गुरुवार, 10 सितंबर 2020

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन -तीन-हरक्युलिस और हनुमान भाग एक

मनुष्य जब पहली बार मरा तब क्या हुआ होगा 

📕 मित्रों, 'एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी' के पहले भाग ' चम्बल के पानी में चाँदमें आपने पढ़ा कि 'प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व' अध्ययनशाला विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के छात्र शरद कोकास,रवींद्र भारद्वाज,अशोक त्रिवेदी,अजय जोशी और राममिलन शर्मा उज्जैन के निकट चम्बल नदी के किनारे 'दंगवाड़ा' नामक पुरातात्विक स्थल पर प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता , विश्वप्रसिद्ध भीमबैठका गुफाओं के खोजकर्ता ,पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर के निर्देशन में चल रहे उत्खनन शिविर में पहुँचे हैं । सभी छात्र युवा हैं ,उर्जा से भरे हुए हैं और कुछ कर गुजरने की आकांक्षा लिए हुए हैं । शिविर में पहुँचते ही उनका सामना एक ऐसे दृश्य से होता है जिसमें भूख की वज़ह से एक मजदूर स्त्री को चक्कर आ जाते हैं और उस पर  प्रेत बाधा का असर माना जाता है । डॉ.वाकणकर सबके मन से यह अन्द्धविश्वास  दूर करते हैं । इसके बाद छात्र टीले की ओर घूमने निकल जाते हैं और चाँद के सान्निध्य में शाम बिताते हैं । लीजिये अब पढ़िए आगे की दास्तान ।

शरद कोकास

दंगवाड़ा की पुरातात्विक साईट पर चल रहे उत्खनन शिविर में आगमन के पश्चात सर्द मौसम की यह पहली रात हमारी प्रतीक्षा कर रही थी । उसकी काली आँखों में धीरे धीरे हमारा अक्स उभर रहा था ।अभी उसे बहुत सारा वक़्त हमारे साथ बतकहियों में बिताना था । आसमान साफ़ था और हमारे और तारों के बीच सीधे संवाद की पूरी पूरी संभावना थी लेकिन सर्द रात में अधिक देर तक बाहर रहना एक मूर्खतापूर्ण ख़याल था  । रात तो हमें  अपने तम्बू के भीतर ही बितानी थी । शिविर के व्यवस्थापकों ने यहाँ आवास हेतु चार तम्बुओं की व्यवस्था की है इसके अलावा अवशेष और उपकरण रखने हेतु एक तम्बू तथा भोजन तैयार करने हेतु एक तम्बू और है ।

 तम्बू में स्थित इस भोजनशाला के प्रभारी भाटी जी हैं जिनका कार्य सभी शिविरार्थियों को सुबह का नाश्ता,शाम की चाय और दो समय का भोजन करवाना है ।  ज्यों ज्यों अँधेरा बढ़ता जा रहा था हमारी भूख भी अपना आकार बढ़ाती जा रही थी । दोपहर का भोजन हम लोग उज्जैन से लेकर निकले थे जो जीप के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने की वज़ह से और हमारे बेहतरीन हाजमे की वज़ह से समय से पूर्व ही हज़म हो चुका था । इधर भूख रोज़ पाठशाला आने वाले पढ़ाकू बालक की तरह लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी । हमने भूख के आग्रह पर भाटी जी को नमस्कार किया । उन्होंने ज़मीन पर पड़ी भोजन पट्टिकाओं की ओर इशारा किया । हमने तुरंत ज़मीन पर पट्टिकाएं बिछाई और पालथी मारकर बैठ गए । भाटी जी ने फिर थालियों की ओर इशारा किया । हम समझ गए, शिविर का यही अनुशासन होता है अपनी थालियाँ खुद उठानी होती हैं सो हम फिर उठे और थालियाँ और गिलास लेकर बैठ गए ।


भाटीजी ने उसके बाद भोजन परोसना शुरू किया । इतने में वाकणकर सर भी अपनी थाली और गिलास लेकर पंगत में शामिल हो गए ।भाटी जी ने आलू बैंगन की सुस्वादु सब्ज़ी बनाई थी,साथ में दाल चावल और रोटी । हम लोगों ने रोटी का कौर तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि वाकणकर सर ने इशारा किया .. रुको दुष्टों पहले मन्त्र पढ़ना है । उन्होंने आँखें  बंद कीं ,थाली के सामने हाथ जोड़े और मंत्रोच्चारण शुरू किया ..ओम सहना ववतु.. सहनौ भुनक्तु .. हम लोग अपनी बेचारगी में उनके साथ साथ यह मन्त्र बुदबुदाते रहे और सर की आँख खुलने से पहले ही भोजन पर टूट पड़े । हम लोगों ने कुछ इस तरह भोजन किया जैसे कई बरसों के भूखे हों ।

