जिन दिनो मैं विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से पुरातत्व में एम.ए. कर रहा था , वहीं पास ही चम्बल नदी के किनारे एक उत्खनन कैम्प में जाना हुआ , डॉ. वाकणकर के निर्देशन मे हम लोग पन्द्रह दिन वहाँ रहे । उस दौरान काम के साथ साथ बहुत सारी बातों पर चर्चा होती रही ,हम मित्रों के बीच । यही सब प्रस्तुत कर रहा हूँ इन दिनों इस " एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी में "। इसे आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं इसलिये की डायरी के लिये कविता या कहानी जैसी कोई शर्त नहीं होती कि इसे प्रारम्भ से ही पढ़ा जाये ।इस तरह इस चर्चा में भी आप भाग ले सकते हैं । इसे भविष्य में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की योजना है । तय है कि उसमें ब्लॉग के पाठक भी शामिल रहेंगे ।
फिलहाल चर्चा चल रही है ओलम्पिक पर और उसमें होने वाले खेलों और भाग लेने वाले खिलाड़ियों पर । मुद्दा यह है कि उस समय स्त्रियों को खेल में भाग लेने की इज़ाज़त क्यों नहीं थी । चलिये आगे पढ़ते हैं...
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी : आठवाँ दिन : पाँच
ओलम्पिक में स्त्रियों को भाग लेने की इज़ाज़त नहीं थी ।
ओलम्पिक में स्त्रियों को भाग लेने की इज़ाज़त नहीं थी ।
“ सर वो ओलम्पिक के बारे में बता रहे थे आप “ अजय ने सर को मूल विषय पर वापसी के लिये संकेत दिया । “ हाँ “ सर बोले “ मैं कह रहा था कि ओलम्पिक देखने हज़ारों की संख्या में लोग आते थे । तम्बुओं में उनके रहने की व्यवस्था की जाती थी लेकिन स्त्रियों के लिये इस ओलम्पिक में प्रवेश निषेध था । इस नियम का उल्लंघन करने वाली स्त्री को मौत की सज़ा तक दी जा सकती थी ।
“ यह तो बड़ा अन्याय है सर “ रवीन्द्र ने कहा । “ हाँ “ सर बोले “ हो सकता है देशकालानुसार ऐसा नियम रहा हो , यह तो बहुत बाद में स्त्रियों ने खेल में भाग लेना शुरू किया ।शुरू शुरू में जियस के मन्दिर में होने वाले खेलों में ही उन्हे इज़ाज़त दी गई । हमारे देश में भी स्त्रियों के लिये बहुत से खेल वर्जित थे और आज देखो लड़कियाँ ही सर्वाधिक पदक जीतती हैं ।
“ अपने देश में कहाँ जीतती हैं सर ? अपने यहाँ तो बचपन से ही लड़कियों को लड़कों के खेल खेलने से मना किया जाता है । लड़कों को सारे खेल खेलने की अनुमति है लेकिन लड़की ने जहाँ लड़कों के साथ खेलना चाहा कि बस ..। लड़के खेलते हैं क्या गुड्डे -गुड़ियों से ? “ अशोक बोला ।
" इसीलिये तो लड़कियाँ पीछे रह जाती हैं । भले ही देश मे लड़कियों की हॉकी , फुटबाल ,क्रिकेट टीम हो लेकिन विश्व स्तर पर कहीं कोई नाम है क्या उनका ? और इन खेलों की छोड़ो अन्य खेलों में भी कहीं नाम है क्या ? अथेलेटिक्स में अन्य देशों की लड़कियाँ कितने करतब दिखलाती हैं हमारे देश की कोई खिलाड़ी नज़र आती है क्या ? इसका मतलब साफ है, हमारे देश में लड़के -लड़कियों में भेदभाव किया जाता है । अजय ने गुस्से से कहा ।
बातचीत यूनान के ओलम्पिक से शुरू होकर भारत के खेल तक पहुंच चुकी थी और मैं इस प्रयास में था कि उसे फिर इतिहास की ओर ले जाऊँ लेकिन ,वर्तमान को इतिहास से फिर जोड़ना इतना आसान नहीं था ।मैने कहा " इस पर विवाद मत करो भाई , कुछ इतिहास कारों का तो यह भी कहना है कि शुरू में स्त्रियाँ ही इस खेल में भाग लेती थीं , पुरुषों को बाद में अवसर दिया गया ।
" यह तो तुम नई बात बता रहे हो " रवीन्द्र ने कहा । मैने कहा " हाँ ओलम्पिक का इतिहास तो यही कहता है ।
बहुत बढ़िया और सठिक लिखा है आपने! बहुत अच्छा लगा पढ़कर! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंइसका मतलब साफ है, हमारे देश में लड़के -लड़कियों में भेदभाव किया जाता है ।
जवाब देंहटाएंhan.. main sahmat hun..
