मनुष्य जब पहली बार मरा तब क्या हुआ होगा
📕
मित्रों, 'एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी'
के पहले भाग ' चम्बल के पानी में चाँद' में आपने पढ़ा कि 'प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व' अध्ययनशाला
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के छात्र शरद कोकास,रवींद्र
भारद्वाज,अशोक त्रिवेदी,अजय जोशी और
राममिलन शर्मा उज्जैन के निकट चम्बल नदी के किनारे 'दंगवाड़ा'
नामक पुरातात्विक स्थल पर प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता , विश्वप्रसिद्ध भीमबैठका गुफाओं के खोजकर्ता ,पद्मश्री
डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर के निर्देशन में चल रहे उत्खनन शिविर में पहुँचे हैं ।
सभी छात्र युवा हैं ,उर्जा से भरे हुए हैं और कुछ कर गुजरने
की आकांक्षा लिए हुए हैं । शिविर में पहुँचते ही उनका सामना एक ऐसे दृश्य से होता
है जिसमें भूख की वज़ह से एक मजदूर स्त्री को चक्कर आ जाते हैं और उस पर प्रेत बाधा का असर माना जाता है । डॉ.वाकणकर
सबके मन से यह अन्द्धविश्वास दूर करते हैं
। इसके बाद छात्र टीले की ओर घूमने निकल जाते हैं और चाँद के सान्निध्य में शाम
बिताते हैं । लीजिये अब पढ़िए आगे की दास्तान ।
शरद
कोकास
दंगवाड़ा की पुरातात्विक साईट पर चल रहे उत्खनन शिविर में आगमन के
पश्चात सर्द मौसम की यह पहली रात हमारी प्रतीक्षा कर रही थी । उसकी काली आँखों में
धीरे धीरे हमारा अक्स उभर रहा था ।अभी उसे बहुत सारा वक़्त हमारे साथ बतकहियों में
बिताना था । आसमान साफ़ था और हमारे और तारों के बीच सीधे संवाद की पूरी पूरी
संभावना थी लेकिन सर्द रात में अधिक देर तक बाहर रहना एक मूर्खतापूर्ण ख़याल था । रात तो हमें
अपने तम्बू के भीतर ही बितानी थी । शिविर के व्यवस्थापकों ने यहाँ आवास
हेतु चार तम्बुओं की व्यवस्था की है इसके अलावा अवशेष और उपकरण रखने हेतु एक तम्बू
तथा भोजन तैयार करने हेतु एक तम्बू और है ।
तम्बू में
स्थित इस भोजनशाला के प्रभारी भाटी जी हैं जिनका कार्य सभी शिविरार्थियों को सुबह
का नाश्ता,शाम की चाय और दो समय का भोजन करवाना है । ज्यों ज्यों अँधेरा बढ़ता जा रहा था हमारी भूख
भी अपना आकार बढ़ाती जा रही थी । दोपहर का भोजन हम लोग उज्जैन से लेकर निकले थे जो
जीप के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने की वज़ह से और हमारे बेहतरीन हाजमे की वज़ह से समय
से पूर्व ही हज़म हो चुका था । इधर भूख रोज़ पाठशाला आने वाले पढ़ाकू बालक की तरह
लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी । हमने भूख के आग्रह पर भाटी जी को नमस्कार
किया । उन्होंने ज़मीन पर पड़ी भोजन पट्टिकाओं की ओर इशारा किया । हमने तुरंत ज़मीन पर
पट्टिकाएं बिछाई और पालथी मारकर बैठ गए । भाटी जी ने फिर थालियों की ओर इशारा किया
। हम समझ गए, शिविर का यही अनुशासन होता है अपनी थालियाँ खुद
उठानी होती हैं सो हम फिर उठे और थालियाँ और गिलास लेकर बैठ गए ।
भाटीजी
ने उसके बाद भोजन परोसना शुरू किया । इतने में वाकणकर सर भी अपनी थाली और गिलास
लेकर पंगत में शामिल हो गए ।भाटी जी ने आलू बैंगन की सुस्वादु सब्ज़ी बनाई थी,साथ में दाल चावल और रोटी । हम लोगों ने रोटी का कौर तोड़ने के लिए हाथ
बढ़ाया ही था कि वाकणकर सर ने इशारा किया .. रुको दुष्टों पहले मन्त्र पढ़ना है ।
उन्होंने आँखें बंद कीं ,थाली के सामने हाथ जोड़े और मंत्रोच्चारण शुरू किया ..ओम सहना ववतु.. सहनौ
भुनक्तु .. हम लोग अपनी बेचारगी में उनके साथ साथ यह मन्त्र बुदबुदाते रहे और सर
की आँख खुलने से पहले ही भोजन पर टूट पड़े । हम लोगों ने कुछ इस तरह भोजन किया जैसे
कई बरसों के भूखे हों ।
भोजन
के पश्चात हम लोग अपने तम्बू में आ गए । तम्बू के बीचोबीच बांस के सहारे लटकते
बिजली के लट्टू पर हमारी नज़र पड़ी । वह लगातार बाहर के अँधेरे से लड़ने की कोशिश कर
रहा था । मैंने रवीन्द्र से कहा " यहाँ जंगल में बिजली कहाँ से आ गई ?"