भोजन के पश्चात हम लोग अपने तम्बू में आ गए । तम्बू के बीचोबीच बांस के सहारे लटकते बिजली के लट्टू पर हमारी नज़र पड़ी । वह लगातार बाहर के अँधेरे से लड़ने की कोशिश कर रहा था । मैंने रवीन्द्र से कहा " यहाँ जंगल में बिजली कहाँ से आ गई ?" रवीन्द्र ने कहा ..' तूने देखा नहीं गाँव के पास गुजरने वाली बिजली की लाइन से यहाँ तक तार खींचकर बिजली लाई गई है ।" " ग़नीमत है " मैंने कहा वर्ना हमें लालटेन युग में जीने का एक मौका मिल जाता । तम्बू में बल्ब होने के बावज़ूद बाहर का अँधेरा भीतर घुसने का भरसक प्रयास कर रहा था .. मैंने इसका कारण ढूँढने के लिए एक नज़र बाहर की ओर डाली और महसूस किया कि बल्ब की रोशनी और जंगल के अँधेरे के बीच सिर्फ कपड़े की दीवारें हैं । उन पर पड़ती हमारी परछाइयाँ भी अँधेरे का ही साथ दे रही थीं । 


भोजन के बाद तुरंत सोने की आदत किसी की नहीं है । वैसे भी हॉस्टल में रहकर हम लोग इतने तो बिगड़ ही चुके हैं  कि जब तक कमरों के दरवाज़े खटखटाकर मित्रों से उनका हालचाल न पूछ लें और थोड़ी मस्ती न कर लें नींद आती ही नहीं है । सो यहाँ भी किसीको नींद नहीं आ रही थी । लेकिन बाहर ठण्ड थी और जिनके हाल जानना था वे सारे मित्र भी एक ही तम्बू में थे सो बिस्तर में घुसने के अलावा कोई चारा नहीं था । हम सब चुपचाप लेट गए और तार्पोलीन की बनी तम्बू की छत की ओर ध्यान लगाकर देखने लगे, शायद देश की शासन व्यवस्था की तरह उसमें भी कोई छेद दिख जाए ताकि हम ठण्ड का दोष उस पर मढ़ सकें । लेकिन ऐसी कोई गुंजाइश हमें दिखाई नहीं दी । 


वैसे यह फरवरी का दूसरा सप्ताह था । लम्बे समय के लिए मायके आई बेटी जिस तरह ससुराल वापस जाने की तैयारी में होती है ठण्ड भी उसी तरह अब विदाई की तैयारी कर रही थी । हालाँकि  हम शहर में रहने वाले लोग इस बात की कल्पना नहीं कर पाए थे कि जंगल में ठण्ड शहर से ज़्यादा होगी । मुझे लगा था जैसे शहर में अब ठण्ड समाप्त हो गई है वैसे ही गाँव में भी हो गई होगी सो मैं अपनी बदमस्ती में रज़ाई लेकर नहीं आया था । रवीन्द्र की ठण्ड से बहुत पुरानी दुश्मनी थी  सो उसका मुक़ाबला करने के लिए  ज़िरह बख्तर की तरह रज़ाई उसके साथ थी  । मैं किसी  घुसपैठिये की तरह रवीन्द्र की रज़ाई में घुसने की कोशिश करने लगा ।  रवीन्द्र अकेला सोने का आदी था और रज़ाई शेयर करने में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी ...

मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी   की तर्ज़ पर उसने कहा मैं अपनी रज़ाई नहीं दूँगा  । मैंने उससे निवेदन किया..भाई मेरे , यहाँ बहुत कड़ाके की ठण्ड होगी ऐसा मुझे पता नहीं था सो मुझसे ग़लती हो गई , मैं तो खैर कम्बल ओढ़कर सो जाऊंगा लेकिन इस अच्छे खासे उत्खनन कैम्प में तुम लोगों का एक दिन मेरे अंतिम संस्कार के लिए बर्बाद हो जायेगा  मेरी बात  सुनकर रवीन्द्र जोर से हँसा और उसे मुझ पर दया आ गई, वैसे भी वह मेरा प्यारा दोस्त है । अंततः एक ही रजाई में एक दूसरे की ओर पीठ करके सोने की बात पर समझौता हो गया ।

लेकिन रज़ाई में घुसने के बावज़ूद नींद का कुछ अता-पता नहीं था । वैसे भी नींद  का समय अभी कहाँ हुआ था । सर्दियों में अँधेरा जल्दी हो जाता है लेकिन घड़ी तो अपने हिसाब से चलती है ? अचानक डॉ.वाकणकर की शाम को कही गई एक  बात मुझे याद आ गई और मेरी हँसी फूट पड़ी  । लगता है ठण्ड तेरे दिमाग़ में चढ़ गई है जो अकेला अकेला हँस रहा है  ? ” मुझे हँसता देख रवीन्द्र ने पूछा । मैंने रवीन्द्र से कहा  कुछ नहीं यार ,सर की वह कंकाल के साथ सोने वाली बात याद आ गई ..कि खोपडियाँ और कंकाल तो बिस्तर में भी मेरे साथ रहते हैं.. अच्छा बताओ, तुम कभी किसी कंकाल के साथ सोये हो ? “रवीन्द्र हँसने लगा..कंकाल के साथ सोने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पडेगा माय डिअर, क्योंकि हमारे यहाँ तो कंकाल मिलने से रहा, इसलिए फ़िलहाल तो तेरे साथ सो रहा हूँ ।


