क्लास के होशियार जिज्ञासु बच्चे की तरह हाथ खड़े कर रही थी । उसका समाधान करना
हमारा कर्तव्य था । लेकिन यह गोधूली बेला थी और शहरी सभ्यता के अनुसार न यह लंच का
समय था ना डिनर का । हमारे भोजन मंत्री भाटीजी को भी पता था कि हम लोग देर से
लौटेंगे सो हमारे लिए रोटियाँ भी नहीं बनी थीं, अतः बासी या बचा हुआ खाने का भी
कुछ जुगाड़ नहीं था । दुष्यंत का यह शेर कि "हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती
है बहुत , तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं ' हमारे किसी काम का नहीं था ।
लेकिन भूख का इलाज तो करना ही था ।
हमने भाटीजी को मस्का मारा तो उन्होंने
हमारे लिए गरमा गरम पोहा बना दिया जिसे हमने बतौर “लनर” ग्रहण कर लिया ।
वैसे उन्होंने सुबह भी हमें हैवी ब्रेकफास्ट करा दिया था । लंच और डिनर के बीच के
भोजन को हम लोगों ने यह नया शब्द 'लनर' दिया था वैसे ही ब्रेकफास्ट और लंच के बीच
के भोजन को हम लोग ’ब्रंच‘ और डिनर व सुबह के ब्रेकफास्ट के बीच रात में भूख लगने
पर खाये जाने वाले भोजन को हम लोग ’डिफास्ट‘ कहते थे ।
लनर के बाद डिनर तक हम लोगों के पास
पर्याप्त समय था । कल की बारिश और आज दिन भर फुलान एक्सप्लोरेशन में व्यस्त रहने की
वज़ह से आज टीले पर जाना नहीं हुआ था और पिंजरे में कैद तोते में बसे राक्षस के
प्राण की तरह हमारे प्राण भी वहीं अटके थे सो हमने सोचा चलो एक चक्कर लगा लिया जाए
ताकि लनर भी हजम हो जाए और रात्रि के “ओम सहना ववतु” तक कड़ाके की भूख लग आए । बारिश रूक गई थी और आसमान साफ हो चला था
इसलिए ठंड भी काफी बढ़ गई थी ।
यद्यपि टीले की मिटटी थोड़ी थोड़ी गीली
थी लेकिन अँधेरे में जैसे किसी के गाल पर बहते आँसू नज़र नहीं आते हमें भी उसका
गीलापन ठीक से नज़र नहीं आ रहा था सो हमने अपने हिसाब से एक सूखा जैसा दिखने वाला
हिस्सा खोजा और उस पर बैठ गए । बातों का सिलसिला कुछ शुरू नहीं हो रहा था.. लग रहा
था जैसे हम किसी मातमपुर्सी में आये हों । हमेशा बकबक करने वाला अजय भी सर झुकाए
गुमसुम सा बैठा था । रवीन्द्र ने कुरेदा तो बोला “ क्या करूँ यार भाभी की याद आ
रही है ।“ रवीन्द्र ने एक कहकहा लगाया .."थारी भाभी की म्हारी भाभी ?" हम
लोगों की देखा-देखी वह भी अपनी पत्नी के लिए 'तुम्हारी' प्रत्यय के बगैर सिर्फ 'भाभी'
शब्द का इस्तेमाल करने लगा था । इसीलिए रवीन्द्र कभी कभी उसे मज़ाक में “भाभी का
भैया “ कह देता था । थकान कुछ इस तरह हम पर हावी थी कि इस हँसी के बाद भी बातों का
सिलसिला शुरू नहीं हुआ ।
इतने में डॉ. सुरेन्द्र कुमार आर्य भी
टहलते हुए हम लोगों के पीछे पीछे टीले तक आ गए
। हम लोगों को चुपचाप बैठा देख “शोले” के हंगल साहब की तरह उन्होंने पूछा “इतनी खामोशी क्यों है भाई ?” हमने सर
झुकाए झुकाए कहा “कुछ नहीं सर, आज थक गए है । “ “क्या मिला फुलान के टीले पर ?”
