बुधवार, 1 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-चौथा दिन - दो

11 - चलो सिटी चलते हैं

            ट्रेंच क्रमांक दो पर हमारा कार्य अभी प्रारम्भ ही हुआ था कि हमें लगा जैसे प्रकृति को हमारी इस सफलता से ईर्ष्या होने लगी है । जाने कहाँ से आकर आकाश में काले बादल छाने लगे और हवाएँ जो पहले से ही ठंडी थीं और ज्यादा ठंडी  हो गईं । मौसम भले ही सर्दियों का था लेकिन धूप में काम करते हुए हम लोगों का पसीना निकल गया था । अब वह धूप की वज़ह से था या काम की वज़ह से यह अलग बात है । लेकिन ऐसे में वे ठंडी हवाएँ बहुत भली लगीं । 

            मैंने आसमान की ओर देखा और गुनगुनाना शुरू कर दिया “ठंडी हवाएँ ..लहरा के आएँ, रुत है जवाँ, उनको यहाँ कैसे बुलायें..” रवीन्द्र ने घूर कर मेरी ओर देखा ..” लो ई छोरा तो  शुरू भी हो गया ..अबे, अव्वल तो यह कि उनको यहाँ बुलाकर करेगा भी क्या, और वो आ भी गई तो यहाँ आकर करेगी भी क्या ..हमने ही यहाँ पत्थरों से अपना माथा फोड़ना है ।” फिर वह रुका और बहुत गंभीरता से उसने  कहा .. “लेकिन सवाल यह है बावले कि तू बुलाएगा भी किसको ? थारी तो कोई है भी नहीं ..च्च च्च ... “

            इस बीच वाकणकर सर किसी काम से कहीं चले गए थे और उनकी अनुपस्थिति में हम लोगों को ऐसा लग रहा था जैसे कॉलेज का आज पहला दिन है, कब क्लास की छुट्टी हो और कब घर जाएँ  । इतने में आर्य सर आ गए  और कहने लगे “भाईयों .. बारिश की संभावना है इसलिए सर का आदेश हुआ है कि आज काम यहीं पर समाप्त किया जाए इसलिए आप लोगों की अब छुट्टी । लेकिन बारिश हुई तो ट्रेंच में पानी भर सकता है मौसम को देखते हुए ट्रेंच को ढाँकना ज़रूरी है । हम यह ट्रेंच तार्पोलीन से ढँकवाकर आते है आप लोग चलो । “

            आर्य सर की बात सुनकर अजय ने बच्चों की तरह खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा “होहोहो मज़ा आ गया.. चलो सिटी चलते हैं ।” “सिटी ?” मुझे आश्चर्य हुआ “ अरे भैया अभी उज्जैन कहाँ जा सकते हैं ? ” “उज्जेन जाने की कोन केहवे हे बावड़े ।” अजय ने कहा “में तो दंगवाड़ा गाँव जाने की के रिया था यहाँ से  डेढ़ किलोमीटर दूर ।” रवीन्द्र ने कहा …“ठीक तो कह रहा है । हम यहाँ जंगल में पड़े हैं अब हमारे लिए  तो दंगवाड़ा ही सिटी है ।” “चलो शाम की चाय वहीं चलकर पीते हैं  ।“ मैं यहाँ यह बताना चाहता हूँ कि “चलो सिटी चलते हैं“ यह शहर से दूर स्थित हॉस्टल में रहने वालों छात्रों के बीच कहा जाने वाला एक प्रचलित वाक्य है जो शहर जाकर मटरगश्ती करने या सिनेमा देखने जाने के सन्दर्भ में अक्सर कहा जाता है ।