मैंने कहा मज़ाक मत उडाओ ..इतना भी दुबला पतला नहीं हूँ यार । वैसे यह बात तुम सही कह रहे हो कि कंकाल तो दक्षिण अफ्रीका में ही मिलेगा , हमारे यहाँ के डरपोक अन्द्धविश्वासी  लोग कंकाल तो क्या खोपडी या कहीं पड़ी हुई हड्डी देखकर ही डर जाते हैं..लेकिन एक बात है ....।अंतिम संस्कार यह शब्द मेरे अवचेतन में अब भी विद्यमान था और मैं पहले मनुष्य के अंतिम संस्कार के विषय में सोच रहा था । मेरी बात सुनकर रवीन्द्र ने शतुर्मुर्ग की तरह रज़ाई से बाहर गर्दन निकाल कर पूछा .. क्या ? ”

मैंने कहा हमने शव जलाने की प्रथा शुरू कर इतिहास का बडा भारी नुकसान किया है । ” “ वो कैसे ? ” रवीन्द्र ने पूछा । मैंने बताया कंकाल ही तो मनुष्य का इतिहास तय करते हैं यार, वे कितने पुराने हैं यह विज्ञान से पता चलता है उसीसे मानव सभ्यता की प्राचीनता तय होती है । गनीमत सभी जगह शव को नष्ट कर देने की यह प्रथा नहीं है , अगर दक्षिण अफ्रीका और योरोप में गाड़ने की बजाय शव जलाने की प्रथा होती  तो हमें लाखों साल पहले के पृथ्वी के पहले पहले मनुष्य के दर्शन ही नहीं होते ।


           

अशोक अब तक चुपचाप था और सिगरेट का आनन्द ले रहा था । उसने एक लम्बा कश लेकर छत की ओर धुआँ फेंका और धुएँ के केंद्र में अपनी निगाहें स्थिर करते हुए कहा मैं सोच रहा हूँ ...पहली बार जब कोई इंसान मरा होगा तो उसे गाड़ा गया होगा या जलाया गया होगा..। मैंने कहा ना गाडा गया था , ना जलाया गया था । पहली बार जब मनुष्य ने मनुष्य की मृत देह देखी होगी तो उसकी  समझ में आया ही नहीं होगा कि उसके जैसे दिखने वाले इस जीव को आखिर हुआ क्या है । वह बहुत देर तक उसके पास चुपचाप बैठा रहा होगा फिर उसकी आँख खोलकर देखी होगी, उसे हिलाया-डुलाया होगा ,यह सोचकर कि शायद इस तरह यह फिर से चलने लगे या बोलने लगे , फिर उसका मुँह खोलकर देखा होगा ,शायद वह फिर से बोलने लगे । लेकिन इन प्रयासों के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ होगा तो उसे उसके हाल पर छोड़कर वह अपनी भूख का इंतज़ाम करने निकल गया होगा । 

"हद है.." अशोक ने कहा " उसके भीतर क्या उस समय तक संवेदना जैसी कोई चीज़ नहीं थी?" मैंने कहा " थी ना.. आखिर था तो वह उसके जैसा ही मनुष्य, जो उसके साथ रहता था, उसके साथ खाता-पीता था ,शिकार पर जाता था ,उसके हर सुख दुःख में उसका साथी था । इसीलिए फिर कुछ समय बाद वह फिर उसके पास लौटा होगा यह सोचकर कि शायद उसके भीतर पूर्ववत कोई हलचल हो रही हो ..लेकिन तब तक तो जंगली जानवर मृत देह को खा चुके थे । हो सकता है उसे देह की यह दुर्दशा देख कर अच्छा नहीं लगा होगा । यहीं पर पहली बार मनुष्य को आत्मा का ख्याल भी आया होगा । उसे लगा होगा कि उसके भीतर कोई चीज़ थी जिसकी वज़ह से वह चलता-फिरता था, हँसता- बोलता था जो अब उसकी देह से निकलकर बाहर चली गई है । यही उसकी अवधारणा भविष्य में उसके धर्म की नींव बनी ।"


"लेकिन फिलहाल तो सवाल उस मृत देह के सम्मान का था ।" मैंने अपनी बात जारी रखी " सो अगली बार जब उसके मित्र या परिजन की मृत्यु हुई उसने मृत देह को जानवरों से बचाने के लिए  उसके चारों ओर, और उसके मृत शरीर के ऊपर बड़े- बड़े पत्थर रख दिये । इस तरह यह मनुष्य की पहली कब्र बनी  और इसी तरह मनुष्य का पहला अंतिम संस्कार हुआ । ज़मीन में गाड़ना , शव को बहाना या जलाना जैसे काम तो जल और लकड़ी  की उपलब्धता और भौगोलिक आधार पर बाद में शुरू हुए ।” “वाह वाह ..'पहला अंतिम संस्कार' .. तेरे 'पहला' और 'अंतिम' का जवाब नहीं भाई । रवीन्द्र ने उबासी लेकर कहा लेकिन अब सो जाओ भाई .. नहीं तो सपने में कंकाल ही कंकाल दिखेंगे । ठीक है ।   मैंने कहा  चलो सोने की कोशिश करते हैं ।