उन्होंने अगला सवाल किया । "अधिक कुछ
नहीं सर .." रवीन्द्र ने कहा " दो घंटे के एक्स्प्लोरेशन में सिर्फ दो
टेराकोटा बुल मिले, स्वास्तिक चिन्ह वाले कुछ सिक्के, कुछ आहत सिक्के, मिट्टी के दो
बाँट,तथा कुषाण कालीन मिट्टी के दो मृद्भांड बस । हाँ उसके बाद फुलान में
प्रतिमायें बहुत अच्छी देखने को मिलीं ।"
सर
ने कहा " हम भी कल भाटीजी के साथ फुलान गए थे और वहाँ से चौवन सिक्के, कुछ
मणि और यक्ष की मृण्मूर्ति का एक साँचा लेकर आए थे ।" " लो हम अपने आप
को ही तीसमारखां समझ रहे थे, और आप तो हमसे भी ज़्यादा अवशेष बटोर लाये । "
रवीन्द्र ने आर्य सर से प्रशंसा के अंदाज़ में जैसे ही यह कहा, वे बोले " भाई
उससे क्या होता है , यह तो संयोग की बात है सतह पर निरीक्षण करते हुए किसी को कम
वस्तुएँ मिलती हैं किसी को अधिक मिल जाती हैं । लेकिन पुरातात्विक वस्तुओं और
साइट्स की खोज में श्रेय सिर्फ उसी को मिलता है जो पहली बार उस साईट की या अवशेष
की खोज करता है और उसे दर्ज करवाता है , उसके बाद जाने वाला हर पुरातत्ववेत्ता
केवल उसका अनुगामी ही होता है फिर वह कितनी भी खोज कर ले । "
मैंने
सर से कहा " हाँ सर, हम भी बचपन से पढ़ रहे हैं कोलम्बस डिस्कवर्ड अमेरिका जबकि
अमेरिका में तो पहले से लोग रह रहे थे फिर कोलम्बस को उसे खोजने का श्रेय क्यों दिया
जाता है ?" आर्य सर ने जवाब दिया "पृथ्वी के हर भूभाग में किसी भी साईट
पर लोग पहले से निवास करते रहे हैं जिनका बाक़ी दुनिया को पता नहीं होता लेकिन
बरसों बाद उनकी बस्ती को दोबारा खोजने पर उसका श्रेय तो खोजकर्ता को ही मिलेगा ना ।
अमेरिका की खोज यूरोप की उस सभ्यता द्वारा
की गई जो उससे ज्यादा सभ्य थी इसलिए श्रेय
उन्होंने ले लिया, और चौदह सौ अन्ठ्यानबे में कोलम्बस की खोज के बाद ही एक इटालियन
एक्स्प्लोरर अमेरिगो के नाम पर उसका नाम अमेरिका रखा गया ।
अब
अजय की बारी थी " सर ऐसे ही कहते हैं कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की ?
भारत तो कितना प्राचीन देश है । " बिलकुल " आर्य सर ने कहा " ऐसा
इसलिए कहा जाता है कि वास्को द गामा ने अटलान्टिक महासागर के मार्ग से योरोप से
भारत तक पहुँचने के मार्ग की खोज पहली बार की थी ।" " लेकिन सर इसका
श्रेय उसे क्यों दिया जाना चाहिए ?" " भाई ऐसा नहीं है " सर ने कहा
" यह केवल नए मार्ग की खोज है ।" लेकिन सर .." अजय ने कहा "
हमारी सरकार को फिर यह बात योरोप के रिकार्ड में दर्ज करवानी थी कि उसने भारत की
खोज नहीं की बल्कि भारत तक आने के मार्ग की खोज की आख़िर भारत पहुँचने वाला वह पहला
विदेशी तो नहीं था । हमारी प्राचीन संस्कृति के संरक्षण और तथ्यगत जानकारी को ठीक
करने के लिए इस सरकार ने क्या किया ? "
बात कुछ कुछ राजनीतिक हो रही थी सो
अशोक ने विषय परिवर्तन करते हुए आर्य सर से पूछा “सर कोलम्बस और वास्को द गामा के
एक्सप्लोरेशन को मारिये गोली , अपने एक्सप्लोरेशन की बात करें । आज हमने फुलान में
यक्ष प्रतिमाएँ भी देखीं लेकिन देखा कि उनकी पूजा नहीं होती है ,ऐसा क्यों है सर ?
