गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन - दस


 एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन - दस 
खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर खून की बूँदे चुग रही है
            नाश्ते के बाद हम लोग टीले पर पहुंच गये ..बहुत बड़ा टीला और बीच में ट्रेंच । अशोक ने कहा  “ यह बिलकुल हमारे उज्जैन में जो पहलवानी के अखाड़े है उसकी तरह दिखाई दे रहा है .. अगर इसमे  मिट्टी डाल दी जाये तो यह कुश्ती के काम आ सकता है । “ रवीन्द्र के दिमाग़ मे अभी तक रोम के एम्फिथियेटर अखाड़े घूम रहे थे ..उसने पूछा .” शरद उन अखाड़ों में भी ऐसी ही मिट्टी होती थी क्या ? “ मैने कहा “ नहीं उनमे रेत होती थी क्योंकि सूर्य की रोशनी में रेत पर खून की चमकती हुई बून्दे अद्भुत दृश्य उपस्थित करती थीं जिन्हे देख कर रोम के अय्याश लोगों को बहुत मज़ा आता था ।पहले यहाँ शेर से मनुष्य को लड़वाया जाता था लेकिन जब उन्माद बढा तो मनुष्य को मनुष्य से लड़वाया जाने लगा ।“
            रवीन्द्र ने कहा “ कैसे होती थी ग्लेडियेटर्स की यह लड़ाई ?” मैने कहा चलो तुम्हे वहाँ का दृश्य दिखाता हूँ । जिस तरह हमारे यहाँ स्टेडियम होता है उस तरह का होता था यह एम्फिथियेटर बीच में यह अखाड़ा जिसे एरीना कहते हैं । जिस तरह क्रिकेट देखने के लिये भीड़ इकठ्ठा होती है उस तरह की भीड़ यहाँ उपस्थित है । ठीक वैसा ही उन्माद .. शोर । साइड की दीवार  के पास एक शेड है जहाँ ग्लेडियेटर के जोड़े लड़ने के लिये प्रतीक्षारत  हैं उसके दरवाजे से एरीना का दृश्य देखा जा सकता है । मैदान के एक ओर गाने और बजाने वालों का एक समूह बैठा है जब तक लड़ाई शुरू नहीं हो जाती यह वाद्य्यंत्रों से लोगों का मनोरंजन करता रहेगा । हर जोड़े में एक थ्रेसियन है और एक यहूदी या हब्शी अफ्रिका का रहने वाला । जोड़े के दोनो ग्लेडियेटर आपस में घर परिवार की बाते कर रहे हैं जबकि उन्हे पता है कि उनमें से एक को थोड़ी देर बाद मर जाना है ।
पहला जोड़ा एरीना में दाखिल हुआ । उन्होने अपने छुरे की मूठ को रेत से रगड़ा ,अखाड़े के उस्ताद ने अपनी चान्दी की सीटी बजाई और दोनो ग्लेडियेटर आपस में भिड़ गये । एक का छुरा चमका और दूसरे के सीने पर खून की एक लकीर खींच गई । रोमन दर्शकों ने तालियाँ बजाईं । फिर दोनों एक दूसरे से गुंथ गये जैसे उनमे बरसों पुरानी दुश्मनी हो । एक की बाँह में दूसरे का छुरा धंस गया रक्त  की एक धार निकली और रेत पर बिखर गई । वह धरती पर गिर पड़ा ,फिर लड़खड़ाता हुआ उठ खड़ा हुआ और अपने भाले से उसने दूसरे ग्लेडियेटर पर वार किया । उसका चेहरा रक्त में डूब गया ।
“बस कर यार तू तो ऐसे वर्णन कर रहा है जैसे फ्रीगंज चौराहे पर दो दादाओं की लड़ाई हो रही हो ।“ अशोक बोला । ’नहीं ऐसा नहीं है “ मैने कहा दादाओं की लड़ाई आपसी  दुश्मनी को लेकर होती है , ज़मीन को लेकर, स्त्री को लेकर , वर्चस्व को लेकर या पैसे को लेकर ।“ “ और आजकल धर्म को लेकर “ अजय ने बीच में पुछल्ला जोड़ा । “लेकिन इन ग्लेडियेटर्स की तो आपस में कोई दुश्मनी नहीं है ये धनाढ्य लोगों के मनोरंजन के लिये एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं । मैने कहा “ देखो उन में से एक ज़मीन पर गिर गया है ..खून से दोनो के जिस्म तरबतर हैं .. इधर देखने वाले लोग उन्माद से पागल हो रहे हैं मार डालो काट डालो की आवाज़ें गूंज रही हैं .. खून पीकर जीने वाली एक चिड़िया रेत पर गिरी खून की बून्दे चुग रही है ।
दोनो को रुका हुआ देख कर एक चाबुक लिये उस्ताद वहाँ आ गया है और दोनो की पीठ पर कोड़े बरसा रहा है ..” लड़ बे हरामज़ादे , रुक क्यों गया ?” लड़ लड़..लड़...मार डाल साले को काट डाल ..”। अगला क्या करे उसमें तो उठने की ताकत ही नहीं है । अचानक सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए सम्राट की ओर से एक फरमान गूंजता है ..एक हाथ हवा में उठता है और अंगूठा नीचे झुक जाता है .. यह संकेत है ..हत्या का ।एक ग्लेडियेटर दोनो हाथ से अपना भाला उठाता है और नीचे पड़े हुए दूसरे ग्लेडियेटर के सीने में पूरी ताकत से घुसा देता है ।
एक सिपाही उस के पास पहुंचा ,उसे तसल्ली नहीं हुई वह मरा है या नहीं.. उसने अपनी कमर में बन्धा एक हथौड़ा निकाला और उसे उस ग्लेडियेटर की लाश की कनपटी पर दे मारा ..उसका भेजा चूर चूर हो गया और उसके कुछ टुकड़े हथौड़े पर चिपक गये ..सिपाही ने हथौड़ा उठाकर रोमनों का अभिवादन किया । इतने में एक और उस्ताद एक गधा लेकर वहाँ आ गया उसने लाश को एक ज़ंजीर से उस गधे से बान्ध दिया और मैदान के चक्कर लगने लगा पूरे मैदान में उस लाश से भेजे और शरीर के टुकड़े टूट टूट कर गिर रहे हैं । रोमन जनता आनन्द विभोर होकर हँस रही है, खिलखिला रही है, उन्माद में तालियाँ बजा रही है , सीटियाँ बजा रही है , नाच रही है ।
उस खूनी रेत को पलट दिया गया है और अगला जोड़ा फिर मौत के इस खूनी खेल के लिये तैयार है ।“ “बस ..बस कर यार “ रवीन्द्र चीखा “ बन्द कर तेरी यह रनिंग कमेंट्री ...बहुत हो गया ।“

          इस वीभत्स वर्णन के लिये मुझे क्षमा करें लेकिन ऐसा इतिहास में हुआ है जब एक गुलाम इंसान की जान की यही कीमत थी ..उस समय मानवाधिकार जैसी कोई चीज़ नहीं थी ..। आज हम इंसान की जान की कीमत जानते हैं फिर भी हत्याएँ होती हैं ,दंगों और दुर्घटनाओं में लोग मारे जाते हैं ..क्या हमने इतिहास से कोई सबक नहीं लिया है ? - शरद   कोकास ( सभी चित्र गूगल से साभार तथा वर्णन के लिये 'आदिविद्रोही ' के लेखक हावर्ड फास्ट के प्रति कृतज्ञता )    