शुक्रवार, 19 जून 2020

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन-दो-चम्बल के पानी में चाँद


इस जंगल में हमारे लिए  यह पहला मुफ़्त का मनोरंजन कार्यक्रम था । बरगद के ढेर सारे पेड़ों के बीच में लगा था हमारा शिविर । पास ही चम्बल नदी बहती थी । हम लोगों ने अपना सामान तम्बू में रखा और नदी पर चल दिये हाथ मुँह धोने । हमने अब तक चम्बल के बीहड़ और उनमे रहने वाले डाकुओं के बारे में ही सुना था लेकिन यहाँ न बीहड़ थे न डाकू  । फिर भी हम हाथ मुंह धोते हुए अगल बगल देखते रहे ..कहीं किसी डाकू का घोड़ा न बंधा हो । लौटकर आए  तो रसोई प्रभारी भाटी जी ने गरमा गरम चाय पिलाई । चाय पीकर हम लोग टीले पर पहुँच गए  । यद्यपि हम लोगों का काम अगले दिन से प्रारम्भ होना था लेकिन उत्खनन स्थल देखने की उत्सुकता तो थी ही ।

अद्भुत दिखाई दे रहा था वह टीला..चांद के प्रकाश में । बीच में कहीं कहीं टेकडियों की छाँव जैसे पहली क्लास के किसी बच्चे ने अपनी ड्राइंग कॉपी में चित्र बनाये हों । शांत वेग से बह रही थी चम्बल जैसे कोई माँ अपने बच्चे को सुलाने के बाद आधी नींद में सो रही हो । हवा चलती तो चांद का अक्स पानी में लहराता हुआ नज़र आता । वातावरण इतना खामोश कि हम बहते हुए पानी की आवाज़ साफ साफ सुन सकते थे ।

डॉ.वाकणकर ने दो दिन पूर्व जिस आयताकार ट्रेंच की खुदाई शुरू की थी वह अभी नींद के आगोश में थी , उसे जगाना हमने उचित नहीं समझा और दूर खड़े चुपचाप उसे देखते रहे । उसके भीतर गहन अन्धकार था , सदियों से भीतर अवस्थित  अन्धकार । मैं उसे देखता रहा ..कविता कहीं भीतर से बाहर आने को आतुर थी ..मैंने कहा ..” ऐसा लगता है जैसे इस अतल गहराई में कोई रंगमंच है, जिस पर सैकडों सालों से कोई ड्रामा चल रहा है । जाने कितनी सभ्यताओं के पात्र आवागमन कर रहे हैं । कहीं युद्ध चल रहा है तो कहीं कोई चरवाहा किसी पेड़ के नीचे बैठकर बंसी बजा रहा है । कहीं कोई बच्चा पेड़ से लटके झूले पर बैठा झूला झूल रहा है ,कहीं कोई हरकारा दूर से अपने घोड़े पर बैठा आता हुआ दिखाई दे रहा है । “ “ सुनो सुनो  ...” अजय ने अचानक कहा “ मुझे तो घोडों की टापों की आवाज़ भी आ रही है...” “ बस कर यार ।” रवीन्द्र बोला ” जुकाम के कारण तेरे कान बन्द हैं , यह बलगम की आवाज़ होगी ।“ हम लोग रूमानियत से वास्तविकता के धरातल पर आ चुके थे ।

कल दिन में निखात के उस अंधेरे से साक्षात्कार करेंगे  यह सोच कर हम लोग टीले की ढलान पर बैठ गए  । मैंने कमर सीधी करनी चाही । पूरा आसमान मेरी आँखों के सामने था और उसमें चमक रहा था पूर्णिमा का पूरा चांद । चाँद की रौशनी की वज़ह से सितारे थोड़े मद्धम हो गए थे । मैंने उनमें  ध्रुव तारा ढूँढना चाहा ताकि मैं उत्तर दिशा का पता लगा सकूँ । चाँद को देखते हुए मुझे अचानक ऋतुओं का ख़याल आया और फिर ऋतुओं और चाँद सूरज के सम्बन्ध के बारे में । रवीन्द्र ने डॉ.वाकणकर के सान्निध्य में अपने खगोलीय ज्ञान का काफी विस्तार कर लिया था । मैंने रवीन्द्र से सवाल किया " यार यह बसंत का अयनांत तो नहीं है ? " रवींद्र ने जवाब दिया " भाई अभी अयनांत कहाँ, पिछला अयनांत 21 दिसंबर को हो चुका है और अगला इक्कीस जून को आएगा ।  मैंने फिर रवींद्र से सवाल किया ..यार लेकिन यह अयनांत और विषुव निर्धारित तिथि पर कैसे आते हैं ?"

