सोमवार, 27 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-छठवां दिन-एक

16 - दो लेग पीस वाले मुर्गी के पूर्वज

          शिविर में आज हमारा छठवाँ दिन था । सुबह काफी सुहावनी थी और स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के दुःख को भुला देने वाली जनता की तरह वह अपना दुःख भुला चुकी थी । धूप भी बादलों की कैद से मुक्त होकर बाहर निकल आई थी । आसमान में बादल छोटे छोटे गुच्छों में बिखरे हुए थे । ऐसा लग रहा था जैसे किसी बच्चे ने मस्ती करते हुए तकिया की सीवन उधेड़ दी हो और उसे आसमान में उछाल दिया हो और बादलों की शक्ल में रुई के गाले हवा में फ़ैल गए हों । नदी किनारे घाट की सीढ़ियों पर धूप देखकर मैंने रवीन्द्र से कहा "इस धूप को देखकर मुझे फिर दुष्यंत याद आ रहे हैं .." धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है ,एक सीढ़ी चढ़ती है और उतरती है "

            रवीन्द्र ने कहा " लेकिन इस ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर है .." मैं तुम्हें छूकर ज़रा सा छेड़ देता हूँ और गीली पाँखुरी से ओस झरती है ।" मैंने कहा " लेकिन इतनी रोतली प्रेमिका होने  से भी क्या फ़ायदा  .. हरदम रोती ही रहेगी । " " लो अब तुम छेड़ोगे तो रोएगी नहीं ? " रवीन्द्र ने कहा । " अरे, तो कुछ कहने का मतलब छेड़ना होता है क्या ? " मैंने प्रतिवाद किया " और जब प्रेम हो ही गया है तो फिर छेड़ेंगे क्यों ?" इतने में अशोक वहाँ पहुँच गया .. "लो कर लो बात .. अभी प्रेमिका हईये नहीं और उस पर बहस चालू ..इसी को कहते हैं सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम लट्ठा ।"

            आज सब मस्ती के मूड में थे इसका कारण यह था कि कल रात नींद बहुत अच्छी आई थी । इसीलिए   सब के चेहरे भी ताज़ा खुदी निखात की तरह चमक रहे थे । वैसे भी कल थकान हम लोगों पर इस कदर हावी थी कि गीले बिस्तर और रज़ाइयों के बावजूद रात में अच्छी नींद आना अवश्यम्भावी था । आज भी सुबह मौसम साफ़ था और इस बात की पूरी पूरी सम्भावना थी कि काम शुरू किया जा सकता था ।

            नहा -धोकर नाश्ता करने के बाद हम लोग जैसे ही साईट पर पहुँचे हमें ज्ञात हुआ कि आज से हम लोगों को एक नई ट्रेंच यानि  ट्रेंच क्रमांक चार पर कार्य प्रारंभ करना है । यह ट्रेंच मुख्य ट्रेंच से दक्षिण की ओर लगभग पचास फीट पर ओपन करनी थी । फिर तो सारा दिन उत्साहपूर्ण वातावरण में बीता । दिन भर में हम लोगों ने कई नई बातें सीखीं जैसे ट्रेंच के लिए उपयुक्त जगह का चयन किस प्रकार किया जाए, किस प्रकार नाप लिया जाए, खूंटियाँ किस प्रकार गाड़ी जाएँ  आदि आदि । हमारी यह नई आयताकार ट्रेंच दस बाइ चार मीटर की है । सर्वप्रथम हमने चारों ओर पच्चीस सेंटीमीटर का मार्जिन छोड़ा तथा लम्बाई में एक एक मीटर के अंतर पर दस पेग लगाये । यहाँ पेग से तात्पर्य गाड़ी गई खूँटियों से है । सारी ट्रेंच का एक साथ निरीक्षण करने हेतु पेग नौ और दस के बीच एक कंट्रोल पिट बनाया ।

            अरे यह बताना तो मैं भूल ही गया ,आज सुबह पेग की इस बात पर हम लोगों ने बहुत आनंद लिया । डॉ.आर्य ने निखात की नाप -जोख के पश्चात जैसे ही हम लोगों से कहा कि " भाइयों नाप -जोख़ तो पूरी हो गई अब आपको पेग लगाना है ।" किशोर हँसने लगा .."सर इन बच्चों को तो पेग का स्वाद भी नहीं मालूम है लेकिन मैं लगा सकता हूँ, हालाँकि दिन में लगाना ठीक नहीं है , रात को देखेंगे  ।" सर हँसने लगे । वे समझ गए थे कि किशोर भैया मस्ती के मूड में हैं । उन्होंने कहा "भाई मैं उस पेग की बात नहीं कर रहा हूँ .. पेग लगाना है मतलब यहाँ खूंटियां गाड़ना है ।" किशोर भैया ने कहा .." क्या सर, पहले तो आपने हमें खुश किया फिर बिलकुल ही निराश कर दिया ।" उसकी इस अदा पर हम लोग जोर से हँस पड़े ।

            आज हमने प्रारम्भिक रूप से पेग क्रमांक एक और दो के बीच दो बाई एक मीटर के क्षेत्र में अपना कार्य प्रारंभ किया । ट्रेंच के प्रथम सतह निरीक्षण में हमें स्वास्तिक चिन्ह युक्त एक सिक्का, एक टेराकोटा ऑब्जेक्ट तथा एक स्टोन बॉल प्राप्त हुआ । ऊपरी सतह से खुदाई प्रारम्भ करते हुए हम इकतीस सेंटीमीटर तक पहुँचे । इन प्रारम्भिक कार्यों को सीखने में  डॉ.आर्य लगातार हमारा मार्ग दर्शन करते रहे ।

            हमें पता ही नहीं चला कि हमारा शाम तक का वक़्त कैसे बीत गया । शाम को कार्य समाप्त करने के बाद हमें यह भी बताया गया कि प्राप्त वस्तुओं को कैसे साफ़ किया जाए और कैसे उन्हें सम्भाल कर रखा जाए । आज उत्खनन करते हुए हम लोगों ने अपने आप को कुछ ख़ास महसूस किया । सदियों से ज़मीन के भीतर दफ्न अवशेष जैसे जैसे बाहर आते जा रहे थे हमें लगा जैसे वे हमसे बातें कर रहे हों और इस क़ैद से छुटकारा दिलवाने के लिए हमारा शुक्रिया अदा कर रहे हों  । मेरे मन में विचार आया ...यह वस्तुएँ तीन - चार हज़ार वर्ष पूर्व ही इस ज़मीन के भीतर दफ़न हो गई थीं । कोई तो ऐसा इंसान होगा जिसने  उस वक़्त इन्हें अंतिम बार देखा होगा । तब उसके मन में ग़लती से भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि इतने सालों बाद उसीके जैसा कोई इंसान इन्हें ढूंढ निकालेगा ।

            मैं सोचने लगा ..कितने लम्बे अँधेरे में बीता होगा उनका यह कारावास , न हवा ,न पानी , चारों ओर फकत अँधेरा ही अँधेरा । बस धरती माँ का सख्त आलिंगन उन्हें दिलासा देता होगा कि कभी न कभी कोई ज़रूर आएगा सिकुड़ते हुए उनके फेफड़ों के लिए ऑक्सीजन लेकर ।  फिर इसी विश्वास में सदियाँ बीतती रहीं  और उनके कान किसी इंसान के कदमों की आहट सुनने के लिए तरसते रहे   । इस बीच चम्बल में जाने कितना पानी बह गया और जलवायु चक्र में बादल बनकर जाने कहाँ कहाँ बरस गया । लेकिन आखिर उनकी प्रतीक्षा पूरी हुई । अंततः एक खोजकर्ता यहाँ आया और उनके भीतर मुक्ति के स्वप्नों को जन्म दे गया  । मैं काफी देर तक ज़मीन से निकले उन अवशेषों को देखता रहा जिन्हें हमने ज़मीन की इस कारा से मुक्त किया था । मुझे अचानक महसूस हुआ कि इन्हें इस तरह देखना विशेष है और यह अजायब घर में रखी किसी प्राचीन वस्तु को देखने से बिलकुल अलग है , यहाँ हम उसे देखने वाले प्रथम व्यक्ति हैं जबकि म्यूज़ियम में जाने कितने लोग देख चुके होते हैं ।

            खुदाई से निकला पकी हुई मिट्टी का चार सेंटीमीटर लम्बा और दो सेंटीमीटर चौड़ा का एक छोटा सा पात्र हाथ में लिए अशोक उसे बहुत देर तक निहारता रहा । वह उसे उल्टा-सीधा करते हुए कई कोणों से सूक्ष्मता पूर्वक देख रहा था । “ क्या देख रहा हो अशोक ?” मैंने अशोक से पूछा । “ वाह कितना सुन्दर पात्र है ।“ अशोक ने कहा । मुझे लगा वह ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की किसी विशेषता पर हम लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला है । लेकिन अशोक ने मेरी आशाओं पर तुषारापात करते हुए अपनी नज़रें उस पर से हटाये बगैर धीरे से कहा “ अपने तम्बू में सिगरेट की राख झाड़ने के लिए ऐश ट्रे नहीं है, यह बढ़िया काम आएगा । फिर उसने धीरे से उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया । मैंने तुरंत चारों ओर अपनी नज़रें घुमाईं और इस बात पर आश्वस्ति महसूस की कि उसे ऐसा करते हुए किसीने नहीं देखा था ।

            तम्बुओं में लौटते हुए अन्धेरा घिर आया था । मौसम खुल गया था और ठंड अचानक बढ़ गई थी । हाथ मुँह धोकर आने के पश्चात किशोर की ओर से प्रस्ताव आया “ क्यों सिटी घूमने चलें ?“ मैंने कहा “नहीं यार, आज वैसे भी दिन भर काम करके बहुत थक गए हैं और दिन भी अब डूब चुका है । कल जल्दी काम खत्म करेंगे और शाम को चलेंगे दंगवाड़ा ।“ वैसे भी आज किसी निखात पर स्वतंत्र रूप से काम करने का अनुभव हमें प्रफुल्लित किये हुए था । ज़मीन के भीतर तो हम मात्र इकतीस सेंटीमीटर ही गए थे लेकिन इसके विलोम में हमारी उमंगें आसमान  छू रही थीं ।

            भोजन ग्रहण करने तक का वक़्त बिताने और भट्टी की आग तापने के उद्देश्य से हमने भाटी जी की भोजन शाला पर धावा बोल दिया और लगे उनका दिमाग खाने । “ क्या भाटीजी ..” अशोक ने छेड़खानी शुरू की “ रोज़ रोज़ वही लौकी, बैंगन, गोभी ..कुछ चिकन विकन का इंतज़ाम नहीं है क्या ?..” "श..श...” भाटी जी ने डाँट लगाई “पंडित वाकणकर जी ने सुन लिया तो तुम्हारा कीमा बना देंगे ।“ अशोक बेचारा मायूस हो गया । भाटीजी ने पुचकारते हुए कहा “ कोई बात नहीं तुम मेरे  एक सवाल का जवाब दे दोगे तो मैं तुम्हें  चिकन खिला दूंगा ।“  अशोक की आंखों में चमक आ गई । भाटी जी ने कहा “यह बतलाओ कि दुनिया में पहले मुर्गी आई या अंडा ? “

            अशोक बोला “बड़ा कठिन सवाल है भाई, हमारे वैज्ञानिक डॉ.शरद ही इस पर रोशनी डाल सकते हैं ।“ मैंने कहा “कोई कठिन सवाल नहीं है । विज्ञान इसका उत्तर ढूंढ चुका है । हम जानते ही हैं हर सजीव का जन्म और विकास कैसे हुआ । सजीवों की उत्पत्ति से पूर्व रसायनों से लबाबब थी यह धरती । समुद्र के जल में मिश्रित रसायनों पर एक्स रेज़, बीटा रेज़, गामा रेज़ आदि के प्रभाव से समुद्र में उपस्थित शैल भित्तियों पर एक कोशिकीय अमीबा जैसे जीवों ने जन्म लिया, फिर धीरे धीरे अन्य बहु कोशिकीय जीव जन्म लेते गए  और उनके आकार भी बदलते गए । आप क्या सोचते हैं .. यह मुर्गी जो हम देखते हैं क्या इसके पूर्वज भी ऐसे ही दो ‘ लेग पीस ‘ वाले रहे होंगे ?