रवीन्द्र ने कहा ..' तूने देखा नहीं गाँव के पास गुजरने वाली बिजली की लाइन से
यहाँ तक तार खींचकर बिजली लाई गई है ।" " ग़नीमत है " मैंने कहा
वर्ना हमें लालटेन युग में जीने का एक मौका मिल जाता । तम्बू में बल्ब होने के
बावज़ूद बाहर का अँधेरा भीतर घुसने का भरसक प्रयास कर रहा था .. मैंने इसका कारण
ढूँढने के लिए एक नज़र बाहर की ओर डाली और महसूस किया कि बल्ब की रोशनी और जंगल के अँधेरे
के बीच सिर्फ कपड़े की दीवारें हैं । उन पर पड़ती हमारी परछाइयाँ भी अँधेरे का ही
साथ दे रही थीं ।
भोजन
के बाद तुरंत सोने की आदत किसी की नहीं है । वैसे भी हॉस्टल में रहकर हम लोग इतने
तो बिगड़ ही चुके हैं कि जब तक कमरों के
दरवाज़े खटखटाकर मित्रों से उनका हालचाल न पूछ लें और थोड़ी मस्ती न कर लें नींद आती
ही नहीं है । सो यहाँ भी किसीको नींद नहीं आ रही थी । लेकिन बाहर ठण्ड थी और जिनके
हाल जानना था वे सारे मित्र भी एक ही तम्बू में थे सो बिस्तर में घुसने के अलावा
कोई चारा नहीं था । हम सब चुपचाप लेट गए और तार्पोलीन की बनी तम्बू की छत की ओर
ध्यान लगाकर देखने लगे, शायद देश की शासन व्यवस्था की तरह उसमें भी कोई छेद दिख
जाए ताकि हम ठण्ड का दोष उस पर मढ़ सकें । लेकिन ऐसी कोई गुंजाइश हमें दिखाई नहीं
दी ।
वैसे
यह फरवरी का दूसरा सप्ताह था । लम्बे समय के लिए मायके आई बेटी जिस तरह ससुराल
वापस जाने की तैयारी में होती है ठण्ड भी उसी तरह अब विदाई की तैयारी कर रही थी ।
हालाँकि हम शहर में रहने वाले लोग इस बात
की कल्पना नहीं कर पाए थे कि जंगल में ठण्ड शहर से ज़्यादा होगी । मुझे लगा था जैसे
शहर में अब ठण्ड समाप्त हो गई है वैसे ही गाँव में भी हो गई होगी सो मैं अपनी
बदमस्ती में रज़ाई लेकर नहीं आया था । रवीन्द्र की ठण्ड से बहुत पुरानी दुश्मनी
थी सो उसका मुक़ाबला करने के लिए ज़िरह बख्तर की तरह रज़ाई उसके साथ थी । मैं किसी
घुसपैठिये की तरह रवीन्द्र की रज़ाई में घुसने की कोशिश करने लगा । रवीन्द्र अकेला सोने का आदी था और रज़ाई शेयर
करने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी ...