सोमवार, 7 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवाँ -दिन नौ

-->

22 -  जननांगों को ढँकने के लिए एक चिन्दी तक नहीं

            रात्रि भोजन के पश्चात रज़ाई में घुसते ही रवीन्द्र ने  कहा “ यार यह ठंड तो कम होने का नाम ही नहीं ले रही । “ ठण्ड तो मुझे भी लग रही थी लेकिन सुविधा की इस सांसद में मुझे विपक्ष की भूमिका अदा करनी थी  “ रज़ाई में घुसे हो और ठंड से डर रहे हो .." मैंने आव्हान के अंदाज़ में कहा .." ज़रा रोम के उन गुलामों के बारे में सोचो जिन्हें भीषण ठंड में भी कपडे का एक टुकड़ा तक नसीब नहीं होता था । “यार तू भी ना..." रवींद्र ने नाक चढ़ाते हुए तुरंत मेरी बात पर रिएक्ट किया" मिस्त्र मेसोपोटामिया, रोम, इटली से नीचे बात ही नहीं करता.. अपने इधर नई क्या ऐसा होता है ..बिहार में ही देख लो, रोज खबरें छपती हैं शीत लहर में इतने लोग मरे ।“

            रवीन्द्र सीधे वार्तालाप का विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर से उतारकर राष्ट्रीय स्तर पर ले आया । "भाई ।" मैंने अपनी प्रतिवादी की भूमिका जारी रखते हुए कहा " चलो भारत के बारे में ही बात की जाए । लेकिन तुम भारत जैसे स्वतन्त्र देश के वर्तमान की बात कर रहे हो । । हम इतिहास के विद्यार्थी हैं, एक नज़र उस दौर पर भी डाल लेते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वह स्वर्ण युग था । क्या उस समय लोग ठण्ड से नहीं मरते थे ?" रवीन्द्र को इस तरह मेरा उसे वर्तमान से अतीत में ले जाना नागवार गुजरा .."अब क्या पता मरते थे या नहीं, इस बात का कोई प्रमाण भी तो नहीं है ।" "ज़रूर मरते होंगे..अकाल से मरने के तो प्रमाण मिलते ही हैं अब विज्ञान की प्रगति हो रही है हो सकता है आगे चलकर किसी कंकाल के परीक्षण से यह भी ज्ञात हो जाए कि फलां आदमी ठण्ड की वज़ह से मरा था ।"

अजय ने मेरे पक्ष में अपनी बात रखते हुए कहा .."बिलकुल हो सकता है ग़रीबी तो उस समय भी रही होगी लेकिन स्वर्ण युग में शायद ही कोई मरता हो ।" मुझे अजय की बात का उत्तर तो देना ही था .." स्वर्णयुग जैसी कोई चीज़ सच में हुई है या नहीं किसको पता । वह राजतन्त्र का दौर था, सारे राजा अपनी प्रजा के सुखी होने का दावा करते हुए अपने आप का नाम इतिहास में लिखाए जाने के लिए तत्पर थे । लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे राजाओं के शासन में भी प्रजा की बहुत बुरी स्थिति थी । इतिहास में यह बात कहीं नहीं लिखी गई । गुलामों की स्थिति तो और भी बदतर थी । आज भी संपन्न देशों में कमोबेश यही स्थिति है ।"

            रवीन्द्र मेरी बात से कुछ कुछ सहमत होता प्रतीत हुआ  .." लेकिन विडम्बना यह है हमारे देश की ग़रीबी के बारे में तो सब जानते हैं, संपन्न देशों की ग़रीबी के बारे में कोई नहीं जानता । अमेरिका को ही देख लो ..क्या वहाँ भिखारी नहीं होते होंगे ? ब्रिटेन में क्या लोग ठण्ड से नहीं मरते होंगे ? और मरते तो साम्यवादी रूस में भी होंगे , लेकिन वहाँ से खबरें यहाँ कहाँ आ पाती हैं ।" "खबरें तो अमेरिका से भी नहीं आतीं ।" अशोक ने कहा  .."हमें सिर्फ वहाँ की सम्पन्नता का चित्र ही दिखाया जाता है, जबकि वे लोग जब भी यहाँ टूरिस्ट की तरह आते हैं तो हमारे यहाँ के भिखारियों की ,मदारियों की और साधुओं की फोटो खींचकर ले जाते हैं। हमारे यहाँ की छवि बिगाड़ने का काम इन्ही टूरिस्टों ने किया है ।"

            "यार लेकिन इन पर रोक लगाने का कोई तरीका भी तो नहीं है ।" किशोर ने सरकारी अंदाज़ में कहा । अशोक जैसे उसकी बात का जवाब देने को तत्पर बैठा था  "मगर रोक लगाने की ज़रूरत भी क्या है ? टूरिस्ट तो आयेंगे ही और आयेंगे तो पुरातात्विक महत्व की इमारतों के साथ साथ यहाँ के जनजीवन की फोटो भी खींचकर ले जायेंगे । उनके पास अत्याधुनिक कैमरे होते हैं । उन पर रोक कैसे लगा सकते हैं ? ऐसा कोई कानून नहीं है । फिर अपने साथ वे विदेशी मुद्रा लेकर आते हैं और सरकार को उनके आने से आमदनी भी होती है । कश्मीर जैसी जगह में तो वहाँ के निवासियों का गुज़ारा ही इन टूरिस्टों की वज़ह से होता है । पर्यटन उद्योग को तो बढ़ावा मिलना ही चाहिए ।"

            "अच्छा तुम रोम के गुलामों की बात कर रहे थे  ना जिन्होंने स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह किया था ? ” अजय हमारे पर्यटन मंत्रालय टाइप की बातचीत से बोर हो रहा था । “ हाँ ।“  मैंने कहा । अशोक बोला “ तो यार उसकी पूरी कहानी बताओ ना .. एक्चुअल में हुआ क्या था ? तुम तो बिना कैमरे के ही द्रश्य की फोटो खींचकर रख देते हो ।“ “हाँ, यह हुई ना बात ।“ अपनी तारीफ़ से प्रसन्न होकर मैंने कहा .."लेकिन कहानी ज़रा लम्बी है ।" "कोई बात नहीं ..जब तेरी इतनी लम्बी लम्बी कहानियाँ सुन ली तो यह भी सुन लेंगे । तेरी कहानी लम्बी ज़रूर होती है लेकिन उबाऊ नहीं । " अशोक ने किसी आलोचक के अंदाज़ में कहा। किस्सा सुनाने को तो मैं आतुर था ही । मैंने रजाई के भीतर अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली थी और किस्सागोई के मूड में आ गया था ।

            “ यह आज से दो हज़ार साल पहले सन इकहत्तर ईसापूर्व से भी पहले की बात है । रोम उन दिनों अपने उत्कर्ष पर था । बड़े बड़े धनाढ्य  लोग, सम्पन्न लोग, सत्ता के सुख के साथ जीवन का सुख भोग रहे थे । ढेर सारे मनोरंजन के साधन थे, खेलकूद थे,  हम्माम थे, अय्याशी के लिए औरतें थीं और उनकी सेवा के लिए  हज़ारों गुलाम थे । मनोरंजन के लिए वहाँ के अखाड़ों में कुश्ती तो सामान्य बात थी लेकिन उन दिनों अचानक कुछ ऐसा हुआ था कि सब इस खेल के दीवाने हो गए थे । कई अखाड़ों का निर्माण किया गया । इन अखाड़ों को एम्फिथियेटर कहा जाता था और इनमें ग्लेडियेटर्स को आपस में या खूंख्वार जंगली जानवरों जैसे शेर आदि से लड़ाया जाता था । इन अखाडों के मालिकों ने खदानों में काम करने वाले गुलामों को खरीद लिया था और उन्हें  प्रशिक्षण देकर ग्लेडियेटर बना दिया था ।"
                         
            “ लेकिन इतने सारे गुलाम आते कहाँ से थे ?” राममिलन भैया का यह स्वाभाविक प्रश्न था । “ बिलकुल सही पूछा राममिलन भैया ।“ मैंने कहा “प्राचीन मिस्त्र में थीव्ज़ के पास नूबियन रेगिस्तान है वहीं रेत के बीच सोना उगलने वाली कई खदानें हैं । प्रारंभ में यह सारे मिस्त्र के फराओं के गुलाम थे और सोने की खदानों में काम करते थे । जहाँ इन गुलामों की कई पीढ़ियाँ गुजर चुकी थीं । फराओं के पास यह गुलाम इस तरह आये कि शुरूआत में जब युद्ध होते थे वे सिपाही गुलाम बना लिए जाते थे  जो लड़ाई में मारे जाने से बच जाते थे । यह युद्धबंदी गुलाम तीन पीढ़ियों बाद कोरू कहलाये । मिस्त्र के फराओं का वैभव समाप्त हो जाने के बाद इन खदानों को रोम के धनाढ्य व्यापारियों ने खरीद लिया ।"