            "लो सुन लो तो क्या चार लेग पीस वाली भी मुर्गी होती थी ?" अशोक ने कहा । "यह बिलकुल संभव है " मैंने कहा "इससे पूर्व इससे मिलते जुलते जीवों ने जाने कितने रूप धारण किये होंगे तब यह मुर्गी सदृश्य जीव बना होगा, फिर धीरे - धीरे इसकी प्रजनन क्षमता विकसित हुई होगी, फिर अंडा-वंडा बनना शुरू हुआ होगा, इसकी भी लम्बी प्रक्रिया रही होगी ।“ “ वो तो सब ठीक है “ अजय ने मेरे  भाषण से ऊबकर कहा “ लेकिन इसे खाना कब शुरू हुआ ?“ मैंने कहा “ सॉरी यार, इस बारे में फिलहाल मेरे पास कोई जानकारी नहीं है । जैसे ही प्राप्त होगी तुम्हें बता दूंगा ।“

            रवीन्द्र इतनी देर तक हम लोगों की बातें सुन रहा था । उससे रहा नहीं गया । उसने कहा” क्या तुम लोग भी खाने के समय गन्दी बातें कर रहे हो ।“ “अच्छा अच्छा चुप हो जाओ भाई“ अशोक बोला “ पंडित भारद्वाज माँसाहार की बात से  नाराज हो गए  हैं ।“  भाटीजी हम लोगों की बातों का मज़ा लेते हुए अब तक अरहर की दाल में हींग, जीरे, लहसुन व लालमिर्च की छौंक लगा चुके थे । पीले बल्ब की रोशनी में ऊपर उठता हुआ धुआँ किसी स्वप्नलोक में मायावी धुन्ध की तरह दिखाई दे रहा था । बाहर भी हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था लेकिन हमारे भीतर की धुंध धीरे धीरे छंटती जा रही थी । भोजनशाला के गर्म वातावरण में गहन होती हुई छौंक की यह गन्ध हमारी भूख के चरमोत्कर्ष में हमारे तंत्रिका तंत्र को शून्य कर रही थी और हमें दुनिया के सबसे स्वादिष्ट भोजन अर्थात घर में माँ के हाथों बने खाने की याद आने लगी थी ।

          खाना खाकर हम लोग बरगद के पेड़ों की बस्ती की ओर टहलने निकल गए  । टीले पर तो आज पूरा दिन बीता था इसलिए उस ओर जाने का मन नहीं हुआ । बरगदों का घना साया और आसमान में बादलों के पीछे से झाँकती धूमिल चांद की शर्मीली रोशनी । शाल ओढ़े होने के बावज़ूद ठंडी हवाओं में बदन काँप रहा था । वैसे भी भोजन के बाद काफी रुधिर अमाशय की ओर पाचन तंत्र के सहायतार्थ दौड़ जाता है इसलिए  ठंड ज्यादा लगती है ।

            वातावरण बड़ा रोमांटिक लग रहा था, मेरे मुँह से फिल्म ‘ तेरे घर के सामने ‘ में देवानंद पर फिल्माया और रफ़ी साहब का गाया हुआ मेरा प्रिय गीत फूट पड़ा.. “तू कहाँ है बता इस नशीली रात में, माने ना मेरा दिल दिवाना..। रवीन्द्र ने छेड़ दिया “ लगता है तुझे गाँव की वो मज़दूर लड़की भा गई है ।“ मैंने रवीन्द्र की ओर घूरकर देखा तो वो बोला “ और क्या, आज वो तेरे से कितने प्यार से पूछ रही थी ..बाबूजी हाँटा खाओगे ? “ मैंने कहा “देख यार प्यार मोहब्बत करने का यहाँ वक़्त नहीं है, हाँटा साँटा या गन्ना खाने के चक्कर में रहेंगे तो हाँटा की बजाय डॉ.वाकणकर का चाँटा मिलेगा और आर्कियालॉजी के प्रेक्टिकल में फेल हो जाएँगे सो अलग ।“

            “ठीक है भाई, “ रवीन्द्र ने कहा “थारी जैसी मर्ज़ी, लेकिन कुछ भी कहो यार छोरी है बहुत अच्छी । और काम भी कितनी फुर्ती से करती है ।“ मैं कुछ कहता इससे पहले हमारी भाभी के भैया अजय ने हमारे रोमांटिक मूड पर पानी फेरते हुए सवाल दागा “ यार ये बताओ, ये मालवी और ईरानी भाषा का क्या सम्बन्ध हो सकता है ? “ हमने चौंक कर उसकी ओर देखा , गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल इस वार्तालाप में कैक्टस सा यह सवाल कैसे आ गया । अजय ने स्पष्ट किया “ तुम कह रहे थे ना उस लड़की ने साँटा को मालवी में हाँटा कहा, ईरानी भाषा में भी स को ह कहते हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा “थारो प्रश्न म्हारी हमज में आ गियो यानी तेरा सवाल मेरी समझ में आ गया ।”

            मैंने कहा “ भाई मैं न तो मालवा का रहने वाला हूँ न ईरान का लेकिन इतना मुझे पता है कि हम हिन्दू हिन्दू कहकर जो अपने आप पर गर्व करते हैं यह हिन्दू शब्द पश्चिमोत्तर से आया है । वहाँ के लोग सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोगों को सिन्धू कहते थे और ज़ाहिर है स को ह कहने के कारण हम हिन्दू कहलाए । “और फिर हम हिन्दू अपनी भाषा, अपने धर्म अपने राष्ट्र पर गर्व करने लगे और विधर्मियों को अपने से नीचा बताकर उनका अपमान  करने लगे “ अजय ने बात की निरंतरता ज़ारी रखी ।

            “चुप “ मैंने उसे डाँटा “ ज़्यादा बकबक मत कर वरना अभी डॉ. वाकणकर से हिन्दुत्व पर लेक्चर सुनने को मिल जाएगा ।“ “ नहीं नहीं, सर ऐसे कट्टर नहीं हैं ।“ रवीन्द्र ने तुरंत प्रतिवाद किया ।“ वैसे भी जो असली पुरातत्ववेत्ता होता है वह न हिन्दू होता है न मुसलमान ना सिख ना ईसाई .. वह सबसे पहले पुरातत्ववेत्ता होता है । सच के मार्ग पर चलने वाला । वह किसी भी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम नहीं करता । जो धर्म विशेष का पक्ष लेता है और सत्य को छुपाता है उसे पुरातत्ववेत्ता कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।“


Trench no 4 10 metersx4meters
PEGX PEG IX PEG VIII PEGVII PEG VI PEG IV PEG III PEG II PEG I PEG 0
CONTROL
PIT




















































चित्र गूगल से साभार रेखांकन-शरद कोकास

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पाँचवा दिन- तीन



खाना खाकर जब हम लोग अपने तम्बू में पहुँचे तो पता चला कि बिस्तर अभी तक नम हैं । हालाँकि फुलान जाने से पहले हम उन्हें  डंडा-वंडा लगाकर टांग गए थे ताकि रात में सोने तक वे सूख जाएँ  । “ चलो कोई बात नहीं शरीर की गर्मी से सूख जाएँगे। ” मैंने कहा । लेकिन बिस्तर में घुसने पर पता चला कि नमी के अलावा यहाँ ठंड का भी सामना करना है । गनीमत की थकान हम पर हावी थी और ठण्ड मेहनत से थके हुए शरीर को नींद में जाने से रोक नहीं सकती थी ।

            सोने से पहले एक बार दिन भर की गतिविधियों की चर्चा भी ज़रूरी थी सो हमने आज प्राप्त प्रतिमाओं से अपनी बात शुरू की । “क्यों यार कुषाण पीरियड से पहले अपने यहाँ मूर्तिशिल्प का कोई कंसेप्ट नहीं था क्या ? “ अजय ने पूछा । रवीन्द्र ने बताया “ था तो लेकिन उसका कोई संगठित रूप नहीं था, वह अपने अनगढ़ रूप में ही था, अगर ऐसा होता तो बुद्ध के जीवन काल में ही उनकी मूर्तियाँ बन जाती, वह तो बुद्ध के दो-तीन सौ साल बाद पश्चिमोत्तर से कलाकार आए और उन्होंने  जनश्रुतियों के आधार पर मूर्तियाँ गढ़ीं ।“

            “श्रुति के आधार पर मतलब? ” अजय ने पूछा । “मतलब उन्होंने बुद्ध को देखा तो नहीं था सो लोगों से पूछा, बुद्ध कैसे दिखते थे, तो लोगों ने भी अपने पूर्वजों से सुनी हुई बातों के आधार पर बताया कि बुद्ध का शरीर विशाल था , उनका रूप भव्य था, और ऐसा लगता था जैसे उनके पीछे कोई प्रभामंडल हो । बस वैसी ही मूर्तियाँ शिल्पकारों ने गढ़ीं जबकी वास्तव में बुद्ध तो तपस्या के कारण कृशकाय हो गए  थे । हालाँकि बाद में वैसी मूर्तियाँ भी बनीं जिनमे तपस्या के बाद बुद्ध की पसलियाँ भी दिखाई देती थीं ।“ रवीन्द्र ने कहा ।

            "भाई हमारे देश में तो लोगों को पूजा से मतलब है, प्रतिमा का सौन्दर्य कौन गंभीरता से देखता है । सारे देवी -देवता केवल आस्था के कारण पूजे जाते हैं, न कि अन्य कारणों से, वह तो हम लोग हैं प्रतिमा विज्ञान के छात्र और थोड़ी बहुत कला की सेन्स हमें है सो हम मूर्ति की सुन्दरता भी देखते हैं । “ मैंने कहा । अजय ने कहा .."प्रतिमा के लक्षणों को और उसकी सुन्दरता को आस्तिक लोगों से ज़्यादा नास्तिक लोग देखते हैं । " मैंने कहा “ यहाँ आस्तिक- नास्तिक जैसी कोई बात नहीं है भाई..लोगों की आस्था है चाहे जिसे पूजें, पर लानत है हम प्रतिमा विज्ञान पढ़ने वाले छात्रों पर जो प्रतिमा के शिल्प सम्बन्धी यह ज्ञान लोगों तक पहुँचा नहीं सकें ।"

            रवीन्द्र ने कहा "अब जनता को ही मूर्तियों के लक्षण जानने में रूचि नहीं है तो हम क्या करें ? " " खैर ऐसा भी नहीं है, लेकिन इस देश की जनता के सौन्दर्यबोध के बारे में क्या  कहें .." मैंने रवीन्द्र के दर्द पर मरहम लगाते हुए कहा "  आस्था का यह आलम है कि लोग पत्थर पर सिन्दूर पोतकर भी उसे हनुमान जी बना देते हैं ।“ “ और फिर यही लोग इस बहाने सरकारी जमीन पर बेजा कब्जा कर लेते हैं । “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट दिया और तानकर सो गया । हम लोगों ने भी अपने रज़ाई कम्बल ताने और ‘बजरंग बली की जय' कहकर उनके भीतर घुस गए   

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पाँचवा दिन- दो


15 - यक्षी का फोटुआ हमें भी दिखाओ भाई

           फुलान से लौटकर शिविर में पहुँचते पहुँचते शाम अपनी वृद्धावस्था तक पहुँच चुकी थी । हवाओं में नमी अभी भी बाक़ी थी । सूरज ने कोशिश तो बहुत की थी दिनभर कि हवाओं का दिल बहला ले और उन्हें अपने अतीत की याद न आये लेकिन वह नाकाम ही रहा । हवाओं की ऑंखें भले नम थीं लेकिन आसमान के आँसू थम चुके थे और रोने के बाद धुले धुले से दिखाई देने वाले चेहरे ही तरह उसका चेहरा भी साफ़ दिखाई दे रहा था । फुलान की मिटटी हमारे जूतों के साथ उसी तरह चली आई थी जैसे कोई बच्चा अपने पिता के मना करने के बावज़ूद उसके पीछे पीछे चला आता है । हमने जूते उतारकर उस मिटटी को तम्बू के बाहर ही झाड़ा और लकड़ी से खुरच खुरचकर अतीत के दुखों की तरह उसे पूरी तरह हटा दिया । फिर कपड़े बदलकर पांवों में चप्पलें अटकाकर चम्बल की ओर चले गए । मौसम कितना भी ठंडा हो लेकिन ठंडे पानी का स्पर्श देह में रक्त संचार को तीव्र कर देता है सो हाथ मुँह धोकर कुछ उर्जा का संचार हुआ ।

            दिनभर से कुछ खाया नहीं था । भूख बार बार क्लास के होशियार जिज्ञासु बच्चे की तरह हाथ खड़े कर रही थी । उसका समाधान करना हमारा कर्तव्य था । लेकिन यह गोधूली बेला थी और शहरी सभ्यता के अनुसार न यह लंच का समय था ना डिनर का । हमारे भोजन मंत्री भाटीजी को भी पता था कि हम लोग देर से लौटेंगे सो हमारे लिए रोटियाँ भी नहीं बनी थीं, अतः बासी या बचा हुआ खाने का भी कुछ जुगाड़ नहीं था । दुष्यंत का यह शेर कि "हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत , तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं ' हमारे किसी काम का नहीं था ।

            लेकिन भूख का इलाज तो करना ही था । हमने भाटीजी को मस्का मारा तो उन्होंने  हमारे लिए गरमा गरम पोहा बना दिया जिसे हमने बतौर “लनर” ग्रहण कर लिया । वैसे उन्होंने सुबह भी हमें हैवी ब्रेकफास्ट करा दिया था । लंच और डिनर के बीच के भोजन को हम लोगों ने यह नया शब्द 'लनर' दिया था वैसे ही ब्रेकफास्ट और लंच के बीच के भोजन को हम लोग ’ब्रंच‘ और डिनर व सुबह के ब्रेकफास्ट के बीच रात में भूख लगने पर खाये जाने वाले भोजन को हम लोग ’डिफास्ट‘ कहते थे ।

            लनर के बाद डिनर तक हम लोगों के पास पर्याप्त समय था । कल की बारिश और आज दिन भर फुलान एक्सप्लोरेशन में व्यस्त रहने की वज़ह से आज टीले पर जाना नहीं हुआ था और पिंजरे में कैद तोते में बसे राक्षस के प्राण की तरह हमारे प्राण भी वहीं अटके थे सो हमने सोचा चलो एक चक्कर लगा लिया जाए ताकि लनर भी हजम हो जाए  और रात्रि के  “ओम सहना ववतु” तक कड़ाके की भूख लग आए  । बारिश रूक गई थी और आसमान साफ हो चला था इसलिए  ठंड भी काफी बढ़ गई थी ।

