बुधवार, 15 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पाँचवा दिन- एक


14 - पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला

            मैं और रवीन्द्र चम्बल के घाट से लौट कर आए  तो देखा डॉ.वाकणकर, किशोर, अशोक, राममिलन और अजय एक्सप्लोरेशन हेतु फुलान जाने के लिए तैयार खड़े थे । भाटीजी ने बरसात के बावज़ूद अपना बिखरा हुआ किचन संभाल लिया था । जिस तरह एक पुरातत्ववेत्ता बारिश में प्राचीन अवशेषों को बचाता है उसी तरह उन्होंने टपकती हुई छत के नीचे रखे नमक ,मिर्ची ,धनिया के डिब्बों, आटे,चावल की बोरी और सब्जियों को बचा लिया था और मौसम को ठेंगा दिखाते हुए हम लोगों के लिए गर्मागर्म पोहा तैयार कर दिया था । हम दोनों ने जल्दी जल्दी नाश्ता किया और उनके साथ चल पड़े । हमें भयभीत करने की मंशा से आकाश में बादल ज़रूर उपस्थित थे लेकिन बारिश को हम पर दया आ गई थी । वैसे भी फरवरी की यह बारिश बिन मौसम ही थी सो इसे तो थमना ही था । हम लोग पैदल पैदल दंगवाड़ा के लिए  रवाना हो गए । 

            भीगे हुए दरख़्त,रास्तों के गड्ढों में जमा पानी और पेड़ों पर भीगे पंख लिए ठण्ड में ठिठुरते पक्षी इस बात की गवाही दे रहे थे कि रात में बारिश काफी तेज़ हुई है । नाले में पानी बढ़ जाने की संभावना को देखते हुए सर हमें दूसरे  रास्ते से ले गए  । इस रास्ते के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी । हमने सर से कहा " सर यह तो दंगवाड़ा जाने का बिलकुल नया रास्ता है, इसके बारे में तो हमें पता ही नहीं था ।" सर ने जवाब दिया .."भाई, पुरातत्ववेत्ता एक खोजी की तरह होता है, उसे हमेशा नए रास्तों की जानकारी होना चाहिए, जब वह ज़मीन के भीतर रास्ते खोज सकता है तो ज़मीन पर भी रास्ते खोज सकता है, और रास्ते ही नहीं लुप्त हो चुकी नदियाँ और ज़मीन के नीचे दबे हुए पहाड़ भी खोज सकता है । "

            गाँव के बाहरी छोर पर एक सड़क थी जो अनेक गांवों को जोड़ती थी । हम लोग उसी सड़क के किनारे खड़े रहकर बस की राह देखने लगे । हल्की हल्की बूंदा-बांदी फिर शुरू हो गई थी जिससे बचने के लिए हम लोग कोई शेड तलाशने लगे । अशोक ने आसपास नज़र दौड़ाई और कहा " अरे यहाँ कोई बस स्टॉप नहीं है " मैंने कहा " भाई आजकल तो शहरों में ही बस स्टॉप बहुत कम हुआ करते हैं फिर गांवों में होना तो बहुत मुश्किल है । खैर हम लोग अपनी हथेलियों को सर पर रखकर भीगने से बचने की व्यर्थ कोशिश करते रहे ।

            हमें अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । थोड़ी देर में बस आ गई । बस सवारियों से ठसाठस भरी थी रोजी-रोटी की कशमकश और ख़राब मौसम के बीच जंग में इंसान की ज़रूरतें हावी थीं ।  इस भीड़ में भी हम शहरी लोगों ने अपना रौब दिखाकर बैठने लायक जगह हासिल कर ली । हमें इस बस से नरसिंगा तक जाना था जो  दंगवाड़ा से मात्र सात किलोमीटर दूरी पर इंगोरिया - गौतमपुरा मार्ग पर स्थित है । हमारा गंतव्य फुलान का टीला वहाँ से पूर्व में लगभग एक किलोमीटर दूरी पर था और वहाँ तक हमें पैदल ही जाना था । बस से उतरने के बाद हम लोग गपियाते हुए ,मस्ती करते हुए कुछ ही देर में टीले पर  पहुँच गए ।

