जनता
के साथ अजंता की सैर
भोजन के पश्चात पेट ही नहीं मन भी भरा
भरा सा लगता है । भोजन शरीर में पहुँचकर उर्जा उत्पन्न करता है वह उर्जा कोशिकाओं
में पहुँचकर रक्त प्रवाह को गति देती है और वह रक्त मस्तिष्क तक पहुँचकर समस्त
क्रियाकलापों को गति देता है आखिर मन मस्तिष्क के इन्ही सब क्रियाकलापों का योग ही
तो है । भाटी जी ने आज हरे मटर की रसेदार सब्ज़ी बनाई थी जो उन्हें गाँव के मज़दूर
दे गए थे ,साथ में टमाटर की चटनी भी । होटल के बेस्वाद भोजन से अलग इस भोजन के
स्वाद की बात ही कुछ और थी सो हमारा मन प्रफुल्लित था इसलिए आज खाने के बाद टहलने
का मन भी नहीं हुआ ।
भोजनशाला से निकलकर हम लोग सीधे तम्बू
में पहुँचे । जिस तरह घूमने जाने की इच्छा रखने वाला नन्हा शिशु अपने पिता का
ध्यान आकर्षित कराने के लिए साइकल की ओर ऊँगली
से संकेत करता है उसी तरह अजय ने
मेरे बैग से मेरी डायरी निकाली और मुझे थमा दी । मैं समझ गया सबकी इच्छा आगे का यात्रा वृतांत सुनने की है । मैंने डायरी
खोली और सवाल किया " तो हम कहाँ थे ? " अजय ने तपाक से कहा " सुलभ
शौचालय में .. मेरा मतलब शौच आदि से निवृत होकर आप लोग जलगाँव के बस अड्डे पर
गर्मागर्म चने की की मिसल वाला आलू पोहा खा रहे थे । " " ओके ओके ।"
मैंने कहा और फिर जनता के बीच अजंता यात्रा का वाचन प्रारम्भ कर दिया ।
"तो इस तरह नाश्ते के बाद हम
लोगों ने अजंता के लिए कूच किया । हमारी डॉज के ड्राईवर जमनालाल जी ने बताया कि जलगाँव
से अजंता की दूरी इकसठ किलोमीटर है और इस यात्रा में लगभग एक घन्टा लगता है । आज
किसी सीट पर किसी का रिज़र्वेशन नहीं था इसलिए मैंने खिड़की के पास की एक सीट चुनी
और उस पर बैठ गया । बचपन से ही यात्रा में खिड़की से बाहर के दृश्यों को देखना मुझे
अच्छा लगता है । जिस ज़िंदगी को हम जी नहीं सकते उसकी एक झलक ही मिल जाए तो क्या कम
है । हिंदी साहित्य में आलोचना के अंतर्गत जब किसी के द्वारा ग्रामीण जीवन पर कुछ
लिखा जाता है और उसमे गाँव के सुख दुःख शामिल नहीं होते अथवा गाँव का बहुत रूमानी
वर्णन होता है तो अक्सर कहा जाता है कि उसकी कविता में गाँव बस या रेल की खिड़की से
देखे हुए गाँव जैसा है ।"
"इसीलिए तो भैया हम तेरे को
दंगवाड़ा गाँव घुमाने ले जाते हैं ताकि तू आगे चलकर जब बड़ा कवि बने तो गाँव के जीवन
का यथार्थ वर्णन कर सके ।" अजय ने तपाक से मेरी इस बात पर कमेन्ट किया ।"
ठीक है ठीक है, आगे जब बड़े होंगे तब देखेंगे ..क्या पता इस पुरातत्व विभाग में ऐसी
जगह नौकरी मिले जहाँ गाँव में ही रहना अनिवार्य हो .. तब भी यह इच्छा पूरी हो
जाएगी और बड़े कवि की छोड़ कवि ही बन जाएँ इतना काफी है ।" "ओके भाई .." रवीन्द्र ने कहा "
तब की तब देखी जाएगी, चल आगे की डायरी सुना ।"
" लो सुनो । " मैंने कहा ।
