शनिवार, 23 जून 2018

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी - चौदहवां दिन - दो


दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो 


प्रतिदिन की भांति तैयार होकर हम लोग ट्रेंच पर पहुँच गए । आज हमारा उत्खनन शिविर में चौदहवां दिवस था । ट्रेंच पर पहुँचकर हम लोगों ने अपनी कापियों पर नज़र डाली और कल छोड़े हुए काम की तस्दीक की । अब हमें कल से आगे के उत्खनन कार्य में व्यस्त हो जाना था । फिर आज का दिन भी उसी तरह बीत गया जैसे कि पिछले तेरह दिन बीते थे । कोर्स की और परीक्षा की ज़रूरत के अनुसार जितना ज्ञान हमें चाहिये था उतना हम अर्जित कर चुके हैं और अब यहाँ मन भी नहीं लग रहा है । वैसे तो श्येड्युल के अनुसार हमें यहाँ एक माह रहना था लेकिन हमें पहले ही आने में देर हो गई इसलिए एक माह से पहले ही प्रशिक्षण कार्य पूर्ण करना होगा । फिर हमें थ्योरी की तैयारी भी करनी है जिसके लिए बहुत कम समय बचा है । इसलिए हम लोग यहाँ से जल्दी जाने की फिराक में हैं । फ़रवरी की समाप्ति के साथ साथ हमें वापस उज्जैन पहुँचना है । हमें पता है कि उत्खनन कार्य काफी समय तक चलेगा सो परीक्षा के बाद फिर कभी आ जाएँगे ऐसा विचार कर हम लोग यहाँ से जाने का मन बना रहे हैं । फिर लौटकर अन्य विषयों की तैयारी भी तो करनी है वरना परीक्षा में अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे और अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और अच्छी नौकरी नहीं मिली तो जीवन इसी तरह व्यर्थ बीत जाएगा ।

शाम से ही जाने क्यों सभी का मन उखड़ा हुआ था । ऐसा अक्सर होता है कि एक उम्र और एक सी परिस्थितियों में रहने वालों की मन:स्थिति भी एक सी हो जाती है । कभी कभी भविष्य की चिंताओं के कारण भी मन उदास हो जाता है  । शाम को कहीं जाने का मन नहीं था लेकिन समय तो बिताना ही था और फिर सिटी यानि दंगवाड़ा गाँव जाने का चस्का भी लग चुका है सो यह भ्रमण कार्य भी संपन्न हुआ । गाँव वालों से हमारी मित्रता हो चुकी है । हम लोग उनके बीच जाकर उन्हीं की तरह हो जाते थे । हमने ठान रखा है कि अन्य शहरियों की तरह उन्हें कोई उपदेश नहीं देंगे न उन्हें किताबी ज्ञान की बातें बताएँगे हालाँकि पर्यावरण ,अन्द्धश्रद्धा निर्मूलन और स्वास्थ्य जागरूकता सम्बन्धी बातें तो हम उन्हें बताते ही हैं । वे अपनी स्थितियों से भले ही पूरी तरह खुश न हों लेकिन हम जानते हैं कि उन्हें उनकी स्थितियों से बाहर निकालने के लिए हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं । ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था को गाली दे सकते हैं और उन्हें  उनकी ज़िल्लत का अहसास दिला सकते हैं । लेकिन इससे क्या हो जाएगा ? क्या इससे उनकी दशा बदल जाएगी ? हमें अपनी सीमायें पता हैं और हम उन्हीं  सीमाओं के भीतर रहकर उनकी बेहतरी के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं । मुक्तिबोध ने कहा भी है .."इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए ।"

फिर भी कभी कभी मन ख़राब हो जाता है अपने देश के गाँवों की स्थिति देखकर । आज़ादी के इतने साल बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित यह लोग आखिर देश के विकास में क्या योगदान दे सकते हैं ? सत्ताधीश इन्हें केवल वोट बैंक समझते हैं और इन्हें  ठीक ठीक मनुष्य का दर्ज़ा भी नही देते । रवीन्द्र जब भी मुझसे इस परेशानी को शेयर करना चाहता मैं उसे दुष्यंत का वह शेर सुना देता हूँ “

दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिन्जरा उनके पिंजरे में सुआ ।


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