            यद्यपि टीले की मिटटी थोड़ी थोड़ी गीली थी लेकिन अँधेरे में जैसे किसी के गाल पर बहते आँसू नज़र नहीं आते हमें भी उसका गीलापन ठीक से नज़र नहीं आ रहा था सो हमने अपने हिसाब से एक सूखा जैसा दिखने वाला हिस्सा खोजा और उस पर बैठ गए । बातों का सिलसिला कुछ शुरू नहीं हो रहा था.. लग रहा था जैसे हम किसी मातमपुर्सी में आये हों । हमेशा बकबक करने वाला अजय भी सर झुकाए गुमसुम सा बैठा था । रवीन्द्र ने कुरेदा तो बोला “ क्या करूँ यार भाभी की याद आ रही है ।“ रवीन्द्र ने एक कहकहा लगाया .."थारी भाभी की म्हारी भाभी ?" हम लोगों की देखा-देखी वह भी अपनी पत्नी के लिए 'तुम्हारी' प्रत्यय के बगैर सिर्फ 'भाभी' शब्द का इस्तेमाल करने लगा था । इसीलिए रवीन्द्र कभी कभी उसे मज़ाक में “भाभी का भैया “ कह देता था । थकान कुछ इस तरह हम पर हावी थी कि इस हँसी के बाद भी बातों का सिलसिला शुरू नहीं हुआ ।

            इतने में डॉ. सुरेन्द्र कुमार आर्य भी टहलते हुए हम लोगों के पीछे पीछे टीले तक आ गए  । हम लोगों को चुपचाप बैठा देख “शोले” के हंगल साहब की तरह उन्होंने  पूछा “इतनी खामोशी क्यों है भाई ?” हमने सर झुकाए झुकाए कहा “कुछ नहीं सर, आज थक गए है । “ “क्या मिला फुलान के टीले पर ?” उन्होंने  अगला सवाल किया । "अधिक कुछ नहीं सर .." रवीन्द्र ने कहा " दो घंटे के एक्स्प्लोरेशन में सिर्फ दो टेराकोटा बुल मिले, स्वास्तिक चिन्ह वाले कुछ सिक्के, कुछ आहत सिक्के, मिट्टी के दो बाँट,तथा कुषाण कालीन मिट्टी के दो मृद्भांड बस । हाँ उसके बाद फुलान में प्रतिमायें बहुत अच्छी देखने को मिलीं ।"

            सर ने कहा " हम भी कल भाटीजी के साथ फुलान गए थे और वहाँ से चौवन सिक्के, कुछ मणि और यक्ष की मृण्मूर्ति का एक साँचा लेकर आए थे ।" " लो हम अपने आप को ही तीसमारखां समझ रहे थे, और आप तो हमसे भी ज़्यादा अवशेष बटोर लाये । " रवीन्द्र ने आर्य सर से प्रशंसा के अंदाज़ में जैसे ही यह कहा, वे बोले " भाई उससे क्या होता है , यह तो संयोग की बात है सतह पर निरीक्षण करते हुए किसी को कम वस्तुएँ मिलती हैं किसी को अधिक मिल जाती हैं । लेकिन पुरातात्विक वस्तुओं और साइट्स की खोज में श्रेय सिर्फ उसी को मिलता है जो पहली बार उस साईट की या अवशेष की खोज करता है और उसे दर्ज करवाता है , उसके बाद जाने वाला हर पुरातत्ववेत्ता केवल उसका अनुगामी ही होता है फिर वह कितनी भी खोज कर ले । " 

            मैंने सर से कहा " हाँ सर, हम भी बचपन से पढ़ रहे हैं कोलम्बस डिस्कवर्ड अमेरिका जबकि अमेरिका में तो पहले से लोग रह रहे थे फिर कोलम्बस को उसे खोजने का श्रेय क्यों दिया जाता है ?" आर्य सर ने जवाब दिया "पृथ्वी के हर भूभाग में किसी भी साईट पर लोग पहले से निवास करते रहे हैं जिनका बाक़ी दुनिया को पता नहीं होता लेकिन बरसों बाद उनकी बस्ती को दोबारा खोजने पर उसका श्रेय तो खोजकर्ता को ही मिलेगा ना । अमेरिका  की खोज यूरोप की उस सभ्यता द्वारा की गई जो उससे ज्यादा सभ्य  थी इसलिए श्रेय उन्होंने ले लिया, और चौदह सौ अन्ठ्यानबे में कोलम्बस की खोज के बाद ही एक इटालियन एक्स्प्लोरर अमेरिगो के नाम पर उसका नाम अमेरिका रखा गया ।

            अब अजय की बारी थी " सर ऐसे ही कहते हैं कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की ? भारत तो कितना प्राचीन देश है । " बिलकुल " आर्य सर ने कहा " ऐसा इसलिए कहा जाता है कि वास्को द गामा ने अटलान्टिक महासागर के मार्ग से योरोप से भारत तक पहुँचने के मार्ग की खोज पहली बार की थी ।" " लेकिन सर इसका श्रेय उसे क्यों दिया जाना चाहिए ?" " भाई ऐसा नहीं है " सर ने कहा " यह केवल नए मार्ग की खोज है ।" लेकिन सर .." अजय ने कहा " हमारी सरकार को फिर यह बात योरोप के रिकार्ड में दर्ज करवानी थी कि उसने भारत की खोज नहीं की बल्कि भारत तक आने के मार्ग की खोज की आख़िर भारत पहुँचने वाला वह पहला विदेशी तो नहीं था । हमारी प्राचीन संस्कृति के संरक्षण और तथ्यगत जानकारी को ठीक करने के लिए इस सरकार ने क्या किया ? "

            बात कुछ कुछ राजनीतिक हो रही थी सो अशोक ने विषय परिवर्तन करते हुए आर्य सर से पूछा “सर कोलम्बस और वास्को द गामा के एक्सप्लोरेशन को मारिये गोली , अपने एक्सप्लोरेशन की बात करें । आज हमने फुलान में यक्ष प्रतिमाएँ भी देखीं लेकिन देखा कि उनकी पूजा नहीं होती है ,ऐसा क्यों है सर ? डॉ.आर्य मुस्कुराए “ भाई, जैसे जैसे हमारे यहाँ देवी- देवताओं की रचना होती गई और उनकी संख्या बढ़ती गई ,उनके काम और महत्ता के आधार पर उनकी स्थिति का निर्धारण हुआ । समय समय पर किन्ही देवताओं ने उच्च स्थान प्राप्त किया और किन्ही देवताओं को निम्न स्थान पर ही संतोष करना पड़ा । फिर उन्हीं में से कुछ को पूर्ण देव और कुछ को अर्ध देव की श्रेणि में विभाजित कर दिया गया ,यक्ष यक्षी, कुबेर आदि अर्धदेव बन गए  और उन्हें  पूजा के अधिकार से वंचित कर दिया गया ।“

            “मतलब देवताओं में भी मनुष्यों की तरह वर्ग विभाजन ? “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट दिया । मैंने कहा “ यार जब मनुष्य ने ही देवता बनाये हैं तो वह अपने सारे गुण दोष भी उन पर आरोपित करेगा ना और अपने जैसी व्यवस्था भी उनके लिए बनायेगा । सो कुछ देवी -देवता उच्च हो गये, कुछ निम्न हो गए । इसीलिए आदिवासी समाज के देवता जो उनके टोटेम हैं, अन्य देवी देवताओं से अलग होते हैं । विश्व की सभी सभ्यताओं में उनके अपने अपने देवी- देवता हैं ।

            रवीन्द्र ने मेरी ओर घूर कर देखा और कहा “तू चुप रह यार, तैने तो अपने लिए  बढ़िया बढ़िया यक्षी चुन ली है, रात दिन उनकी फोटुएं देखता रहता है ।“ डॉ.आर्य ने कहा “अच्छा शरद की  थीसिस की बात हो रही है क्या विषय है...हाँ ....”कुषाण शिल्प में नारी प्रतिमाएँ ।” “हाँ सर” रवीन्द्र मुझे छेड़ने के मूड में था “ ये कि नई सर, मथुरा म्यूज़ियम से निर्वस्त्र यक्षी प्रतिमाओं की फोटो लेकर आया है, शोध-प्रबन्ध में लगाने के लिए, इसकी थीसिस पर तो ऑनली फॉर एडल्ट्स लिख देना चाहिये ।“ सर हँसने लगे “ ये शरद तो लेकिन अठारह का हो गया है ना ?” “क्या पता सर “ रवीन्द्र ने कहा “ मैं तो इसे मुन्ना ही कहता हूँ ।“

            हँसी के इस आयोजन के उपरान्त डॉ.आर्य ने एक शिक्षक की तरह मुझसे सवाल किया  “अच्छा शरद बताओ तुमने इन यक्षी प्रतिमाओं में क्या विशेषता देखी ?” मैंने कहा “ सर, उत्खनन में पहली दूसरी शताब्दी की ऐसी अनेक यक्षी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । ये यक्षियाँ स्तम्भों के बाहरी भाग पर उत्कीर्ण है और त्रिभंग मुद्रा में हैं । यह यक्षियाँ आम्र,साल या अशोक वृक्ष की शाखाओं को पकडे हुए हुए हैं । उत्कीर्ण होने की वज़ह से यह अपूर्ण दिखाई देती हैं लेकिन शिल्पी ने इनकी माँसलता और उभारों को इस तरह उकेरा है कि ये पूर्णता का आभास देती हैं । यद्यपि ये पूर्णतया नग्न हैं लेकिन घुटने तक जाती एक महीन सी रेखा से ऐसा लगता है जैसे वे कोई पारदर्शी वस्त्र पहने हैं। इन्हें देखने से यह कामोद्दीपक अवस्था में प्रतीत होती हैं ।“ “ यही तो है कुषाण काल के शिल्प की विशेषता ।“ डॉ.आर्य ने कहा । इतने में भैया राम मिलन का ध्यान हमारी बातों की ओर चला गया  बोले “ए सरदवा, ये यक्षी-फक्षी का फोटुआ हमें भी दिखाओ भई ।“ हम समझ गए अब कोई गम्भीर बात होने से रही सो हमने शिविर की ओर लौटना बेहतर समझा ।

            खाना खाकर जब हम लोग अपने तम्बू में पहुँचे तो पता चला कि बिस्तर अभी तक नम हैं । हालाँकि फुलान जाने से पहले हम उन्हें  डंडा-वंडा लगाकर टांग गए थे ताकि रात में सोने तक वे सूख जाएँ  । “ चलो कोई बात नहीं शरीर की गर्मी से सूख जाएँगे। ” मैंने कहा । लेकिन बिस्तर में घुसने पर पता चला कि नमी के अलावा यहाँ ठंड का भी सामना करना है । गनीमत की थकान हम पर हावी थी और ठण्ड मेहनत से थके हुए शरीर को नींद में जाने से रोक नहीं सकती थी ।

            सोने से पहले एक बार दिन भर की गतिविधियों की चर्चा भी ज़रूरी थी सो हमने आज प्राप्त प्रतिमाओं से अपनी बात शुरू की । “क्यों यार कुषाण पीरियड से पहले अपने यहाँ मूर्तिशिल्प का कोई कंसेप्ट नहीं था क्या ? “ अजय ने पूछा । रवीन्द्र ने बताया “ था तो लेकिन उसका कोई संगठित रूप नहीं था, वह अपने अनगढ़ रूप में ही था, अगर ऐसा होता तो बुद्ध के जीवन काल में ही उनकी मूर्तियाँ बन जाती, वह तो बुद्ध के दो-तीन सौ साल बाद पश्चिमोत्तर से कलाकार आए और उन्होंने  जनश्रुतियों के आधार पर मूर्तियाँ गढ़ीं ।“

            “श्रुति के आधार पर मतलब? ” अजय ने पूछा । “मतलब उन्होंने बुद्ध को देखा तो नहीं था सो लोगों से पूछा, बुद्ध कैसे दिखते थे, तो लोगों ने भी अपने पूर्वजों से सुनी हुई बातों के आधार पर बताया कि बुद्ध का शरीर विशाल था , उनका रूप भव्य था, और ऐसा लगता था जैसे उनके पीछे कोई प्रभामंडल हो । बस वैसी ही मूर्तियाँ शिल्पकारों ने गढ़ीं जबकी वास्तव में बुद्ध तो तपस्या के कारण कृशकाय हो गए  थे । हालाँकि बाद में वैसी मूर्तियाँ भी बनीं जिनमे तपस्या के बाद बुद्ध की पसलियाँ भी दिखाई देती थीं ।“ रवीन्द्र ने कहा ।

            "भाई हमारे देश में तो लोगों को पूजा से मतलब है, प्रतिमा का सौन्दर्य कौन गंभीरता से देखता है । सारे देवी -देवता केवल आस्था के कारण पूजे जाते हैं, न कि अन्य कारणों से, वह तो हम लोग हैं प्रतिमा विज्ञान के छात्र और थोड़ी बहुत कला की सेन्स हमें है सो हम मूर्ति की सुन्दरता भी देखते हैं । “ मैंने कहा । अजय ने कहा .."प्रतिमा के लक्षणों को और उसकी सुन्दरता को आस्तिक लोगों से ज़्यादा नास्तिक लोग देखते हैं । " मैंने कहा “ यहाँ आस्तिक- नास्तिक जैसी कोई बात नहीं है भाई..लोगों की आस्था है चाहे जिसे पूजें, पर लानत है हम प्रतिमा विज्ञान पढ़ने वाले छात्रों पर जो प्रतिमा के शिल्प सम्बन्धी यह ज्ञान लोगों तक पहुँचा नहीं सकें ।"