            तम्बू में लौटकर हम लोगों ने टॉवेल, साबुन वगैरह लिया और घाट पर हाथ मुँह धोने पहुँच गए  । वहाँ से आकर कंघी - वंघी की और सिटी अर्थात दंगवाड़ा गाँव जाने के लिए  पैदल पैदल निकल पड़े । शिविर के अनुशासन के अंतर्गत हमने आर्य सर से सिटी जाने की अनुमति ले ही ली थी । हमें निकलते हुए देख उन्होंने कहा “ देखो भाई ज़रा जल्दी आना , वरना अन्धेरे में रास्ता भटक जाओगे, मौसम का मिज़ाज़ भी कुछ ठीक नहीं लग रहा है ।” आर्य साहब ट्रेंच को तारपोलीन से ढांक कर आ चुके थे और मजदूरों की भी उन्होंने छुट्टी कर दी थी । वाकणकर सर की अनुपस्थिति में वे ही शिविर प्रभारी थे इसलिए हम लोगों का ख्याल रखना भी उनकी ज़िम्मेदारी थी । “नहीं भटकेंगे सर । आप चिंता न करें ।” अजय ने कहा । “ हम लोग रास्ते के चिन्हों को याद कर लेंगे और जल्दी लौट आयेंगे वैसे भी अभी चार ही बजा है ।”

            कैम्प से निकलकर हम लोगों ने कच्चा रास्ता पकड़ा और शिविर परिसर के अंतिम किनारे का बरगद पारकर नदी के घाट को बायपास करते हुए आगे बढ़ गए  । आगे एक नाला था जो आगे जाकर चम्बल में मिल जाता था । उसमें पानी नहीं के बराबर था इसलिए  नाला पार करने में हमें कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन अपने जूतों को बचाने के ख्याल से हमने बीच बीच में दिखाई देने वाले पत्थरों पर पाँव रखकर पार जाना ही उचित समझा । राममिलन भैया निकले तो हमारे साथ ही थे लेकिन नाला पार करने के बाद वे हमें कहीं दिखाई नहीं दिये । नाले के बाद गाँव जाने के रास्ते पर एक मोड़ आता है , हमें लगा शायद मोड़ की वज़ह से वे नज़रों से ओझल हो गए हैं ।

            राममिलन कहीं आसपास ही होंगे यह सोचकर किशोर ने आवाज़ लगाई “कहाँ हो राममिलनवा .?” मोड़ के पीछे से उनकी आवाज़ आई… “आईत हैं भैया ।”  वहाँ क्या कर रहे हो ? ” किशोर ने चिल्लाकर पूछा । हमें लगा कहीं राममिलन किसी शंका के निवारण में ना लगे हों । हम लोगों का एक साथ रहना ज़रूरी था सो हम उन्हें  साथ लेने के लिए  चन्द कदम पीछे लौटकर फिर नाले तक पहुँच गए  । देखा तो राम मिलन एक बड़े से पत्थर पर बगल में जूते दबाये, आँखें बन्द किये हाथ जोड़े  खड़े हैं और हनुमान चालीसा जैसा कुछ बुदबुदा रहे हैं ।
         
            “क्या हुआ ?” किशोर ने पूछा । “कुछ नहीं ।” राम मिलन  ने जवाब दिया …“हमें याद आ गया कि बजरंग बली ने रामेश्वर से लंका जाने के लिए  ऐसा ही पत्थरों का एक पुल बनाया था, सो हम उनका स्मरण कर उनकी स्तुति कर रहे थे ।” “ धन्य हो प्रभु ।” किशोर ने कहा “कहाँ वो विशाल समुद्र, कहाँ ये पिद्दी सा नाला । चलो ठीक है, जाकी रही भावना जैसी । लेकिन इतना तो बता दो, तुम लंका से आ रहे हो या लंका जा रहे हो या लंका में ही रहते हो ?” “अरे वाह ।” राम मिलन समझ नहीं पाये कि उनका मज़ाक उड़ाया जा रहा है… “ हम कोनौ राच्छस - वाच्छस हैं जौन लंका में रहेंगे । जहाँ हम रहत हैं, ऊ है अयोध्या और जहाँ हम जाइत हैं, का कहत हो दंगवाड़ा-फंगवाड़ा ऊ है लंका ।” “ तो देखना भाई वहाँ अपनी पूँछ बचाकर रखना ।”  किशोर ने कहा  । भैया राम मिलन ने तुरंत अपने कटि प्रदेश के नीचे हाथ लगाया और फिर मज़ाक में कही गई किशोर की बात का अर्थ समझकर खिसियाते  हुए कहा “ हे ..हे ..काहे किशोरवा … काहे मजाक करत हो ।”