खिड़की के पास बैठकर बाहर के दृश्यों को देखते हुए कब अजंता आ गया पता ही नहीं चला ।
अजंता की दूरी दर्शाने वाले मील के पत्थर दिखाई देने लगे थे और मैं उन्हें पढ़ता जा
रहा था …अजंता की गुफाएँ 4 कि मी, अजंता केव्ज़
3 कि मी, अजिंठ्या लेण्या 2 कि मी । बौद्धकालीन अजंता की गुफाओं के विषय
में कोर्स में मैंने काफी कुछ पढ़ रखा था । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं कुछ ही देर
में बौद्धकालीन युग में प्रवेश करने वाला हूँ । चारों ओर विशालकाय पहाड़ियाँ थीं ।
आँखों को तृप्त करने वाली हरियाली से यात्रियों को आकर्षित करते हुए दूर दिखाई
देने वाले छोटे - बड़े पौधे बस की विपरीत दिशा में भागते प्रतीत हो रहे थे । मेरा
मन उससे भी पीछे भाग रहा था । मुझे लगा कि बस कुछ ही देर बाद मेरी आँखों के सामने
एक अद्भुत दृश्य होगा जिसमें गेरुए वस्त्रों में कलाकार से दिखाई देने वाले कुछ
बौद्ध भिक्षु होंगे, जिनके हाथों में कूचियाँ होंगी और वे किसी गुफा के भीतर
चित्रकारी में रत होंगें ।
मैं सोचने लगा उस कालखंड विशेष के बारे में जब
यहाँ यह पक्का रास्ता नहीं रहा होगा, यह मील के पत्थर भी नहीं रहे होंगे, न वाहनों की कर्कश आवाज़ होगी न धूल न धुआं । बस
यहाँ रही होगी यह निर्जन पहाड़ी, नाल के आकार में गुफाओं की लम्बी कतार, आकाश में
विचरण करते ढेर सारे पक्षी और वातावरण में
गूंजते ‘ बुद्धम शरणम गच्छामि ‘ के स्वर ।
अचानक बस ने आख़िरी मोड़ लिया और अतीत के
खुले आसमान में विचरण करता हुआ मेरा स्वप्न सैलानियों की कारों, टूरिस्ट बसों,
छोटी छोटी दुकानों और होटलों की दमघोटू भीड़ के बीच गिरकर चकनाचूर हो गया । वहाँ का
शोर सुनकर मुझे लगा जैसे मैं किसी मेले में आ गया हूँ । ड्राइवर ने बस एक किनारे
पर लगा दी । हम लोग उतर कर नीचे आए । मैंने एक अंगड़ाई ली और हवा को ज़ोर से भीतर
खींचकर फेफड़ों में भर लिया ।
मैंने चारों ओर नज़रें इस तरह
घुमाकर फेंकी जैसे कोई मछुआरा अपना जाल घुमाकर फेंकता है । मुझे उन गुफाओं की तलाश
थी जिनके बारे में मैं बचपन से सुनता चला आया था । पूछने पर ज्ञात हुआ कि उन
गुफाओं की श्रंखला के प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए पहले सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी ।
उसके बाद उन गुफाओं का संसार प्रारम्भ होगा जो आज पूरी दुनिया में मशहूर हैं ।
सीढ़ियों पर चढ़कर हम लोगों ने टिकट खरीदे और प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश किया ।
मैं अपनी मूर्खता पर मन ही मन हँस रहा था । जाने क्यों मुझे इस बात का गुमान था कि
गुफायें अब भी ढाई हज़ार साल पहले की स्थिति में होंगी । इन गुफाओं की खोज हुए भी
जाने कितना समय बीत चुका है और अब तो यह बाकायदा एक टूरिस्ट सेन्टर बन चुका है ।