            "ये खदानें दरअसल नर्क से भी बदतर थीं । आओ मैं तुम्हें वहाँ का एक दृश्य दिखलाता हूँ . ..कल्पना करो ..  देखो.. वह देखो.. सौ से भी अधिक गुलाम एक कतार में चल रहे हैं .. एकदम नंगे.. गर्म रेत में घिसटते हुए पाँव लेकर ... उनकी गर्दन में एक पट्टा है जो काँसे का है और जो अगले गुलाम की गर्दन में बन्धे पट्टे के साथ एक ज़ंजीर से बन्धा हुआ है । बार बार उस पट्टे के गर्दन में टकराने की वज़ह से उसकी गर्दन में घाव हो गए  है और उनसे खून बह रहा है । अँधेरा गहराता जा रहा है और यह गुलाम दिन भर का काम ख़त्म करके अपनी बैरकों में लौट रहे हैं । एक बार भीतर घुस जाने के बाद उन्हें  बाहर आने की इज़ाज़त नहीं है । वे केवल मरकर ही बाहर आ सकते हैं ।

            "उफ़ ..क्या बेबसी है " रवींद्र ने कहा । मेरी आँखें तम्बू की छत की और देख रही थीं और मुझे वहाँ उन बैरकों का दृश्य दिखाई दे रहा था .."वे बैरकों की फर्श पर ही गन्दगी कर रहे है वहीं कहीं पहले का मल पड़ा हुआ है जो सड़कर सूख गया है । अभी थोड़ी देर में उन्हें  खाना दिया जाएगा ..गेहूँ और टिड्डी का शोरबा और एक मशक में एक सेर पानी जो उनकी भूख और प्यास के हिसाब से नाकाफी है .. उनका पानी ख़त्म हो चुका है ..वे और पानी मांग रहे हैं लेकिन उन्हें पानी नहीं दिया जा रहा है ।"

            "लेकिन पानी क्यों नहीं ?" अजय ने पूछा "खाना भले ही कम दें लेकिन पानी तो मिलना चाहिए !" "अरे मूरख " अशोक ने कहा " वह रेगिस्तान है ,वहाँ पानी तो भोजन से भी अधिक मूल्यवान है ।" " ठीक कह रहे हो तुम " मैंने कहा "जब पानी की कमी से उनका गुर्दा खराब हो जाएगा और वे श्रम करने लायक नहीं रहेंगे उन्हें बैरक से बाहर कर दिया जाएगा और रेगिस्तान में मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा । इन बैरकों में सड़ान्ध है, घुटन है, इतनी बदबू है कि खाया पिया सब बाहर आ जाए  ..लेकिन गुलाम इसे जज़्ब कर लेते है वे उल्टी आने के बावज़ूद भी उल्टी नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार उल्टी कर देने के बाद उनका पेट ख़ाली हो जाएगा और फिर उन्हें दिन भर भूखे रहना पड़ेगा । खाना भी सिर्फ इतना ही मिलेगा कि ज़िन्दा रहा जा सके । वे यह सोचते हुए कि  ज़िन्दा क्यों है, यह सर्द अन्धेरी रात काट देंगे ...।"
                                     
            मैंने एक नज़र अपने मित्रों के चेहरे पर डाली । मुझे कहीं भी उनके चेहरों पर जुगुप्सा का भाव नहीं दिखाई दिया । उनके चेहरे देखकर मुझे santosh हुआ और इस बात का अहसास हुआ कि किस तरह एक मनुष्य के दुःख की गाथा सुनकर दूसरा मनुष्य उस दुःख को महसूस कर सकता है । यह संवेदनशीलता ही उसे मनुष्य बनाती है । मैंने रोम के गुलामों के इस दुःख की गाथा को शब्द देने शुरू किये   "देखो अब नगाड़े बजने लगे हैं, यह उनके लिए अलार्म है..अब सबको ज़ंजीरों में बान्धकर खदानों की ओर ले जाया जाएगा । वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखकर घिसटते कदमों से चल पड़े हैं ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोच रहे हैं । खदान तक पहुँचकर  वे उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं ।

            "उफ़ , कितना कठिन है यह सुनना ।" अजय ने अपने कानों पर हाथ रखते हुए कहा  "हाँ । " मैंने कहा " गुलामों की जीवन गाथा सुनना कठिन तो है । सारे गुलाम पसीने से तरबतर हैं  महीनों से उन्हें नहाना नसीब नहीं हुआ है , अब वे चार घंटे बिना रुके काम करेंगे, जिसका हाथ क्षण भर के लिए भी रुकेगा उसे कोड़ों से पीटा जाएगा .. इस तरह  चार घंटे लगातार काम करने के बाद तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा, फिर उन्हें  ज़िन्दा रहने लायक थोड़ा सा खाना और पानी दिया जाएगा, जो जल्दी में गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पियें  तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...। जो युवा हैं वे तो सह लेंगे लेकिन बच्चों का क्या ..देखो अभी अभी सोलह साल के उस थके हारे बालक ने भूख-प्यास, ठंड और गर्मी के इस उतार-चढ़ाव से लड़ते हुए स्पार्टकस की गोद में दम तोड़ दिया  है । स्पार्टकस रोते हुए उसकी लाश को बेतहाशा चूम रहा है । ”

            "बस कर यार “ किशोर के चीखने से मैं होश में आया । “क्या सुना रहा है तू ... पूरी रात बरबाद कर दी..ऐसा भी होता है कभी ..इतना अत्याचार ..“ किशोर ने गांजे की सिगरेट जला ली थी और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कह रहा था .."ले एक सुट्टा लगा ले और वापस इस दुनिया में आजा .. बाकी कहानी कल सुनेंगे ।" मैंने कहा  “ रेन दे यार अपन तो वेसेई टनाटन्न रेते हें....।

            मेरी ख़ामोशी के पर्दे पर अभी भी उन निरीह गुलामों के चित्र उभर रहे थे । मैं काफी देर तक चुपचाप बैठा उन मनुष्यों के बारे में सोचता रहा । किशोर, अशोक, अजय सब नींद  के आगोश में जा चुके थे । मैं जाग रहा था और एकटक तम्बू की छत की ओर देख रहा था । मेरे साथ जाग रहा था मेरा अंतरंग मित्र रवीन्द्र जो मेरी मनस्थिति समझने की कोशिश में था । “यार रवीन्द्र, तूने पढ़ी है हावर्ड फास्ट की “ आदिविद्रोही ” ? अचानक मैंने रवीन्द्र से पूछा । रवीन्द्र ने कहा “ पढ़ी तो नहीं है लेकिन सुना जरूर है कि उसमें स्पार्टाकस के विद्रोह की कथा है ।“ मैंने कहा “ मैंने तो जिस दिन से पढ़ी है मेरी नींद ही उड़ गई है । कैसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है, अपने मनोरंजन के लिए  एक इंसान की दूसरे इंसान द्वारा हत्या करवाना ?"

