एक पुरातत्त्ववेत्ता की डायरी
शरद कोकास
भूमिका
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उत्खनन स्थल का एक दृश्य |
मनुष्य
का यह सहज स्वभाव है कि वह वर्तमान में जीते हुए भी कभी कभी अतीत में अथवा भविष्य
में जीने की कल्पना करता है । कभी न कभी यह ख़याल हर एक के मन में आता है कि वह कुछ बरस पहले के समय में चला जाए ताकि वह एक नए सिरे से वहाँ से अपना जीवन प्रारम्भ कर
सके , जो उस समय अप्राप्य था उसे प्राप्त कर सके, अपनी गलतियाँ सुधार सके , दुखों
को दूर कर सके और उन सुखों को भोग सके जिन्हें वह भोग नहीं पाया था । । ऐसा केवल
कल्पना में संभव है । आज तक कोई ऐसी टाइम मशीन नहीं बनी है कि मनुष्य उसमे बैठ जाए
और सुदूर अतीत में पहुँच जाए । विज्ञान के बढ़ते चरणों के बावज़ूद यह संभव नहीं है,
इसलिए कि जो बीत चुका है वह ठीक उसी तरह दोबारा कभी घटित नहीं होता । समय की अपनी
एक गति होती है और बीते हुए समय में शामिल होना किसी के लिए संभव नहीं है । जब
हमें अपने व्यतीत किये गए जीवन में शामिल होना संभव नहीं है तो उस समय में शामिल
होना तो बिलकुल ही असम्भव है जो समय हमने नहीं देखा है । हम केवल उपलब्ध विवरणों
के आधार पर उस दृश्य का पुनर्निर्माण कर सकते हैं । पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकार
इसमें हमारी सहायता करते हैं । मनुष्य भौतिक
रूप से भले ही उन दिनों में नहीं पहुँच सकता लेकिन उस कालखंड के ध्वस्त अवशेषों से
उस सभ्यता का एक चित्र निर्माण कर सकता है
ज़मीन की परतों में दबी उस सभ्यता की साँसें सुन सकता है ।
मनुष्य
जाति के विकास की यह यात्रा उसके उद्भव से प्रारंभ हुई जो आज तक लगातार जारी है ।
इस बीच उसने बहुत कठिन समय देखा है । अपनी जैविक इच्छाओं को लेकर पैदा हुआ मनुष्य
भूख के इशारे पर नित नई खोज करता रहा । आज
के सुविधा संपन्न मनुष्य का जीवन देखते हुए मुझे अक्सर उस मनुष्य का ख़याल आता है
जिसका जीवन प्रकृति की कृपा पर अवलंबित था जो कभी भी किसी जंगली जानवर का भोजन बन
जाता था या किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाता था । लेकिन इन तमाम कठिनाइयों के
बावज़ूद उस मनुष्य ने हार नहीं मानी और प्रकृति से द्वंद्व करते हुए, हिमयुगों में
समाप्त हो जाने के खतरों से बचते हुए अपनी विकास यात्रा जारी रखी इसलिए कि उसके
पेट के साथ उसके आश्रितों का पेट जुड़ा था । यह वह दौर था जब व्यक्ति से परिवार और
परिवार से समाज नामक संस्था का निर्माण जारी था । यह पांच हज़ार साल पुरानी बात है
जब मनुष्य के पास औज़ार बनाने के लिए उपयुक्त
पत्थरों का भण्डार समाप्त होने की कगार पर था उसने ताम्बे की खोज कर ली थी और अब वह पत्थरों के युग
से ताम्बे के युग में प्रवेश कर रहा था । लेकिन उसके सामने अब नई चुनौतियाँ थीं ।
वह यायावरी की ज़िंदगी से तंग आकर एक स्थायी जीवन बिताना चाहता था । प्रकृति ने उसे
ऐसे अवसर प्रदान किये और उसकी बिखरी हुई ज़िन्दगी धीरे धीरे बसने लगी । पुरापाषाण
युग से निकल कर आने वाले मनुष्य के जीवन के इस कालखंड को ताम्राश्म युगीन सभ्यता
का नाम दिया गया ।
जीवन
अपने संप्रत्यय में स्थायी होते हुए भी व्यक्तिगत रूप में स्थायी नहीं होता । जैसे
मनुष्य की मृत्यु होती है वैसे ही सभ्यताओं का भी विनाश होता है । एक सभ्यता के
पश्चात दूसरी सभ्यता का आगमन होता है । एक बस्ती मिट जाती है और उसके अवशेषों पर
दूसरी बस्ती का निर्माण होता है । समय की चादर उन अवशेषों को मिटटी में गहरे दफ्न कर
देती है । अगर हम उस सभ्यता तक जाना भी चाहें तो एकाएक उस तक नहीं पहुँच सकते ।
पहले हमारा सामना बाद की सभ्यताओं से होता है और उसके पश्चात हम उस प्राचीन सभ्यता
तक पहुँच सकते हैं । एक पुरातत्ववेत्ता कालक्रमानुसार अतीत की खोज करते हुए यही
काम करता है । वह परत दर परत ज़मीन के भीतर पहुँचते हुए अंततः उस सभ्यता तक पहुँच
जाता है जिसके पास इस मनुष्य जाति के प्रारंभिक स्वप्न थे ।
समझ नहीं आया कि हम कैसे चूक गए. पुरा शब्द से ही हमारा प्रेम पुराना रहा है. चलिए हमें भी एक और साथी मिल गया. आज हमने आपकी सभी प्रविष्टियों को पढ़ लिया. अच्छा लगा. हाँ हम उलझे हुए थे किसी आलेख के चक्कर में. आभार.
जवाब देंहटाएंप्रारम्भ करें, हम नयन पसारे बैठे हैं. .
जवाब देंहटाएंप्रयास यह रहे कि काल और आम जन जिन्हें जानते हैं, उन इतिहास पुरुषों का सन्दर्भ देते चलें. इससे ब्लॊग से अपनापन बढ जाएगा और समझने में सुविधा भेए रहेगी.
http://girijeshrao.blogspot.com
शीर्ष चित्र के सामने आप के उद्गार पढने में नहीं आ रहे हैं. कुछ करें.
जवाब देंहटाएंare vaah,
जवाब देंहटाएंaapki posts ka besabri se intzaar rahega.
Yeh blog bookmark kar liya hai.
Aap, likhna shuru karen, dheere dheere aur log bhi judte jaayenge.
Neeraj Rohilla
...ओह तो शरदजी आप पहले कमिंग अप देते हैं...ब्लॉग क्या हुआ टीवी की टीज है..ब्रेक पर जाने से पहले बता देते हैं कि इसके बाद क्या है...और दर्शक कहीं नहीं जाता...हम भी नहीं जाएंगे मालिक...ब्रेक चाहे तीन मिनट (यहां तीस दिन मानें उसे)...बहुत खूब और सराहनीय..आपके सरोकार। लिखिए और छात्र बन जाइए...शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंइंतज़ार कर रहे हैं
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया शरद जी ।
जवाब देंहटाएंआज से इस डायरी को पुनर्पोस्ट कर रहा हूँ पिछली बार से काफी परिवर्तन किये हैं इसे ज्ञानवर्धक और रोचक बनाया है उम्मीद है आप सभी की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होंगी
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