            सर हमें लेकर टीले के बीचो बीच पहुँच गए । हम एक घेरा बनाकर उनके निकट खड़े हो गए । " चलो सज्जनों, शुरू हो जाओ । आज हमें इस टीले पर एक्सप्लोरेशन करना है । यहाँ भी सतह पर प्राचीन सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं, ढूँढो, देखें तुम लोगों को क्या क्या मिलता है  ।"  डॉ.वाकणकर ने आदेश दिया । हम लोग किसी खोई हुई वस्तु को ढूँढने की मुद्रा में झुक झुक कर टीले पर अवशेष ढूँढने लगे । एक दिन पूर्व निकट के टीले पर एक्सप्लोरेशन का अनुभव हमारे पास था ही और सर भी हमारा साथ दे रहे थे । अचानक अजय की आवाज़ आई .." सर बैल, सर बैल " देखा तो अजय के हाथ में मिटटी का एक टेराकोटा बैल था जो कल की बारिश की वज़ह से कुछ भीगा हुआ सा था । रवीन्द्र ने घूरकर अजय की ओर देखा.."सर बैल ?" । इतने में सर हमारे क़रीब आ गए थे । उन्होंने बैल की प्रतिमा को हाथ में लेकर उसे उलट पलट कर देखा और कहा .."शाब्बास यह पकी हुई मिटटी का टेराकोटा बैल है, जैसा कि उस दिन ट्रेंच से मिला था ..और ढूँढो । "

            अजय ने तो एक बैल खोज लिया था लेकिन हम लोगों के हाथ अभी तक कुछ नहीं लगा था और हम लोग निराश हो रहे थे । "ऐसा लगता है यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ।" मैंने ठण्डी साँस भरते हुए कहा । सर के कानों तक मेरी निराशा की फुसफुसाहट पहुँच चुकी थी "देखो भाई.." उन्होंने कहा  "यह मनोविज्ञान का नियम है, यदि आपने सोच लिया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा तो सामने पड़ी हुई वस्तु भी आपको नहीं दिखाई देगी । घर में भी ऐसा ही नहीं होता क्या, हम किसी चीज़ को किसी निश्चित जगह पर ढूँढते हैं और सोच लेते हैं कि वह वहाँ हो ही नहीं सकती, जबकि वह वस्तु उसी स्थान पर रखी हुई होती है । हम बार बार वहाँ खोजते हैं लेकिन वह वस्तु हमें वहाँ नहीं मिलती । सो पहले किसी वस्तु की इमेज मन में बनाओ और फिर उसे ढूँढना प्रारंभ करो ।"

            सर की बात सुनकर हम लोगों ने दुगुने उत्साह से वस्तुओं को ढूँढना प्रारंभ कर दिया और आश्चर्य यह कि हमें उन्हीं स्थानों पर वे वस्तुएँ मिलने लगीं जहाँ से होकर हम पहले एक बार जा चुके थे । इस तरह फुलान के उस टीले पर दो घंटे के एक्स्प्लोरेशन में हमें दो टेराकोटा बुल, स्वास्तिक चिन्हों से युक्त कुछ सिक्के , आहत सिक्के, मिट्टी के बाँट,तथा कुषाण कालीन मिट्टी के मृद्भांड जैसी महत्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हुईं ।

            सब लोग तन्मयता से टीले पर बिखरे पड़े अवशेष ढूँढने में लगे थे कि अचानक अजय ने सवाल किया “ यार, ये मृद्भांड मिट्टी के ही क्यों होते हैं, ताम्बे के या सोने चांदी के क्यों नहीं होते ? “ रवीन्द्र ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा “ अरे बेवकूफ, मृद्भांड हैं तो मिट्टी के ही होंगे ना, मृदा का अर्थ ही मिट्टी होता है, तेरे से इसलिए  कहा था कि सुबह सुबह नहा लिया कर, नहाने की गोली खाने से ऐसा ही होता है । “ अजय बेचारा बगलें झाँकने लगा । “चलो रे सज्जनों । “ इतने में डॉ. वाकणकर की आवाज़ आई “ यह सब अवशेष झोले में रख लो, चलो अब फुलान गाँव चलते हैं ।“

            “गाँव जाकर क्या करेंगे सर ?“ अशोक इतनी ही देर में ऊब गया था । “ अरे चलो तो,  यहाँ गाँव में भी बहुत सुन्दर मूर्तियाँ और देवालय हैं ।“ सर ने कहा । अशोक की ऊब का कारण मैं समझ गया था, उसे  सिगरेट की तलब लगी थी । मैंने धीरे से कहा “तू चल तो ..तेरे लिए वहाँ भी इंतज़ाम है, किसी भी मन्दिर के पिछ्वाड़े जाकर गुरुदेव  और भगवान की  पीठ पीछे यह बुरा काम कर लेना । “ मेरा यह प्लान यह सुनते ही अशोक की ऊब हवा हो गई । सर ने एक बार हमारी ओर देखा, हमें पता था हमारी कानाफूसी में छुपी बात उनकी समझ में नहीं आई है ।