            रवीन्द्र जानता था जब तक मेरे  भीतर की वेदना बाहर नहीं निकलेगी मुझे नींद नहीं आएगी । उसने पूछा “फिर उस सोने की खान के गुलामों के बीच से स्पार्टाकस बाहर कैसे आया और ग्लेडिएटर कैसे बना ? “  मुझे लगा उसकी आवाज़ कहीं दूर से आ रही है । हम मनुष्य इसीलिए कहलाते हैं कि हमें अपने आप को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है । लेकिन ऐसा क्यों होता है कि कई बार अपनी वेदना अभिव्यक्त करने से ज़्यादा छटपटाहट दूसरे की वेदना व्यक्त करते हुए  होती है  । शायद इसीलिए कि अपने दुख दूसरों के दुख की तुलना में गौण हो जाते हैं ? कभी कभी दूसरों के दुःख देखो तो लगता है अपने दुःख सिर्फ ओढ़े हुए दुःख हैं । आज मुझे लग रहा था कि स्पार्टाकस कहीं मेरे भीतर जीवित हो गया है और अपने दर्द को प्रकट करने के लिए  छटपटा रहा है ।

            मैंने कहना शुरू किया “ इन खदानों का पता जैसे ही अखाड़ों के मालिकों को पता चला, वे गुलामों को खरीदने के लिए इन खानों में पहुँचने लगे । ये लोग जैसे ही खानों में पहुँचते नग्न गुलाम इनके सामने प्रस्तुत किये जाते और ये लोग जिस तरह बैल या बकरे खरीदते है उस तरह इन्हें खरीदने वाले इनके शरीर के अंग टटोल टटोल कर इनका सौदा करते और इनकी कीमत लगाते । “ “ लेकिन ये गुलाम इस तरह बिकने के लिए  तैयार हो जाते थे ?" रवीन्द्र ने पूछा । “ तैयार..? “ मैंने कहा “ ज़िबह किये जाने वाले जानवर से भी कभी उसकी मर्ज़ी पूछी जाती है क्या । वैसे भी इन खदानों में इन  गुलामों की ज़िन्दगी साल या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल होती थी । खदान के मालिकों को उनके मरने से पहले उनकी कीमत मिल जाती थी । “ इतना कहकर मैं चुप हो गया । मुझे नींद नहीं आ रही थी लेकिन मैं कुछ कहना भी नहीं चाहता था ।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन - आठ

-->
     एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी ––दसवां दिन - आठ 
ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे – तुम्हारे जैसे इंसान
किशोर , अशोक ,अजय सब नींद  के आगोश में जा चुके थे । मैं जाग रहा था और एकटक तम्बू की छत की ओर देख  रहा था । मेरे साथ जाग रहा था मेरा अंतरंग मित्र रवीन्द्र जो मेरी मनस्थिति समझने की कोशिश में था । “ यार रवीन्द्र , तूने पढ़ी है हावर्ड फास्ट की “ आदिविद्रोही ” ? अचानक मैने रवीन्द्र से पूछा । रवीन्द्र ने कहा “ पढ़ी तो नहीं है लेकिन सुना  जरूर है कि उसमें स्पार्टाकस के विद्रोह की कथा है  ।“ मैने कहा “ मैने तो जिस दिन से पढ़ी है मेरी नींद ही उड़ गई है । कैसे एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति इतना क्रूर भी हो सकता है ,अपने मनोरंजन के लिये एक इंसान की दूसरे इंसान द्वारा हत्या करवाना ?
रवीन्द्र जानता था जब तक मेरे भीतर की वेदना बाहर नहीं निकलेगी मुझे नींद नहीं आयेगी । उसने पूछा “ फिर उस सोने की खान के गुलामों के बीच से स्पार्टाकस बाहर कैसे आया और ग्लेडिएटर कैसे बना ? “  “हाँ “ इतना सुनते ही मेरी आवाज़ फूट पड़ी ..। मुझे इस बात का अहसास था कि हम मनुष्य इसीलिये हैं कि हमें अपने आप को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है  । लेकिन ऐसा क्यों होता है कि कई बार अपनी वेदना अभिव्यक्त करने से ज़्यादा छटपटाहट दूसरे की वेदना व्यक्त करने के लिये होती है ..शायद इसीलिये कि अपने दुख दूसरों के दुख की तुलना में गौण हो जाते हैं ? आज मुझे लग रहा था  कि स्पार्टाकस कहीं मेरे भीतर जीवित हो गया है और अपने दर्द को प्रकट करने के लिये छटपटा रहा है ।
मैने कहना शुरू किया “ इन खदानों का पता जैसे ही अखाड़ों के मालिकों को पता चला ,वे गुलामों को खरीदने के लिये इन खानों में पहुंचने लगे । ये लोग जैसे ही खानो में पहुंचते नग्न गुलाम इनके सामने प्रस्तुत किये जाते और ये लोग जिस तरह बैल या बकरे खरीदते है उस तरह इनके शरीर के अंग टटोल टटोल कर इनका सौदा करते और इनकी कीमत लगाते । “
“ लेकिन ये गुलाम इस तरह बिकने के लिये तैयार हो जाते थे ? रवीन्द्र ने पूछा । “ तैयार..? “ मैने कहा “ज़िबह किये जाने वाले जानवर से भी कभी उसकी मर्ज़ी पूछी जाती है क्या । वैसे भी इन खदानों में इन गुलामों की ज़िन्दगी साल या ज़्यादा से ज़्यादा दो साल होती थी । खदान के मालिकों को उनके मरने से पहले उनकी कीमत मिल जाती थी । “ इतना कहकर मै चुप हो गया ।
“क्या हो गया शरद ?” रवीन्द्र ने मुझे छत की ओर ताकते देख पूछा । मैने छत की ओर देखते हुए ही जवाब दिया ... “ देखो रवीन्द्र ..अखाड़ों के दलाल ,नूबिया की उस खदान में स्पार्टाकस को और अन्य गुलामों को खरीदने आये हैं । स्पार्टाकस और उसका एक थ्रेशियन साथी चुपचाप उनके सामने खड़े है ..नंग-धड़ंग ,दोनों की दाढ़ी बढ़ी हुई है , उनके शरीर पर अनगिनत ज़ख्म हैं जिनमें मवाद पड़ चुका है, देह पर चाबुकों के नीले निशान हैं , शरीर से इतनी भयानक बदबू उठ रही है कि  उल्टी हो जाये , शरीर का मैल और गन्दगी शरीर पर ही चिपकी हुई है और सूख गई है । उनके शरीर पर माँस नहीं है ,आँखें बाहर को निकली पड़ रही हैं . दलाल उनकी निरीह ,थकी हुई और निरर्थक जननेन्द्रियों को छूकर देख रहे हैं जैसे अन्दाज़ लगाना चाहते हों कि रोम के अखाड़ों में इन ग्लेडियेटर्स के प्रदर्शन से कितनी उत्तेजना फैलाई जा सकती है और कितना धन कमाया जा सकता है .. । ऊफ... मुझसे तो यह नहीं देखा जा रहा रवीन्द्र ..क्योंकि मुझे पता है ये एक या दो माह के बाद इस दुनिया मे नहीं रहेंगे इन्हे खिला पिलाकर मर जाने के लिये तैयार किया जायेगा इन्हे मरता देख रोम की यह अभिजात्यवर्गीय जनता खुश होगी ... । “ रवीन्द्र मुझे थपकियाँ देकर सुलाने की कोशिश करने लगा । उसने सिर्फ इतना कहा कि ..” मुझे भी बाज़ार में बिकते बकरों और मुर्गों को देख कर यही अनुभूति होती है ..। “
            “रवीन्द्र.......... “ मै अचानक ज़ोरों से चीखा “ ये बकरे और मुर्गे नहीं हैं.. इंसान हैं .. मेरे –तुम्हारे जैसे इंसान ,इनके पास भी वही सब कुछ है जो हमारे पास है ..और इनका कत्ल करने के इरादे से इन्हे खरीदने वाले भी इंसान है .. इंसान-इंसान में इतना भेद ? ” इसके बाद रवीन्द्र ने कुछ नहीं कहा वह तब तक मुझे थपकियाँ देता रहा ..जब तक मुझे नींद नहीं आ गई ।----- आपका - शरद कोकास 
(चित्र गूगल से साभार )