            रवीन्द्र ने कहा "अब जनता को ही मूर्तियों के लक्षण जानने में रूचि नहीं है तो हम क्या करें ? " " खैर ऐसा भी नहीं है, लेकिन इस देश की जनता के सौन्दर्यबोध के बारे में क्या  कहें .." मैंने रवीन्द्र के दर्द पर मरहम लगाते हुए कहा "  आस्था का यह आलम है कि लोग पत्थर पर सिन्दूर पोतकर भी उसे हनुमान जी बना देते हैं ।“ “ और फिर यही लोग इस बहाने सरकारी जमीन पर बेजा कब्जा कर लेते हैं । “ अशोक ने अपना एक्सपर्ट कमेंट दिया और तानकर सो गया । हम लोगों ने भी अपने रज़ाई कम्बल ताने और ‘बजरंग बली की जय' कहकर उनके भीतर घुस गए   ।
शरद कोकास
शरद कोकास

बुधवार, 15 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पाँचवा दिन- एक


14 - पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला

            मैं और रवीन्द्र चम्बल के घाट से लौट कर आए  तो देखा डॉ.वाकणकर, किशोर, अशोक, राममिलन और अजय एक्सप्लोरेशन हेतु फुलान जाने के लिए तैयार खड़े थे । भाटीजी ने बरसात के बावज़ूद अपना बिखरा हुआ किचन संभाल लिया था । जिस तरह एक पुरातत्ववेत्ता बारिश में प्राचीन अवशेषों को बचाता है उसी तरह उन्होंने टपकती हुई छत के नीचे रखे नमक ,मिर्ची ,धनिया के डिब्बों, आटे,चावल की बोरी और सब्जियों को बचा लिया था और मौसम को ठेंगा दिखाते हुए हम लोगों के लिए गर्मागर्म पोहा तैयार कर दिया था । हम दोनों ने जल्दी जल्दी नाश्ता किया और उनके साथ चल पड़े । हमें भयभीत करने की मंशा से आकाश में बादल ज़रूर उपस्थित थे लेकिन बारिश को हम पर दया आ गई थी । वैसे भी फरवरी की यह बारिश बिन मौसम ही थी सो इसे तो थमना ही था । हम लोग पैदल पैदल दंगवाड़ा के लिए  रवाना हो गए । 

            भीगे हुए दरख़्त,रास्तों के गड्ढों में जमा पानी और पेड़ों पर भीगे पंख लिए ठण्ड में ठिठुरते पक्षी इस बात की गवाही दे रहे थे कि रात में बारिश काफी तेज़ हुई है । नाले में पानी बढ़ जाने की संभावना को देखते हुए सर हमें दूसरे  रास्ते से ले गए  । इस रास्ते के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी । हमने सर से कहा " सर यह तो दंगवाड़ा जाने का बिलकुल नया रास्ता है, इसके बारे में तो हमें पता ही नहीं था ।" सर ने जवाब दिया .."भाई, पुरातत्ववेत्ता एक खोजी की तरह होता है, उसे हमेशा नए रास्तों की जानकारी होना चाहिए, जब वह ज़मीन के भीतर रास्ते खोज सकता है तो ज़मीन पर भी रास्ते खोज सकता है, और रास्ते ही नहीं लुप्त हो चुकी नदियाँ और ज़मीन के नीचे दबे हुए पहाड़ भी खोज सकता है । "

            गाँव के बाहरी छोर पर एक सड़क थी जो अनेक गांवों को जोड़ती थी । हम लोग उसी सड़क के किनारे खड़े रहकर बस की राह देखने लगे । हल्की हल्की बूंदा-बांदी फिर शुरू हो गई थी जिससे बचने के लिए हम लोग कोई शेड तलाशने लगे । अशोक ने आसपास नज़र दौड़ाई और कहा " अरे यहाँ कोई बस स्टॉप नहीं है " मैंने कहा " भाई आजकल तो शहरों में ही बस स्टॉप बहुत कम हुआ करते हैं फिर गांवों में होना तो बहुत मुश्किल है । खैर हम लोग अपनी हथेलियों को सर पर रखकर भीगने से बचने की व्यर्थ कोशिश करते रहे ।

            हमें अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । थोड़ी देर में बस आ गई । बस सवारियों से ठसाठस भरी थी रोजी-रोटी की कशमकश और ख़राब मौसम के बीच जंग में इंसान की ज़रूरतें हावी थीं ।  इस भीड़ में भी हम शहरी लोगों ने अपना रौब दिखाकर बैठने लायक जगह हासिल कर ली । हमें इस बस से नरसिंगा तक जाना था जो  दंगवाड़ा से मात्र सात किलोमीटर दूरी पर इंगोरिया - गौतमपुरा मार्ग पर स्थित है । हमारा गंतव्य फुलान का टीला वहाँ से पूर्व में लगभग एक किलोमीटर दूरी पर था और वहाँ तक हमें पैदल ही जाना था । बस से उतरने के बाद हम लोग गपियाते हुए ,मस्ती करते हुए कुछ ही देर में टीले पर  पहुँच गए ।

            सर हमें लेकर टीले के बीचो बीच पहुँच गए । हम एक घेरा बनाकर उनके निकट खड़े हो गए । " चलो सज्जनों, शुरू हो जाओ । आज हमें इस टीले पर एक्सप्लोरेशन करना है । यहाँ भी सतह पर प्राचीन सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं, ढूँढो, देखें तुम लोगों को क्या क्या मिलता है  ।"  डॉ.वाकणकर ने आदेश दिया । हम लोग किसी खोई हुई वस्तु को ढूँढने की मुद्रा में झुक झुक कर टीले पर अवशेष ढूँढने लगे । एक दिन पूर्व निकट के टीले पर एक्सप्लोरेशन का अनुभव हमारे पास था ही और सर भी हमारा साथ दे रहे थे । अचानक अजय की आवाज़ आई .." सर बैल, सर बैल " देखा तो अजय के हाथ में मिटटी का एक टेराकोटा बैल था जो कल की बारिश की वज़ह से कुछ भीगा हुआ सा था । रवीन्द्र ने घूरकर अजय की ओर देखा.."सर बैल ?" । इतने में सर हमारे क़रीब आ गए थे । उन्होंने बैल की प्रतिमा को हाथ में लेकर उसे उलट पलट कर देखा और कहा .."शाब्बास यह पकी हुई मिटटी का टेराकोटा बैल है, जैसा कि उस दिन ट्रेंच से मिला था ..और ढूँढो । "

            अजय ने तो एक बैल खोज लिया था लेकिन हम लोगों के हाथ अभी तक कुछ नहीं लगा था और हम लोग निराश हो रहे थे । "ऐसा लगता है यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ।" मैंने ठण्डी साँस भरते हुए कहा । सर के कानों तक मेरी निराशा की फुसफुसाहट पहुँच चुकी थी "देखो भाई.." उन्होंने कहा  "यह मनोविज्ञान का नियम है, यदि आपने सोच लिया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा तो सामने पड़ी हुई वस्तु भी आपको नहीं दिखाई देगी । घर में भी ऐसा ही नहीं होता क्या, हम किसी चीज़ को किसी निश्चित जगह पर ढूँढते हैं और सोच लेते हैं कि वह वहाँ हो ही नहीं सकती, जबकि वह वस्तु उसी स्थान पर रखी हुई होती है । हम बार बार वहाँ खोजते हैं लेकिन वह वस्तु हमें वहाँ नहीं मिलती । सो पहले किसी वस्तु की इमेज मन में बनाओ और फिर उसे ढूँढना प्रारंभ करो ।"

            सर की बात सुनकर हम लोगों ने दुगुने उत्साह से वस्तुओं को ढूँढना प्रारंभ कर दिया और आश्चर्य यह कि हमें उन्हीं स्थानों पर वे वस्तुएँ मिलने लगीं जहाँ से होकर हम पहले एक बार जा चुके थे । इस तरह फुलान के उस टीले पर दो घंटे के एक्स्प्लोरेशन में हमें दो टेराकोटा बुल, स्वास्तिक चिन्हों से युक्त कुछ सिक्के , आहत सिक्के, मिट्टी के बाँट,तथा कुषाण कालीन मिट्टी के मृद्भांड जैसी महत्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हुईं ।

            सब लोग तन्मयता से टीले पर बिखरे पड़े अवशेष ढूँढने में लगे थे कि अचानक अजय ने सवाल किया “ यार, ये मृद्भांड मिट्टी के ही क्यों होते हैं, ताम्बे के या सोने चांदी के क्यों नहीं होते ? “ रवीन्द्र ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा “ अरे बेवकूफ, मृद्भांड हैं तो मिट्टी के ही होंगे ना, मृदा का अर्थ ही मिट्टी होता है, तेरे से इसलिए  कहा था कि सुबह सुबह नहा लिया कर, नहाने की गोली खाने से ऐसा ही होता है । “ अजय बेचारा बगलें झाँकने लगा । “चलो रे सज्जनों । “ इतने में डॉ. वाकणकर की आवाज़ आई “ यह सब अवशेष झोले में रख लो, चलो अब फुलान गाँव चलते हैं ।“

            “गाँव जाकर क्या करेंगे सर ?“ अशोक इतनी ही देर में ऊब गया था । “ अरे चलो तो,  यहाँ गाँव में भी बहुत सुन्दर मूर्तियाँ और देवालय हैं ।“ सर ने कहा । अशोक की ऊब का कारण मैं समझ गया था, उसे  सिगरेट की तलब लगी थी । मैंने धीरे से कहा “तू चल तो ..तेरे लिए वहाँ भी इंतज़ाम है, किसी भी मन्दिर के पिछ्वाड़े जाकर गुरुदेव  और भगवान की  पीठ पीछे यह बुरा काम कर लेना । “ मेरा यह प्लान यह सुनते ही अशोक की ऊब हवा हो गई । सर ने एक बार हमारी ओर देखा, हमें पता था हमारी कानाफूसी में छुपी बात उनकी समझ में नहीं आई है ।

            गाँव में प्रवेश से पहले ही बाहर एक चबूतरे पर हमें गणेश की एक दक्षिणावर्त प्रतिमा के दर्शन हुए । दक्षिणावर्त गणेश प्रतिमा गणेश की एक ऐसी प्रतिमा होती है जिसमें गणेश जी की सूंड दाहिनी ओर घूमी हुई हो । इसके विपरीत वामावर्त प्रतिमा होती है जिसमे गणेश की सूंड बाईं ओर घूमी हुई होती है । “अरे वाह ... “ डॉ.वाकणकर ने प्रतिमा देखते ही कहा “ श्रीगणेश तो अच्छा हुआ है । “ आगे बढ़ते ही हमें एक और चबूतरे पर नन्दी पर आसीन शिव-पार्वती की प्रतिमा, गरुड़ पर आसीन लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा, जटाधारी शिव और भैरव की प्रतिमा भी मिली । हालाँकि उनमें से बहुत सारी प्रतिमाएँ खंडित थीं, किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के सर नहीं थे । सर ने बताया “ध्यान से देखो, यह सब नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी की परमार कालीन शिल्प की प्रतिमायें हैं । “ “मतलब यहाँ परमारों का शासन रहा है ?” अशोक ने पूछा । “ और क्या “ सर ने कहा ...“ उनके बहुत से अभिलेख भी यहाँ मिलते हैं ।“ इतने में पास के ही एक चबूतरे से अजय ने आवाज़ दी “सर मेरी समझ में नहीं आ रहा यह किसकी प्रतिमा है ।“ सर के साथ हम लोग भी वहाँ पहुँचे । अजय एक टूटी-फूटी प्रतिमा के सामने खड़ा हुआ अपना सिर खपा रहा था ।

            “देखो ।“ सर ने समझाते हुए कहा “किसी भी प्रतिमा की पहचान करने के लिए  सर्वप्रथम उसके लक्षण देखना आवश्यक  है, जैसे शिव प्रतिमा के लक्षण हैं मस्तक पर चन्द्र, गले में सर्प, हाथ में त्रिशूल, डमरू इत्यादि । भैरव को भी शिव का रूप माना जाता है लेकिन उनकी प्रतिमा में एक दण्ड उनके हाथ में होता है । उसी तरह विष्णु प्रतिमा में उनके चार हाथ होते हैं  जिनमें शंख,चक्र,गदा और पद्म याने कमल का होना अनिवार्य है । अब इसमें हाथ तो सब टूट गए  हैं लेकिन अन्य लक्षण कमोबेश उपस्थित हैं, जैसे मुकुट है और इस टूटे हुए हाथ की बनावट नीचे की ओर है जिसके नीचे गदा साफ साफ दिखाई दे रही है, मतलब यह विष्णु की प्रतिमा हो सकती है ।"

            “सर अगर यह गदा भी टूट जाती तो हम इसे कैसे पहचानते ? “ अशोक ने प्रतिमा की ओर नज़रें गड़ाये हुए पूछा । “तो हम प्रतिमा में शंख, चक्र या पद्म को ढूंढते । “ सर ने कहा । “ और सर ये शंख,चक्र, पद्म भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर पूछा । “ तो हम आभूषणों से या जैसा मुकुट विष्णु की प्रतिमा में होता है उस मुकुट से या वस्त्रों से प्रतिमा की पहचान करते“ सर ने कहा । “और सर प्रतिमा पर आभूषण और वस्त्र भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर सवाल दागा ।“