डॉ.आर्य मुस्कुराए “ भाई, जैसे जैसे हमारे यहाँ देवी- देवताओं की रचना होती गई और उनकी
संख्या बढ़ती गई ,उनके काम और महत्ता के आधार पर उनकी स्थिति का निर्धारण हुआ । समय
समय पर किन्ही देवताओं ने उच्च स्थान प्राप्त किया और किन्ही देवताओं को निम्न
स्थान पर ही संतोष करना पड़ा । फिर उन्हीं में से कुछ को पूर्ण देव और कुछ को अर्ध
देव की श्रेणि में विभाजित कर दिया गया ,यक्ष यक्षी, कुबेर आदि अर्धदेव बन गए और उन्हें
पूजा के अधिकार से वंचित कर दिया गया ।“
“मतलब देवताओं में भी मनुष्यों की तरह
वर्ग विभाजन ? “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट दिया । मैंने कहा “ यार जब मनुष्य ने
ही देवता बनाये हैं तो वह अपने सारे गुण दोष भी उन पर आरोपित करेगा ना और अपने
जैसी व्यवस्था भी उनके लिए बनायेगा । सो कुछ देवी -देवता उच्च हो गये, कुछ निम्न हो
गए । इसीलिए आदिवासी समाज के देवता जो उनके टोटेम हैं, अन्य देवी देवताओं से अलग
होते हैं । विश्व की सभी सभ्यताओं में उनके अपने अपने देवी- देवता हैं ।
रवीन्द्र ने मेरी ओर घूर कर देखा और
कहा “तू चुप रह यार, तैने तो अपने लिए बढ़िया
बढ़िया यक्षी चुन ली है, रात दिन उनकी फोटुएं देखता रहता है ।“ डॉ.आर्य ने कहा
“अच्छा शरद की थीसिस की बात हो रही है
क्या विषय है...हाँ ....”कुषाण शिल्प में नारी प्रतिमाएँ ।” “हाँ सर” रवीन्द्र
मुझे छेड़ने के मूड में था “ ये कि नई सर, मथुरा म्यूज़ियम से निर्वस्त्र यक्षी
प्रतिमाओं की फोटो लेकर आया है, शोध-प्रबन्ध में लगाने के लिए, इसकी थीसिस पर तो
ऑनली फॉर एडल्ट्स लिख देना चाहिये ।“ सर हँसने लगे “ ये शरद तो लेकिन अठारह का हो
गया है ना ?” “क्या पता सर “ रवीन्द्र ने कहा “ मैं तो इसे मुन्ना ही कहता हूँ ।“
हँसी के इस आयोजन के उपरान्त डॉ.आर्य
ने एक शिक्षक की तरह मुझसे सवाल किया
“अच्छा शरद बताओ तुमने इन यक्षी प्रतिमाओं में क्या विशेषता देखी ?” मैंने
कहा “ सर, उत्खनन में पहली दूसरी शताब्दी की ऐसी अनेक यक्षी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई
हैं । ये यक्षियाँ स्तम्भों के बाहरी भाग पर उत्कीर्ण है और त्रिभंग मुद्रा में
हैं । यह यक्षियाँ आम्र,साल या अशोक वृक्ष की शाखाओं को पकडे हुए हुए हैं ।
उत्कीर्ण होने की वज़ह से यह अपूर्ण दिखाई देती हैं लेकिन शिल्पी ने इनकी माँसलता
और उभारों को इस तरह उकेरा है कि ये पूर्णता का आभास देती हैं । यद्यपि ये
पूर्णतया नग्न हैं लेकिन घुटने तक जाती एक महीन सी रेखा से ऐसा लगता है जैसे वे
कोई पारदर्शी वस्त्र पहने हैं। इन्हें देखने से यह कामोद्दीपक अवस्था में प्रतीत
होती हैं ।“ “ यही तो है कुषाण काल के शिल्प की विशेषता ।“ डॉ.आर्य ने कहा । इतने
में भैया राम मिलन का ध्यान हमारी बातों की ओर चला गया बोले “ए सरदवा, ये यक्षी-फक्षी का फोटुआ हमें
भी दिखाओ भई ।“ हम समझ गए अब कोई गम्भीर बात होने से रही सो हमने शिविर की ओर
लौटना बेहतर समझा ।
खाना खाकर जब हम लोग अपने तम्बू में पहुँचे
तो पता चला कि बिस्तर अभी तक नम हैं । हालाँकि फुलान जाने से पहले हम उन्हें डंडा-वंडा लगाकर टांग गए थे ताकि रात में सोने
तक वे सूख जाएँ । “ चलो कोई बात नहीं शरीर