            हम लोग अपनी हँसी के साथ किशोर के मज़ाक में शामिल हो गए  । दर असल हम लोगों में किशोर त्रिवेदी सबसे बड़े हैं और राम मिलन की उम्र के ज़्यादा करीब हैं इसलिए  ऐसे अवसरों पर उन्हें  आगे कर हम लोग चुप हो जाते हैं । राम मिलन भी उनकी बात का बुरा नहीं मानते हैं और इस विनोद का आनंद लेते हैं । हम लोग आगे बढ़े ही थे कि अजय ने सेतु प्रसंग छेड़ दिया । “ ये बताओ यार, रामायण में जिस पुल का वर्णन है वह सचमुच में बना था या नहीं बना था  ?” “कर दी ना तुमने नॉन टेक्निकल जैसी बात ।“ रवीन्द्र ने कहा । “ यदि पुल सचमुच बना होता तो अब तक पुरातत्ववेत्ताओं को मिल नहीं जाता ? और पुल क्या पुष्पक विमान भी मिल जाता और हाथी, घोड़े, रथ, सिंहासन, सोने के वस्त्र, धनुष्य-बाण, कवच, कुंडल, कमंडल सब कुछ मिल जाता । ”

            “मतलब साफ है । रामायण की कथा पूरी तरह काल्पनिक है ।” अजय ने कहा “ तो फिर हम काल की गणना करते समय रामायण काल क्यों कहते हैं ? ”  “ भई, रामायण काल या महाभारत काल उस समय को कहते है जब ये महाकाव्य रचे गए  थे  । और यह महाकाव्य भी किसी एक समय में नहीं रचे गए यह मौखिक परम्परा से होते हुए हम तक आये । इनका लिखित स्वरूप तो बहुत बाद में प्रकाश में आया । और इनका मूल रूप ढूँढना तो और भी मुश्किल है रामायण, महाभारत  और चंद बरदाई कृत  पृथ्वीराज रासो जैसे ग्रंथों में भी बाद में बहुत कुछ जोड़ा गया । जब अंतिम रूप से इनका लिखित स्वरूप तय हो गया तब उस काल को इनके नाम से जाना गया । इन महाकाव्यों में वर्णित घटनायें कब घटित हुईं, कहाँ घटित हुईं, हुई भी या नहीं जब तक इसके पर्याप्त पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलते तब तक तो इन्हें काल्पनिक ही माना जाएगा ना ।” रवींद्र ने कहा ।

            "लेकिन पुरातत्ववेत्ता तो खोज में लगे हुए हैं ? " अजय का यह सवाल था या स्टेटमेंट मुझे समझ में नहीं आया । मैंने कहा "जो भी हो अगर पुरातत्ववेत्ता किसी धर्मग्रन्थ में आस्था या पूर्वाग्रह के साथ काम करेंगे तो खोज ग़लत होने की संभावना बढ़ जाएगी । उनकी विशेषज्ञता पर उनकी धार्मिक आस्था हावी हो जाएगी । इसीलिए पुरातत्ववेत्ता का धर्म कोई भी हो या व्यक्तिगत आस्था किसी भी देवी देवता में हो उन्हें अपनी धार्मिक आस्थाओं को अलग रखकर ही काम करना होता है । पुरातत्ववेत्ता आस्था के आधार पर इतिहास नहीं रचते, न ही इतिहास में शामिल होने जैसी उनकी कोई ज़िद होती है । और यह केवल मिथकों के इतिहास की बात नहीं है अगर वे राजाओं के या जनता के इतिहास को खोजने में भी पूर्वाग्रह का सहारा लेंगे तो सत्य तक नहीं पहुँच पायेंगे ।"