रवींद्र ने कहा " चलो मैं तुम्हें एक सिरे से समझाता हूँ कि अयनांत यानी सोलिस्टीस और विषुव यानी इक्विनॉक्स क्या होता है । सबसे पहले विषुव यानि इक्विनॉक्स के बारे में बताता हूँ जब रात और दिन बराबर होते हैं । यह हमारे देश में 21 मार्च और 23 सितम्बर को होता है जब रात और दिन बराबर होते हैं । पहले कुछ बेसिक बातें समझ लो । तुमने ग्लोब में यह देखा होगा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर साढ़े तेईस डिग्री झुकी हुई है और वह स्वयं इसी तरह घूमते हुए सूर्य के चक्कर भी लगाती है । उसका यह पथ गोलाकार अथवा लम्बवत नहीं होता बल्कि दीर्घ वृत्ताकार यानि इलेप्टिकल होता है । पृथ्वी के ठीक मध्य से अर्थात उसके पेट से एक काल्पनिक रेखा जाती है जिसे भूमध्य रेखा कहते हैं । पृथ्वी का उपरी हिस्सा जो नासपाती जैसा चपटा है उत्तर ध्रुव तथा दक्षिणी हिस्सा दक्षिण ध्रुव कहलाता है । इस तरह दो गोलार्ध बनते हैं उत्तरी व दक्षिणी ।

अब होता यह है कि सूर्य के चारों ओर घूमते  हुए पृथ्वी की  साल में एक बार ऐसी स्थिति आती है जब वह सूर्य की ओर अधिक झुकी होती है और एक बार ऐसी स्थिति आती है जब वह सूर्य के विपरीत झुकी रहती है । पहली स्थिति में दिन बड़ा होता है और दूसरी स्थिति में रात । लेकिन दो बार ऐसी स्थिति आती है जब पृथ्वी का झुकाव न सूर्य की ओर होता है न उसके विपरीत बल्कि वह मध्य में होती है । इन दोनों  स्थितियों में रात और दिन बराबर होते हैं और इन्हें विषुव अथवा इक्विनॉक्स  कहते हैं । अगर इक्विनोक्स के समय हम भूमध्य रेखा पर खड़े हों तो सूर्य ठीक हमारे सर के ऊपर होता है । वैसे दिन और रात बराबर होने कि स्थिति सैद्धांतिक है वास्तव में ऐसा होता नहीं है, फिर अलग अलग देशों में तिथियों में भी फर्क होता है ।

मैंने कहा " इसका अर्थ यह हुआ कि  पृथ्वी का एक गोलार्ध छह माह तक सूर्य की  ओर झुका रहता है और दूसरा गोलार्ध अगले छह माह तक । इसी वज़ह से उत्तर व दक्षिण ध्रुव पर छह माह का दिन और छह माह की रात होते हैं । और जब उत्तरी गोलार्ध में गर्मी होती है तो दक्षिणी गोलार्ध में ठण्ड पड़ती है उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले लोगों के लिए इक्विनॉक्स  के अगले छह माह दिन वाले होते हैं जबकि दक्षिण ध्रुव पर रहने वालों के लिए अगले छह माह रात के । मतलब इस विशेष दिन दोनों ध्रुव के लोगों को सूर्य का प्रकाश एक जैसा देखने को मिलता है ।

" बिलकुल ठीक " रवींद्र ने कहा " अब अयनांत या सोलिस्टीस  के बारे में बताता हूँ यह भी साल में दो बार आता है 21 जून को जब दिन सबसे बड़ा होता है और 21 दिसंबर को जब दिन सबसे छोटा होता है । ग्रेगोरियन वर्ष आरम्भ होने के समय अर्थात जनवरी में सूरज दक्षिणी गोलार्ध में होता है फिर वह उत्तरी गोलार्ध में जाना शुरू करता है मकर संक्रांत से । लेकिन दिसंबर आते आते फिर दक्षिणी गोलार्ध में पहुँच जाता है । इस तरह आते जाते सूर्य वर्ष में दो बार भूमध्य रेखा पर होता है । असल में सूर्य कहीं नहीं जाता वस्तुतः यह भी पृथ्वी के घूमने के कारण ही होता है । अयनांत को कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि जून में यदि उत्तर ध्रुव से देखा जाए तो सूर्य  सर्वोच्च ऊंचाई पर होता है इसे ग्रीष्म अयनांत  कहते है उसी तरह दिसंबर में यह सूर्य  दक्षिण ध्रुव से देखा जाए तो यह वहाँ से सर्वोच्च ऊंचाई पर होता है ऐसा दिसम्बर में होता है इसलिए उसे शीत अयनांत कहते हैं । जो एक ध्रुव के लिए ग्रीष्म अयनांत होता है वह दुसरे ध्रुव के लिए शीत अयनांत होता है

