आज
से पैंतीस साल पहले पांच हज़ार साल पुरानी उस ताम्राश्म युगीन सभ्यता में जाने का
अवसर एक बार मुझे भी प्राप्त हुआ था । उन दिनों मैं विक्रम विश्वविद्यालय में
‘प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ में स्नातकोत्तर का छात्र था । इस
संकाय के अंतर्गत हम लोग मुद्राशास्त्र, कला एवं स्थापत्य, प्रतिमाविज्ञान, अभिलेख
शास्त्र आदि विषयों का अध्ययन कर रहे थे । इसके अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर शोध,
म्यूजियम्स का अध्ययन और शैक्षणिक यात्राएं भी हमारे पाठ्यक्रम के अंतर्गत थीं ।
अन्य सैद्धांतिक विषयों की भांति ‘पुरातत्व’ विषय केवल सैद्धांतिक नहीं था अपितु
उसमें प्रायोगिक परीक्षा भी होती थी और
उसके लिए किसी उत्खनन में शामिल होना अनिवार्य था ।
उन
दिनों विक्रम विश्वविद्यालय के तत्वावधान में उज्जैन के निकट ‘दंगवाड़ा’ नामक स्थान
पर हमारे पुरातत्व विषय के गुरु डॉ. वि. श्री. वाकणकर के मार्गदर्शन में एक उत्खनन
शिविर लगा हुआ था । ‘दंगवाड़ा’ की इस साईट
की खोज सन 1966 -67 में डॉ. वाकणकर ने उज्जैन के श्री विष्णु नाइक की सहायता से की
थी तत्पश्चात पासलोद के श्री मांगीलाल पंड्या की सहायता से यहाँ पर्याप्त मुद्राएँ
खोजी गईं । उसके पश्चात आठ दस बार यहाँ सर्वेक्षण किया गया और वर्ष 1978 में
मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा ताम्राश्म युगीन अवशेषों की व्यापक खोज
के उद्देश्य से यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया गया ।
वहीं एक माह रहकर एक पुरातत्ववेत्ता की तरह हमें अपना प्रायोगिक कार्य
संपन्न करना था । यह कालखंड मेरे जीवन का अविस्मरणीय कालखंड रहा और इस दौरान मैं
पुरातत्व के व्यावहारिक ज्ञान से समृद्ध हुआ
। उन दिनों कुछ दिनों के लिए ही
सही हम लोग छात्र से पुरातत्ववेत्ता बन गए थे ।
इस
डायरी में उन्हीं दिनों की घटनाएँ दर्ज
हैं, इसमें पुरातत्व की तकनीकी बातें है,इतिहास के अनछुए पन्नों का अध्ययन है,
छात्र जीवन की शरारतें हैं, यात्राओं के
विवरण हैं, ज्ञान और विज्ञान की बातें हैं, साहित्य पर बहस है, मजदूरों के दुःख और
शोषण की कहानियां हैं । उम्मीद है कि बतकही के अंदाज़ में लिखी यह डायरी आपको अवश्य
पसंद आयेगी ।
फरवरी
माह की बस शुरुआत ही हुई थी । सर्दियाँ उस साल कुछ देर तक ठहर गई थीं इसलिए बसंती
हवाओं के लिए उन्होंने अपने दरवाज़े पर सख्त़ मुमानियत की तख्ती लगा दी थी । फिर भी
सूर्य अपनी समय सारिणी के अनुसार ही चल रहा था । हमारे दंगवाड़ा पहुँचते पहुँचते
दरख्तों के लम्बे सायों के पीछे से अँधेरा झांकने लगा था । दंगवाड़ा ग्राम की मुख्य
सड़क पर एक चाय की टपरी वाले से पूछने पर पता चला कि वह टीला जिस पर विक्रम
विश्वविद्यालय के तत्वावधान में खुदाई हो रही है , गाँव से दो किलोमीटर भीतर जंगल
में है । हम लोग जिस वाहन में थे, वह युनिवर्सिटी की एक पुरानी जीप थी । हमने
ड्राईवर से जानना चाहा कि गाडी वहाँ तक जाएगी या नहीं या फिर हमें अपना बिस्तरबन्द
लादकर वहाँ तक पैदल ही जाना होगा ।
ड्राइवर
खुशीलाल हंसने लगा “ भैया, मैं चार बार वहाँ तक जा चुका हूँ ,जंगल में भी मैंने
अपनी गाडी जाने लायक रास्ता बना ही लिया है । आपको किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं है
। “
चलो फिर ठीक है । ” रवीन्द्र भारद्वाज ने उछलकर कहा । हम लोगों ने