            डॉ.वाकणकर हँसने लगे “तुम ये बताओ यार, तुम्हें  पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला या वकील ? अरे कुछ भी नहीं रहता तो फिर पत्थर और प्रतिमा में फर्क ही क्या रह जाता । शिल्पकार की छेनी और हथौड़े से उकेरे प्रतिमा के ये लक्षण ही तो पत्थर को प्रतिमा बनाते हैं, शिल्पकार प्रतिमाशास्त्र का अध्ययन करता है ,उस काल में उपस्थित वस्तुओं को अथवा उनके चित्रों को ध्यान से देखता है, पौराणिक ग्रंथों के विवरण पढ़ता है हर देवी-देवता के अस्त्र-शस्त्र उनके आभूषण ,उनके वाहन और अन्य लक्षणों का अध्ययन करता है उसके बाद वह मूर्तियाँ गढ़ता है । शिल्पकार वह इंसान होता है जो एक निर्जीव पत्थर में जान डालने की कोशिश करता है । फिर लोग उसे भगवान बनाकर उन  मूर्तियों की पूजा करते हैं और विडम्बना यह कि उसे गढ़ने वाले शिल्पी को भूल जाते हैं । शिल्पकार का श्रम किसीको याद नहीं रहता, लोग या तो मूर्ति को याद रखते हैं या पैसा लगाकर उसे बनवाने वाले को ।"

            "लेकिन सर प्रतिमा तो केवल पूजा के लिए होती है शिल्पकार ने प्रतिमा का निर्माण कर दिया बस उसका काम समाप्त ?" अजय ने सवाल किया । सर ने कहा.. "भाई प्रतिमा का अर्थ केवल दैवी प्रतिमा नहीं होता । तुम लोग देख ही रहे हो कि देवताओं के अलावा, उनके गणों ,प्रतिहारी, यक्षों, शालभंजिका, नदियों तथा विभिन्न राजाओं , उनके दरबारियों आदि की प्रतिमाएँ भी बनी हैं । हर प्रतिमा अपने गहन अर्थ में तत्कालीन संस्कृति, समाज में व्याप्त मिथक, उस काल की सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक व्यवस्था का प्रतिबिम्ब होती है । उसके लिए प्रयुक्त पत्थर से लेकर उसमे उकेरे गए आभूषणों तक से उस काल की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है ।"

            "सर लेकिन जो प्रतिमाएँ एक जैसी होती हैं उनमे अंतर कैसे करते हैं ?अब उनके नीचे नाम तो लिखा नहीं होता ?" अशोक का सवाल था । "तुम ठीक कह रहे हो।" सर ने कहा  "उदाहरण के लिए नदियों की प्रतिमा ले लो । जब विभिन्न नदियों की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ तो यह प्रश्न आया कि उन्हें नाम कैसे दिए जायें सो गंगा को मगर पर और यमुना को कछुए अर्थात कुर्म पर स्थापित किया गया । इस तरह गंगा मकर वाहिनी और यमुना कूर्म वाहिनी कहलाई  । इस तरह उनमे अन्तर किया गया । प्रतिमाओं की इन विविधताओं के बारे में इसलिए भी जानना आवश्यक है कि जब भी तुम म्युज़ियम्स या किसी मंदिर आदि में इन प्रतिमाओं को देखो तब लक्षणों के आधार पर उनमे अन्तर कर सको ।  चलो अब आज का काम खतम ...भूख लग रही है वापस चलें । “

            हम लोगों ने घड़ी देखी, शाम के चार बजने वाले थे और हम लोगों ने लंच भी नहीं लिया था इसलिए  वापस जाना तो ज़रूरी था । लौटते हुए डॉ.वाकणकर आगे आगे चल रहे थे और हम लोग उनसे पर्याप्त अंतर बनाकर उनके पीछे पीछे । राममिलन भैया आज दिन भर चुप रहे थे उन्हें छेड़े बगैर हम लोगों को आनंद नहीं आ रहा था । हम लोगों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे की ओर इशारा किया । अजय ने शुरुआत करते हुए किशोर भैया से कहा .. भैया ,लगता है आज राममिलन भैया देवी देवताओं की प्रतिमायें देखकर खुश नहीं हैं ।" किशोर भैया ने छेड़खानी की इस रिले रेस में बैटन थामते हुए कहा " लगता है राममिलनवा को आज बजरंग बली की मूर्ति देखने को नहीं मिली इसलिए उदास हैं ।" इससे पहले कि हम में से कोई और कुछ कहता राममिलन भैया बोल दिए .." मिली कैसे नहीं .. वो गदा वाली मूर्ति जौने का आप लोग विष्णु जी की बता रहे थे बजरंग बली जी की ही तो थी ।" "

            हम लोग बजरंगी भैया से ऐसे ही किसी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे उनकी बात सुनते ही हम लोगों की हँसी छूट गई "लो सुन लो इनकी " किशोर भैया ने कहा " इन्होंने  तो विष्णु जी का ही डिमोशन कर दिया कहाँ तो वह विष्णु जी की प्रतिमा और हमारे भैया ने उन्हें उनके अवतार का दूत बना दिया ।" "काहे ..?" राममिलन भैया ने कहा " हम कुछ ग़लत कह रहे हैं क्या ? गदा पर सिर्फ बजरंग बली का अधिकार है अब वो जिनके हाथ में होगी वही बजरंग बली ।" हम लोगों की हँसी रुक नहीं रही थी । अशोक ने कहा " बड़े भाई ..सर ने क्लास लेकर इतनी देर तक समझाया कि प्रतिमा का निर्धारण करने के लिए केवल एक लक्षण पर्याप्त नहीं होता उसके लिए उसका समग्रता में आकलन करना होता है । फिर उस प्रतिमा के सारे लक्षण जब उसे विष्णु की प्रतिमा बता रहे हैं तब भी आप जबरदस्ती इस बात पर अड़े हो कि वह बजरंग बली की प्रतिमा है ।"

            गुरुदेव हमारे आगे आगे चल रहे थे । सामान्यतः वे हम छात्रों के हँसी मजाक और हमारी बातों पर ध्यान नहीं देते हैं लेकिन इस बार वे समझ गए कि जनता राममिलन भैया को जबरदस्ती छेड़ रही है सो उन्होंने ठहरकर कहा " भाई, यहाँ प्रतिमा विज्ञान का सवाल नहीं है बल्कि राम मिलन की भावना का सवाल है । अगर वह उस प्रतिमा को हनुमान की प्रतिमा मानता है तो मानने दो । वैसे भी उस काल में हनुमान की प्रतिमा तो दुर्लभ ही थी । और हनुमान भक्तों को मूर्ति की क्या ज़रूरत है श्रद्धा भक्ति के साथ किसी भी पत्थर को तेल और सिंदूर से लेपन कर दो हो गई पवनपुत्र की मूर्ति तैयार ।"

            हम लोग समझ गए कि अब सर भी हम लोगों की रिले रेस में शामिल हो गए हैं । लेकिन इतना कहकर वे फिर तेज़ चलते हुए काफी आगे चले गए । राममिलन भैया ने भी मन ही मन सोच लिया कि इन मूर्खों से बहस करने में कोई फायदा नहीं सो उन्होंने कहा " चला हो जल्दी जल्दी.. हमका जोर से भूख लगी हैं । " भूख शब्द सुनते ही हम सब लोगों की भूख तीव्र हो उठी और कदम तेजी से नरसिंगा की सड़क की ओर बढ़ने लगे ।

            मैंने जनता का ध्यान भूख से हटाने के लिए एक पहेली बुझवाई  “ मान लो आज से हज़ार साल बाद का दृश्य है जब आज के किसी शिल्पी द्वारा बनाई हुई डॉ. वाकणकर की ऐसी ही भग्न प्रतिमा मिलती है और एक जन कहता है  कि 'यह तो विष्णु की प्रतिमा है ।' बताओ वह सच कह रहा है कि झूठ ? किशोर बोला “ वह झूठ बोल रहा है । “ मैंने कहा “ नहीं वह सच बोल रहा  है, जानते नहीं ? डॉ. वाकणकर का पूरा नाम विष्णु श्रीधर वाकणकर है । “ सभी मित्रों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं, सर ने एक बार पीछे पलटकर देखा । उन्हें पता ही नहीं चला कि हम लोग क्या बात कर रहे हैं । नरसिंगा से बस पकड़कर हम लोग दंगवाड़ा तक पहुँचे और वहाँ से पैदल चलकर  अपने शिविर में वापस आ गए ।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-चौथा दिन-चार


13 - हाथ धोये हत्यारा पाँव धोये पापी 

             दंगवाड़ा की पहली यात्रा समाप्त कर अभी हमने टेंट में कदम रखा ही था कि बारिश तेज़ हो गई । कपड़े बदलकर हम लोग भोजन कक्ष में पहुँचे । शिविर का नियम था कि यहाँ शाम का भोजन जल्दी ही कर लेना होता था । वैसे भी ठण्ड के दिन थे और ज़्यादा देर करना उचित नहीं था । थाली सामने आते ही डॉ.वाकणकर ने ऋग्वेद का मंत्र पढ़ना प्रारम्भ किया ...ओम सहना ववतु, सहनौ भुनक्तु,माविद विषा वहहि , सहवीर्यम करवा वहहि , तेजस्विना वधीत मस्तु..। भूख ज़ोरों पर थी लेकिन सर का आदेश था बिना श्लोक पढ़े कोई भी निवाला मुँह में नहीं डालेगा । खैर, ओम शांति शांति कहते तक जीभ के साथ दाँतों ने अपना काम शुरू कर दिया था ।

            अचानक दाल की कटोरी में पानी की एक बून्द टपकी । ऊपर देखा तो टेंट की छत पूरी तरह गीली हो चुकी थी और पानी टपकना शुरू हो चुका था । फिर क्या था, हमारी पंगत तितर-बितर हो गई और जिसको जहाँ जगह मिली खड़े होकर बुफे स्टाइल में भोजन करने लगा । हमें अब पता चला कि दाल पतली होने का क्या अर्थ होता है । भोजन करते हुए भी हमें अपने बिस्तरों की चिंता हो रही थी अत: जल्दी-जल्दी भोजन सम्पन्न कर हम लोग अपने टेंट में पहुंचे । गनीमत हमारे तम्बुओं की छत का कपड़ा मज़बूत था और पानी टपकने का कोई चांस नहीं था ।

            यह फरवरी का मध्य था । दिन के समय तापमान अधिक रहता था और शाम होते ही वातावरण में ठंडक बढ़ जाती थी । लेकिन बारिश की वज़ह से आज ठंड कुछ अधिक ही बढ़ गई थी । रज़ाई को लेकर फिर रवीन्द्र से मेरी बहस हो गई, लेकिन हम लोगों ने साम्यवादी तरीक़े से उच्च वर्ग और निम्न वर्ग मिलकर मध्यवर्ग बनने का समझौता कर लिया और दोनों एक ही रज़ाई में घुस गए  । बाहर तेज़ बारिश और भीतर तेज़ ठंड, हम लोग किसी अज्ञात आशंका से भयभीत थे और सोच रहे थे कि अगर पानी तम्बू के भीतर गुस आया तो क्या करेंगे ..नींद वैसे भी नहीं आनी थी और इस भय की बार बार चर्चा करने में भी कोई अर्थ न था ।

            मैंने टाईम पास करने के लिए एक प्रश्न उछाला “अच्छा बताओ यार, इंसान के पास जब रज़ाई नहीं होती थी तब ठंड में उसे नींद कैसे आती होगी ? रवीन्द्र हँसने लगा “ वह अपनी गुफा में आग जलाकर सोता था और क्या ।“ “ लेकिन उससे भी पहले जब उसे गुफा का ज्ञान नहीं था और आग की खोज भी नहीं हुई थी तब ? “ मैंने बाल की खाल निकालनी शुरू की । “ तब क्या ? ” रवीन्द्र ने कहा “सुबह तक मर जाता होगा बेचारा ।‘ “ अभी भी हम अखबारों में नहीं पढ़ते ठंड से इतने लोग मरे, बारिश से इतने लोग मरे ।“ अशोक ने अपनी बेहतरीन टिप्पणी दी ।

            “ इसका मतलब तो यही हुआ ना कि हम लोग अभी भी प्रारम्भिक विकास की अवस्था से आगे नहीं बढ़े हैं ।" मैंने कहा । " लेकिन यह बताओ यार, शीत वर्षा और लू से ग़रीब  लोग ही क्यों मरते हैं ? “ अशोक का सवाल मुझसे था । “ सीधा सा उत्तर है यार ।“ मैंने कहा “ मनुष्य का विकास तो हुआ लेकिन साथ साथ सम्पत्ति के आधार पर उसका वर्गों में विभाजन भी होता गया, कुछ लोग जिन्होंने सम्पति बटोरनी शुरू कर दी थी ,बहुत अधिक सम्पन्न हो गए और कुछ लोग निरंतर ग़रीब होते गए । तमाम अविष्कारों और सुविधाओं का लाभ सम्पन्न मनुष्यों को ही मिलना था सो अभी भी मिल रहा है । प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए अमीरों के पास ढेर सारे साधन होते हैं बड़ी बड़ी हवेलियाँ ,खाने-पीने का भरपूर सामान । ग़रीबों के पास क्या होता है ? देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास सर छुपाने के लिए छत तक  नहीं है । लाखों लोग फुटपाथ पर जीते हैं वहाँ उनकी कई पीढियां निकल जाती हैं । उन्हें ठंड ,कड़ी धूप और बारिश का सामना करना पड़ता है । ग़रीब  की हालत तो सदा से ऐसी ही रही है और ऐसी ही रहेगी, सो वह तो मरेगा ही ।“