हाँ ओलम्पिक का इतिहास तो यही कहता है...
jaane kyon mujhe wikipedia par bhadosa hota hi nahi.. ham aur aap hi to likhte hain na use... jyada authentic sites ke link bhi diya karein... for instance, wikipedia ke is article mein jo references hain, unmein kuch universities ke research results hain.. lekin unmein kahin ye baat saabit nahi ki gayi hai ki शुरू में स्त्रियाँ ही इस खेल में भाग लेती थीं , पुरुषों को बाद में अवसर दिया गया
ye to sirf kuch logon ka manana hai ki aisa hota hoga, without any proof..
khair, accha post.. comments mein main is par aur discussion ki ummeed karta hun..
shukriya..
तो नारी विमर्श भी मिलेगा बाइस्कोप माँ !
जवाब देंहटाएंआवो लइके लइकनी सब लोग चर्चा में भाग लो।
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प्रसिद्ध महिला पुरातत्त्ववेत्ताओं के नाम भी लेखों में समेट लीजिए। लोगों का ज्ञानवर्धन भी हो जाएगा।
अभी दो दिनों पहले एक फिल्म देखि मैंने जिसमे नायिका को पुरुषों के साथ खेलने के लिए अपनी योग्यता नही साबित करनी पड़ती सिर्फ पुरुष वेश धारण करना पड़ता है ..फिल्म किंचित मसाला टाईप थी पर निर्देशक का मंतव्य साफ था. लौटने के बाद मेरे मित्र और जीवनसाथी राज से मेरी इस विषय पर चर्चा हुई थी की ओलम्पिक में महिला को खेलना तो दूर देखना भी निषिद्ध था. मेरी जानकारी में कारन कई थे जिसमे समकालीन समाज में स्त्रिओं की दशा भी थी परन्तु एक तात्कालिक स्पस्ट कारन भी था वह था पुरुषों का नग्न होकर प्रतियोगिता में भाग लेना (हो सकता है मैं गलत होऊं ) परन्तु आगे एक माता ने अपने पुत्र को प्रशिक्षित करके ओलम्पिक में उतरा और स्वयं पुरुष का वेश बनाकर दर्शक दीर्घा में बैठ गई ..खेल खत्म होने पर पुत्र को विजेता बनता देख कर वह अपनी खुसी छुपा नही पाई और उसके स्त्री होने का भेद खुल गई फिर वाद-प्रतिवाद हुए और स्त्रिओं को देखने की अनुमति मिली ..कहानी इतनी ही याद है ..सोंचती हूँ तब से अबतक स्त्रिओं की दशा में कितना परिवर्तन आया है ...अगर कोई योग्य है तो उसे सिर्फ इस कारन की स्त्री है कब तक वंचित किया जाता रहेगा अवसरों से ?
जवाब देंहटाएंआपने इस बारे में चर्चा की धन्यवाद शरद जी.
बड़ी बात संक्षेप में और असर कारक। प्रभावी ब्लागिरी है।
जवाब देंहटाएं"कितनी जल्दी ख़तम हो गयी ये चीज" हर अच्छे लेख के बाद हम कहते हैं इसे है ना.
जवाब देंहटाएंवाद विवाद भी बड़ी रूचि कर होती है आप जैसे पुरातत्ववेत्ताओं की वैसे पहले का तो पता नही परंतु आज तो महिलाएँ खूब पदक जीत रहीं है चाहे चीन हो या जापान..ओलंपिक में जलवा उनका बराबर का है...बढ़िया प्रसंग
जवाब देंहटाएं@ वन्दना जी इस बारे में एक सन्दर्भ मिला है -
जवाब देंहटाएंFrom Wikipedia, the free encyclopedia
Orsippus was an ancient Greek runner from Megara who was famed as the first to run the footrace naked at the Olympic Games and "first of all Greeks to be crowned victor naked."[1][2] Others argue that it was Acanthus instead who first introduced Greek athletic nudity. Orsippus won the stadion-race of the 15th Olympic Games in 720 BC.
शरद जी,
जवाब देंहटाएंजहां घरों में बेटियों को बचपन से ही पढ़ाई के साथ सिर्फ चूल्हा-चौका सीखने पर जोर दिया जाता है, वहां ज्यादा से ज्यादा सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, पी टी ऊषा कैसे निकलेंगी...
एक बात और, आपके आज एक कमेंट...हास्य कविता पढ़ने का भी अपना एक आनंद है...ने मास्टरस्ट्रोक सरीखा परम आनंद दिया...आप जो कहना चाहते थे, बड़े कलात्मक ढंग से समझा दिया...
जय हिंद...
शरद जी, बहुत बढिया मुद्दा है.प्राचीनकाल में राजघरानों की राजकुमारियों को शस्त्र-चालन की शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन के लिये अनेक क्रीडाओं का भी उल्लेख मिलता है.लेकिन मसला ओलम्पिक का है, तो बाहरी देशों की महिलाएं चाहे जितने भी झंडे गाडें, लेकिन हमारे खाते में बहुत कम उपलब्धियां आईं है.खेलों में लडकियों की हिस्सेदारी को लेकर भारतीय समाज कोई बहुत उत्साहित भी नहीं दिखाई देता. लडकों के खेल को जितना महत्व मिलता है क्या उतना महत्व लडकियों को मिलता है? भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कितनी खिलाडियों के नाम लोगों को मालूम हैं?
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