पानी से चलने वाली चक्की
उत्खनन शिविर में आये आज
हमें पंद्रह दिन हो गए हैं । इन पंद्रह दिनों में मेहनतकशों के जीवन को बहुत क़रीब
से जानने का अवसर हमें मिला है । मजदूरों से बातें करते हुए हमने उनके सुख-दुःख भी
बांटे और जाना कि उनका जीवन बाहर से जैसा दिखाई देता है वास्तव में ऐसा नहीं है ।और
लोगों की तरह हम भी यही समझते थे कि यह लोग खाते पीते मस्त रहते हैं और इन्हें कोई
चिंता नहीं है । लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है । आम शहरी लोगों की तरह उन्हें
सुविधाएँ हासिल नहीं हैं और वे बहुत कठिनाई से बहुत सीमित संसाधनों के साथ अपना
जीवन व्यतीत करते हैं ।
हम मध्यवर्गीय स्वयं को बहुत मेहनती और कार्यकुशल
समझने के भ्रम में जीते हैं और सोचते हैं कि हम उतना ही श्रम कर लेंगे जितना कि
श्रमिक करते हैं । लेकिन यदि एक दिन श्रमिक न आयें तो हमारा यह भ्रम टूट जाता है ।
साईट पर भी आज ऐसा ही कुछ हुआ । किसी कारणवश गाँव से आज अधिकांश श्रमिक नहीं आ
पाये और उनकी अनुपस्थिति में मिटटी फेंकने और साफ़ सफ़ाई के कार्य भी हमें ही करने
पड़े । शाम को ज्ञात हुआ कि हालत प्रतिदिन की अपेक्षा आज कुछ अधिक ही ख़राब है । शाम
को चम्बल पर पहुँचकर हाथ-मुँह धोने तक अँधेरा होने लगा था सो हमने आज सिटी भ्रमण
का कार्यक्रम स्थगित कर दिया और सन्ध्याकालीन भोजन भी शीघ्र ही ग्रहण कर लिया । आज
शिवमंदिर की ओर टहलने जाने की भी मनस्थिति नहीं थी ।
भोजनशाला में कुछ देर आर्य
सर से गपियाने के उपरांत हम लोग अपने तम्बू में आ गए । थकावट कितनी भी हो बिना
बतियाये हम लोगों को नींद नहीं आने वाली थी । नींद के महल में प्रवेश करने हेतु यह
प्रवेश पत्र आवश्यक था । बिना किसीके कुछ कहे मैंने अपनी डायरी निकाली और कथावाचक
की मुद्रा में बैठ गया । राममिलन भैया खाना पचाने के लिए अभी बाहर ही टहल रहे थे ।
किशोर ने तम्बू से बाहर सिर निकाला और ज़ोर से आवाज़ लगाई “ अरे ओ राममिलनवा, जल्दी
आओ कथा शुरू हो रही है ।“ जैसे ही राममिलन भैया भीतर आकर बैठे मैंने
डायरी पाठ
प्रारम्भ कर दिया …
![]() |
औरंगाबाद की पनचक्की |
”बीबी का मकबरा देखने के बाद
हमने वहीं परिसर में स्थित अन्य इमारतों का अवलोकन प्रारंभ किया । आगे उसी दौर की
एक पनचक्की थी जो बरसों से बंद पड़ी थी । कहते हैं इसे सम्राट ने फ़कीरों के
लिए आटे का इन्तज़ाम करने के उद्देश्य से
बनाया था । यह कभी पानी की ताकत से चलती थी , इसमें पानी के प्रवाह से एक चक्र को घुमाया जाता था उससे यह चक्की जुड़ी होती थी .पानी की ताकत को उस युग में ही पहचान
लिया गया था और इसी पहचान की वज़ह से आधुनिक युग में बिजली का जन्म हुआ । आज हम
बगैर बिजली के इस दुनिया के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते । “

“ लेकिन इससे हो क्या जाएगा
। परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है ।“ अजय विमर्श के मूड में था “आज जो वस्तुएँ हम देख रहे हैं यह पुरातन
वस्तुओं का परिवर्तित रूप ही तो है । कल इनका भी रूप परिवर्तन हो जाएगा और यह पहले
से ज़्यादा सुविधाजनक हो जाएंगी । जैसे हाथ के पंखे के बाद, रस्सी से खेंचे जाने वाले
पंखे का अविष्कार हुआ, फिर बिजली के पंखे का, फिर कूलर और फिर ए सी का । हमें जो
भी परिवर्तन करना है वह वर्तमान में उपलब्ध वस्तुओं में करना है पुरातन वस्तुओं से
इस परिवर्तन में क्या सहायता मिलने वाली है ? और इससे मानवजाति के विकास की
प्रक्रिया में क्या अन्तर होने वाला है ?