मंगलवार, 24 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन- सात


एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी –दसवां दिन - सात 
वे इतने गुलाम थे कि जननांगों को ढँकने के लिये एक चिन्दी तक उपलब्ध नहीं थी                                                               
रात्रि भोजन के पश्चात रज़ाई में घुसते ही रवीन्द्र ने  कहा “ यार यह ठंड तो कम होने का नाम ही नहीं ले रही । “ मैने कहा “ रज़ाई में घुसे हो और ठंड से डर रहे हो .. ज़रा रोम के उन गुलामों के बारे में सोचो जिन्हे  ठंड में भी कपडे का एक टुकड़ा तक नसीब नहीं होता था । “ “ अच्छा तुम रोम के गुलामों की बात कर रहे हो  ना जिन्होने स्पार्टकस के नेतृत्व में विद्रोह किया था   ? ” अजय ने सवाल किया । “ हाँ “ मैने कहा । अशोक बोला “ यार उसकी पूरी कहानी बताओ ना .. एक्चुअल में हुआ क्या था ? “ “ हाँ , यह हुई ना बात “ किस्सा सुनाने को तो मैं आतुर था ही .मैने अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली थी और किस्सागोई के मूड में आ गया था ।
ह 71 ईसापूर्व से भी पहले की बात है । रोम जब अपने उत्कर्ष पर था । बड़े बड़े धनाढ्य ,सम्पन्न लोग सत्ता के सुख के साथ जीवन का सुख भोग रहे थे । ढेर सारे मनोरंजन के साधन थे, हम्माम थे , अय्याशी के लिये औरतें थीं और सेवा के लिये हज़ारों गुलाम थे । मनोरंजन के लिये वहाँ के अखाड़ों में कुश्ती तो सामान्य बात थी लेकिन उन दिनों अचानक कुछ ऐसा हुआ था कि सब उसके दीवाने हो गये थे । कई अखाड़े हो गये थे जिन्हे एम्फिथियेटर कहा जाता था जिनमें इन ग्लेडियेटर्स की लड़ाई होती थी । इन अखाडों के मालिकों ने खदानों मे काम करने वाले गुलामों को खरीद लिया था और इन्हे ग्लेडियेटर बना दिया था ।                          
“ लेकिन इतने सारे गुलाम आते कहाँ से थे ?” राममिलन भैया का यह स्वाभाविक प्रश्न था । “ बिलकुल सही पूछा राममिलन भैया “ मैने कहा “ ये सारे गुलाम सोने की खदानो मे काम करते थे ? प्राचीन मिस्त्र में थीव्ज़ के पास नूबियन रेगिस्तान है वहीं रेत के बीच सोना उगलने वाली खदाने हैं जहाँ इन गुलामों की कई पीढ़ियाँ गुजर चुकी थीं । शुरू में लड़ाई में बचे हुए सिपाही गुलाम बनाये गये फिर तीन पीढ़ियों बाद वे कोरू कहलाये । मिस्त्र के फराओं का वैभव समाप्त हो जाने के बाद इन खदानों को रोम के धनाढ्य व्यापारियों ने ले लिया ।
ये खदानें दरअसल नर्क से भी बदतर थीं । आओ  मै तुम्हें वहाँ का एक दृश्य दिखलाता हूँ . ..कल्पना करो ..  देखो.. वह देखो.. सौ से भी अधिक गुलाम एक कतार में चल रहे हैं .. एकदम नंगे.. गर्म रेत में घिसटते हुए.पाँव लेकर ... उनकी गर्दन में एक पट्टा है जो काँसे का है और जो अगले गुलाम की गर्दन में बन्धे पट्टे के साथ एक ज़ंज़ीर से बन्धा हुआ है । बार बार उस पट्टे के गर्दन में टकराने की वज़ह से उनकी गर्दन में घाव हो गये है और उनसे खून बह रहा है ।                                                                                  
न्धेरा हो चुका है और वे दिन भर का काम खत्म करने के बाद अपनी बैरकों में लौट रहे हैं । एक बार भीतर घुस जाने के बाद उन्हे बाहर आने की इज़ाज़त नहीं है । वे केवल मरकर ही बाहर आ सकते हैं । वे बैरकों की फर्श पर ही गन्दगी करते हैं जो सड़कर सूख गई है । अभी थोड़ी देर में उन्हे खाना दिया जायेगा ..गेहूँ और टिड्डी का शोरबा और एक मशक में एक सेर पानी जो बहुत नाकाफी है .. जब पानी की कमी से उनका गुर्दा खराब हो जायेगा तो उन्हे रेगिस्तान में मरने के लिये छोड़ दिया जायेगा ।
न बैरकों में सड़ान्ध है, घुटन है ,बदबू है इतनी कि खाया पिया सब बाहर आ जाये ..लेकिन गुलाम इसे जज़्ब कर लेते है क्योंकि एक बार उल्टी कर देने के बाद उन्हे भूखे रहना पड़ेगा । खाना भी सिर्फ इतना ही मिलेगा कि ज़िन्दा रहा जा सके । वे यह सोचते हुए कि  ज़िन्दा क्यों है .अन्धेरी रात काट देंगे ...।                                     
            फिर सुबह होगी नगाड़े की आवाज़ के साथ ..सबको ज़ंजीरों में बान्धकर ले जाया जायेगा ।वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखेंगे ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोचेंगे और फिर उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं । पसीने से तरबतर गुलाम जो महीनों से नहाये नहीं हैं ,चार घंटे बिना रुके काम करेंगे ,हाथ रोकते ही उन्हे कोड़ों से पीटा जायेगा .. इस तरह  चार घंटे तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा , उन्हे खाना और पानी दिया जायेगा , जो गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पिये तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...।
देखो अभी अभी सोलह साल के उस थके हारे बालक ने भूख-प्यास ,ठंड और गर्मी  से लड़ते हुए स्पार्टकस की गोद में दम तोड़ दिया  है स्पार्ट्कस रोते हुए उसकी लाश को बेतहाशा चूम रहा है ।“
स कर यार “ किशोर के चीखने से मैं होश में आया । “ क्या सुना रहा है तू ... पूरी रात बरबाद कर दी  “ किशोर ने गांजे की सिगरेट जला ली थी और मेरी तरफ बढ़ाते हुए कह रहा था ..ले एक सुट्टा लगा ले और वापस इस दुनिया में आजा .. बाकी कहानी कल सुनेंगे । मैने कहा  “ रेन दे यार अपन तो वेसेई टनाटन्न रेते हें....।

क्या सोच रहे हैं आप ..? क्या भाव आ रहा है मन में ? दया ? करुणा ? या जुगुप्सा ? स्पार्टाकस भी इनमें से ही एक गुलाम था उसके मन में सिर्फ आक्रोश आता था .. इसलिये उसने एक ऐसा काम किया कि वह इतिहास में अमर हो गया .. यह उसने कैसे किया यह  कहानी ..अगली किश्त में  - शरद कोकास   

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेता की डायरी -दसवां दिन - छह