इस बात का हमें भान था कि हम लोग यहाँ टूरिस्ट की तरह नहीं बल्कि अध्ययनकर्ता की
तरह आए हैं और हमें उसी तन्मयता के साथ इन गुफाओं का अवलोकन करना है जिस तन्मयता
के साथ कलाकारों ने इन गुफाओं में चित्र उकेरे होंगे ।
सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरांत हमें जो सबसे
पहली गुफा मिली उसे पुरातत्व विभाग ने गुफा क्रमांक एक नाम दिया है । उसके बाद
क्रम से गुफा क्रमांक दो, तीन,चार आदि हैं । इस क्रम का इन गुफाओं के निर्माण काल से कोई सम्बन्ध
नहीं है । वास्तव में सबसे पहले जिस गुफा में चित्र उकेरे गए वह गुफा क्रमांक दस
है । इसके बाद इस गुफा के दोनों ओर क्रमश: गुफाएँ कटती चली गईं हैं । अजंता की यह
गुफाएँ मनुष्य द्वारा निर्मित वे बेजोड़ गुफाएँ हैं जिन पर भारत को गर्व है । देश
विदेश से आए सैलानी इन्हें देख आश्चर्य
चकित हो उठते हैं । अहा ! इतना अद्भुत सौंदर्य ! इन गुफाओं में चित्रकला व शिल्प
कला के बेजोड़ नमूने हैं । इनकी किसीसे तुलना नहीं हो सकती । बुद्धि व श्रम के
संयोग से निर्मित इन गुफाओं को देख कर आधुनिक तकनीक भी हैरान है । प्राकृतिक रंगों
के निर्माण व उपयोग के बारे में उस युग के मनुष्य की समझ व ज्ञान को देख कर ऐसा
नहीं लगता कि कला के प्रति उस मनुष्य का सौन्दर्यबोध किसी भी तरह कम रहा होगा । इन
गुफाओं के निर्माण का उद्देश्य भी स्पष्ट है । इक्कीस सौ वर्ष पूर्व जब बौद्ध धर्म
अपने चरम पर था, लाखों की तादाद में बौद्ध भिक्षु दीक्षा ले रहे थे और उन्हें अपनी
साधना के लिए किसी एकांत की आवश्यकता थी । इसी आवश्यकता ने इन गुफाओं को जन्म दिया
।
मेरे डायरी वाचन के बीच
अचानक अजय का एक सवाल कूद पड़ा “ लेकिन यार इन गुफाओं का पता कैसे चला ? इन तक भी
डॉ. वाकणकर जैसा कोई व्यक्ति पहुँचा था क्या ? “हाँ बताता हूँ …” मैंने कहा “आगे
यही लिखा है मैंने । बाघोरी नदी के किनारे नाल के आकार में बनी इन गुफाओं की खोज
की कहानी भी अत्यंत रोचक है । सन अठारह सौ उन्नीस , अंग्रेज़ों के समय की बात है ।
एक दिन एक अंग्रेज़ शिकारी शिकार के लिए निकला और जंगल में रास्ता भटक गया । उसे एक
किसान का लड़का मिला उसने शायद इनाम की लालच में शिकार प्राप्त होने की संभावित
दिशा बताते हुए इन गुफाओं की ओर इशारा किया । उस समय यह गुफाएँ असंख्य पेड़ों और
लताओं से घिरीं थीं । अंग्रेज़ शिकारी ने दूरबीन से इधर देखा। उसे पेड़ों के पीछे
किसी गुफा में एक चित्र नज़र आ गया और वो खुशी से उछल पड़ा । इस तरह यह गुफाएँ सारे
संसार में मशहूर हो गईं ।"
इतना कह कर मैं चुप हो गया ।
मैंने देखा अजय, रवीन्द्र, अशोक सब इस तरह मुझे देख रहे थे जैसे यह बात मैं उन्हें पहली बार बता रहा हूँ । “फिर क्या हुआ ?“ अशोक
ने सवाल किया । “बस अजंता की कला देखते हुए मैं उसमें खो गया । एक एक गुफा की