“ वाह !“ रवीन्द्र ने कहा
“अंतर कैसे नहीं होगा ? जब तक आप पिछली वस्तु पर अनुसंधान नहीं करेंगे, उसकी
कमियों, अच्छाइयों या सीमा के बारे में नहीं जानेंगे तब तक उसका रूप परिवर्तन कैसे कर सकेंगे ?” “नहीं, मैं यह नहीं कह रहा
हूँ । " अजय ने अपनी बात स्पष्ट करने का प्रयास किया । "जिस वस्तु पर
अनुसंधान हो चुका है और जो ज़मीन के भीतर दब चुकी है वह भविष्य की वस्तुओं के लिए
किस तरह उपयोगी है ?" मैंने कहा “मैं तुम्हारा आशय समझ गया हूँ । तुम यही
कहना चाहते हो कि अब कूलर और ए सी के ज़माने में हाथ के पंखे का क्या काम ? वह तो
पुराने ज़माने की बात हो चुका है । “ रवीन्द्र ने ठहाका लगाया …”जब बिजली गुल हो
जाती है ना बेटा ..तब यही हाथ का पंखा याद आता है ।“

"तात्पर्य यह कि मनुष्य
हर दौर में अपने आसपास उपलब्ध वस्तुओं की सहायता से अपने पूर्वजों द्वारा संचित
ज्ञान के आधार पर ही विकास करता है ।" रवींद्र ने कहा । "हाँ ।"
मैंने उसकी बात का समर्थन किया। "अगर
हम वस्तुओं के इतिहास को देखकर आगे विकास नही करेंगे तो हम अपने अतीत को लेकर इतरा तो सकेंगे कि हमारे
पूर्वजों ने यह किया, वह किया, लेकिन यह नहीं जान सकेंगे कि यह कैसे किया तथा उससे
सबक लेकर उनके द्वारा अर्जित ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकेंगे । इस तरह यह एक ऐसा
खोखला पुरातन प्रेम बन कर रह जाएगा जिसकी कोई सार्थकता नहीं होगी । “
“ठीक है ठीक है “ किशोर भैया
जो अब तक चुपचाप बैठे थे बोल पड़े …” भाई पनचक्की के आगे भी तो बढ़ो ।“ मैं उनका आशय
समझ गया था । मैंने फ़िर डायरी पढ़ना प्रारंभ कर दिया …“ पनचक्की के पास ही जल से
भरा एक विशाल कुण्ड था जिसमें कई छोटी - बड़ी अनेक मछलियाँ तैर रही थीं । पास ही
खड़े थे कुछ बच्चे जो उन मछलियों को राजगीरे के लड्डू खिला रहे थे और खुशी से उन
मछलियों की तरह ही उछल रहे थे । “चलो बच्चों..“ बच्चों के अभिभावक ने आवाज़ लगाई ।
“मछलियों के सोने का टाइम हो गया है ।“ मुझे मुस्कुराता देख एक बच्चे ने सवाल किया
“ मछली सोती कैसे होगी अंकल उसकी तो पलकें ही नहीं होतीं ?“ मैंने उस बच्चे की पीठ
थपथपाई । मुझे सवाल करने वाले बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं ।
शरद कोकास
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं