लेखन कला दरअसल क्या है
चम्बल नदी के किनारे स्थित
पुराने घाट के बेरंग पत्थर अब हमारे पांवों का स्पर्श भलीभांति जान चुके हैं ।दिन
भर यह पत्थर धूप से उसकी गर्मी चुराते हैं और रात भर खुले आकाश के नीचे रहने के
बावज़ूद वे कुछ गर्मी हमारे लिए सहेज कर रखते हैं । हम लोग कुछ देर उन पत्थरों पर
बैठकर आपस में बतियाने के साथ साथ नदी से भी बतियाते हैं । मंथर गति से बहती हुई
चम्बल नदी कभी कभी हमारी बातें सुनकर पल भर के लिए ठहर जाती है और फिर किसी मज़ेदार
बात पर खिलखिलाकर आगे बढ़ जाती है । नदी सुबह स्नान के पश्चात हम लोग एक सीढ़ी पर
बैठ गए और बहती नदी को देखने लगे । रवीन्द्र को लगा नदी जैसे झील बन कर ठहर गई है ।
उसने इस भ्रामक ठहराव को तोड़ने के लिए एक कंकर नदी के जल में उछाला और कहा “यार,
तू कुछ भी केह तेरी यात्रा डायरी सुनने
में बहुत मज़ा आ रहा है ।"
मैंने कहा " ऐसी मज़े की
उसमें क्या बात है, हम तो इस यात्रा में
साथ ही थे । " वह तो है.. " रवीन्द्र ने कहा " लेकिन यही तो लेखन कला
का कमाल है, कभी कभी किसी दृश्य से अधिक सुन्दर उसका वर्णन लगता है क्योंकि उसमें
लेखक की अनुभूतियों के अलावा वे बिम्ब और रूपक भी शामिल होते हैं जो साधारण
व्यक्ति को नहीं दिखाई देते, इसीलिए तो लेखन को कला कहा जाता है । मुझे नहीं पता
था यात्रा वृतांत भी इतना सुंदर हो सकता है ।" "हाँ सभी कलाओं की यही विशेषता होती है ।"
मैंने कहा "स्थापत्य कला, चित्र कला, संगीत कला, नाटक, शिल्प, साहित्य सभी इस
सुन्दरता का ही बखान करते हैं ।" " यार कला के छात्र तो हम भी हैं लेकिन
तुझे देखकर अच्छा लगता है कि हमारे बीच एक कलाकार भी है जो इतनी सुन्दर कल्पनाएँ
करता है । " रवीन्द्र ने कहा ।
"लेकिन हमेशा ऐसा नहीं
होता " मैंने कहा । "कभी कभी यथार्थ कल्पना से अधिक भयावह होता है । तब
उसे किसी कलारूप में प्रदर्शित करना बहुत कठिन भी होता है हालाँकि कला के रूप में
उसकी बहुत तारीफ़ होती है .. जैसे गन्दी झोपड़पट्टी में ऐसे कोई जाना पसंद नहीं
करेगा लेकिन यदि कोई कलाकार उसकी पेंटिंग बनाकर किसी आर्ट गैलरी में लटका दे तो सारे
अभिजात्य वर्गीय उसे देखने चले जायेंगे ।" "तू भी ना यार बात को कहाँ से
कहाँ ले जाता है ।" रवींद्र ने कहा । "और कला के पारखी सारे लोग ऐसे ही
होते हैं क्या ? कुछ लोग तो होते हैं जिनका मन चित्र देखकर या कविता पढ़कर द्रवित
होता होगा और वे समाज को इस स्थिति से बाहर निकालने हेतु प्रयास भी करते होंगे । आख़िर
कला का कुछ असर तो होता ही है ।" " छोड़ ना यार ,इस पर बात फिर कभी। "
मैंने कहा "अभी एलोरा और औरंगाबाद की यात्रा भी बाक़ी है ना ?“ रवीन्द्र
प्रसन्न हो गया “ बिलकुल । आज रात चलते हैं ना आगे की सैर के लिए । फ़िलहाल तो
भोजनशाला पहुँचा जाए ..भूख पेट की यात्रा कर रही है ।"
आपका शरद कोकास
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