" मतलब यह कि अभी फरवरी का महिना है और दिन बड़े होते जा रहे हैं " मैंने निष्कर्ष दिया । इस वक़्त चाँद हमारे सामने था और हमारी यह गुस्ताख़ी थी कि हम चाँद की बात न करके सूरज की बात कर रहे थे । चाँद हमसे नाराज़ न हो जाए इसलिए मैंने अपने भीतर के वैज्ञानिक ,खगोलज्ञ और पुरातत्ववेत्ता से कहा .." तुम अभी चुप रहो " और कवि से कहा .. " कोई कविता सुनाओ " मैंने गुनगुनाना शुरू किया ..और बेसाख्ता मेरे मुँह से एक गीत फूट पड़ा..”ये पीला बासंतिया चांद…संघर्षों का ये दिया चांद… .चंदा ने कभी रातें पी थीं… रातों ने कभी पी लिया चांद । “ कभी क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय भोपाल में अध्ययन के दौरान कवि रमेश यादव से यह गीत सुना था।


“ बस कर यार । ” इतनी ठण्ड में तुझे बासंतिया चांद कहाँ से दिखाई दे रहा है ? रवीन्द्र भारद्वाज ने मेरे भीतर के कवि और गायक से पुरातत्ववेत्ता की तरह सवाल किया । मेरा रूमानियत का किला उसके इस डायनामाईट से ध्वस्त हो चुका था ..मैं भौंचक होकर उसकी ओर देखता रहा कि अचानक मुझे चुप कर वह खुद शुरू हो गया ‘शरद रैन मदमात विकल भई , पिउ के टेरत भामिनी कैसी, कैसी निकसी चांदनी कैसी..चांदनी चांदनी चांदनी....। उसके बाद हम लोग बसंत और शीत ऋतु के कालखंड और अयनांत पर बहस करते हुए अपने तम्बू में वापस आ गये । 

🔲 शरद कोकास 🔲

बुधवार, 10 जून 2020

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन-एक : चम्बल के पानी में चाँद


आज से पैंतीस साल पहले पांच हज़ार साल पुरानी उस ताम्राश्म युगीन सभ्यता में जाने का अवसर एक बार मुझे भी प्राप्त हुआ था । उन दिनों मैं विक्रम विश्वविद्यालय में ‘प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ में स्नातकोत्तर का छात्र था । इस संकाय के अंतर्गत हम लोग मुद्राशास्त्र, कला एवं स्थापत्य, प्रतिमाविज्ञान, अभिलेख शास्त्र आदि विषयों का अध्ययन कर रहे थे । इसके अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर शोध, म्यूजियम्स का अध्ययन और शैक्षणिक यात्राएं भी हमारे पाठ्यक्रम के अंतर्गत थीं । अन्य सैद्धांतिक विषयों की भांति ‘पुरातत्व’ विषय केवल सैद्धांतिक नहीं था अपितु उसमें  प्रायोगिक परीक्षा भी होती थी और उसके लिए किसी उत्खनन में शामिल होना अनिवार्य था ।

उन दिनों विक्रम विश्वविद्यालय के तत्वावधान में उज्जैन के निकट ‘दंगवाड़ा’ नामक स्थान पर हमारे पुरातत्व विषय के गुरु डॉ. वि. श्री. वाकणकर के मार्गदर्शन में एक उत्खनन शिविर लगा हुआ था । ‘दंगवाड़ा’  की इस साईट की खोज सन 1966 -67 में डॉ. वाकणकर ने उज्जैन के श्री विष्णु नाइक की सहायता से की थी तत्पश्चात पासलोद के श्री मांगीलाल पंड्या की सहायता से यहाँ पर्याप्त मुद्राएँ खोजी गईं । उसके पश्चात आठ दस बार यहाँ सर्वेक्षण किया गया और वर्ष 1978 में मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा ताम्राश्म युगीन अवशेषों की व्यापक खोज के उद्देश्य से यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया गया ।  वहीं एक माह रहकर एक पुरातत्ववेत्ता की तरह हमें अपना प्रायोगिक कार्य संपन्न करना था । यह कालखंड मेरे जीवन का अविस्मरणीय कालखंड रहा और इस दौरान मैं पुरातत्व के व्यावहारिक ज्ञान से समृद्ध हुआ    उन दिनों कुछ दिनों के लिए ही सही हम लोग छात्र से पुरातत्ववेत्ता बन गए थे ।

इस डायरी में उन्हीं  दिनों की घटनाएँ दर्ज हैं, इसमें पुरातत्व की तकनीकी बातें है,इतिहास के अनछुए पन्नों का अध्ययन है, छात्र जीवन की शरारतें  हैं, यात्राओं के विवरण हैं, ज्ञान और विज्ञान की बातें हैं, साहित्य पर बहस है, मजदूरों के दुःख और शोषण की कहानियां हैं । उम्मीद है कि बतकही के अंदाज़ में लिखी यह डायरी आपको अवश्य पसंद आयेगी ।