नेताओं के अल्पज्ञान के बारे में हम ढेर सारे किस्से सुनते हैं ,कई चुटकुले भी मशहूर है  जैसे एक नेता भाषण दे रहे थे हमारे देश मे तीन तरह के खेल होते है एक सेमी फाईनल एक फाईनल और एक ओलम्पिक .हाँलाकि अब तो नेताओं को ज़्यादा जानकारी रहती है और उनके पास उनके अधिकारी भी होते है । लेकिन इतिहास और पुरातत्व के बारे मे अब भी वही हाल है । लीजिये प्रस्तुत है एक नेता जी का एक सच्चा किस्सा जो हमे बरसों पहले डॉ. वाकणकर जी ने सुनाया था ।  
एक पुरातत्ववेता की डायरी -नौवाँ दिन -दो 
सरकार का पैसा क्या फालतू समझ रखा है ..बस ऊंडे जाओ ऊंडे जाओ
“ क्या यार इतने दिनों से खुदाई कर रहे हैं बस इतना ही खोद पाये । “ अजय ने खीझते हुए कहा । जाने कैसे डॉ. वाकणकर ने उसकी बात सुन ली और कहा “ धीरज रखो बेटा पुरातत्व की खुदाई इतनी आसान नहीं है । यह गढ्ढा खोदने का काम नहीं  है , रोज़ थोड़ा थोड़ा खोदते हुए आगे बढ़ना होता है , किसी वैज्ञानिक की तरह .किसी खोजी की तरह , किसी चिकित्सक की तरह । हम लोग पहले से ही मायूस थे ,उनकी बात सुनकर और मायूस हो गये । सर हम लोगों की उदासी भाँप गये । और फिर अचानक उन्होने कहा “ अरे दुष्टों इसमे उदास होने की क्या बात , चलो तुमको एक बढ़िया किस्सा सुनाता हूँ । 
एक बार कि नई क्या हुआ हम लोग एक साइट पर खुदाई कर रहे थे । एक माह से काम चल रहा था और एक ट्रेंच से बहुत महत्वपूर्ण तथ्य मिल रहे थे । कुछ भी नष्ट न हो इसलिये हम सावधानी से काम ले रहे थे ।एक दिन वहाँ एक नेताजी घूमते हुए आ गये । ट्रेंच को देखते हुए उन्होने अपने अन्दाज़ में पूछा “ हूँ... कितने दिनों से खुदाई चल रही है ? “ हमने बताया “ साब एक माह से । “ इतना सुनते ही वे आग बबूला हो गये और ट्रेंच की ओर इशारा करके चिल्लाने लगे “ एक महीने से खुदाई चल रही है और बस इतना ही खोदा है आप लोगों ने ? " फिर उन्होने मजदूरों की भीड़ देखी  तो और नाराज़ हुए .."कितने आदमी लगा रखे हैं .. सरकार का पैसा क्या फालतू समझ रखा है जो इस तरह बरबाद कर रहे हो ।अगर ठीक से खोदना नहीं आता तो बन्द कर दो खुदाई ।" इससे पहले कि हम उन्हे कुछ समझा पाते कि पुरातत्व की खुदाई और गढ्ढा खोदने मे फर्क होता है ..वे गुस्से मे निकल गये और जाते जाते कह गये ..” अभी तीन दिन बाद मैं फिर इधर आउंगा ,मुझे ठीक- ठाक काम दिखना चाहिये “
 “बस फिर क्या था “ सर ने कहा “ मेने दो मज़दूरों को बुलाया और साइट से बाहर दूर की एक ज़मीन बताकर कहा “ वहाँ खोद डालो रे जितना खोद सको ,बस ऊंडे जाओ ऊंडे जाओ  ।ये नेताजी को बड़ा सा गढ्ढा देखना है ..इन्हे इतिहास .तकनीकी और पुरातत्व विज्ञान से क्या मतलब ।“ तो ऐसा है अपने सत्ताधीशों का पुरातत्व ज्ञान । 
डॉ. वाकणकर की बात सुनकर हम लोग हँस हँस कर लोट पोट हो गये । सर ने कुछ देर बाद गम्भीर होकर कहा “ ऐसा नहीं है कि वे कुछ नहीं जानते या यह केवल तकनीकी ज्ञान के अभाव के वज़ह से उनका यह व्यवहार है । यह मनोवृति इतिहास को गैरज़रूरी समझने के कारण है । इतिहास बोध तो अपनी जगह है लेकिन अतीत को लोग इसलिये भी रहस्यमय मानते हैं कि   वो उनकी समझ से परे है ।  
अब डॉ. वाकणकर जैसे विद्वान पुराविद ने यह बात कह दी तो मै क्या कह सकता हूँ ..प्रतीक्षा है उनकी इस बात पर आपकी प्रतिक्रिया की - चित्र गूगल से साभार                                                                                             

आपका - शरद कोकास                                                                                               

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -दसवां दिन - पाँच

दंगवाड़ा के इस उत्खनन कैम्प में हमारा खुदाई का यह नौवाँ दिन है लेकिन  इस दिन एक ऐसी घटना घटी कि हम सभी को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा । क्या हुआ यह जानने से पहले ज़रा पाँचवें दिन की डायरीपर एक नज़र डाल लें। 

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -पाँचवा दिन 


आज की सतह निरीक्षण में हमे स्वास्तिक चिन्ह युक्त एक सिक्का , एक टेराकोटा ऑब्जेक्ट तथा एक स्टोन बॉल प्राप्त हुआ । आज हमने सतह से खुदाई प्रारम्भ की  और 31 सेंटीमीटर तक पहुंचे । इन प्रारम्भिक बातों के लिये डॉ.आर्य हमारा मार्ग दर्शन करते रहे । शाम को कार्य समाप्त करने के बाद हमे यह भी बताया गया कि प्राप्त वस्तुओं की देखभाल कैसे की जाये और उन्हे सम्भाल कर कैसे रखा जाये । सदियों से जो अवशेष ज़मीन के भीतर दफ्न हैं बाहर आते ही ऐसे लगा जैसे वे हमसे बातें करने लगे है । मिट्टी का 4 से.मी. का एक छोटा सा पात्र हाथ में लिये अशोक उसे बहुत देर तक निहारता रहा । “क्या देख रहा है अशोक ?” मैने ध्यान से पात्र देखते हुए अशोक से पूछा । “ वाह कितना सुन्दर पात्र है “ अशोक ने कहा । मुझे लगा वह ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की किसी विशेषता पर हम लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाला है । लेकिन अशोक ने अपनी नज़रें उस पर से हटाये बगैर फिर कहा “ अपने तम्बू में सिगरेट की राख झाड़ने के लिये ऐश ट्रे नहीं है यह बढ़िया काम आयेगा । और फिर उसने धीरे से उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया ।

और अब ..एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी -नौवाँ दिन-एक
  काश यह वस्तु हमारे ड्राइंग रूम में होती !!!

सुबह सोकर उठे ही थे कि डॉ.वाकणकर इंस्पेक्शन के लिये हमारे तम्बू में प्रवेश कर गये । बिस्तर वगैरह तो हमने करीने से लगा रखे थे सारी चीजें कपड़े बैग आदि व्यवस्थित रखे थे  । लेकिन वाह वाह कहते हुए अचानक उनकी निगाह उस चाल्कोलिथिक पात्र पर पड़ गई जिसे पाँच दिन पहले अशोक ट्रेंच से उठाकर ले आया था और बतौर ऐश ट्रे उसका बखूबी इस्तेमाल कर रहा था । “ व्वा बेटा “ उन्होने कटाक्ष करते हुए कहा । “ शौक तो तुम्हारे रईसों के हैं । इससे पहले कि अशोक अपने धूम्रपान की चोरी पकड़ी जाने पर शर्मिन्दा होता उन्होने कहा “ जानते हो तुम्हारी इस ऐश ट्रे की कीमत क्या है ? ये एक लाख से कम की नहीं है । “ अशोक ने तुरंत माफी माँगी ,बाहर जाकर ऐश ट्रे खाली की और डॉ. साब को देने लगा तो उन्होने कहा “ ऐसे नहीं इसे अच्छी तरह धोकर साफ करो , सुखाओ और फिर आर्काईव में जमा करो .. नहीं तो  तुम्हारा कोई जूनियर चाल्कोलिथिक पीरियड में विल्स या पनामा का उद्भव जैसे विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत कर देगा । ‘
            सुबह सुबह डाँट खाने का असर ट्रेंच पर पहुंचने तक था । हाँलाकि अशोक को इस बात पर संतोष था कि सिगरेट के लिये उसे डाँट नहीं पड़ी । लेकिन ऐश ट्रे के लिये पड़ी डाँट के लिये भी हम सभी अपने आप को दोषी मान रहे थे । बिना अनुमति उत्खनन में निकली किसी भी वस्तु का कोई भी उपयोग अपराध तो था । यद्यपि उसे घर ले जाने जैसी कोई मंशा हमारी नहीं थी क्योंकि यह इतनी कीमती वस्तु थी जिसकी कीमत हम नहीं आँक सकते थे ।लेकिन उपयोग करने के  इसी अपराध बोध के कारण हम सभी असहज थे यद्यपि सर ने इसे सहज बनाने का प्रयास किया था  ।
 यह तो हुई उत्खनन की बात लेकिन यह बताइये कि क्या हम लोग इन वस्तुओं की कीमत समझते हैं । मन्दसौर के शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि उत्खनन से पूर्व वह तालाब में आधा गड़ा हुआ था और उस पर कपड़े  धोये जाते थे । अभी भी कई पुरातात्विक महत्व के स्थानों पर आसपास के गाँवों के लोग अनजाने में वस्तुएँ उठा ले जाते हैं । मूर्तियाँ घर में ,मन्दिर में रखकर उनकी पूजा की जाती है जबकि यही वस्तुएँ म्यूज़ियम में रहें तो सभी लोग उसे देख सकें ।व्यक्तिगत संग्रह की प्रवृत्ति हमें ऐसी है कि हम लोग जब किसी पुरातात्विक महत्व के स्थान पर जाते हैं तो हमारा मन नहीं करता कि कोई वस्तु उठाकर अपनी जेब में डाल लें ? गनीमत है कि म्यूज़ियम और ऐसे ही अन्य स्थानों पर कड़ा पहरा रहता है अन्यथा हमारे दिमाग़ में यह ख्याल तो आता ही है कि हमारे ड्राइंगरूम में यह वस्तु कैसी लगती ? अब आप समझ गये होंगे कि पुरातात्विक वस्तुओं की इतनी सुरक्षा क्यों की जाती है । बावज़ूद इसके तस्कर अपना काम कर जाते हैं और देश की बहुमूल्य वस्तुएँ, कीमती मूर्तियाँ रातों रात विदेश पहुँच जाती हैं । 
एक प्रश्न और ..विदेशी संग्रहालयों में अपने देश की मूर्तियाँ और बहुमूल्य वस्तुएँ देखकर कभी आपके मन में यह ख्याल आया कि ये यहाँ तक कैसे पहुँची होंगी ? और आज़ादी के पहले कितनी वस्तुएँ जा चुकी हैं । हम तो गान्धी जी के व्यक्तिगत सामानों के लिये हायतौबा कर रहे थे लेकिन उसके पहले जो कुछ जा चुका है उसके बारे में कभी सोचा है ? क्या वह सब हमें वापस नहीं मिलना चाहिये ? क्या वह हमारे देश की कीमती धरोहर नहीं है ? (चित्र गूगल से साभार ।) कुछ जानकारी आप यहाँ से भी प्राप्त कर सकते हैं ।  - आपका - शरद कोकास