            गाँव में प्रवेश से पहले ही बाहर एक चबूतरे पर हमें गणेश की एक दक्षिणावर्त प्रतिमा के दर्शन हुए । दक्षिणावर्त गणेश प्रतिमा गणेश की एक ऐसी प्रतिमा होती है जिसमें गणेश जी की सूंड दाहिनी ओर घूमी हुई हो । इसके विपरीत वामावर्त प्रतिमा होती है जिसमे गणेश की सूंड बाईं ओर घूमी हुई होती है । “अरे वाह ... “ डॉ.वाकणकर ने प्रतिमा देखते ही कहा “ श्रीगणेश तो अच्छा हुआ है । “ आगे बढ़ते ही हमें एक और चबूतरे पर नन्दी पर आसीन शिव-पार्वती की प्रतिमा, गरुड़ पर आसीन लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा, जटाधारी शिव और भैरव की प्रतिमा भी मिली । हालाँकि उनमें से बहुत सारी प्रतिमाएँ खंडित थीं, किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के सर नहीं थे । सर ने बताया “ध्यान से देखो, यह सब नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी की परमार कालीन शिल्प की प्रतिमायें हैं । “ “मतलब यहाँ परमारों का शासन रहा है ?” अशोक ने पूछा । “ और क्या “ सर ने कहा ...“ उनके बहुत से अभिलेख भी यहाँ मिलते हैं ।“ इतने में पास के ही एक चबूतरे से अजय ने आवाज़ दी “सर मेरी समझ में नहीं आ रहा यह किसकी प्रतिमा है ।“ सर के साथ हम लोग भी वहाँ पहुँचे । अजय एक टूटी-फूटी प्रतिमा के सामने खड़ा हुआ अपना सिर खपा रहा था ।

            “देखो ।“ सर ने समझाते हुए कहा “किसी भी प्रतिमा की पहचान करने के लिए  सर्वप्रथम उसके लक्षण देखना आवश्यक  है, जैसे शिव प्रतिमा के लक्षण हैं मस्तक पर चन्द्र, गले में सर्प, हाथ में त्रिशूल, डमरू इत्यादि । भैरव को भी शिव का रूप माना जाता है लेकिन उनकी प्रतिमा में एक दण्ड उनके हाथ में होता है । उसी तरह विष्णु प्रतिमा में उनके चार हाथ होते हैं  जिनमें शंख,चक्र,गदा और पद्म याने कमल का होना अनिवार्य है । अब इसमें हाथ तो सब टूट गए  हैं लेकिन अन्य लक्षण कमोबेश उपस्थित हैं, जैसे मुकुट है और इस टूटे हुए हाथ की बनावट नीचे की ओर है जिसके नीचे गदा साफ साफ दिखाई दे रही है, मतलब यह विष्णु की प्रतिमा हो सकती है ।"

            “सर अगर यह गदा भी टूट जाती तो हम इसे कैसे पहचानते ? “ अशोक ने प्रतिमा की ओर नज़रें गड़ाये हुए पूछा । “तो हम प्रतिमा में शंख, चक्र या पद्म को ढूंढते । “ सर ने कहा । “ और सर ये शंख,चक्र, पद्म भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर पूछा । “ तो हम आभूषणों से या जैसा मुकुट विष्णु की प्रतिमा में होता है उस मुकुट से या वस्त्रों से प्रतिमा की पहचान करते“ सर ने कहा । “और सर प्रतिमा पर आभूषण और वस्त्र भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर सवाल दागा ।“

            डॉ.वाकणकर हँसने लगे “तुम ये बताओ यार, तुम्हें  पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला या वकील ? अरे कुछ भी नहीं रहता तो फिर पत्थर और प्रतिमा में फर्क ही क्या रह जाता । शिल्पकार की छेनी और हथौड़े से उकेरे प्रतिमा के ये लक्षण ही तो पत्थर को प्रतिमा बनाते हैं, शिल्पकार प्रतिमाशास्त्र का अध्ययन करता है ,उस काल में उपस्थित वस्तुओं को अथवा उनके चित्रों को ध्यान से देखता है, पौराणिक ग्रंथों के विवरण पढ़ता है हर देवी-देवता के अस्त्र-शस्त्र उनके आभूषण ,उनके वाहन और अन्य लक्षणों का अध्ययन करता है उसके बाद वह मूर्तियाँ गढ़ता है । शिल्पकार वह इंसान होता है जो एक निर्जीव पत्थर में जान डालने की कोशिश करता है । फिर लोग उसे भगवान बनाकर उन  मूर्तियों की पूजा करते हैं और विडम्बना यह कि उसे गढ़ने वाले शिल्पी को भूल जाते हैं । शिल्पकार का श्रम किसीको याद नहीं रहता, लोग या तो मूर्ति को याद रखते हैं या पैसा लगाकर उसे बनवाने वाले को ।"

            "लेकिन सर प्रतिमा तो केवल पूजा के लिए होती है शिल्पकार ने प्रतिमा का निर्माण कर दिया बस उसका काम समाप्त ?" अजय ने सवाल किया । सर ने कहा.. "भाई प्रतिमा का अर्थ केवल दैवी प्रतिमा नहीं होता । तुम लोग देख ही रहे हो कि देवताओं के अलावा, उनके गणों ,प्रतिहारी, यक्षों, शालभंजिका, नदियों तथा विभिन्न राजाओं , उनके दरबारियों आदि की प्रतिमाएँ भी बनी हैं । हर प्रतिमा अपने गहन अर्थ में तत्कालीन संस्कृति, समाज में व्याप्त मिथक, उस काल की सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब होती है । उसके लिए प्रयुक्त पत्थर से लेकर उसमे उकेरे गए आभूषणों तक से उस काल की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है ।"

            "सर लेकिन जो प्रतिमाएँ एक जैसी होती हैं उनमे अंतर कैसे करते हैं ?अब उनके नीचे नाम तो लिखा नहीं होता ?" अशोक का सवाल था । "तुम ठीक कह रहे हो।" सर ने कहा  "उदाहरण के लिए नदियों की प्रतिमा ले लो । जब विभिन्न नदियों की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तो यह प्रश्न आया कि उन्हें नाम कैसे दिए जायें सो गंगा को मगर पर और यमुना को कछुए अर्थात कुर्म पर स्थापित किया गया । इस तरह गंगा मकर वाहिनी और यमुना कूर्म वाहिनी कहलाई  । इस तरह उनमे अन्तर किया गया । प्रतिमाओं की इन विविधताओं के बारे में इसलिए भी जानना आवश्यक है कि जब भी तुम म्युज़ियम्स या किसी मंदिर आदि में इन प्रतिमाओं को देखो तब लक्षणों के आधार पर उनमे अन्तर कर सको ।  चलो अब आज का काम खतम ...भूख लग रही है वापस चलें । “

            हम लोगों ने घड़ी देखी, शाम के चार बजने वाले थे और हम लोगों ने लंच भी नहीं लिया था इसलिए  वापस जाना तो ज़रूरी था । लौटते हुए डॉ.वाकणकर आगे आगे चल रहे थे और हम लोग उनसे पर्याप्त अंतर बनाकर उनके पीछे पीछे । राममिलन भैया आज दिन भर चुप रहे थे उन्हें छेड़े बगैर हम लोगों को आनंद नहीं आ रहा था । हम लोगों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे की ओर इशारा किया । अजय ने शुरुआत करते हुए किशोर भैया से कहा .. भैया ,लगता है आज राममिलन भैया देवी देवताओं की प्रतिमायें देखकर खुश नहीं हैं ।" किशोर भैया ने छेड़खानी की इस रिले रेस में बैटन थामते हुए कहा " लगता है राममिलनवा को आज बजरंग बली की मूर्ति देखने को नहीं मिली इसलिए उदास हैं ।" इससे पहले कि हम में से कोई और कुछ कहता राममिलन भैया बोल दिए .." मिली कैसे नहीं .. वो गदा वाली मूर्ति जौने का आप लोग विष्णु जी की बता रहे थे बजरंग बली जी की ही तो थी ।" "