की गर्मी से सूख जाएँगे। ” मैंने कहा । लेकिन बिस्तर में घुसने पर पता चला कि नमी
के अलावा यहाँ ठंड का भी सामना करना है । गनीमत की थकान हम पर हावी थी और ठण्ड मेहनत
से थके हुए शरीर को नींद में जाने से रोक नहीं सकती थी ।
सोने से पहले एक बार दिन भर की
गतिविधियों की चर्चा भी ज़रूरी थी सो हमने आज प्राप्त प्रतिमाओं से अपनी बात शुरू
की । “क्यों यार कुषाण पीरियड से पहले अपने यहाँ मूर्तिशिल्प का कोई कंसेप्ट नहीं
था क्या ? “ अजय ने पूछा । रवीन्द्र ने बताया “ था तो लेकिन उसका कोई संगठित रूप
नहीं था, वह अपने अनगढ़ रूप में ही था, अगर ऐसा होता तो बुद्ध के जीवन काल में ही
उनकी मूर्तियाँ बन जाती, वह तो बुद्ध के दो-तीन सौ साल बाद पश्चिमोत्तर से कलाकार
आए और उन्होंने जनश्रुतियों के आधार पर
मूर्तियाँ गढ़ीं ।“
“श्रुति के आधार पर मतलब? ” अजय ने पूछा
। “मतलब उन्होंने बुद्ध को देखा तो नहीं था सो लोगों से पूछा, बुद्ध कैसे दिखते
थे, तो लोगों ने भी अपने पूर्वजों से सुनी हुई बातों के आधार पर बताया कि बुद्ध का
शरीर विशाल था , उनका रूप भव्य था, और ऐसा लगता था जैसे उनके पीछे कोई प्रभामंडल
हो । बस वैसी ही मूर्तियाँ शिल्पकारों ने गढ़ीं जबकी वास्तव में बुद्ध तो तपस्या के
कारण कृशकाय हो गए थे । हालाँकि बाद में
वैसी मूर्तियाँ भी बनीं जिनमे तपस्या के बाद बुद्ध की पसलियाँ भी दिखाई देती थीं ।“
रवीन्द्र ने कहा ।
"भाई हमारे देश में तो लोगों को
पूजा से मतलब है, प्रतिमा का सौन्दर्य कौन गंभीरता से देखता है । सारे देवी -देवता
केवल आस्था के कारण पूजे जाते हैं, न कि अन्य कारणों से, वह तो हम लोग हैं प्रतिमा
विज्ञान के छात्र और थोड़ी बहुत कला की सेन्स हमें है सो हम मूर्ति की सुन्दरता भी
देखते हैं । “ मैंने कहा । अजय ने कहा .."प्रतिमा के लक्षणों को और उसकी
सुन्दरता को आस्तिक लोगों से ज़्यादा नास्तिक लोग देखते हैं । " मैंने कहा “
यहाँ आस्तिक- नास्तिक जैसी कोई बात नहीं है भाई..लोगों की आस्था है चाहे जिसे
पूजें, पर लानत है हम प्रतिमा विज्ञान पढ़ने वाले छात्रों पर जो प्रतिमा के शिल्प
सम्बन्धी यह ज्ञान लोगों तक पहुँचा नहीं सकें ।"
रवीन्द्र ने कहा "अब जनता को ही
मूर्तियों के लक्षण जानने में रूचि नहीं है तो हम क्या करें ? " " खैर ऐसा
भी नहीं है, लेकिन इस देश की जनता के सौन्दर्यबोध के बारे में क्या कहें .." मैंने रवीन्द्र के दर्द पर मरहम
लगाते हुए कहा " आस्था का यह आलम है
कि लोग पत्थर पर सिन्दूर पोतकर भी उसे हनुमान जी बना देते हैं ।“ “ और फिर यही लोग
इस बहाने सरकारी जमीन पर बेजा कब्जा कर लेते हैं । “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट
दिया और तानकर सो गया । हम लोगों ने भी अपने रज़ाई कम्बल ताने और ‘बजरंग बली की जय'
कहकर उनके भीतर घुस गए ।
शरद कोकासशरद कोकास
मतलब देवताओं में भी मनुष्यों की तरह वर्ग विभाजन-मनुष्यों ने वहीं से ज्ञान प्राप्त किया होगा!!
जवाब देंहटाएंबढिया लिखा "मुन्ना"।
जवाब देंहटाएंये यक्षिणी हमें पसन्द नहीं आई। देहयष्टि में सही अनुपात का अभाव सा है। कोई और दिखाइए ;)
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