‘ मैं अपनी झाँसी
नहीं दूँगी ‘ की
तर्ज़ पर उसने कहा “ मैं अपनी रज़ाई नहीं दूँगा । “ मैंने उससे निवेदन
किया..” भाई मेरे , यहाँ बहुत कड़ाके की
ठण्ड होगी ऐसा मुझे पता नहीं था सो मुझसे ग़लती हो गई , मैं
तो खैर कम्बल ओढ़कर सो जाऊंगा लेकिन इस अच्छे खासे उत्खनन कैम्प में तुम लोगों का
एक दिन मेरे अंतिम संस्कार के लिए बर्बाद हो जायेगा “ मेरी बात सुनकर रवीन्द्र जोर से हँसा और उसे मुझ पर दया
आ गई, वैसे भी वह मेरा प्यारा दोस्त है । अंततः एक ही रजाई
में एक दूसरे की ओर पीठ करके सोने की बात पर समझौता हो गया ।
लेकिन
रज़ाई में घुसने के बावज़ूद नींद का कुछ अता-पता नहीं था । वैसे भी नींद का समय अभी कहाँ हुआ था । सर्दियों में अँधेरा
जल्दी हो जाता है लेकिन घड़ी तो अपने हिसाब से चलती है ? अचानक डॉ.वाकणकर की शाम को कही गई एक
बात मुझे याद आ गई और मेरी हँसी फूट पड़ी
। “ लगता है ठण्ड तेरे दिमाग़ में चढ़ गई है जो अकेला
अकेला हँस रहा है ? ” मुझे हँसता देख रवीन्द्र ने पूछा । मैंने रवीन्द्र से कहा ” कुछ नहीं यार ,सर की वह कंकाल के साथ सोने वाली बात याद आ गई ..कि खोपडियाँ और कंकाल तो
बिस्तर में भी मेरे साथ रहते हैं.. अच्छा बताओ, तुम कभी किसी
कंकाल के साथ सोये हो ? “रवीन्द्र हँसने लगा..” कंकाल के साथ सोने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पडेगा माय डिअर, क्योंकि हमारे यहाँ तो कंकाल मिलने से रहा, इसलिए
फ़िलहाल तो तेरे साथ सो रहा हूँ । ”
मैंने
कहा “
मज़ाक मत उडाओ ..इतना भी दुबला पतला नहीं हूँ यार । वैसे यह बात तुम
सही कह रहे हो कि कंकाल तो दक्षिण अफ्रीका में ही मिलेगा , हमारे
यहाँ के डरपोक अन्द्धविश्वासी लोग कंकाल
तो क्या खोपडी या कहीं पड़ी हुई हड्डी देखकर ही डर जाते हैं..लेकिन एक बात है ....।”
अंतिम संस्कार यह शब्द मेरे अवचेतन में अब भी विद्यमान था और मैं
पहले मनुष्य के अंतिम संस्कार के विषय में सोच रहा था । मेरी बात सुनकर रवीन्द्र
ने शतुर्मुर्ग की तरह रज़ाई से बाहर गर्दन निकाल कर पूछा .. “क्या
? ”
मैंने कहा “ हमने शव जलाने की
प्रथा शुरू कर इतिहास का बडा भारी नुकसान किया है । ” “ वो कैसे
? ” रवीन्द्र ने पूछा । मैंने बताया “ कंकाल
ही तो मनुष्य का इतिहास तय करते हैं यार, वे कितने पुराने
हैं यह विज्ञान से पता चलता है उसीसे मानव सभ्यता की प्राचीनता तय होती है । गनीमत
सभी जगह शव को नष्ट कर देने की यह प्रथा नहीं है , अगर
दक्षिण अफ्रीका और योरोप में गाड़ने की बजाय शव जलाने की प्रथा होती तो हमें लाखों साल पहले के पृथ्वी के पहले पहले
मनुष्य के दर्शन ही नहीं होते ।“
"हद
है.." अशोक ने कहा " उसके भीतर क्या उस समय तक संवेदना जैसी कोई चीज़
नहीं थी?" मैंने कहा " थी ना.. आखिर था तो वह उसके जैसा ही मनुष्य, जो
उसके साथ रहता था, उसके साथ खाता-पीता था ,शिकार पर जाता था ,उसके हर सुख दुःख में
उसका साथी था । इसीलिए फिर कुछ समय बाद वह फिर उसके पास लौटा होगा यह सोचकर कि
शायद उसके भीतर पूर्ववत कोई हलचल हो रही हो ..लेकिन तब तक तो जंगली जानवर मृत देह
को खा चुके थे । हो सकता है उसे देह की यह दुर्दशा देख कर अच्छा नहीं लगा होगा ।
यहीं पर पहली बार मनुष्य को आत्मा का ख्याल भी आया होगा । उसे लगा होगा कि उसके
भीतर कोई चीज़ थी जिसकी वज़ह से वह चलता-फिरता था, हँसता- बोलता था जो अब उसकी देह
से निकलकर बाहर चली गई है । यही उसकी अवधारणा भविष्य में उसके धर्म की नींव बनी ।"