दीवारों पर चित्रित जातक कथाएं, बुद्ध की विभिन्न मुद्राएँ, मुद्राओं में दुख की
परिभाषा, चेहरे पर वैराग्य की अनिवार्यता और संसार को सही सही जान लेने का भाव ।
इसके अलावा भी बहुत कुछ था इन चित्रों में …गृहस्थ जीवन के प्रति पति की उदासीनता
से आहत यशोधरा, भिक्षुओं के भिक्षाटन ,उपदेश श्रवण,संगीति जैसे विभिन्न
क्रियाकलाप, दान की गाथाएँ और जाने क्या क्या, इसका वर्णन शब्दों में संभव ही नही
है । उन्नीस गुफाओं को पार करते हुए जैसे मैं एक युग पार कर चुका था । हम जिस कला
व संस्कृति की बात करते हैं, वह संस्कृति तो यहाँ छुपी हुई है । ऐसी संस्कृति जिसे
किसी धर्म या जाति या देश काल की परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता ।
"लेकिन अँधेरी गुफाओं
के भीतर कलाकारों ने यह चित्र बनाये कैसे होंगे ?" अजय ने मुझसे सवाल किया ।
"आसान था ।" मैंने कहा । फिल्म की शूटिंग के लिए कैमरामैन जिस तरह
रिफ्लेक्टर का उपयोग करते हैं उसी तरह इन कलाकारों ने भी सूर्य की रौशनी को भीतर
तक लाने के लिए चमकीली सतह वाले रिफ्लेक्टर्स का उपयोग किया होगा और रंग भी फूल,
पत्तों, रंगीन पत्थर और प्राकृतिक वस्तुओं
जैसे चर्बी , पौधों का अर्क आदि की सहायता से बनाये होंगे इसीलिए अब तक यह चित्र
जस के तस हैं ।"
"लेकिन मैंने देखा है
बहुत सारे चित्रों में अब रंगों का क्षरण हो रहा है ।" अशोक ने कहा । "
हाँ यह तो है," मैंने कहा "इतने
सारे लोगों का आना, कृत्रिम रौशनी और प्रदूषण कुछ न कुछ असर तो होगा ही, इसीलिए अब
कुछ चित्रों को संरक्षित करने के लिए उन पर टचिंग की जा रही है ।"
"लेकिन इससे तो मूल पेंटिंग्स ख़राब हो जाएँगी " अशोक ने कहा । "हाँ
हो सकता है लेकिन किया भी क्या जा सकता है, अजंता अब एक बहुत बड़ा पर्यटन उद्योग है
। खैर आगे सुनो " इतना कहकर मैंने फिर डायरी वाचन प्रारंभ कर दिया ।
"गुफाएँ देखते हुए
दोपहर के तीन बज चुके थे लेकिन हमें वापस भी लौटना भी था । हम जैसे अध्ययनकर्ताओं
के लिए चार -पांच घंटों का यह समय बहुत कम था । यह सोचकर कि ठीक ठाक नौकरी मिल
जाने के बाद एक बार फिर दो - चार दिनों के लिए
यहाँ आएँगे हम लोगों ने संतोष कर लिया । हमसे बिछड़कर जैन सर जाने कब पत्थर
की गुफाओं से निकल कर लोहे की गुफा यानि बस में आकर बैठ गए थे । वैसे भी वे पूर्व
में अनेक बार यहाँ आ चुके थे, यह उनके लिए एक रूटीन वर्क की तरह था । हमें आता देख
उन्होंने चिन्ता प्रकट की “अरे भाई , भूख- वूख नहीं लगी क्या तुम लोगों को ?” भूख
एक सच्चाई की तरह हमारे सामने थी और उसे रोटी के चित्र से नहीं मिटाया जा सकता था चाहे
वह कितना भी रंगीन और आकर्षक हो । “चलो महेश ।“ मैंने कहा “ भूख मिटाने का कुछ
इन्तज़ाम किया जाए ।“ और हम लोग किसी होटल की तलाश में निकल पड़े ।"