            हम लोग बजरंगी भैया से ऐसे ही किसी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे उनकी बात सुनते ही हम लोगों की हँसी छूट गई "लो सुन लो इनकी " किशोर भैया ने कहा " इन्होंने  तो विष्णु जी का ही डिमोशन कर दिया कहाँ तो वह विष्णु जी की प्रतिमा और हमारे भैया ने उन्हें उनके अवतार का दूत बना दिया ।" "काहे ..?" राममिलन भैया ने कहा " हम कुछ ग़लत कह रहे हैं क्या ? गदा पर सिर्फ बजरंग बली का अधिकार है अब वो जिनके हाथ में होगी वही बजरंग बली ।" हम लोगों की हँसी रुक नहीं रही थी । अशोक ने कहा " बड़े भाई ..सर ने क्लास लेकर इतनी देर तक समझाया कि प्रतिमा का निर्धारण करने के लिए केवल एक लक्षण पर्याप्त नहीं होता उसके लिए उसका समग्रता में आकलन करना होता है । फिर उस प्रतिमा के सारे लक्षण जब उसे विष्णु की प्रतिमा बता रहे हैं तब भी आप जबरदस्ती इस बात पर अड़े हो कि वह बजरंग बली की प्रतिमा है ।"

            गुरुदेव हमारे आगे आगे चल रहे थे । सामान्यतः वे हम छात्रों के हँसी मजाक और हमारी बातों पर ध्यान नहीं देते हैं लेकिन इस बार वे समझ गए कि जनता राममिलन भैया को जबरदस्ती छेड़ रही है सो उन्होंने ठहरकर कहा " भाई, यहाँ प्रतिमा विज्ञान का सवाल नहीं है बल्कि राम मिलन की भावना का सवाल है । अगर वह उस प्रतिमा को हनुमान की प्रतिमा मानता है तो मानने दो । वैसे भी उस काल में हनुमान की प्रतिमा तो दुर्लभ ही थी । और हनुमान भक्तों को मूर्ति की क्या ज़रूरत है श्रद्धा भक्ति के साथ किसी भी पत्थर को तेल और सिंदूर से लेपन कर दो हो गई पवनपुत्र की मूर्ति तैयार ।"

            हम लोग समझ गए कि अब सर भी हम लोगों की रिले रेस में शामिल हो गए हैं । लेकिन इतना कहकर वे फिर तेज़ चलते हुए काफी आगे चले गए । राममिलन भैया ने भी मन ही मन सोच लिया कि इन मूर्खों से बहस करने में कोई फायदा नहीं सो उन्होंने कहा " चला हो जल्दी जल्दी.. हमका जोर से भूख लगी हैं । " भूख शब्द सुनते ही हम सब लोगों की भूख तीव्र हो उठी और कदम तेजी से नरसिंगा की सड़क की ओर बढ़ने लगे ।

            मैंने जनता का ध्यान भूख से हटाने के लिए एक पहेली बुझवाई  “ मान लो आज से हज़ार साल बाद का दृश्य है जब आज के किसी शिल्पी द्वारा बनाई हुई डॉ. वाकणकर की ऐसी ही भग्न प्रतिमा मिलती है और एक जन कहता है  कि 'यह तो विष्णु की प्रतिमा है ।' बताओ वह सच कह रहा है कि झूठ ? किशोर बोला “ वह झूठ बोल रहा है । “ मैंने कहा “ नहीं वह सच बोल रहा  है, जानते नहीं ? डॉ. वाकणकर का पूरा नाम विष्णु श्रीधर वाकणकर है । “ सभी मित्रों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं, सर ने एक बार पीछे पलटकर देखा । उन्हें पता ही नहीं चला कि हम लोग क्या बात कर रहे हैं । नरसिंगा से बस पकड़कर हम लोग दंगवाड़ा तक पहुँचे और वहाँ से पैदल चलकर  अपने शिविर में वापस आ गए ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. शरद जी,
    सादर वन्दे !
    मै सरस्वती नदी के तीर्थों पर शोध कर रहा हूँ, और मेरे शोध के आधार स्तम्भ डॉ श्री विष्णुधर वाकणकर जी है, आपके पोस्ट से विद्वता कि झलक मिली और आपने डॉ श्री विष्णुधर वाकणकर जी का उल्लेख किया है , इसलिए आप से क्या मेरे विषय से सम्बंधित जानकारी मिल सकती है ?
    उत्तर कि प्रतीक्षा में
    रत्नेश त्रिपाठी

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  2. दंगवाड़ा, इंगोरिया,नरसिगा,गौतमपुरा आदि जगहें कहाँ हैं महोदय? एक बात और बताइए कि प्रतिमाओं के सौन्दर्यशास्त्र पर भी पुरातत्त्ववेत्ता लोग कुछ काम करते हैं क्या? पुरानी मूर्तियों का सौन्दर्य आज कल की प्रतिमाओं में क्यों नहीं मिलता?

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