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी :दसवां दिन - चार


कैम्प में ओलम्पिक की चर्चा जारी है । मनुष्यों से बात घोड़ों पर आ गई है । और यहाँ एक रहस्य खुलता है । जैसे हम मनुष्यों के पूर्वज हुआ करते थे वैसे घोड़ों के भी तो रहे होंगे ? और उसके हाथ पाँव भी होंगे हमारे जैसे ?
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी :आठवाँ दिन : छह                                                                                           
घोड़े की भी मनुष्यों जैसी पाँच उंगलियाँ होती थीं
           “ सर वो ओलम्पिक..” अजय ने फिर गाड़ी पटरी पर लाने के लिये इशारा किया । “ हाँ तो मैं बता रहा था “ सर ने कहा “ इन ओलम्पिक खेलों में कुश्ती,चक्रफेंक,भालाफेंक,घुड़दौड़ रथदौड़ आदि प्रमुख खेल थे । रथदौड़ के मैदान को हिप्पोड्रोम कहते थे । एक ईवेंट में एक रथ को मैदान के बारह चक्कर लगाने होते थे । कई बार आपस में टकराकर भीषण दुर्घटनायें भी होती थीं । जैसे आजकल कार रेस में होती हैं ।"                                                                                   “ सर लेकिन इसमें तो केवल सम्पन्न लोग ही भाग ले पाते होंगे आखिर रथ और चार घोड़े जुटाना आसान नहीं है । मैने कहा । हाँ “ सर बोले सम्पन्न लोग ही विजेता होते थे क्योंकि विजेता रथ का सारथी नहीं बल्कि मालिक कहलाता था जिसके पास ज़्यादा घोड़े वो विजेता और दुर्घटना में भी सारथी ही मरता था मालिक को इनाम मिलता था । “                                                                                                                                                                                    
“और बेचारे घोड़े का कोई रोल नहीं “ मैने कहा “ जंगल के घोड़े ने उंगलियाँ  गँवाकर खुर क्या प्राप्त किया इंसान का वाहन बन गया । ““ ये क्या कहानी है भाई ? “ रवीन्द्र ने सवाल किया ।“ तुम्हे नहीं पता “ मैने कहा । “ लाखों साल पहले घोड़े की पाँच उंगलियाँ हुआ करती थीं और वह जंगलों में रहता था जहाँ सूखे पत्तो पर दौड़ने के लिये उंगलियाँ काम आती थीं । फिर जंगल कम हुए , और मैदान में दौड़ने के लिये उंगलियों की ज़रूरत ही नहीं बची सो अगली नस्लों में पाँच से घटकर तीन उंगलियाँ हुईं और अंतत: एक खुर रह गया । इन प्रजातियों के क्रमश: हिप्पस, मेसोहिप्पस ,प्लियोहिप्पस और इक्वस नाम हैं । “ अच्छा इसलिये ओलम्पिक में घुड़्दौड़ के मैदान को हिप्पोड्रोम कहते हैं ।“ रवीन्द्र ने कहा । “ लेकिन यह बात तो है कि कहानियों का कोई ओलम्पिक होगा तो शरद को गोल्डमेडल ज़रूर मिलेगा । “  ठीक है ठीक है चलो अब सो जाकर सुबह जल्दी सोकर नहीं उठे तो खैर नहीं । “ सर ने आखरी फरमान जारी किया ।   अच्छा हुआ ना हमारे हाथ पैरों की  उंगलियाँ नहीं घिसीं वरना हम भी खुर वाले मनुष्य कहलाते और फिर क्या होता आप कल्पना कर सकते हैं ---शरद कोकास (चित्र गूगल से साभार )

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी : दसवां दिन - तीन

                 जिन दिनो मैं विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से पुरातत्व में एम.ए. कर रहा था , वहीं पास ही चम्बल नदी के किनारे एक उत्खनन कैम्प में जाना हुआ , डॉ. वाकणकर के निर्देशन मे हम लोग पन्द्रह दिन वहाँ रहे । उस दौरान काम के साथ साथ बहुत सारी बातों पर चर्चा होती रही ,हम मित्रों के बीच । यही सब प्रस्तुत कर रहा हूँ इन दिनों इस " एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी में "। इसे आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं इसलिये की डायरी के लिये कविता या कहानी जैसी कोई शर्त नहीं होती कि इसे प्रारम्भ से ही पढ़ा जाये ।इस तरह इस चर्चा में भी आप भाग ले सकते हैं । इसे भविष्य में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की योजना है । तय है कि उसमें ब्लॉग के पाठक भी शामिल रहेंगे ।
               फिलहाल चर्चा चल रही है ओलम्पिक पर और उसमें होने वाले खेलों और भाग लेने वाले खिलाड़ियों पर । मुद्दा यह है कि उस समय स्त्रियों को खेल में भाग लेने की इज़ाज़त क्यों नहीं थी । चलिये आगे पढ़ते हैं...  
         एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी : आठवाँ दिन : पाँच 
ओलम्पिक में स्त्रियों को भाग लेने की इज़ाज़त नहीं थी ।
             “ सर वो ओलम्पिक के बारे में बता रहे थे आप “ अजय ने सर को मूल विषय पर वापसी के लिये संकेत दिया । “ हाँ “ सर बोले “ मैं कह रहा था कि ओलम्पिक देखने हज़ारों की संख्या में लोग आते थे । तम्बुओं में उनके रहने की व्यवस्था की जाती थी लेकिन स्त्रियों के लिये इस ओलम्पिक में प्रवेश निषेध था । इस नियम का उल्लंघन करने वाली स्त्री को मौत की सज़ा तक दी जा सकती थी ।