            " हाँ यार,वाकई दया आती है ऐसे लोगों के बारे में सुनकर " अजय ने कहा ।" ऐसे लोगों के लिए सरकार को कुछ इंतजाम करने चाहिए ।" "सरकार करती तो है इंतजाम " अशोक ने कहा " हमारी पार्टी ने बहुत काम किये हैं इंदिरा जी ने तो नारा ही दिया है " गरीबी हटाओ " अशोक के भीतर का एन.एस.यू.आई. का कार्यकर्ता बोलने लगा था । " भाई,सिर्फ गरीबी उन्मूलन के नारे देने से क्या होता है, क्रियान्वयन के लिए व्यवस्था भी करनी होती है ।" मैंने कहा ।

            अशोक ने तुरंत प्रतिवाद किया " हो तो रही है व्यवस्था ,अभी देश को आज़ाद हुए ही कितने साल हुए हैं । नेहरु जी की तो समाजवादी सोच ही थी उसके हिसाब से धीरे धीरे काम होगा । अब इतना बड़ा देश है कुछ समय तो लगेगा ही ।" " कितना समय लगेगा ?" मैंने कहा " जब पानी सर से ऊपर हो जायेगा । अभी तो देश में ग़रीब लोग मर रहे हैं और उन्हें सिर्फ आश्वासन दिया जा रहा है विकास सिर्फ़ अमीरों का हो रहा है और विकास के नाम पर ग़रीबों की  अवहेलना की जा रही है । सरकारी योजनाओं में घोर भ्रष्टाचार है । "

            अशोक ने कहा " अब योजनायें तो बनती ही ग़रीबों के लिए है लेकिन उसका लाभ वे नहीं ले पाते शिक्षा की कमी है , समझ की कमी है सो इसका फायदा यह इलीट वर्ग उठाता है ।" " अब आये  ना तुम लाइन पर ।" मैंने कहा " तो इसका ज़िम्मेदार कौन है ? सरकार को चाहिए कि उन्हें शिक्षित करे ताकि वे अपनी बदतर हालत को समझकर बेहतर जीवन की मांग कर सकें लेकिन यहाँ तो अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर जनता के विद्रोह की मानसिकता को ही समाप्त कर दिया गया है ।"

            “मतलब हमारे यहाँ क्रांति-व्रांति का कोई चांस नहीं है ?“ अशोक ने पूछा । “क्रांति और हमारे यहाँ ?” मैंने कहा “भईये, हमारे देश के लोगों के दिमागों को तो धर्म,परम्परा, ऊँच -नीच, जात-पात, मोक्ष,लोक-परलोक, पाप-पुण्य आदि के नाम पर बरसों पहले गुलाम कर दिया गया है । ये पहले अपने दिमाग की गुलामी से तो मुक्त हो जाएँ तब ही क्रांति की बात सोच सकेंगे ।“

            ”तो इन्हें इस गुलामी से मुक्ति कौन दिलवायेगा ? फिर किसी अवतार-ववतार की सम्भावना है क्या ? रवीन्द्र ने कहा । “देखो भाई ...” मैंने कहा “ ये अवतार वगैरह तो सब उसी चालाक मनुष्य के दिमाग की कल्पना है जिसने आम आदमी के दिमागों को गुलाम बनाया है । उनके वंशज अभी भी यहाँ मौजूद हैं जो सत्ता में ऊँचे -ऊँचे पदों पर विराजमान हैं । यह लोग इस वर्ग भेद को बनाए रखना चाहते हैं ताकि वे जनता पर राज कर सकें जनतंत्र तो यहाँ बस नाम का है । वास्तव में यहाँ राजतन्त्र ही है जिसे अब पूँजीवाद पोषित कर रहा है राजसत्ता,धर्मसत्ता और अर्थसत्ता मिलकर काम कर रही है । वैसे भी यहाँ अब कोई मसीहा नहीं आनेवाला । इस गुलामी से मुक्त होने के लिए  मनुष्य को खुद प्रयास करना होगा । लेकिन सबसे पहले उसे यह अहसास दिलाना ज़रूरी है कि वह दिमागी तौर पर गुलाम है । अब्राहम लिंकन ने कहा है ‘ गुलाम को उसकी गुलामी का अहसास दिला दो तो वह खुद बाग़ी हो जाता है ।" मेरी बात पर राम मिलन भैया ने ज़ोरदार ताली बजाई।

            “क्यों रे दुष्टों अभी तक सोये नहीं “ टेंट के बाहर से डॉ.वाकणकर की कड़क आवाज़ से हम लोगों की बातचीत पर विराम लग गया । “ बस सर सोने ही जा रहे हैं । “ अजय ने कहा । रवींद्र खड़ा हुआ और उसने  टेंट का एक हिस्सा खोल दिया । सर एक चोगे जैसी बरसाती ओढ़े हुए थे । उन्होंने  भीतर झाँका और पूछा “ क्यों ..पानी-वानी तो अन्दर नहीं आ रहा है ? हमने कहा “ अभी तक तो नहीं आया है सर, हमने चारों ओर बोरों से पैकिंग कर दी है । लेकिन आप अभी तक नहीं सोये ?  सर ने जवाब दिया “ सोऊँगा, अभी जरा सब अंटिक्विटीज़ तो सम्भाल कर रख दूँ , अन पानी का क्या भरोसा । सब मिहनत पर पानी फिर गया तो । “

            “सर, ऐसे ही पानी गिरता रहा तो कल काम हो पायेगा क्या ? ” अजय ने पूछा “ क्यों कल क्या ससुराल जाना है ? “ सर ने उसे छेड़ते हुए कहा उन्हें पता था, अजय का विवाह पिछले दिनों ही हुआ था । अपनी बात से उपजी मुस्कराहट के बाद तुरंत गंभीर होते हुए उन्होंने कहा ..“ कल की चिंता तो मुझे भी है । खैर तुम लोग फिकर मत करो अभी सो जाओ ।“ हमें पता था, डॉ.वाकणकर एक ऐसे पुरातत्ववेत्ता हैं जो ज़मीन के गर्भ से जन्म लेने वाले अवशेषों की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते हैं । वे सोने से पहले सभी अवशेषों को ढांककर रखेंगे, ट्रेंच पर जाकर देखेंगे कि वहाँ बारिश से कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है ।

            यह बारिश का मौसम नहीं था फिर भी रात भर रुक रुक कर बारिश होती रही । सर्द हवाओं से तम्बू किसी बारिश में भीगे हुए बच्चे की तरह काँपता रहा । हम अपनी गर्म रज़ाइयों में, माँ  की गोद में दुबके बच्चे की तरह आराम से सोते रहे । बीच में नींद खुलती तो बारिश की सिसकियाँ सुनाई देतीं । थोडा बहुत पानी तम्बू के भीतर भी आ रहा था, लेकिन अँधेरे में कुछ नज़र नहीं आ रहा था । हम लोग मुँह ढांक कर सोते रहे । सुबह देखा तो रज़ाईयों  का ऊपरी हिस्सा और गद्दों का बाहरी हिस्सा गीला हो चुका था । अजय ने चीख कर कहा “अरे वा ! मैं कह रहा था ना आज काम नहीं हो सकेगा । “ मैंने कहा “ज़्यादा खुश मत हो वैसे भी यहाँ भाभी नहीं है जो तुम्हें इस बरसात में भजिया तल तल कर दे । “ पत्नी की याद आते ही बेचारा अजय उदास हो गया । इतने में दूर से छाता लगाये डॉ. वाकणकर आते हुए दिखाई दिए  । हमें पता था वे मुँह अन्धेरे ही ट्रेंच की स्थिति देखने निकल गए  होंगे ।

            " देखो रवीन्द्र " मैंने कहा " गुरुदेव को निखातों की कितनी चिंता है रात भर से बारिश हो रही है । वे रात में भी ट्रेंच को तारपोलीन से ढंकने गए थे और अभी फिर सुबह सुबह उनकी हालत देखने चले गए पता नहीं रात में ठीक से सोये भी होंगे या नहीं । " रवींद्र ने कहा " हाँ हो सकता है । एक पुरातत्ववेत्ता की सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में निखात में स्थित प्राचीन अवशेषों को कैसे बचाया जाए। सामान्यतः यह टीलों के प्रकार पर होता है कि उनकी सुरक्षा कैसे की जाए । आमतौर पर जो टीले ऊंचाई पर होते हैं और जिनका क्षेत्र चट्टानी होता है वहाँ मिटटी खिसकने की गुंजाईश होती है क्योंकि चट्टानें बारिश के कारण ढीली हो जाती हैं । ज़्यादा बारिश हो तो टीले की मिट्टी गीली होकर नीचे की ओर ढह जाती है, निखातों में पानी भर जाता है फिर उसे पम्प से निकालना पड़ता है । लेकिन कीचड़ और गाद के कारण अवशेषों की स्थिति ख़राब हो जाती है ।"

            "हाँ " मैंने कहा " सबसे अधिक दुविधा उन अवशेषों को लेकर होती है जो निखात के ढह जाने के कारण अपने मूल स्तर से किसी और स्तर में पहुँच जाते हैं जैसे इल्तूत मिश का टंका पहुँच जाता है समुद्रगुप्त की जेब में और हुएनसांग के झोले से टपकी हुई सुपारी उछलकर पहुँच जाती है जहाँगीर के पानदान में । मतलब एक काल के अवशेष जिस सतह पर मिलते हैं वहाँ से खिसक कर वे दूसरे काल कि सतह में पहुँच जाते हैं । फिर उनका कालक्रम निर्धारित करना बहुत कठिन हो जाता है । मैदानी क्षेत्रों में बनी निखातों के साथ यह परेशानी होती है कि यदि वे सामान्य सतह से निचले स्तर पर खोदी गईं हो तो जाने कहाँ कहाँ से पानी आकर उनमे भर जाता है और कभी कभी तो वे पूरी की पूरी डूब जाती हैं ऐसी स्थिति में पानी कम होने और उनके सूखने का इंतजार करना होता है ।

            रवींद्र ने कहा " वैसे भी सामान्य रूप से भी ट्रेंच की सुरक्षा करनी ही होती है । काम समाप्त हो जाने के बाद उसके चारों ओर एक फेंसिंग लगा दी जाती है ताकि कोई पशु या मनुष्य उस गड्ढे में न गिर जाए । किसी जानवर के गिरने से अवशेषों की भी टूट-फूट कि संभावना रहती है । पेड़ों के नीचे या जंगलों में खोदी गई निखातों में कचरा जमा होने या पेड़ की डाल टूटकर गिर जाने की संभावना होती है । वे लोग जो बार बार संस्कृति बचाने की दुहाई देते हैं , अवशेषों को बचाने की इस व्यावहारिक कठिनाई से नावाकिफ़ होते हैं ।"

            इतनी देर में सर हमारे टेंट के करीब आ गए थे । हमें जागा हुआ देखकर वे खुश हो गए  “ अरे वा ! जाग गए सज्जनों, चलो आज पास में फुलान है वहाँ चलते हैं । आज तो वैसे भी काम तो नहीं हो सकेगा ।" अजय ने तपाक से कहा .." हाँ सर, रात में बहुत तेज़ बारिश हुई है ,अभी भी बूंदा-बांदी हो रही है , यह बारिश और भी तेज़ हो सकती है ।" सर ने अपने चश्मे के ऊपर से उसे देखा और मंद मंद मुस्कुराए .."बारिश का क्या है ,होगी तो काम बंद कर देंगे , लेकिन आज गुरुवार है ना गाँव में हाट लगने के कारण आज मज़दूरों की छुट्टी है ।“ अब हमें पता चला काम बन्द होने का असली कारण गुरूवार है ना कि बारिश । वैसे भी एक पुरातत्ववेत्ता के लिए कभी कोई छुट्टी नहीं होती  “आलस क्या कर रहे हो ..चलो जल्दी नहाओ धो और तैयार हो जाओ, नाश्ता करके  चलते हैं । “ वाकणकर सर ने हमारी पलटन को आदेश दिया ।

            अब असली समस्या यह थी कि इतनी ठंड में नहाए  कौन । अशोक त्रिवेदी ने कहा “ भाई मैं तो नहाने से रहा उसके बदले मैं नहाने के मंत्र का जाप कर लेता हूँ “ और वह पंडितों वाली स्टाइल में शुरू हो गया “ ओम हाथ धोए  हत्यारा, ओम पाँव धोए पापी, ओम नहाये धोए सो बेईमान, ओम पूजा-पाठ करे सो दुर्गुण की खान ओम...ओम..छोड़ पानी... “ उसकी इस अदा पर हम लोग हँसते हँसते लोट-पोट हो गए  । लेकिन हँसने से फायदा यह हुआ कि शरीर में थोड़ी गर्मी आ गई । अजय ने कहा “ भई अपना भी नहाना कैंसल । उसके बदले अपन नहाने की गोली खा लेते हैं । स्नान पर्व पर यह दूसरा चुटकला था । बहर हाल रवीन्द्र ने कहा “ में तो भाई बिगेर नहाये नहीं रह सकता ।“ रवीन्द्र का साथ तो मुझे देना ही था सो हम दोनों ने अपने वस्त्र लिए  और चम्बल-स्नान करने चल दिये । बाक़ी मित्र भी हमारे पीछे पीछे आ गए आख़िर सुबह के कुछ ज़रूरी काम तो निपटाने ही थे ।