फरवरी माह की बस शुरुआत ही हुई थी । सर्दियाँ उस साल कुछ देर तक ठहर गई थीं इसलिए बसंती हवाओं के लिए उन्होंने अपने दरवाज़े पर सख्त़ मुमानियत की तख्ती लगा दी थी । फिर भी सूर्य अपनी समय सारिणी के अनुसार ही चल रहा था । हमारे दंगवाड़ा पहुँचते पहुँचते दरख्तों के लम्बे सायों के पीछे से अँधेरा झांकने लगा था । दंगवाड़ा ग्राम की मुख्य सड़क पर एक चाय की टपरी वाले से पूछने पर पता चला कि वह टीला जिस पर विक्रम विश्वविद्यालय के तत्वावधान में खुदाई हो रही है , गाँव से दो किलोमीटर भीतर जंगल में है । हम लोग जिस वाहन में थे, वह युनिवर्सिटी की एक पुरानी जीप थी । हमने ड्राईवर से जानना चाहा कि गाडी वहाँ तक जाएगी या नहीं या फिर हमें अपना बिस्तरबन्द लादकर वहाँ तक पैदल ही जाना होगा ।

ड्राइवर खुशीलाल हंसने लगा “ भैया, मैं चार बार वहाँ तक जा चुका हूँ ,जंगल में भी मैंने अपनी गाडी जाने लायक रास्ता बना ही लिया है । आपको किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं है । चलो फिर ठीक है । ” रवीन्द्र भारद्वाज ने उछलकर कहा । हम लोगों ने चैन की साँस ली । उस दिन पूर्णिमा थी और फरवरी की उस धुंधलाती हुई शाम के विदा लेने की प्रतीक्षा करता हुआ बड़ा सा चांद बस निकलने ही वाला था । डूबते सूरज की मद्धम रोशनी में भी जंगल साफ दिखाई दे रहा था । खुशीलाल ने अपना बनाया रास्ता पहचानकर कैम्प तक गाडी पहुँचा दी ।

अद्भुत द्रश्य था वहां । जाने कितने बरगद अपना आंचल फैलाये खड़े थे और उनके नीचे सफ़ेद तम्बुओं की एक कतार थी । तम्बुओं के करीब कुछ भीड़ सी दिखाई दी । गाड़ी से उतरकर देखा तो एक मज़दूर औरत ज़मीन पर लेटी हुई है और लोग उसे घेरे खड़े हैं । पता चला कि शाम को वह काम खत्म होने के पश्चात अचानक बेहोश होकर गिर पड़ी थी और उसके साथी गाँव से किसी झाड़-फूँक वाले को लेकर आ गए थे। डॉ.वाकणकर भी वहीं खड़े-खड़े उनसे बातें  कर रहे थे । हम सभी छात्रों ने उन्हें प्रणाम किया । उन्होंने नमस्ते का जवाब देते हुए अपनी बात ज़ारी रखी..” कईं भूत- वूत नई लग्यो है..ईको उपवास थो, न ऊपर से इनने लंगन कर ल्यो, अणि लिए  अणे चक्कर अईया, अबार होश में अई जांगा..” “ नई बा साब ” ओझा अपनी इज़्ज़त बचाना चाहता था “ अणि टीला में..जणि टीला की खुदाई कर रेया हो,उणमें लोगाँ की आत्मा रेवे हे, अब खुदई से वे बाहर अईगी हे, ओर उणी में से कोई आत्मा लागी गी हे..आज तो पूर्णिमा हे ..टांका का दिन..”

डॉ.वाकणकर हँसने लगे “ यदि ऐसा होता तो सबसे पहले आत्मा को मुझे पकडना चाहिये था , मैं तो ऐसे कई टीलों की , कब्रस्तानों की खुदाई करवा चुका हूँ , और खोपडियाँ और कंकाल तो बिस्तर में भी मेरे साथ रहते हैं,कोई आत्मा - वात्मा नहीं होती  , सब फालतू बात है ...” वे कह ही रहे थे कि सबने देखा वह स्त्री होश में आ रही है । उन्होंने  कहा “ देखो , यह होश में आ गई है , इसे घर ले जाओ ठीक से खाना - वाना खिलाओ.. सब ठीक हो जाएगा । और आइन्दा से फालतू उपवास करने की कोई ज़रूरत नहीं । “ इसके बाद वे हम लोगों से मुखातिब हुए… “ चलो रे सज्जनों, तुम लोगों को तुम्हारे तम्बू दिखा दें ।”  मैं रवीन्द्र, अजय,अशोक और राममिलन  अपना अपना डेरा-डंडा उठाकर उनके साथ तम्बुओं की ओर चल दिये ।