            अजय मेरी बात से संतुष्ट नहीं हुआ था, उसके मन में कुछ और सवाल उमड़ घुमड़ रहे थे "लेकिन आज भी तमाम हिन्दू परिवारों में रामायण और महाभारत धार्मिक ग्रन्थ की तरह ही पूजे जाते हैं और जनता इनकी ऐतिहासिकता में विश्वास करती है ।" मैंने कहा " इसमें कोई संदेह नहीं कि सामान्य जनता आस्थावश  इन्हें धर्मग्रंथ मानती है । उसका विरोध करने का कोई औचित्य भी नहीं है लेकिन इतिहास आस्था के आधार पर रचा नहीं जाता । एक पुरातत्व का विद्यार्थी होने के नाते तुम इस बात को बेहतर जानते हो कि ज़मीन के भीतर क्या निकलेगा इसकी पूर्व से कल्पना नहीं की जाती बल्कि इतिहास खोजा जाता है और कई बार उसके परिणाम बहुत आश्चर्यजनक होते हैं ।

            "लेकिन जब हमें लिखा लिखाया इतिहास मिल रहा है तो हम उसे क्यों नहीं मानते ? अजय ने फिर सवाल किया । मैंने कहा " इतिहास से इतर जो कुछ भी अन्य विधा में लिखा हुआ है वह सब साहित्य की श्रेणी में आता है और वह इतिहास से अलग होता है । इतिहास लेखन एक अलग विधा है और उसमें वैज्ञानिकता के आधार पर तथ्यों की और कालक्रम की प्रमुखता रहती है । साहित्य इतिहास इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि रचते समय उसमें कल्पना का समावेश भी होता है । अगर रामकथा की बात ही करें तो अलग अलग ग्रंथों में यह कथा अलग अलग रूप में दिखाई देती है वाल्मीकि , भवभूति और तुलसी की रामायण में ही काफी अंतर है । एक जैन ग्रन्थ तो रावण को दशानन ही नहीं मानता और उसे शाकाहारी कहता है । बौद्ध ग्रंथों में भी जैसे दशरथ जातक में यह कथा भिन्न रूप में मिलती है । फिर पुराणों में तो हर देवी देवता की कथा अलग अलग रूप में है । इसके अलावा हर सभ्यता के अपने अलग अलग देवी देवता हैं , अलग -अलग उनके और इस संसार के उद्भव की कथाएँ हैं । यदि लिखे हुए सम्पूर्ण साहित्य को ही इतिहास मानना है तो हमारे सामने यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि फिर इनमे से सही इतिहास किसे माने ?

            " तो इसका मतलब यह हुआ कि साहित्य में वर्णित घटनाएँ कभी हुई ही नहीं ?" अजय ने फिर सवाल किया । "नहीं ऐसा भी नहीं है " मैंने कहा । "साहित्यकार अपनी कथाएँ तो जन जीवन से ही उठाते हैं लेकिन उसमे वे फिर अपनी कल्पना से संसार रचते हैं । उनकी कथा के पात्र जैसे पात्र तो संसार में अनेक हो सकते हैं लेकिन जिस पात्र का वे वर्णन कर रहे हैं आवश्यक नहीं कि वह पात्र सचमुच में हुआ हो जैसे प्रेमचंद की कथा में होरी जैसे किसान इस देश में लाखों हो सकते हैं लेकिन वैसा ही कोई गाँव जहाँ होरी नामक वही किसान रहता हो मिलना मुश्किल है ।"