आपका शरद कोकास

शनिवार, 4 जुलाई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-चौथा दिन - तीन


12 - नहीं कोई आम हूँ मैं गुलफाम हूँ  

          बिलकुल गाँव जैसा गाँव था दंगवाड़ा । पतली पतली संकरी गलियाँ, बेतरतीब बने हुए मकान, कुँओं के पास कीचड़ से भरे हुए डबरे , झोपड़ियों के छप्पर इतने आगे तक झुके हुए जैसे चरण स्पर्श करने आ रहे हों, अगर देखकर नहीं चलो तो सर टकरा जाए । गलियों में खेलते हुए बच्चे हम लोगों को उचटती निगाह से  देखते और फिर अपने खेल में लग जाते । एक बूढ़ा ओसारे में बीड़ी के कश खींचता हुआ आसमान में छाये बादलों की ओर देख रहा था । मुझे वह किसी भविष्यवक्ता की तरह लगा ।

            हम लोगों ने उस बूढ़े से पूछा “कईं बासाब, चाय की दुकान कठे हे ? ”उसने गाँव के बाहर जाने वाली सड़क की ओर इशारा किया और फिर बीड़ी पीने में मग्न हो गया । बूढ़े के बताये रास्ते पर हम चलते चले गए  लेकिन दुकान कहीं नहीं दिखी । हमें लगा बूढ़े ने कहीं बेवकूफ तो नहीं बना दिया, फिर सोचा नहीं ..ऐसा तो अक्सर शहरों में बदमाश बच्चे  करते हैं यह बूढ़ा बेचारा क्यों हमसे मज़ाक करेगा । आखिर में हम लोग गाँव के बाहर इंगोरिया वाली पक्की सड़क पर आ गए  ।

            गाँवों में अक्सर इस तरह की दुकानें गाँव के बाहर पक्की सड़क पर ही होती हैं ताकि एक शहर से दूसरे शहर आने जाने वालों से भी उनका व्यवसाय चल सके । नज़र घुमाई तो घास-फूस के एक छप्पर के नीचे चाय-पान की एक गुमटी नज़र आई । एक टूटी हुई टेबल जिसका एक पांव टूटा हुआ था और जिसे दो ईटें सहारा दे रही थी अपने सर पर एक पुराना सा स्टोव संभाले हुआ था । यह स्टोव धुएँ से काले हो चुके एक टीन के परदे के भीतर खामोश पड़ा हुआ था । स्टोव देखकर ही हम लोग समझ गए कि हमारी चाय की तलब यहाँ दूर हो सकती है ।

            हम लोगों ने पहुँचते ही ऑर्डर किया “भई जल्दी से चाय पिलाओ ।” और पटिये पर बैठ गए  । ‘चाय कम पान’ की दुकान वाले ने पान पर चूना लगाते हुए जवाब दिया “दूध खतम हो गया है साहब ।” यह तो आसमान से गिरकर खजूर पर लटकने जैसी स्थिति थी । इतनी दूर से चाय की तलाश में आए  और यहाँ दूध नदारद । अजय ने आगे बढ़कर कहा “ कोई बात नहीं, दूध कहाँ मिलता है बताओ, हम ले आते हैं ।” “अभी नहीं मिलेगा साब, अभी टेम नहीं हुआ है ।“ चाय वाले ने बेरुखी से जवाब दिया । “ऐसे कैसे नहीं मिलेगा तुम ख़ाली गंजी तो दो ।” चाय वाला मुस्कुराया  जैसे उसे  हम पर विश्वास ना हो फिर गंजी पकड़ाते हुए कहा “लो देख लो साब वो सामने वाले घर में मिलता है मिल जाए तो अच्छा है ।“

            चाय वाले ने जिस घर की ओर संकेत किया था हम लोग उस घर के दरवाज़े तक जा पहुँचे । दालान में एक बुज़ुर्ग सा व्यक्ति बैठा हुआ था और हुक्का गुड़गुड़ा रहा था । हमने उससे जयरामजी की और पूछा “दूध मिलेगा ?” उस बुज़ुर्ग ने कहा “दूध तो कोनी ।“ हम शहरी लोगों को देखकर वह कुछ समझने की कोशिश करे इससे पहले रवींद्र ने कहा “ ऐसा है बासाब , हम लोग छात्र हैं और उज्जैन से आये हैं । दूध वो सामने चाय की दुकानवाले को चाहिये, हमें चाय पीनी है लेकिन उसके पास दूध नहीं है ,उसने बताया कि आपके यहाँ मिल जाएगा । ” मुझे लगा शायद चायवाले के नाम से दूध अवश्य मिल जाएगा ।

            “ऐसे बोलो ना साहब, चाय पीना है ..लेकिन दूध को तो अभी टेम है ।” उसने कहा । इससे पहले कि हम उसे अपनी भयानक तलब के बारे में समझा पाते उसने दालान में पड़ी बेंच पर बैठने का इशारा करते हुए कहा " तो साहब बैठिये न हम चाय पिलाते हैं ।" फिर उसने भीतर की ओर आवाज़ लगाई “बेटा जरा चा बनाना ।” हम लोगों की तो बाछें खिल गईं । हम लोगों ने अपना परिचय देने के साथ साथ उसके गाँव की तारीफ भी करनी शुरू कर दी । हाँलाकि वह सब समझ रहा था कि ये शहर के  छोरे सिर्फ अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए  उसकी तारीफ कर रहे हैं ।

            खैर बातचीत के बीच चाय भी आ गई और हमने पी भी ली और चाय लाने वाली उसकी बेटी के बारे में यह जानकर कि वो स्कूल नहीं जाती है उसके बाप को सलाह भी दे डाली कि लड़कियों को पढ़ाना चाहिये, एक लड़की को पढ़ाने का अर्थ एक परिवार को पढ़ाना होता है, वगैरह वगैरह । उसके बाप ने सिर्फ इतना कहा कि ” बेटी भी काम पर जाती है तभी घर चलता है साब । ग़रीबी  हमारी मजबूरी है ।” उसके प्रश्न का हमारे पास उत्तर नहीं था सो हम लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए “ अच्छा भाई चलें, राम राम ।”

            बुज़ुर्गवार के घर से बाहर निकलते हुए राम मिलन भैया ने अपनी जेब से पर्स निकाला और पांच का एक नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा “लो भैया ।” वह ग्रामीण हाथ जोड़कर खड़ा हो गया “अरे मालिक आप लोग तो पहुना हो आप से कैसे पैसे ले सकता हूँ ।“ राम मिलन उसकी ग़रीबी  से काफी द्रवित हो गए  थे “कोई बात नहीं दूध के तो ले लो । “नई साब” उसने कहा “ दूध तो घर का ही बचा था उसके काहे के पैसे ?” हम लोग निरुत्तर थे और सोच रहे थे  काहे हम अब तक इस गाँव को सिटी कहकर इसका अपमान कर रहे थे ।

            गाँव की आत्मीयता और शहर की स्वार्थ से भरी  ज़िन्दगी के बारे में अपना फलसफा बघारते हुए हम लोग बाहर निकले । “अब क्या प्रोग्राम है ?” रवीन्द्र ने एक सार्वजनिक सवाल किया । " चलो पहले सिगरेट पी जाए ।" अशोक ने कहा । उसे चाय के साथ सिगरेट पीने की आदत थी और बगैर सिगरेट के उसका दिमाग़ काम नहीं कर रहा था । उसने उसी चाय की दुकान की ओर इशारा किया उसे मालूम था दूध वहाँ भले न हो लेकिन सिगरेट ज़रूर मिल जायेगी ।

            अशोक जितनी देर सिगरेट पीता रहा हम लोग दो खूंटों पर टिके दुकान के पटिये पर बैठकर दुकान वाले से गपियाते रहे । वहाँ खड़े गाँव के लोगों की बातचीत से हमें यह मालूम हुआ कि गाँव में इन दिनों यू.पी. से कोई नौटंकी पार्टी आई  है और गाँव के मध्य में चौक पर उनका डेरा है । “चलो वहाँ चलते हैं । “ मैंने कहा ।“लेकिन अभी वहाँ क्या मिलेगा नौटंकी तो रात में होगी ।” अजय ने कहा । नौटंकी का नाम सुनकर राम मिलन भैया की आँखों में चमक आ गई थी । “चलो तो देखत हैं …का खेला है आज ।” उन्होंने कहा ।  “ चलो जैसी पंचों की राय ।“ मैंने कहा और हम लोग पूछते हुए उस दिशा में बढ़ गए  ।

            जैसा कि अक्सर गाँवों में होता है इस गाँव के बीचों बीच भी एक चौराहा था जहाँ एक ओर एक मंच बना था । हमने सामने पड़े पर्दे को ज़रा सा उठाया और भीतर प्रवेश कर गए । भीतर की ओर मंच बहुत सुसज्जित था । उस पर रंगबिरंगे पर्दे लगे थे जिन पर अनेक आकृतियाँ बनी हुई थीं ..किसी पर बडा सा मोर, किसी पर बडा सा पेड़ अंकित था । वहीं कुर्सी डाले मैनेजर टाइप का एक व्यक्ति बैठा था । हमें देखकर वह चौंक गया । फिर हमने उसे अपने बारे में बताते हुए उससे पता किया तो पता चला कि नौटंकी शुरू होने का समय रात नौ बजे के बाद है  और उस वक़्त शाम के लगभग  सात बजे थे ।

            हमने सोचा चलो बातचीत कर टाइमपास किया जाए । ‘’ कौन कौन से खेल करते हो आप लोग ?‘’ मैंने नौटंकी वाले से पूछा .. “अरे भैया सब खेल करते है..” उसने कहा “राजा हरिश्चंन्द्र, सुल्ताना डाकू, गुल बकावली, सब्जपरी और गुलफाम  ।” यहाँ कौन सा खेल लेकर आए हो ?” मैंने फिर पूछा । उसने बताया ‘’यहाँ तो भैया, राजा हरिश्चंन्द्र खेल रहे हैं ऊ भी बहुते लम्बा खेला है । फिर गाँव में तो यही ज्यादा पसंद किया जाता है ।“

            हम लोग नौटंकी कला के विषय में ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे । वैसे भी हम लोग मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं और यहाँ की लोक कलाएं भिन्न थीं । नौटंकी वस्तुतः उत्तरप्रदेश का एक कलारूप है । हम लोगों ने बचपन में उत्तर प्रदेश की रामलीला पार्टियों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली रामलीला अवश्य देखी थी सो उसके बारे में थोडा बहुत जानते थे । नौटंकी के मैनेजर द्वारा बताये गए नाटकों के यह नाम हमें बहुत रोचक लगे और उनके बारे में विस्तार से जानने कि जिज्ञासा बढ़ गई ।

            अचानक मुझे याद आया कि हमारे राममिलन भैया तो इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं और वे अवश्य नौटंकी के बारे में जानते होंगे । लेकिन राममिलन भैया इस समय दूसरे ही मूड में थे सो उनसे यह ज्ञान उगलवाना ज़रा कठिन था ।राममिलन भैया नौटंकी के मैनेजर से बात करने में मशगूल थे । मैंने उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए किशोर भैया से कहा " किशोर भैया अपने राममिलन भैया तो यू पी के ही हैं और बहुत बड़े स्कॉलर हैं, उन्हें नौटंकी के इतिहास के बारे में अवश्य जानकारी होगी ।

            किशोर भाई हमारा संकेत समझ गए । उन्होंने राममिलन भैया को चने के झाड पर चढाते हुए कहा "राममिलन भैया, हम लोग तो मध्यप्रदेश के मूल निवासी हैं न राम के बारे में ठीक से जानते हैं न रामलीला के बारे में, नौटंकी क्या होती है इसका भी हमें पता नहीं । आप तो यू पी  के विद्वान हैं आपको अवश्य पता होगा ।" यू पी  का नाम आते ही राममिलन का ध्यान हमारी ओर आकृष्ट हो गया । वे अपनी प्रशंसा सुनकर गदगद हो गए । नौटंकी का मैनेजर भी हमारी इस बात से काफी प्रभावित हुआ ।

            राममिलन भैया ने अपनी कमीज के कलर के बटन को थोडा टाइट किया और प्रोफ़ेसर के अंदाज़ में कहना शुरू किया "भाइयों बेसिकली यह यू पी की कला भी नहीं है । सबसे पहले मुल्तान में जो आज पकिस्तान में है 'नौटंकी शहजादी' नामका एक नाटक खेला गया ..उ उ नहीं... 'शहजादी नौटंकी' नाम था उसका । यह एक नृत्य नाटक था जिसमें शहजादी का नामई 'नौटंकी' था । उसीके नाम पर आगे चलकर इस कला का नाम नौटंकी हुआ  । दरअसल यह नौटंकी स्वांग भरने की एक कला है । इसमें कलाकार तरह तरह के ऐतिहासिक और पौराणिक पात्रों के स्वांग रचते हैं । हालाँकि स्वांग भी अपने आप में एक कला है लेकिन स्वांग और नौटंकी में फर्क यह होता है कि स्वांग ज्यादतर धार्मिक विषयों पर आधारित होते हैं और नौटंकी का विषय प्रेम कथाएँ होती हैं । जैसे लैला मजनू, शिरी फरहाद , गुले गुलफाम आदि । हालाँकि अब तो सबै मिक्चर हो गया है और जो जनता चाहती है उसकी डिमांड पर प्रस्तुत करते हैं ।"