              “ यह तो बड़ा अन्याय है सर “ रवीन्द्र ने कहा । “ हाँ “ सर बोले “ हो सकता है देशकालानुसार ऐसा नियम रहा हो , यह तो बहुत बाद में स्त्रियों ने खेल में भाग लेना शुरू किया ।शुरू शुरू में जियस के मन्दिर में होने वाले खेलों में ही उन्हे इज़ाज़त दी गई । हमारे देश में भी स्त्रियों के लिये बहुत से खेल वर्जित थे और आज देखो लड़कियाँ ही सर्वाधिक पदक जीतती हैं ।
                “ अपने देश में कहाँ जीतती हैं सर ? अपने यहाँ तो बचपन से ही लड़कियों को लड़कों के खेल खेलने से मना किया जाता है । लड़कों को सारे खेल खेलने की अनुमति है लेकिन लड़की ने जहाँ लड़कों के साथ खेलना चाहा कि बस ..। लड़के खेलते हैं क्या गुड्डे -गुड़ियों से ?  “ अशोक बोला ।
                 " इसीलिये तो लड़कियाँ पीछे रह जाती हैं । भले ही देश मे लड़कियों की हॉकी , फुटबाल ,क्रिकेट टीम हो लेकिन विश्व स्तर पर कहीं कोई नाम है क्या उनका ? और इन खेलों की छोड़ो अन्य खेलों में भी कहीं नाम है क्या ? अथेलेटिक्स में अन्य देशों की लड़कियाँ कितने करतब दिखलाती हैं हमारे देश की कोई खिलाड़ी नज़र आती है क्या ? इसका मतलब साफ है, हमारे देश में लड़के -लड़कियों  में भेदभाव किया जाता है ।  अजय ने गुस्से से कहा ।
                  बातचीत यूनान के ओलम्पिक से शुरू होकर भारत के खेल तक पहुंच चुकी थी और मैं इस प्रयास में था कि उसे फिर इतिहास की ओर ले जाऊँ लेकिन ,वर्तमान को इतिहास से फिर जोड़ना  इतना आसान नहीं था ।मैने कहा " इस पर विवाद मत करो भाई , कुछ इतिहास कारों का तो यह भी कहना है कि शुरू में स्त्रियाँ ही इस खेल में भाग लेती थीं , पुरुषों को बाद में अवसर दिया गया ।
                  " यह तो तुम नई बात बता रहे हो " रवीन्द्र ने कहा । मैने कहा " हाँ ओलम्पिक का इतिहास  तो यही कहता है ।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दसवां दिन –दो




ओलम्पिक ,कालभैरव और बजरंगबली
                आज ठंड कुछ बढ़ गई थी इसलिये भोजनोपरांत कहीं टहलने जाने की बजाय हम लोग तम्बू के सामने आग जलाकर बैठ गये । कुछ लकडियाँ हम भोजनशाला से ले आये कुछ आसपास से इकठ्ठा कर लीं । आर्य साहब ने कहा “ जो सबसे ज़्यादा लकड़ियाँ इकठ्ठा करेगा उसे मेडल प्रदान किया जायेगा । 
“ क्यों यहाँ ओलम्पिक हो रहा है क्या ? “
डॉ.वाकणकर ने अलाव के पास आते हुए आर्य साहब की घोषणा सुन ली थी । सर के लिये हमने बैठने की व्यवस्था की और इस बात के लिये उत्सुक हो गये कि आज कोई ज्ञानवर्धक बात सुनने को मिलेगी । अजय ने तुरंत उनकी बात के तारतम्य में प्रश्न उछाल दिया “ सर ये ओलम्पिक खेलों की शुरुआत तो ग्रीस से हुई है ना ? “ हाँ “ सर ने कहा । “ प्राचीन यूनान में उत्सव-पर्व आदि पर खेलकूद प्रतियोगितायें होती थीं । और सबसे मशहूर प्रतियोगिता यूनान के पेलोपोनेसस प्रांत में ओलम्पिया नामक स्थान पर होती थी । यहाँ ग्रीक देवता ओलिम्पी जियस का मन्दिर था जिसमें यूनानी मूर्तिकार फीडियस द्वारा निर्मित जियस की मूर्ति थी साथ ही इस मन्दिर के आसपास अन्य देवी देवताओं ,वीर पुरुषों और ओलम्पिक विजेताओं की भी अनेक मूर्तियाँ थी । यहाँ व्यायामशालायें भी थीं ।
                “ सर जी , उनका देवता तो जीयस था फिर ये ओलिम्पी जियस कोई अलग देवता था क्या ? “ अजय ने सवाल किया । “अरे नहीं रे बावड़े “ सर ने कहा । “ अपने यहाँ कैसे एक देवता के अलग अलग नाम होते हैं जैसे ..” वे आगे उदाहरण देने ही वाले थे कि राम मिलन ने तपाक से कहा “ जैसे बजरंग बली के नाम दक्षिणमुखी हनुमान , उत्तरमुखी हनुमान , मनोकामना हनुमान । “ 
                 “देखो ये बजरंगबली के भक्त ने बिलकुल सही बताया । अपने यहाँ उज्जैन में कैसे कालभैरव के नाम से  भेरू बाबा के कितने मन्दिर बन गये हैं । “आर्य साहब ने कहा ।
                 “ हाँ सर “ मैने कहा ।“ मैने भी देवास गेट पर एक उखाड़-पछाड़ भेरू बाबा का मन्दिर देखा है । कहते हैं कि जब भेरू बाबा नाराज़ हो जाते है तो तबाही मचा देते हैं ।.“ 
                  अशोक ने  कहा "सही है एक भगवान से किसीका मन नहीं भरता इसलिये सभीने अपने अपने भगवान बना लिये हैं , और उनके नाम पर अपने अपने धर्म बना लिये हैं ,और लड़ रहे हैं आपस में , मेरा भगवान बड़ा है , मेरा धर्म बड़ा है । और तो और एक धर्म के भीतर भी लड़ाईयाँ हो रही  हैं क्योंकि एक धर्म के भीतर भी कई उपधर्म है उनके अपने भगवान हैं , जिनके भगवान एक हैं उनके अनुयायियों में लड़ाइयाँ हो रही हैं .कि हम बड़े भक्त है । सबके अपने नियम हैं और वे अपने नियमों से दूसरों को भी संचालित करना चाहते हैं ।  
             " यहाँ तक तो ठीक है " किशोर ने कहा " लेकिन अपने धर्म को बड़ा और सही धर्म बताकर और अपने देवता को दूसरे के देवता से बड़ा बताकर जो वैमनस्यता फैलाई जाती है वह तो बिलकुल गलत है । "
             " इसका सिर्फ एक कारण है " मैने अपना ज्ञान बघारना शुरू किया " कि लोगों ने इतिहास को ठीक ढंग से पढ़ा ही नहीं है ,केवल सतही ज्ञान और अपने ग्रंथों के आधार पर डींग हाँकना कहाँ तक उचित है । " 
             "बिलकुल सही , ग्रंथ भी तो इसी उद्देश्य से लिखे गये , अशोक ने कहा , जैसे बौद्ध धर्म की महत्ता समाप्त करने के लिये मनुस्मृति रची गई । ग्रंथ लिखे जाने के बाद उनकी अपने अपने ढंग से व्याख्याएँ की गईं ।फिर किताबों को लेकर भी लोग लड़ने लगे ।  वैसे कुल मिलाकर यह धर्म है ही झगड़े की जड़ ।" 
            आर्य सर समझ गये कि बातचीत गम्भीर मोड़ की ओर जा रही है सो उन्होने इंटरप्ट किया , " भाई ये भेरू बाबा से तुम लोग कहाँ पहुंच गये ।फिर वे  ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे ,बोले “ भेरू से याद आया तुम लोगों से दो बैच पहले एक स्टुडेंट था भेरू मालवी नाम था उसका । एक दिन वो मेरे पास आया और रुआँसा होकर बोला “ सर मेरा नाम बहुत खराब है मुझे शर्म आती है , मै इसे बदलना चाहता हूँ ।“ तो मैने कहा “ अरे तुम्हारा नाम तो बहुत बढ़िया है भेरू याने भैरव ,कालभैरव ,शिव का नाम है यह । तुम्हारा नाम है भैरव मालवी देखो कितना सुन्दर लगता है । “ 
             हम समझ गये कि अब इस विषय पर गम्भीर  चर्चा नहीं हो सकती ।( चित्र गूगल से साभार )