चैन की साँस ली । उस दिन पूर्णिमा थी और फरवरी की उस धुंधलाती हुई शाम के विदा
लेने की प्रतीक्षा करता हुआ बड़ा सा चांद बस निकलने ही वाला था । डूबते सूरज की
मद्धम रोशनी में भी जंगल साफ दिखाई दे रहा था । खुशीलाल ने अपना बनाया रास्ता
पहचानकर कैम्प तक गाडी पहुँचा दी ।
अद्भुत
द्रश्य था वहां । जाने कितने बरगद अपना आंचल फैलाये खड़े थे और उनके नीचे सफ़ेद
तम्बुओं की एक कतार थी । तम्बुओं के करीब कुछ भीड़ सी दिखाई दी । गाड़ी से उतरकर
देखा तो एक मज़दूर औरत ज़मीन पर लेटी हुई है और लोग उसे घेरे खड़े हैं । पता चला कि
शाम को वह काम खत्म होने के पश्चात अचानक बेहोश होकर गिर पड़ी थी और उसके साथी गाँव
से किसी झाड़-फूँक वाले को लेकर आ गए थे। डॉ.वाकणकर भी वहीं खड़े-खड़े उनसे
बातें कर रहे थे । हम सभी छात्रों ने
उन्हें प्रणाम किया । उन्होंने नमस्ते का जवाब देते हुए अपनी बात ज़ारी रखी..” कईं
भूत- वूत नई लग्यो है..ईको उपवास थो, न ऊपर से इनने लंगन कर ल्यो, अणि लिए अणे चक्कर अईया, अबार होश में अई जांगा..” “ नई
बा साब ” ओझा अपनी इज़्ज़त बचाना चाहता था “ अणि टीला में..जणि टीला की खुदाई कर
रेया हो,उणमें लोगाँ की आत्मा रेवे हे, अब खुदई से वे बाहर अईगी हे, ओर उणी में से
कोई आत्मा लागी गी हे..आज तो पूर्णिमा हे ..टांका का दिन..”
डॉ.वाकणकर
हँसने लगे “ यदि ऐसा होता तो सबसे पहले आत्मा को मुझे पकडना चाहिये था , मैं तो
ऐसे कई टीलों की , कब्रस्तानों की खुदाई करवा चुका हूँ , और खोपडियाँ और कंकाल तो
बिस्तर में भी मेरे साथ रहते हैं,कोई आत्मा - वात्मा नहीं होती , सब फालतू बात है ...” वे कह ही रहे थे कि
सबने देखा वह स्त्री होश में आ रही है । उन्होंने
कहा “ देखो , यह होश में आ गई है , इसे घर ले जाओ ठीक से खाना - वाना
खिलाओ.. सब ठीक हो जाएगा । और आइन्दा से फालतू उपवास करने की कोई ज़रूरत नहीं । “
इसके बाद वे हम लोगों से मुखातिब हुए… “ चलो रे सज्जनों, तुम लोगों को तुम्हारे
तम्बू दिखा दें ।” मैं रवीन्द्र, अजय,अशोक
और राममिलन अपना अपना डेरा-डंडा उठाकर
उनके साथ तम्बुओं की ओर चल दिये ।
वाकणकर जी के साथ आपको काम करने का मौका मिला. आप बड़े सौभाग्यशाली हैं.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़ना....बस आगे के पन्ने भी मिलते रहे पढ़ने को.
जवाब देंहटाएंबहुत आभार,
जवाब देंहटाएंसफ़र चालू रखें।
गांव के ओझाओं का धंधा तो इन्हीं अन्धविश्वासों पर चलता है. अच्छा लगा आपका संस्मरण सुनना.
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक किस्सा लगा।
जवाब देंहटाएंआभार भईया । आदरणीय सुब्रम्हण्यम जी के साथ ही पुरातत्व पर आपके भी अनुभव व विचार से हिन्दी ब्लागजगत परिचित हो रहा है , आगे की कडियों का इंतजार रहेगा ...
जवाब देंहटाएंअरे हम भी शामिल हैं भाई साहब आपके इतिहास में :-)
जवाब देंहटाएंइसकी आउटलाइन आपने मुझे बताई थी याद है आर बी कैफे शहीद स्मारक जबलपुर में..?
जवाब देंहटाएंजब आप रायपुर से आए थे और हम अरुण दादा का प्ले देखने पहुंचे थे वहां। वाकई में वृतांत रोचक और सुखद तरीके से लिखा गया है पढ़ने में और समझने में किसी भी प्रकार का ऑब्स्ट्रक्शन नहीं नजर आया सिवाय इसके कि अगर आप पृष्ठभूमि वाइट रखते शेष अच्छे आर्टिकल के लिए आपको नमन करता हूं
अच्छी जानकारी !
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