            अजय के सवाल लगातार जारी थे "लेकिन यदि यह कहा जाए कि राम या कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे और केवल मिथक थे तो जनता की आस्था पर चोट पहुँचती है और ऐसा कहने वाला धर्म द्रोही कहलाता है भले ही वह पुरातत्ववेत्ता क्यों न हो ।" मैंने कहा " नहीं ऐसा भी नहीं है , जनता के बारे में तुम्हारा आकलन ग़लत है । सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा कहते हैं कि “ लोग देवताओं को आस्था और विश्वास के कारण  पूजते हैं न  कि  पुरातात्विक खोजों के कारण । आखिर क्यों दुर्गा, गणेश, शिव और विष्णु पूरे देश में पूजे जाते हैं जबकि इनके साथ कोई ऐतिहासिक सन्दर्भ नहीं जुड़ा  हुआ है । आस्थाएं विकसित करना ज़रूरी हो सकता है लेकिन देवत्व की पूजा के लिए इतिहास को भ्रष्ट करना कतई ज़रूरी नहीं है ।"

            रवीन्द्र काफी देर से हम लोगों की बातचीत सुन रहा था । उसने  अपना मत प्रस्तुत किया " तुम ठीक कह रहे हो । विडम्बना यह है कि आम आदमी पौराणिक कथाओं, गाथाओं, धर्मग्रंथों के आख्यान, किंवदंतियों, किस्सों और कहानियों में फर्क करने की ज़द्दोज़हद नहीं करता । वह मनुष्य की जैविक अवस्थाओं के साथ साथ ईश्वर, धर्म,परम्परा,मिथकों,अविष्कारों आदि को उनके कालक्रमानुसार रखने में अनायास और कभी कभी सायास गड़बड़ियाँ करता है । जबकि पुरातत्ववेत्ता इन्हें सही कालक्रम में रखने की लगातार कोशिश करते है । आस्था अपनी जगह है और इतिहास अपनी जगह इसलिए इस मुद्दे पर बहस करने का कोई औचित्य ही नहीं है । बेहतर होगा कि हम आस्था,इतिहास,संस्कृति इन पर राजनीति न करें और इन्हें बाज़ार की वस्तु न बनायें ।  अगर इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध न भी हो तो क्या फ़र्क पड़ता है क्या इससे लोगों की देवताओं पर आस्था कम हो जायेगी ?"

            हमें पता नहीं था कि पंडित राम मिलन हमारी बातें बहुत ध्यान से सुन रहे हैं । हमारी बातें सुनकर वे अचानक उखड़ गए … “तुम सब अधर्मी लोग हो, पापी हो,राम नहीं हुए थे, कृष्ण नहीं हुए थे,भगवानों का मजाक उड़ाते हो, तुम लोगों को नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी ।” हम समझ गए  कि राम मिलन भैया के पूर्वज उनके भीतर जागृत हो गए  हैं और अब वे शास्त्रार्थ करने पर उतर आए  हैं । मैंने धीरे से अजय को चुप रहने का इशारा किया ।


            वैसे भी हम लोग इस बीच दंगवाड़ा तक पहुँच गए थे और चाय की तलब अपने शबाब पर थी । किसी भी अप्रिय वार्तालाप में संलग्न होकर हम लोग अपनी शाम बर्बाद नहीं करना चाहते थे । वैसे भी आस्थावान लोगों के लिए किसी तर्क को साहस के साथ स्वीकार करना बहुत कठिन होता है ।अशोक हम सभी का आशय समझ गया और उसने वाकयुद्ध का पटाक्षेप करते हुए कहा “राम हुए हों या ना हुए हों, लेकिन हमारे बाल बच्चे बड़े होकर यह ज़रूर कहेंगे कि एक राममिलन ताउ ज़रूर हुए थे जो राम जी के और हनुमान जी के बहुत बड़े भक्त थे ।“ अपनी प्रशंसा सुनकर राम मिलन भैया प्रसन्न हो  गए  और उनका आक्रोश हम लोगों  के ठहाकों  में गुम हो गया ।

आपका -शरद कोकास

3 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी गजब रामभक्ति नाले पार करने के लिए..धन्य हुए.

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  2. नाले और सेतुबन्ध की चर्चा अच्छी रही। अब हमारे धैर्य की परीक्षा बहुत हो चुकी। असली बात पर आइए।

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  3. दिलचस्प संवाद। ये बताएं दंगवाड़ा में चम्बल कहां से आ गई? ये कौन सा इलाका है?

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