" एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी " दसवें दिन के इस पाँचवें खंड में दृश्य कुछ इस तरह है कि उज्जैन के पास दंगवाड़ा नामक गाँव में चम्बल नदी के किनारे टीले पर हम लोगों का कैम्प लगा है । दिन भर का काम समाप्त हो चुका है और शाम को सिटी यानि दंगवाड़ा गाँव की सैर करने और भोजन के पश्चात हम लोग अपने तम्बुओं में घुस गये हैं और रज़ाई ओढ़े गपिया रहे हैं और मैं सुना रहा हूँ अपने मित्रों को अपनी अजंता एलोरा यात्रा की डायरी .. चलिये आप भी चलिये हमारे साथ
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उज्जैन की सीमा से बाहर निकल कर बस इंदौर की ओर चल पड़ी । न मैं बहुत खुश था न बहुत उदास लेकिन बसंती हवाओं ने मेरी उदासी कुछ और बढ़ा दी । अशोक समझ गया मुझे नॉस्टेल्जिया का दौरा पड़ा है ।“ क्या हो गया ? “ उसने पूछा ..” कोई बचपन की मुहब्बत याद आ रही है क्या ? “ मैंने घूरकर उसकी ओर देखा तो वह खिड़की से बाहर झाँकने लगा । बहुत देर तक खामोश बैठा रहा मैं । एक मन हुआ कि बैठे बैठे सो जाऊँ लेकिन पंडित राममिलन आज चुटकुले सुनाने के मूड में थे और बार बार मुझे सम्बोधित कर रहे थे .. सुनो भैया सरद.. अंत: मेरा मूड ठीक हो गया , उदासी का आवरण छिटक कर दूर हो गया और मैं भी सबके साथ कहकहों के समन्दर में गोते लगाने लगा ।
इन्दौर का प्रसिद्ध राजवाडा |
मैं बहुत तल्लीन होकर डायरी पढ़ रहा था कि अचानक अजय ने एक कहकहा लगाया । “ क्या हुआ ?” मैंने गुस्से से उसकी ओर देखा …” आमाशय ही लिखा है , गर्भाशय नहीं लिखा जो तुम इतनी अश्लील हँसी हँस रहे हो ।“ अजय हँसते हँसते बोला … “ वो तो बेटा तुम लोग उस दुकानवाली के चक्कर में थे , इसलिये बेहिसाब पूड़ियाँ उदरस्थ करते जा रहे थे हमे सब पता चल गया था । “ ठीक है , ठीक है । “ मैंने झेंपते हुए कहा “ लो आगे भी तो सुनो । और मैंने आगे की डायरी पढ़ना शुरू कर दी ।
Paapi pet...iske liye sab kuch karna padta hai :)
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