शरद कोकास 

एक पुरातत्त्ववेत्ता की डायरी -भूमिका

एक पुरातत्त्ववेत्ता की डायरी

शरद कोकास
भूमिका

उत्खनन स्थल का एक दृश्य
उत्खनन स्थल का एक दृश्य 
  नुष्य का यह सहज स्वभाव है कि वह वर्तमान में   जीते हुए भी कभी कभी अतीत में अथवा भविष्य में  जीने की कल्पना करता है ।  कभी न कभी यह ख़याल   हर एक के मन में आता है कि वह कुछ बरस पहले के  समय में चला जाए ताकि वह एक नए सिरे से वहाँ से  अपना जीवन प्रारम्भ कर सके , जो उस समय अप्राप्य  था उसे   प्राप्त कर सके, अपनी गलतियाँ सुधार सके ,  दुखों को दूर कर सके   और उन सुखों को भोग सके जिन्हें वह भोग नहीं पाया था । ।   ऐसा केवल कल्पना में संभव है । आज तक कोई ऐसी टाइम मशीन  नहीं बनी है कि मनुष्य उसमे बैठ जाए और सुदूर अतीत में पहुँच जाए । विज्ञान के बढ़ते चरणों के बावज़ूद यह संभव नहीं है, इसलिए कि जो बीत चुका है वह ठीक उसी तरह दोबारा कभी घटित नहीं होता । समय की अपनी एक गति होती है और बीते हुए समय में शामिल होना किसी के लिए संभव नहीं है । जब हमें अपने व्यतीत किये गए जीवन में शामिल होना संभव नहीं है तो उस समय में शामिल होना तो बिलकुल ही असम्भव है जो समय हमने नहीं देखा है । हम केवल उपलब्ध विवरणों के आधार पर उस दृश्य का पुनर्निर्माण कर सकते हैं । पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकार इसमें हमारी सहायता करते हैं  । मनुष्य भौतिक रूप से भले ही उन दिनों में नहीं पहुँच सकता लेकिन उस कालखंड के ध्वस्त अवशेषों से उस सभ्यता का एक चित्र निर्माण कर सकता है  ज़मीन की परतों में दबी उस सभ्यता की साँसें  सुन सकता है ।

मनुष्य जाति के विकास की यह यात्रा उसके उद्भव से प्रारंभ हुई जो आज तक लगातार जारी है । इस बीच उसने बहुत कठिन समय देखा है । अपनी जैविक इच्छाओं को लेकर पैदा हुआ मनुष्य भूख के इशारे पर नित नई खोज करता रहा ।  आज के सुविधा संपन्न मनुष्य का जीवन देखते हुए मुझे अक्सर उस मनुष्य का ख़याल आता है जिसका जीवन प्रकृति की कृपा पर अवलंबित था जो कभी भी किसी जंगली जानवर का भोजन बन जाता था या किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाता था । लेकिन इन तमाम कठिनाइयों के बावज़ूद उस मनुष्य ने हार नहीं मानी और प्रकृति से द्वंद्व करते हुए, हिमयुगों में समाप्त हो जाने के खतरों से बचते हुए अपनी विकास यात्रा जारी रखी इसलिए कि उसके पेट के साथ उसके आश्रितों का पेट जुड़ा था । यह वह दौर था जब व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज नामक संस्था का निर्माण जारी था । यह पांच हज़ार साल पुरानी बात है जब मनुष्य के पास औज़ार बनाने के लिए उपयुक्त  पत्थरों का भण्डार समाप्त होने की कगार पर था उसने  ताम्बे की खोज कर ली थी और अब वह पत्थरों के युग से ताम्बे के युग में प्रवेश कर रहा था । लेकिन उसके सामने अब नई चुनौतियाँ थीं । वह यायावरी की ज़िंदगी से तंग आकर एक स्थायी जीवन बिताना चाहता था । प्रकृति ने उसे ऐसे अवसर प्रदान किये और उसकी बिखरी हुई ज़िन्दगी धीरे धीरे बसने लगी । पुरापाषाण युग से निकल कर आने वाले मनुष्य के जीवन के इस कालखंड को ताम्राश्म युगीन सभ्यता का नाम दिया गया ।


जीवन अपने संप्रत्यय में स्थायी होते हुए भी व्यक्तिगत रूप में स्थायी नहीं होता । जैसे मनुष्य की मृत्यु होती है वैसे ही सभ्यताओं का भी विनाश होता है । एक सभ्यता के पश्चात दूसरी सभ्यता का आगमन होता है । एक बस्ती मिट जाती है और उसके अवशेषों पर दूसरी बस्ती का निर्माण होता है । समय की चादर उन अवशेषों को मिटटी में गहरे दफ्न कर देती है । अगर हम उस सभ्यता तक जाना भी चाहें तो एकाएक उस तक नहीं पहुँच सकते । पहले हमारा सामना बाद की सभ्यताओं से होता है और उसके पश्चात हम उस प्राचीन सभ्यता तक पहुँच सकते हैं । एक पुरातत्ववेत्ता कालक्रमानुसार अतीत की खोज करते हुए यही काम करता है । वह परत दर परत ज़मीन के भीतर पहुँचते हुए अंततः उस सभ्यता तक पहुँच जाता है जिसके पास इस मनुष्य जाति के प्रारंभिक स्वप्न थे ।

शरद कोकास 


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