            रवींद्र को लगा राममिलन बस इतने में ही न टरका दें सो उसने उनसे सवाल किया "राममिलन भैया, तो फिर इसमें जो कहानियां बताई जाती  हैं वे सच्ची कहानियां होती हैं कि काल्पनिक ?" राममिलन भैया अब तक खुद को नौटंकी कला का विशेषज्ञ समझने लगे थे सो उन्होंने जवाब दिया "भाई, इसमें कुछ तो सच्ची कहानियाँ  होती हैं, जैसे कि आल्हा- उदल, यह बुंदेलखंड की लोककथा है । सुल्ताना डाकू नाम की नौटंकी में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में हुए एक डाकू की  सच्ची कहानी है  हालाँकि उसमे भी प्रेमकथा मुख्य है फिर भी थोड़ा बहुत तो झूठ लोककथाओं में होता ही है ।

            अजय ने कहा "मतलब इसमें नाटकों के विषय सिर्फ प्रेम कहानियां होती हैं ?" राममिलन भैया ने कहा "नहीं ऐसा भी नहीं है । नौटंकी के विषय समय समय पर बदले भी हैं । जैसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहुत सारे खेल देशभक्ति की भावना पर रचे गए । गाँव गाँव में स्वाधीनता की अलख जगाने का काम इन कलाकारों ने किया । आजकल तो समसामयिक विषय भी यह लोग अपने नाटकों में शामिल करने लगे हैं, जैसे दहेज़ प्रथा के खिलाफ, निरक्षरता उन्मूलन ,हिन्दू मुस्लिम एकता आदि आदि ।

            "लेकिन भैया..." अजय ने शंका ज़ाहिर की "नौटंकी को तो अच्छा नहीं समझा जाता है । हम लोग भी बातचीत में अक्सर कहते हैं 'ज्यादा नाटक नौटंकी मत करो' ऐसा क्यों कहते हैं ?" राममिलन भैया तनिक सोचने लगे.." भाई ऐसा है कि नौटंकी का विषय भले जागरूकता का रहा हो लेकिन उद्देश्य तो विशुद्ध मनोरंजन  ही होता है । प्रेमकथाओं पर आधारित नौटंकियों में कालांतर में कुछ अश्लील तत्व भी जुड़ गए । हालाँकि शुरू में इसमें लडकियाँ नहीं होती थीं लेकिन कुछ नौटंकी वालों ने अपने नाटकों में लडकियाँ  रखीं तो छेड़छाड़, भद्दे इशारे और पैसे लुटाना जैसे काम शुरू हो गए ।

            राममिलन भैया इतना कहकर रुके । फिर नौटंकी के मैनेजर पर एक नज़र डालते हुए कहा "अब ऐसा है ना कि नौटंकी के संचालक सब पर तो नज़र नहीं रख सकते इसलिए ऊँच - नीच भी हो जाती थी सो नौटंकी बदनाम हो गई । फिर नौटंकी वाले बहुत ग़रीब भी होते थे और यही उनकी रोजी-रोटी थी सो नौटंकी में भीड़ जुटाने के लिए उन्होंने नाच गाने , भद्दे शारीरिक क्रियाकलाप जैसे कारकों को बढ़ावा देना शुरू किया ताकि ज़्यादा भीड़ जुटे और वे ज़्यादा पैसे कमायें । अब इसे देखने के लिए समाज के निचले तबके के लोग ज़्यादा जाते थे, इसलिए सभ्य समाज में इसे बुरा माना गया । उन लोगों के लिए तो वैसे भी बड़े बड़े नाटक और शास्त्रीय संगीत जैसे कार्यक्रम होते थे ।

            इतने में मेरे भीतर का कवि जाग गया था । मैंने कहा "राममिलन भैया, मैंने सुना है कि नौटंकी में पूरे संवाद कविता में होते हैं...।" राममिलन भैया ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही तपाक से कहा "अरे काहे की कविता, सब तुकबन्दी होती है । हमारे देश की जनता को तुकबंदी और कविता में अंतर कहाँ मालूम है ।उन्हें तुकबंदी में ही मज़ा आता है । पात्रों को भी इस तरह डायलाग रटने में सुविधा रहती है । इसलिए इसमें साधारण बोलचाल की भाषा में संवाद रहते हैं । पात्र आपस में कविता जैसी तुकबंदी में बात करते हैं, अपनी भावनाएं प्रकट करते हैं । इससे ग्रामीण जनता को समझने में आसानी होती है हालाँकि नौटंकी में उर्दू फारसी के शब्दों का प्रयोग भी बहुतायत में होता है लेकिन यह तो यू पी की जनभाषा में शामिल है ।"

            "लेकिन भैया इसमें संगीत मंडली भी बहुत महत्वपूर्ण होती है " मैंने कहा । " बिलकुल " राममिलन भैया बोले .."इसका कारण यह है कि इनके संवाद गेय होते हैं और यह गाकर ही अभिनय करते हैं  इसलिए साथ में नगाड़े, सारंगी, ढोलक, तबला, हारमोनियम, बैंजो ,आदि वाद्ययंत्रों का भी खूब प्रयोग किया जाता है । इसके लिए पूरी संगीत मंडली अलग से होती है और कपड़े भी इन पात्रों के बहुत चमकदार होते हैं उनमे जरी के गोटे  लगे होते हैं । नाचनेवालियों को नकली बाल लगाए जाते हैं और गाढ़ा मेकप किया जाता है ।"

            नौटंकी के बारे में हम लोग राममिलन भैया से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुके थे । अब हमारी नौटंकी देखने की इच्छा बलवती हो उठी थी लेकिन हमारी मज़बूरी थी कि रात तक वहाँ रुक नहीं सकते थे । गाँवो में अक्सर लोग के रात के भोजन के बाद निश्चिन्त होकर ऐसे कार्यक्रम देखते हैं सो नौ बजे के पहले कुछ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था । मैंने राममिलन भैया से कहा 'भैया हमें नौटंकी देखने की बहुत इच्छा है लेकिन आज तो संभव नहीं हो सकेगा ।" राममिलन भैया अपनी ही रौ में थे । उन्होंने कहा " ज़रूर देखो हम तो बहुत खेला देखे हैं अपने गाँव में, इसमें बहुतै मजा आता है ।" राममिलन भैया ने यह कुछ ऐसे स्टाइल में कहा कि मुझे गब्बरसिंह का डायलाग याद आ गया ..'बहूत याराना लगता है ।'

            मैंने झट से राममिलन भैया से कहा "भैया कोई डायलाग याद हो तो सुनाओ ना ।" राममिलन भैया तो जैसे तैयार ही  बैठे थे । उन्होंने झट से कहा "हाँ हाँ क्यों नहीं.. हम सुल्ताना डाकू का एक डायलाग सुनाते हैं । इस नौटंकी में सुल्ताना डाकू की एक प्रेमिका भी है का नाम है उसका... हाँ नीलकमल... जिससे वह कहता है कि हम कंगाल नहीं है बल्कि हमारा  जन्म गरीबों की सहायता के लिए हुआ है ..इसलिए हम अमीरों को लूटते हैं ।"  "ऐसे नहीं भैया" किशोर भाई ने कहा "जरा एक्टिंग करके सुनाओ तो मिजा आये ।" राममिलन भैया फिर चने के झाड पर चढ़ गए । वे थोडा दूर हट कर खड़े हो गए और पूरे हावभाव के साथ कहना शुरू किया

प्यारी कंगाल किसको समझती है तू
कोई मुझसा दबंगर न रश्के- कमर
जब हो ख्वाहिश मुझे लाऊं दम भर में तब
क्योंकि मेरी दौलत है जमा अमीरों के घर

उसकी बात सुनकर उसकी प्रेमिका कहती है ...
आफरीन आफरीन उस खुदा के लिए
जिसने ऐसे बहादुर बनाये हो तुम
मेरी किस्मत को भी आफरीन आफरीन
जिससे सरताज मेरे कहाए हो तुम

इसके बाद सुल्ताना डाकू फिर कहता है ...
पाके जर जो न खैरात कौड़ी करे
जर माने धन
उनका दुश्मन खुदा ने बनाया हूँ मैं
जिन गरीबों का गमख्वार कोई नहीं
उनका गमख्वार पैदा हो आया हूँ मैं

            वाह वाह, वाह वाह कहते हुए हम लोगों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं ।राममिलन भैया हमारी तालियों से निर्लिप्त होकर इस बीच ग्रीन रूम में प्रवेश कर गए थे । वहीं से उन्होंने  चिल्लाकर पूछा । ‘’ कौनो नचकारिन नहीं है भैया नौटंकी में ? 'नचकारिन' शब्द सुनते ही  हम लोगों की भी आँखे चमक उठी और राममिलन जी के बहाने हम लोग भी भीतर प्रवेश कर  गए ।

            भीतर ग्रीन रूम जैसा कुछ दृश्य था । हमने देखा हारमोनियम, सारंगी, क्लेरेनेट, तबला, नगाड़ा और बेंजो के अलावा मेक अप का बहुत सारा सामान वहाँ रखा है । अलग अलग खूंटियों पर रंगबिरंगे परिधान लटक रहे हैं और टीन की पेटियों और दरियों पर बैठ कर कुछ कलाकार सुस्ता रहे हैं । एक दो कलाकार शाम की प्रस्तुति के लिए मेकअप की तैयारी कर रहे हैं । नचकारिन के बारे में पूछने पर पता चला कि इस नौटंकी में पुरुष ही महिला पात्र का अभिनय करते हैं । हम लोगों को थोड़ी निराशा हुई । कलाकारों को हम लोगों ने अपना परिचय दिया और बताया कि रात को हम लोग नौटंकी देखने ठहर नहीं सकते हैं, बाहर से आए शिविरार्थी हैं और वापस शिविर में लौटना है ।

            राममिलन ने इतनी देर में कलाकारों से दोस्ती गांठ ली थी, बोले “कौनो बात नहीं भैया, एकाध डायलाग ही सुना दो ।“ कलाकार  हम शहर के लोगों को देखकर वैसे ही प्रभावित थे । एक कलाकार आगे आया और बोला  "साहब, कोई बात नहीं, अभी तो बिगेर डिरेस के ही एक सीन आप लोगन को दिखा देते हैं ।" उसने अपनी मुद्रा संभाली और कहा .. "चलो 'राजकुमार गुलफाम' का एक डायलाग बताते हैं ।"  फिर एकदम  नाटकीय अंदाज में कहा ...

            “मैं खास हूँ - नहीं कोई आम हूँ .. मैं गुलफाम हूँ ... मेरे  बिना ज़हर  में ज़हर  नहीं हैं, मेरे बिना कहर में कहर नहीं है ” फिर अपनी लकड़ी की तलवार उठाई और ज़मीन पर उसकी नोक टिकाते हुए कहा .. “ज़मीं से लगा दूँ ज़मीं छेद डालूँ ..आसमाँ से लगा दूँ आसमाँ भेद डालूँ ..मैं खास हूँ …नहीं कोई आम हूँ मैं गुलफाम हूँ …।” उसके इस प्रदर्शन पर हम लोगों ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं और फिर आने का आश्वासन देते हुए बाहर निकल आए  ।

            नौटंकी वालों से मिलकर मुझे फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास 'मारे गये गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम' का भोला- भाला ,सीधा-सादा गाड़ीवान हिरामन याद आने लगा । वह भी नौटंकी में नाचने वाली अपनी मितानिन हीराबाई को मेले की नौटंकी में लेकर जाता है । मेरे मन में अनेक साज़ बजने लगे और हवाओं में घुंघरू की खनक गूंजने लगी .." पान खाए सैंया हमारो ..सांवली सूरतिया होंठ लाल लाल .. हाय हाय मलमल का कुरता ..मलमल के कुरते पे छींट लाल लाल  ..। एक हूक सी मन में उठी और मुँह से अस्फुट से शब्द निकले ..मीता । रवीन्द्र ने पलटकर मेरी ओर देखा और पूछा .. "क्या हुआ ?" मैंने कहा " कुछ नहीं.. एक भूली -बिसरी कहानी  याद आ गई ।

            लौटते समय अंधेरा हो चला था । हवाएँ तेज़ तेज़ चल रही थीं और बूँदाबाँदी भी होने लगी थी । आसमान में काले बादलों के बीच विदा लेते हुए सूरज की रोशनी समाई हुई थी और वे बहुत भयावह दृश्य उपस्थित कर रहे थे । हमें एक बार लगा कि हमें जल्दी लौट जाना चाहिए था, लेकिन अब कोई चारा नहीं था । नाले तक पहुँचने का रास्ता तो समझ आ रहा था लेकिन नाले में कुछ नज़र नहीं आ रहा था । सेतु के वे पत्थर जिन पर राम मिलन जी ने खड़े होकर प्रार्थना की थी ग़नीमत कि दिखाई दे रहे थे  । उन पर पाँव रखते हुए  जैसे तैसे हम लोगों ने नाला पार किया और इससे पहले कि बारिश तेज़  हो जाती अपने तम्बुओं में लौट आए  ।


आपका शरद कोकास